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====अन्य श्रौतसूत्रों के अनुसार====
====अन्य श्रौतसूत्रों के अनुसार====
[[शांखायन श्रौतसूत्र]]<ref>[[शांखायन श्रौतसूत्र]] 4|14-15</ref> ने आहिताग्नि की अन्त्येष्टि-क्रिया के विषय में विस्तार के साथ लिखा है। [[कात्यायन श्रौतसूत्र]]<ref>[[कात्यायन श्रौतसूत्र]] 25|7</ref> ने यही बातें संक्षेप में कही है। कात्यायन श्रौतसूत्र<ref>कात्यायन श्रौतसूत्र 25|7|18</ref> ने केश एवं नख काटने एवं मल पदार्थ निकाल देने की चर्चा की है। कौशिकसूत्र<ref>कौशिकसूत्र 80.13-16</ref> एवं शांखायन श्रौतसूत्र<ref>शांखायन श्रौतसूत्र 4.14.4-5</ref> ने भी इन सब बातों की ओर संकेत किया है और इतना जोड़ दिया है कि यदि वे दाहिनी ओर से अँतड़ियाँ काटकर निकालते हैं, तो उन्हें पुन: दर्भ से सी देते हैं या वे केवल शरीर को स्नान करा देते हैं (बिना मल स्वच्छ किये), उसे वस्त्र से ढँक देते हैं, सँवारते हैं, आसन्दी पर, जिस पर काला मृगचर्म<ref>जिसका मुख वाला भाग दक्षिण की ओर रहता है</ref> बिछा रहता है, रख देते हैं, उस पर नलद की माला रख देते हैं,<ref>प्रयोगरत्न के सम्पादक ने नलद को उशीर कहा है। कुछ ग्रन्थों में नलद के स्थान पर जपा पुष्प की बात कही गयी है।</ref> और उसे नवीन वस्त्र से ढँक देते हैं।<ref>जैसा कि ऊपर आश्वलायनश्रौतसूत्र के अनुसार लिखा गया है</ref> सत्याषाढ श्रौतसूत्र<ref>सत्याषाढ श्रौतसूत्र 28.1.22</ref> एवं गौतमपितृमेधसूत्र<ref>गौतमपितृमेधसूत्र 1.10-14</ref> में भी ऐसी बातें दी हुई हैं और यह भी है कि शव के हाथ एवं पैर के अँगूठे श्वेत सूत्रों या वस्त्र के अंचल भाग से बाँध दिये जाते हैं और आसन्दी<ref>वह छोटा सा पंलग या कुर्सी जिस पर शव रखकर ढोया जाता है</ref> उदुम्बर लकड़ी की बनी होती है। कौशिकसूत्र<ref>कौशिकसूत्र 80.3.3.45</ref> ने अथर्ववेद के बहुत-से मन्त्रों का उल्लेख किया है, जो चिता जलाने पर एवं हवि देते समय कहे जाते हैं।<ref>कौशिकसूत्र 18.2.4 एवं 36; 18.3.4; 18.1.49-50 एवं 58; 18.1.41-43; 7.68.1-2; 18.3.25; 18.2.4-18; (18.2.10 को छोड़कर); 18.4.1-15 आदि।</ref>
[[शांखायन श्रौतसूत्र]]<ref>[[शांखायन श्रौतसूत्र]] 4|14-15</ref> ने आहिताग्नि की अन्त्येष्टि-क्रिया के विषय में विस्तार के साथ लिखा है। [[कात्यायन श्रौतसूत्र]]<ref>[[कात्यायन श्रौतसूत्र]] 25|7</ref> ने यही बातें संक्षेप में कही है। कात्यायन श्रौतसूत्र<ref>कात्यायन श्रौतसूत्र 25|7|18</ref> ने केश एवं नख काटने एवं मल पदार्थ निकाल देने की चर्चा की है। कौशिकसूत्र<ref>कौशिकसूत्र 80.13-16</ref> एवं शांखायन श्रौतसूत्र<ref>शांखायन श्रौतसूत्र 4.14.4-5</ref> ने भी इन सब बातों की ओर संकेत किया है और इतना जोड़ दिया है कि यदि वे दाहिनी ओर से अँतड़ियाँ काटकर निकालते हैं, तो उन्हें पुन: दर्भ से सी देते हैं या वे केवल शरीर को स्नान करा देते हैं (बिना मल स्वच्छ किये), उसे वस्त्र से ढँक देते हैं, सँवारते हैं, आसन्दी पर, जिस पर काला मृगचर्म<ref>जिसका मुख वाला भाग दक्षिण की ओर रहता है</ref> बिछा रहता है, रख देते हैं, उस पर नलद की माला रख देते हैं,<ref>प्रयोगरत्न के सम्पादक ने नलद को उशीर कहा है। कुछ ग्रन्थों में नलद के स्थान पर जपा पुष्प की बात कही गयी है।</ref> और उसे नवीन वस्त्र से ढँक देते हैं।<ref>जैसा कि ऊपर आश्वलायनश्रौतसूत्र के अनुसार लिखा गया है</ref> सत्याषाढ श्रौतसूत्र<ref>सत्याषाढ श्रौतसूत्र 28.1.22</ref> एवं गौतमपितृमेधसूत्र<ref>गौतमपितृमेधसूत्र 1.10-14</ref> में भी ऐसी बातें दी हुई हैं और यह भी है कि शव के हाथ एवं पैर के अँगूठे श्वेत सूत्रों या वस्त्र के अंचल भाग से बाँध दिये जाते हैं और आसन्दी<ref>वह छोटा सा पंलग या कुर्सी जिस पर शव रखकर ढोया जाता है</ref> उदुम्बर लकड़ी की बनी होती है। कौशिकसूत्र<ref>कौशिकसूत्र 80.3.3.45</ref> ने अथर्ववेद के बहुत-से मन्त्रों का उल्लेख किया है, जो चिता जलाने पर एवं हवि देते समय कहे जाते हैं।<ref>कौशिकसूत्र 18.2.4 एवं 36; 18.3.4; 18.1.49-50 एवं 58; 18.1.41-43; 7.68.1-2; 18.3.25; 18.2.4-18; (18.2.10 को छोड़कर); 18.4.1-15 आदि।</ref>
