"भारत का इतिहास पाषाण काल": अवतरणों में अंतर
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यूनानी भाषा में ''Palaios'' प्राचीन एवं ''Lithos'' पाषाण के अर्थ में प्रयुक्त होता था। इन्हीं शब्दों के आधार पर ''Paleolithic Age'' (पाषाणकाल) शब्द बना । यह काल आखेटक एवं खाद्य-संग्रहण काल के रूप में भी जाना जाता है। अभी तक [[भारत]] में पुरा पाषाणकालीन मनुष्य के अवशेष कहीं से भी नहीं मिल पाये हैं, जो कुछ भी अवशेष के रूप में मिला है, वह है उस समय प्रयोग में लाये जाने वाले पत्थर के उपकरण। प्राप्त उपकरणों के आधार पर यह अनुमान लगाया जा रहा है कि ये लगभग 2,50,000 ई.पू. के होंगे। अभी हाल में [[महाराष्ट्र]] के 'बोरी' नामक स्थान खुदाई में मिले अवशेषों से ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि इस [[पृथ्वी]] पर 'मनुष्य' की उपस्थिति लगभग 14 लाख वर्ष पुरानी है। गोल पत्थरों से बनाये गये प्रस्तर उपकरण मुख्य रूप से सोहन नदी घाटी में मिलते हैं। | यूनानी भाषा में ''Palaios'' प्राचीन एवं ''Lithos'' पाषाण के अर्थ में प्रयुक्त होता था। इन्हीं शब्दों के आधार पर ''Paleolithic Age'' (पाषाणकाल) शब्द बना । यह काल आखेटक एवं खाद्य-संग्रहण काल के रूप में भी जाना जाता है। अभी तक [[भारत]] में पुरा पाषाणकालीन मनुष्य के अवशेष कहीं से भी नहीं मिल पाये हैं, जो कुछ भी अवशेष के रूप में मिला है, वह है उस समय प्रयोग में लाये जाने वाले पत्थर के उपकरण। प्राप्त उपकरणों के आधार पर यह अनुमान लगाया जा रहा है कि ये लगभग 2,50,000 ई.पू. के होंगे। अभी हाल में [[महाराष्ट्र]] के 'बोरी' नामक स्थान खुदाई में मिले अवशेषों से ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि इस [[पृथ्वी]] पर 'मनुष्य' की उपस्थिति लगभग 14 लाख वर्ष पुरानी है। गोल पत्थरों से बनाये गये प्रस्तर उपकरण मुख्य रूप से [[सोहन नदी]] घाटी में मिलते हैं। | ||
सामान्य पत्थरों के कोर तथा फ़्लॅक्स प्रणाली द्वारा बनाये गये औजार मुख्य रूप से मद्रास, वर्तमान [[चेन्नई]] में पाये गये हैं। इन दोनों प्रणालियों से निर्मित प्रस्तर के औजार सिंगरौली घाटी, [[मिर्ज़ापुर]] एंवं बेलन घाटी, [[इलाहाबाद]] में मिले हैं। [[मध्य प्रदेश]] के [[भोपाल]] नगर के पास [[भीमबेटका गुफ़ाएँ भोपाल|भीम बेटका]] में मिली पर्वत गुफायें एवं शैलाश्रृय भी महत्त्वपूर्ण हैं। इस समय के मनुष्यों का जीवन पूर्णरूप से शिकार पर निर्भर था। वे [[आग|अग्नि]] के प्रयोग से अनभिज्ञ थे। सम्भवतः इस समय के मनुष्य नीग्रेटो | सामान्य पत्थरों के कोर तथा फ़्लॅक्स प्रणाली द्वारा बनाये गये औजार मुख्य रूप से मद्रास, वर्तमान [[चेन्नई]] में पाये गये हैं। इन दोनों प्रणालियों से निर्मित प्रस्तर के औजार सिंगरौली घाटी, [[मिर्ज़ापुर]] एंवं बेलन घाटी, [[इलाहाबाद]] में मिले हैं। [[मध्य प्रदेश]] के [[भोपाल]] नगर के पास [[भीमबेटका गुफ़ाएँ भोपाल|भीम बेटका]] में मिली पर्वत गुफायें एवं शैलाश्रृय भी महत्त्वपूर्ण हैं। इस समय के मनुष्यों का जीवन पूर्णरूप से शिकार पर निर्भर था। वे [[आग|अग्नि]] के प्रयोग से अनभिज्ञ थे। सम्भवतः इस समय के मनुष्य नीग्रेटो ''Negreto'' जाति के थे। भारत में पुरापाषाण युग को औजार-प्रौद्योगिकी के आधार पर तीन अवस्थाओं में बांटा जा एकता हैं। यह अवस्थाएं हैं- | ||
