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'''निर्गुण''' [[संस्कृत भाषा]] का शब्द है, जिसका अर्थ विशिष्टता रहित या गुण रहित, स्वरूप रहित हुता है। वेदांत के रूढ़िवादी [[हिंदू]] [[दर्शन]] के बुनियादी महत्त्व की अवधारणा, जो यह प्रश्न उठाता है कि सर्वोच्च सत्ता 'ब्रह्म' को निर्गुण कहा जाए या सगुण। | '''निर्गुण''' [[संस्कृत भाषा]] का शब्द है, जिसका अर्थ विशिष्टता रहित या गुण रहित, स्वरूप रहित हुता है। [[वेदांत]] के रूढ़िवादी [[हिंदू]] [[दर्शन]] के बुनियादी महत्त्व की अवधारणा, जो यह प्रश्न उठाता है कि सर्वोच्च सत्ता 'ब्रह्म' को निर्गुण कहा जाए या सगुण। | ||
वेदांत का अद्वैत या केवल द्वैत मत [[उपनिषद|उपनिषदों]] के चुने हुए अध्यायों के आधार पर मानता है कि ब्रह्म ध्रुवत्व से परे है और इसलिए तर्कमूलक मानवीय विचारों के सामान्य शब्दों से उसकी विशेषता नहीं बताई जा सकती है। ऐसी स्थिती में ब्रह्म में ऐसे गुण नहीं हो सकते हैं, जो उसे अन्य महत्ताओं से अलग करते है, क्योंकि ब्रह्म कोई महत्ता नहीं, बल्कि समस्त है। | वेदांत का अद्वैत या केवल द्वैत मत [[उपनिषद|उपनिषदों]] के चुने हुए अध्यायों के आधार पर मानता है कि ब्रह्म ध्रुवत्व से परे है और इसलिए तर्कमूलक मानवीय विचारों के सामान्य शब्दों से उसकी विशेषता नहीं बताई जा सकती है। ऐसी स्थिती में ब्रह्म में ऐसे गुण नहीं हो सकते हैं, जो उसे अन्य महत्ताओं से अलग करते है, क्योंकि ब्रह्म कोई महत्ता नहीं, बल्कि समस्त है। | ||
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11:13, 13 अक्टूबर 2011 का अवतरण
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निर्गुण संस्कृत भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ विशिष्टता रहित या गुण रहित, स्वरूप रहित हुता है। वेदांत के रूढ़िवादी हिंदू दर्शन के बुनियादी महत्त्व की अवधारणा, जो यह प्रश्न उठाता है कि सर्वोच्च सत्ता 'ब्रह्म' को निर्गुण कहा जाए या सगुण।
वेदांत का अद्वैत या केवल द्वैत मत उपनिषदों के चुने हुए अध्यायों के आधार पर मानता है कि ब्रह्म ध्रुवत्व से परे है और इसलिए तर्कमूलक मानवीय विचारों के सामान्य शब्दों से उसकी विशेषता नहीं बताई जा सकती है। ऐसी स्थिती में ब्रह्म में ऐसे गुण नहीं हो सकते हैं, जो उसे अन्य महत्ताओं से अलग करते है, क्योंकि ब्रह्म कोई महत्ता नहीं, बल्कि समस्त है।
इस मत का मूलभूत ग्रंथ बृहदारण्यक उपनिषद है, जिसमें ब्रह्म की परिभाषा नेति-नेति[1] है। अद्वैत मत के अनुसार, ब्रह्म गुणों को परिभाषित करने वाले ग्रंथ, जिससे विशिष्ट ब्रह्म[2] की अवधारणा विकसित होती है, चिंतन के लिए प्रारंभिक साधन मात्र है। अन्य विशेष रूप से वेदांत के ईश्वरवादी मत[3] तर्क देते हैं कि भगवान[4] सभी पराकाष्ठओं से युक्त है तथा गुणों को अस्वीकार करने वाले ग्रंथ के अध्याय केवल अपूर्ण गुणों को अस्वीकार करते हैं। उपासना के लिए योग्य व्यक्तिगत दैवी अस्तित्व[5] इस प्रकार द्वितीय स्तर के बन जाते हैं; अद्वैत वेदांत में प्रतीकात्मक ब्रह्म; लेकिन सर्वोच्च दैवी सत्ता[6], ईश्वरत्व, विशिष्टाद्वैत इत्यादि में इस अर्थ में ब्रह्म ही है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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