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*मध्य पुरापाषाण युग के महत्पूर्ण स्थल हैं - | *मध्य पुरापाषाण युग के महत्पूर्ण स्थल हैं - | ||
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#नेवासा | #[[नेवासा]] | ||
#पुष्कर | #[[पुष्कर]] | ||
#ऊपरी सिंध की रोहिरी पहाड़ियां | #ऊपरी [[सिंध प्रदेश|सिंध]] की रोहिरी पहाड़ियां | ||
#नर्मदा के किनारे स्थित | #[[नर्मदा]] के किनारे स्थित समानापुर | ||
*पुरापाषाण काल में प्रयुक्त होने वाले प्रस्तर उपकरणों के आकार एवं जलवायु में होने वाले परिवर्तन के आधार पर इस काल को हम तीन वर्गो में विभाजित कर सकते हैं।- | *पुरापाषाण काल में प्रयुक्त होने वाले प्रस्तर उपकरणों के आकार एवं जलवायु में होने वाले परिवर्तन के आधार पर इस काल को हम तीन वर्गो में विभाजित कर सकते हैं।- | ||
#निम्न पुरा पाषाण काल (2,50,000-1,00,000 ई.पू.) | #निम्न पुरा पाषाण काल (2,50,000-1,00,000 ई.पू.) | ||
#मध्य पुरापाषाण काल (1,00,000- 40,000 ई.पू.) | #मध्य पुरापाषाण काल (1,00,000- 40,000 ई.पू.) | ||
#उच्च पुरापाषाण काल (40,000- 10,000 ई.पू.) | #उच्च पुरापाषाण काल (40,000- 10,000 ई.पू.) | ||
==मध्य पाषाण काल== | ==मध्य पाषाण काल== | ||
इस काल में प्रयुक्त होने वाले उपकरण आकार में बहुत छोटे होते थे, जिन्हें | इस काल में प्रयुक्त होने वाले उपकरण आकार में बहुत छोटे होते थे, जिन्हें लघु पाषाणोपकरण ''माइक्रोलिथ'' कहते थे। पुरापाषाण काल में प्रयुक्त होने वाले कच्चे पदार्थ ''क्वार्टजाइट'' के स्थान पर मध्य पाषाण काल में ''जेस्पर'', ''एगेट'', ''चर्ट'' और ''चालसिडनी'' जैसे पदार्थ प्रयुक्त किये गये। इस समय के प्रस्तर उपकरण [[राजस्थान]], [[मालवा]], [[गुजरात]], [[पश्चिम बंगाल]], [[उड़ीसा]], [[आंध्र प्रदेश]] एवं [[मैसूर]] में पाये गये हैं। अभी हाल में ही कुछ अवशेष मिर्जापुर के सिंगरौली, [[बांदा]] एवं विन्ध्य क्षेत्र से भी प्राप्त हुए हैं। मध्य पाषाणकालीन मानव अस्थि-पंजर के कुछ अवशेष [[प्रतापगढ़ ज़िला|प्रतापगढ़]], [[उत्तर प्रदेश]] के [[सराय नाहर राय]] तथा महदहा नामक स्थान से प्राप्त हुए हैं। मध्य पाषाणकालीन जीवन भी शिकार पर अधिक निर्भर था। इस समय तक लोग पशुओं में गाय, बैल, भेड़, घोड़े एवं भैंसों का शिकार करने लगे थे। | ||
जीवित व्यक्ति के अपरिवर्तित जैविक गुणसूत्रों के प्रमाणों के आधार पर [[भारत]] में मानव का सबसे पहला प्रमाण [[केरल]] से मिला है जो '''सत्तर हज़ार साल पुराना होने की संभावना''' है। इस व्यक्ति के गुणसूत्र अफ़्रीक़ा के प्राचीन मानव के जैविक गुणसूत्रों (जीन्स) से पूरी तरह मिलते हैं।<ref>देखें: '''शोध ग्रंथ''' {{cite book |last=वेल्स|first=स्पेन्सर|url =http://books.google.ca/books?id=WAsKm-_zu5sC&lpg=PP1&dq=The%20Journey%20of%20Man&pg=PP1#v=onepage&q&f=true |title=अ जेनेटिक ओडिसी|year=2002|publisher=प्रिन्सटन यूनिवर्सिटी प्रॅस, न्यू जर्सी, सं.रा.अमरीका|language=[[अंग्रेज़ी भाषा|अंग्रेज़ी]]||id=ISBN 0-691-11532-X}} </ref> यह काल वह है जब [[अफ़्रीक़ा]] से आदि मानव ने विश्व के अनेक हिस्सों में बसना प्रारम्भ किया जो पचास से सत्तर हज़ार साल पहले का माना जाता है। कृषि संबंधी प्रथम साक्ष्य 'साम्भर' [[राजस्थान]] में पौधे बोने का है जो ईसा से सात हज़ार वर्ष पुराना है। 3000 ई. पूर्व तथा 1500 ई. पूर्व के बीच [[सिंधु घाटी]] में एक उन्नत सभ्यता वर्तमान थी, जिसके अवशेष [[मोहन जोदड़ो]] (मुअन-जो-दाड़ो) और [[हड़प्पा]] में मिले हैं। विश्वास किया जाता है कि भारत में [[आर्य|आर्यों]] का प्रवेश बाद में हुआ। [[वेद|वेदों]] में हमें उस काल की सभ्यता की एक झाँकी मिलती है। | |||
मध्य पाषाण काल के अन्तिम चरण में कुछ साक्ष्यों के आधार पर प्रतीत होता है कि लोग कृषि एवं पशुपालन की ओर आकर्षित हो रहे थे इस समय मिली समाधियों से स्पष्ट होता है कि लोग अन्त्येष्टि क्रिया से परिचित थे। मानव अस्थिपंजर के साथ कहीं-कहीं पर कुत्ते के अस्थिपंजर भी मिले है जिनसे प्रतीत होता है कि ये लोग मनुष्य के प्राचीन सहचर थे। | मध्य पाषाण काल के अन्तिम चरण में कुछ साक्ष्यों के आधार पर प्रतीत होता है कि लोग कृषि एवं पशुपालन की ओर आकर्षित हो रहे थे इस समय मिली समाधियों से स्पष्ट होता है कि लोग अन्त्येष्टि क्रिया से परिचित थे। मानव अस्थिपंजर के साथ कहीं-कहीं पर कुत्ते के अस्थिपंजर भी मिले है जिनसे प्रतीत होता है कि ये लोग मनुष्य के प्राचीन काल से ही सहचर थे। | ||
बागोर और आदमगढ़ में छठी शताब्दी ई.पू. के आस-पास मध्य पाषाण युगीन लोगों द्वारा भेड़े, | [[बागोर]] और [[आदमगढ़]] में छठी शताब्दी ई.पू. के आस-पास मध्य पाषाण युगीन लोगों द्वारा भेड़े, बकरियां रख जाने का साक्ष्य मिलता है। | ||
मध्य पाषाण युगीन संस्कृति के महत्त्वपूर्ण स्थल हैं - | मध्य पाषाण युगीन संस्कृति के महत्त्वपूर्ण स्थल हैं - | ||
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==नव पाषाण अथवा उत्तर पाषाण काल== | ==नव पाषाण अथवा उत्तर पाषाण काल== | ||
साधरणतया इस काल की सीमा 3500 ई.पू. से 1000 ई.पू. के बीच मानी जाती है। यूनानी भाषा का Neo शब्द नवीन के अर्थ में प्रयुक्त होता है। इसलिए इस काल को ‘नवपाषाण काल‘ भी कहा जाता है। इस काल की सभ्यता [[भारत]] के विशाल क्षेत्र में फैली हुई थी। सर्वप्रथम 1860 ई. में 'ली मेसुरियर' | साधरणतया इस काल की सीमा 3500 ई.पू. से 1000 ई.पू. के बीच मानी जाती है। यूनानी भाषा का ''Neo'' शब्द नवीन के अर्थ में प्रयुक्त होता है। इसलिए इस काल को ‘नवपाषाण काल‘ भी कहा जाता है। इस काल की सभ्यता [[भारत]] के विशाल क्षेत्र में फैली हुई थी। सर्वप्रथम 1860 ई. में 'ली मेसुरियर' ''Le Mesurier'' ने इस काल का प्रथम प्रस्तर उपकरण [[उत्तर प्रदेश]] की [[टौंस नदी]] की घाटी से प्राप्त किया। इसके बाद 1872 ई. में 'निबलियन फ़्रेज़र' ने [[कर्नाटक]] के '[[बेलारी]]' क्षेत्र को दक्षिण भारत के उत्तर-पाषाण कालीन सभ्यता का मुख्य स्थल घोषित किया। इसके अतिरिक्त इस सभ्यता के मुख्य केन्द्र बिन्दु हैं - [[कश्मीर]], [[सिंध प्रदेश]], [[बिहार]], [[झारखंड]], [[पश्चिम बंगाल|बंगाल]], [[उत्तर प्रदेश]], [[आंध्र प्रदेश]], [[छत्तीसगढ़]], [[असम]] आदि। | ||
इस समय प्राप्त प्रस्तर | इस समय प्राप्त प्रस्तर औज़ार गहरे ट्रेप ''Dark Traprock'' के बने थे जिन पर एक विशेष प्रकार की पॉलिश लगी होती थी। नव पाषाण काल में [[चावल]] की खेती का प्राचीनतम साक्ष्य [[इलाहाबाद]] के नज़दीक ‘[[कोल्डिहवा]]‘ नामक स्थान से मिलता है, जिसका समय 7000-6000 ई.पू. माना जाता है। [[धान]] के अतिरिक्त [[महगड़ा]] में भी खेती का साक्ष्य मिलता है। [[महगड़ा]] में एक पशुवाड़ा भी मिला है। इस समय तक पाषाणकालीन सभ्यता काफ़ी विकसित हो गयी थी। अब मनुष्य [[आखेटक]], पशुपालक से आगे निकल कर खाद्य पदार्थों का [[उत्पादक]] एवं [[उपभोक्ता]] भी बन गया। अब वह [[ख़ानाबदोश]] वाले जीवन को त्याग कर स्थायित्वपूर्ण जीवन की ओर आकर्षित होने लगा। उसे बर्तन बनाने की तकनीक का भी ज्ञान हो गया था। सम्भवतः वस्त्रों की जगह जानवरों की खालों का प्रयोग करते थे। नव पाषाण काल की प्राप्त कुछ पर्वत [[कन्दरा|कन्दराओं और बर्तनों से चित्रकारी का आभास होता है। | ||
कृषि कर्म का प्रारम्भ तो नव पाषाण काल में अवश्य हुआ पर सर्वप्रथम किस स्थान पर कृषि कर्म प्रारम्भ हुआ यह विवाद का विषय है। 1977 से चल रही खुदाई में अब तक प्राप्त साक्ष्यों से ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि [[सिंध]] और [[बलूचिस्तान]] की सीमा पर स्थित 'कच्छी मैदान' में 'बोलन नदी' के किनारे 'मेहरगढ़' नामक स्थान पर कृषि कर्म का प्रारम्भ हुआ। इस सभ्यता के लोग [[आग|अग्नि]] का प्रयोग प्रारम्भ कर दिये थे। 'कुम्भकारी' सर्वप्रथम इसी काल में दृष्टिगोचर होती है। नव पाषाणकालीन महत्त्वपूर्ण स्थल हैं - | [[कृषि]] कर्म का प्रारम्भ तो नव पाषाण काल में अवश्य हुआ पर सर्वप्रथम किस स्थान पर कृषि कर्म प्रारम्भ हुआ यह विवाद का विषय है। 1977 से चल रही खुदाई में अब तक प्राप्त साक्ष्यों से ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि [[सिंध]] और [[बलूचिस्तान]] की सीमा पर स्थित 'कच्छी मैदान' में 'बोलन नदी' के किनारे '[[मेहरगढ़]]' नामक स्थान पर कृषि कर्म का प्रारम्भ हुआ। इस सभ्यता के लोग [[आग|अग्नि]] का प्रयोग प्रारम्भ कर दिये थे। '[[कुम्भकारी]]' सर्वप्रथम इसी काल में दृष्टिगोचर होती है। नव पाषाणकालीन महत्त्वपूर्ण स्थल हैं - | ||
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14:47, 6 अक्टूबर 2011 का अवतरण
समस्त इतिहास को तीन कालों में विभाजित किया जा एकता है-
- प्राक्इतिहास या प्रागैतिहासिक काल Prehistoric Age
- आद्य ऐतिहासिक काल Proto-historic Age
- ऐतिहासिक काल Historic Age
प्राक् इतिहास या प्रागैतिहासिक काल
इस काल में मनुष्य ने घटनाओं का कोई लिखित विवरण नहीं रखा। इस काल में विषय में जो भी जानकारी मिलती है वह पाषाण के उपकरणों, मिट्टी के बर्तनों, खिलौने आदि से प्राप्त होती है।
आद्य ऐतिहासिक काल
इस काल में लेखन कला के प्रचलन के बाद भी उपलब्ध लेख पढ़े नहीं जा सके हैं।
ऐतिहासिक काल
मानव विकास के उस काल को इतिहास कहा जाता है, जिसके लिए लिखित विवरण उपलब्ध है। मनुष्य की कहानी आज से लगभग दस लाख वर्ष पूर्व प्रारम्भ होती है, पर ‘ज्ञानी मानव‘ होमो सैपियंस Homo sapiens का प्रवेश इस धरती पर आज से क़रीब तीस या चालीस हज़ार वर्ष पहले ही हुआ।
पाषाण काल
यह काल मनुष्य की सभ्यता का प्रारम्भिक काल माना जाता है। इस काल को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है। -
- पुरा पाषाण काल Paleolithic Age
- मध्य पाषाण काल Mesolithic Age एवं
- नव पाषाण काल अथवा उत्तर पाषाण काल Neolithic Age
पुरापाषाण काल
यूनानी भाषा में Palaios प्राचीन एवं Lithos पाषाण के अर्थ में प्रयुक्त होता था। इन्हीं शब्दों के आधार पर Paleolithic Age (पाषाणकाल) शब्द बना । यह काल आखेटक एवं खाद्य-संग्रहण काल के रूप में भी जाना जाता है। अभी तक भारत में पुरा पाषाणकालीन मनुष्य के अवशेष कहीं से भी नहीं मिल पाये हैं, जो कुछ भी अवशेष के रूप में मिला है, वह है उस समय प्रयोग में लाये जाने वाले पत्थर के उपकरण। प्राप्त उपकरणों के आधार पर यह अनुमान लगाया जा रहा है कि ये लगभग 2,50,000 ई.पू. के होंगे। अभी हाल में महाराष्ट्र के 'बोरी' नामक स्थान खुदाई में मिले अवशेषों से ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि इस पृथ्वी पर 'मनुष्य' की उपस्थिति लगभग 14 लाख वर्ष पुरानी है। गोल पत्थरों से बनाये गये प्रस्तर उपकरण मुख्य रूप से सोहन नदी घाटी में मिलते हैं।
सामान्य पत्थरों के कोर तथा फ़्लॅक्स प्रणाली द्वारा बनाये गये औजार मुख्य रूप से मद्रास, वर्तमान चेन्नई में पाये गये हैं। इन दोनों प्रणालियों से निर्मित प्रस्तर के औजार सिंगरौली घाटी, मिर्ज़ापुर एंवं बेलन घाटी, इलाहाबाद में मिले हैं। मध्य प्रदेश के भोपाल नगर के पास भीम बेटका में मिली पर्वत गुफायें एवं शैलाश्रृय भी महत्त्वपूर्ण हैं। इस समय के मनुष्यों का जीवन पूर्णरूप से शिकार पर निर्भर था। वे अग्नि के प्रयोग से अनभिज्ञ थे। सम्भवतः इस समय के मनुष्य नीग्रेटो Negreto जाति के थे। भारत में पुरापाषाण युग को औजार-प्रौद्योगिकी के आधार पर तीन अवस्थाओं में बांटा जा एकता हैं। यह अवस्थाएं हैं-
काल | अवस्थाएं |
---|---|
1- निम्न पुरापाषाण काल | हस्तकुठार Hand-axe और विदारणी Cleaver उद्योग |
2- मध्य पुरापाषाण काल |
शल्क (फ़्लॅक्स) से बने औज़ार |
3- उच्च पुरापाषाण काल |
शल्कों और फ़लकों (ब्लेड) पर बने औजार |
- पूर्व पुरापाषाण काल के महत्पूर्ण स्थल हैं -
स्थल | क्षेत्र |
---|---|
1- पहलगाम | कश्मीर |
2- वेनलघाटी |
इलाहाबाद ज़िले में, उत्तर प्रदेश |
3- भीमबेटका और आदमगढ़ | |
4- 16 आर और सिंगी तालाब |
नागौर ज़िले में, राजस्थान |
5- नेवासा | |
6- हुंसगी | |
7- अट्टिरामपक्कम |
- मध्य पुरापाषाण युग के महत्पूर्ण स्थल हैं -
- पुरापाषाण काल में प्रयुक्त होने वाले प्रस्तर उपकरणों के आकार एवं जलवायु में होने वाले परिवर्तन के आधार पर इस काल को हम तीन वर्गो में विभाजित कर सकते हैं।-
- निम्न पुरा पाषाण काल (2,50,000-1,00,000 ई.पू.)
- मध्य पुरापाषाण काल (1,00,000- 40,000 ई.पू.)
- उच्च पुरापाषाण काल (40,000- 10,000 ई.पू.)
मध्य पाषाण काल
इस काल में प्रयुक्त होने वाले उपकरण आकार में बहुत छोटे होते थे, जिन्हें लघु पाषाणोपकरण माइक्रोलिथ कहते थे। पुरापाषाण काल में प्रयुक्त होने वाले कच्चे पदार्थ क्वार्टजाइट के स्थान पर मध्य पाषाण काल में जेस्पर, एगेट, चर्ट और चालसिडनी जैसे पदार्थ प्रयुक्त किये गये। इस समय के प्रस्तर उपकरण राजस्थान, मालवा, गुजरात, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश एवं मैसूर में पाये गये हैं। अभी हाल में ही कुछ अवशेष मिर्जापुर के सिंगरौली, बांदा एवं विन्ध्य क्षेत्र से भी प्राप्त हुए हैं। मध्य पाषाणकालीन मानव अस्थि-पंजर के कुछ अवशेष प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश के सराय नाहर राय तथा महदहा नामक स्थान से प्राप्त हुए हैं। मध्य पाषाणकालीन जीवन भी शिकार पर अधिक निर्भर था। इस समय तक लोग पशुओं में गाय, बैल, भेड़, घोड़े एवं भैंसों का शिकार करने लगे थे।
जीवित व्यक्ति के अपरिवर्तित जैविक गुणसूत्रों के प्रमाणों के आधार पर भारत में मानव का सबसे पहला प्रमाण केरल से मिला है जो सत्तर हज़ार साल पुराना होने की संभावना है। इस व्यक्ति के गुणसूत्र अफ़्रीक़ा के प्राचीन मानव के जैविक गुणसूत्रों (जीन्स) से पूरी तरह मिलते हैं।[1] यह काल वह है जब अफ़्रीक़ा से आदि मानव ने विश्व के अनेक हिस्सों में बसना प्रारम्भ किया जो पचास से सत्तर हज़ार साल पहले का माना जाता है। कृषि संबंधी प्रथम साक्ष्य 'साम्भर' राजस्थान में पौधे बोने का है जो ईसा से सात हज़ार वर्ष पुराना है। 3000 ई. पूर्व तथा 1500 ई. पूर्व के बीच सिंधु घाटी में एक उन्नत सभ्यता वर्तमान थी, जिसके अवशेष मोहन जोदड़ो (मुअन-जो-दाड़ो) और हड़प्पा में मिले हैं। विश्वास किया जाता है कि भारत में आर्यों का प्रवेश बाद में हुआ। वेदों में हमें उस काल की सभ्यता की एक झाँकी मिलती है।
मध्य पाषाण काल के अन्तिम चरण में कुछ साक्ष्यों के आधार पर प्रतीत होता है कि लोग कृषि एवं पशुपालन की ओर आकर्षित हो रहे थे इस समय मिली समाधियों से स्पष्ट होता है कि लोग अन्त्येष्टि क्रिया से परिचित थे। मानव अस्थिपंजर के साथ कहीं-कहीं पर कुत्ते के अस्थिपंजर भी मिले है जिनसे प्रतीत होता है कि ये लोग मनुष्य के प्राचीन काल से ही सहचर थे।
बागोर और आदमगढ़ में छठी शताब्दी ई.पू. के आस-पास मध्य पाषाण युगीन लोगों द्वारा भेड़े, बकरियां रख जाने का साक्ष्य मिलता है। मध्य पाषाण युगीन संस्कृति के महत्त्वपूर्ण स्थल हैं -
स्थल | क्षेत्र |
---|---|
1- बागोर | राजस्थान |
2- लंधनाज |
गुजरात |
3- सरायनाहरराय, चोपानी, मार्डो, महदहा व दमदमा |
उत्तर प्रदेश |
4- भीमबेटका, आदमगढ़ |
मध्य प्रदेश |
नव पाषाण अथवा उत्तर पाषाण काल
साधरणतया इस काल की सीमा 3500 ई.पू. से 1000 ई.पू. के बीच मानी जाती है। यूनानी भाषा का Neo शब्द नवीन के अर्थ में प्रयुक्त होता है। इसलिए इस काल को ‘नवपाषाण काल‘ भी कहा जाता है। इस काल की सभ्यता भारत के विशाल क्षेत्र में फैली हुई थी। सर्वप्रथम 1860 ई. में 'ली मेसुरियर' Le Mesurier ने इस काल का प्रथम प्रस्तर उपकरण उत्तर प्रदेश की टौंस नदी की घाटी से प्राप्त किया। इसके बाद 1872 ई. में 'निबलियन फ़्रेज़र' ने कर्नाटक के 'बेलारी' क्षेत्र को दक्षिण भारत के उत्तर-पाषाण कालीन सभ्यता का मुख्य स्थल घोषित किया। इसके अतिरिक्त इस सभ्यता के मुख्य केन्द्र बिन्दु हैं - कश्मीर, सिंध प्रदेश, बिहार, झारखंड, बंगाल, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, असम आदि।
इस समय प्राप्त प्रस्तर औज़ार गहरे ट्रेप Dark Traprock के बने थे जिन पर एक विशेष प्रकार की पॉलिश लगी होती थी। नव पाषाण काल में चावल की खेती का प्राचीनतम साक्ष्य इलाहाबाद के नज़दीक ‘कोल्डिहवा‘ नामक स्थान से मिलता है, जिसका समय 7000-6000 ई.पू. माना जाता है। धान के अतिरिक्त महगड़ा में भी खेती का साक्ष्य मिलता है। महगड़ा में एक पशुवाड़ा भी मिला है। इस समय तक पाषाणकालीन सभ्यता काफ़ी विकसित हो गयी थी। अब मनुष्य आखेटक, पशुपालक से आगे निकल कर खाद्य पदार्थों का उत्पादक एवं उपभोक्ता भी बन गया। अब वह ख़ानाबदोश वाले जीवन को त्याग कर स्थायित्वपूर्ण जीवन की ओर आकर्षित होने लगा। उसे बर्तन बनाने की तकनीक का भी ज्ञान हो गया था। सम्भवतः वस्त्रों की जगह जानवरों की खालों का प्रयोग करते थे। नव पाषाण काल की प्राप्त कुछ पर्वत [[कन्दरा|कन्दराओं और बर्तनों से चित्रकारी का आभास होता है।
कृषि कर्म का प्रारम्भ तो नव पाषाण काल में अवश्य हुआ पर सर्वप्रथम किस स्थान पर कृषि कर्म प्रारम्भ हुआ यह विवाद का विषय है। 1977 से चल रही खुदाई में अब तक प्राप्त साक्ष्यों से ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि सिंध और बलूचिस्तान की सीमा पर स्थित 'कच्छी मैदान' में 'बोलन नदी' के किनारे 'मेहरगढ़' नामक स्थान पर कृषि कर्म का प्रारम्भ हुआ। इस सभ्यता के लोग अग्नि का प्रयोग प्रारम्भ कर दिये थे। 'कुम्भकारी' सर्वप्रथम इसी काल में दृष्टिगोचर होती है। नव पाषाणकालीन महत्त्वपूर्ण स्थल हैं -
स्थल | क्षेत्र |
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1- गुफकराल और बुर्ज़होम | कश्मीर |
2- महगड़ा, चोपानी मांडों और कोल्डिहवा |
उत्तर प्रदेश की वेलन घाटी |
3- चिरांद |
बिहार |
ताम्र-पाषाणिक काल
जिस काल में मनुष्य ने पत्थर और तांबे के औज़ारों का साथ-साथ प्रयोग किया, उस काल को 'ताम्र-पाषाणिक काल' कहते हैं। सर्वप्रथम जिस धातु को औज़ारों में प्रयुक्त किया गया वह थी - 'तांबा'। ऐसा माना जाता है कि तांबे का सर्वप्रथम प्रयोग क़रीब 5000 ई.पू. में किया गया। भारत में ताम्र पाषाण अवस्था के मुख्य क्षेत्र दक्षिण-पूर्वी राजस्थान, मध्य प्रदेश के पश्चिमी भाग, पश्चिमी महाराष्ट्र तथा दक्षिण-पूर्वी भारत में हैं। दक्षिण-पूर्वी राजस्थान में स्थित 'बनास घाटी' के सूखे क्षेत्रों में 'अहारा' एवं 'गिलुंड' नामक स्थानों की खुदाई की गयी। मालवा, एवं 'एरण' स्थानों पर भी खुदाई का कार्य सम्पन्न हुआ जो पश्चिमी मध्य प्रदेश में स्थित है। खुदाई में मालवा से प्राप्त होनेवाले 'मृदभांड' ताम्रपाषाण काल की खुदाई से प्राप्त अन्य मृदभांडों में सर्वात्तम माने गये हैं।
पश्चिमी महाराष्ट्र में हुए व्यापक उत्खनन क्षेत्रों में अहमदनगर के जोर्वे, नेवासा एवं दायमाबाद, पुणे ज़िले में सोनगांव, इनामगांव आदि क्षेत्र सम्मिलित हैं। ये सभी क्षेत्र ‘जोर्बे संस्कृति‘ के अन्तर्गत आते हैं। इस संस्कृति का समय 1,400-700 ई.पू. के क़रीब माना जाता है। वैसे तो यह सभ्यता ग्रामीण भी पर कुछ भागों जैसे 'दायमाबाद' एवं 'इनामगांव' में नगरीकरण की प्रक्रिया प्रारम्भ हो गयी थी। 'बनासघाटी' में स्थित 'अहार' में सपाट कुल्हाड़ियां, चूड़ियां और कई तरह की चादरें प्राप्त हुई हैं। ये सब तांबे से निर्मित उपकरण थे। 'अहार' अथवा 'ताम्बवली' के लोग पहले से ही धतुओं के विषय में जानकारी रखते थे। अहार संस्कृति की समय सीमा 2,100 से 1,500 ई.पू. के मध्य मानी जाती है। 'गिलुन्डु', जहां पर एक प्रस्तर फलक उद्योंग के अवशेष मिले हैं, 'अहार संस्कृति' का केन्द्र बिन्दु माना जाता है।
इस काल में लोग गेहूँ, धान और दाल की खेती करते थे। पशुओं में ये गाय, भैंस, भेड़, बकरी, सुअर और ऊँट पालते थे। 'जोर्बे संस्कृति' के अन्तर्गत एक पांच कमरों वाले मकान का अवशेष मिला है। जीवन सामान्यतः ग्रामीण था। चाक निर्मित लाल और काले रंग के 'मृदभांड' पाये गये हैं। कुछ बर्तन, जैसे 'साधारण तश्तरियां' एवं 'साधारण कटोरे' महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में 'सूत एवं रेशम के धागे' तथा 'कायथा' में मिले 'मनके के हार' के आधार पर कहा जा एकता है कि 'ताम्र-पाषाण काल' में लोग कताई-बुनाई एवं सोनारी व्यवसाय से परिचित थे। इस समय शवों के संस्कार में घर के भीतर ही शवों का दफना दिया जाता था। दक्षिण भारत में प्राप्त शवों के शीश पूर्व और पैर पश्चिम की ओर एवं महाराष्ट्र में प्राप्त शवों के शीश उत्तर की ओर एवं पैर दक्षिण की ओर मिले हैं। पश्चिमी भारत में लगभग सम्पूर्ण शवाधान एवं पूर्वी भारत में आंशिक शवाधान का प्रचलन था।
इस काल के लोग लेखन कला से अनभिज्ञ थे। राजस्थान और मालवा में प्राप्त मिट्टी निर्मित वृषभ की मूर्ति एवं 'इनाम गांव से प्राप्त 'मातृदेवी की मूर्ति' से लगता है कि लोग वृषभ एवं मातृदेवी की पूजा करते थे। तिथि क्रम के अनुसार भारत में ताम्र-पाषाण बस्तियों की अनेक शाखायें हैं। कुछ तो 'प्राक् हड़प्पीय' हैं, कुछ हड़प्पा संस्कृति के समकालीन हैं, कुछ और हड़प्पोत्तर काल की हैं। 'प्राक् हड़प्पा कालीन संस्कृति' के अन्तर्गत राजस्थान के 'कालीबंगा' एवं हरियाणा के 'बनवाली' स्पष्टतः ताम्र-पाषाणिक अवस्था के हैं। 1,200 ई.पू. के लगभग 'ताम्र-पाषाणिक संस्कृति' का लोप हो गया। केवल ‘जोर्वे संस्कृति‘ ही 700 ई.पू. तक बची रह सकी। सर्वप्रथम चित्रित भांडों के अवशेष 'ताम्र-पाषाणिक काल' में ही मिलते हैं। इसी काल के लोगों ने सर्वप्रथम भारतीय प्राय:द्वीप में बड़े बड़े गांवों की स्थापना की।
संस्कृति | काल |
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1- अहाड़ संस्कृति | लगभग 1700-1500 ई.पू. |
2- कायथ संस्कृति |
लगभग 2000-1800 ई.पू. |
3- मालवा संस्कृति |
लगभग 1500-1200 ई.पू. |
4- सावलदा संस्कृति . |
लगभग 2300-2200 ई.पू |
5- जोर्बे संस्कृति |
लगभग 1400-700 ई.पू. |
6- प्रभास संस्कृति |
लगभग 1800-1200 ई.पू. |
7- रंगपुर संस्कृति |
लगभग 1500-1200 ई.पू. |
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ देखें: शोध ग्रंथ वेल्स, स्पेन्सर (2002) अ जेनेटिक ओडिसी (अंग्रेज़ी)। प्रिन्सटन यूनिवर्सिटी प्रॅस, न्यू जर्सी, सं.रा.अमरीका। ISBN 0-691-11532-X।