====शवदहन प्रक्रिया====
शतपथ ब्राह्मण<ref>शतपथ ब्राह्मण 12.5.2.14</ref> का कथन है कि पत्थर एवं मिट्टी के बने यज्ञ-पात्र किसी [[ब्राह्मण]] को दान दे देने चाहिए, किन्तु लोग मिट्टी के पात्रों को शववाहन समझते हैं, अत: उन्हें जल में फेंक देना चाहिए। अनुस्तरणी (बकरी या गाय) की वपा निकालकर उससे (अन्त्येष्टि क्रिया करने वाले द्वारा) मृत के मुख एवं सिर को ढँक देना चाहिए और ऐसा करते समय 'अग्नेर्वर्म'<ref>ऋग्वेद 10.16.7</ref> का पाठ करना चाहिए। पशु के दोनों वृक्क निकालकर मृत के हाथों में रख देने चाहिए-दाहिना वृक्क दाहिने हाथ में और बायाँ बायें हाथ में-और 'अतिद्रव'<ref>ऋग्वेद 10.14.10</ref> का केवल एक बार पाठ करना चाहिए। वह पशु के हृदय को शव के हृदय पर रखता है, कुछ लोगों के मत से भात या जौ के आटे के दो पिण्ड भी रखता है।<ref>कात्यायन श्रौतसूत्र के अनुसार अनुस्तरणी पशु को कान के पास घायल करके मारा जाता है। जातूकर्ण्य के मत से शव के विभिन्न भागों पर पशु के उन्हीं भागों के अंग रखे जाते हैं। किन्तु कात्यायन इसे नहीं मानते, क्योंकि ऐसा करने पर जलाने के पश्चात् अस्थियों को एकत्र करते समय पशु की अस्थियाँ भी एकत्र हो जायेंगी, अत: उनके मत से केवल मांस भाग ही शव के अंगों में लगाना चाहिए। मिलाइए शतपथ ब्राह्मण (12.5.9-12) आश्वलायनगृह्यसूत्र (4.2.4) ने (जैसी कि नारायण ने व्याख्या की है) कहा है कि पशु का प्रयोग विकल्प से होता है, अर्थात् या तो पशु काटा जा सकता है या छोड़ दिया जा सकता है या किसी ब्राह्मण को दे दिया जा सकता है (देखिए बौधायनपितृमेधसूत्र 1.10.2 भी)। शांखायनश्रौतसूत्र (4.14.14-15) का कथन है कि मारे गये या जीवित पशु के दोनों वृक्क पीछे से निकालकर दक्षिण अग्नि में थोड़ा गर्म करके मृत के दोनों हाथों में रख देने चाहिए और 'अतिद्रव' (ऋग्वेद 10.14.10-11) का पाठ करना चाहिए।</ref> शव के अंगों पर पशु के वही अंग काट-काटकर रख देता है और पुन: उसकी खाल से शव को ढँककर प्रणीता के जल को आगे ले जाते समय वह (अन्त्येष्टि कर्म करने वाला) 'इमम् अग्ने'<ref>ऋग्वेद 10.16.8</ref> का आह्वान के रूप में पाठ करता है। अपना बायाँ घुटना मोड़कर वह दक्षिण-अग्नि में घृत की चार आहुति यह कहकर डालता है-'अग्नि को स्वाहा! सोम को स्वाहा! लोक को स्वाहा! अनुमति को स्वाहा!' पाँचवीं आहुति शव की छाती पर यह कहकर दी जाती है, 'जहाँ से तू उत्पन्न हुआ है! वह तुझसे उत्पन्न हो, न न। स्वर्गलोक को स्वाहा'।<ref>वाजसनेयी संहिता 25.22</ref>


आश्वलायनगृह्यसूत्र (4।1 एवं 2) ने आहिताग्नि की मृत्यु से सम्बन्धित सामान्य कृत्यों का वर्णन किया है, किन्तु आश्वलायनश्रौतसूत्र (जिसका ऊपर वर्णन किया गया है) ने उस आहिताग्नि की अन्त्येष्टि का वर्णन किया है, जो सोमयज्ञ या अन्य यज्ञों में लगे रहते समय मर जाता है। आश्वलायनगृह्यसूत्र का कहना है-"जब आहिताग्नि मर जाता है तो किसी को (पुत्र या कोई अन्य सम्बन्धी को) चाहिए कि वह दक्षिण-पूर्व या दक्षिण-पश्चिम में ऐसे स्थान पर भूमि-खण्ड खुदवाये, जो दक्षिण या दक्षिण-पूर्व की ओर ढालू हो, या कुछ लोगों के मत से वह भूमि-खण्ड दक्षिण-पश्चिम की ओर ढालू हो सकता है। गड्डा एक उठे हुए हाथों वाले पुरुष की लम्बाई का, एक व्यास (पूरी बाँह तक लम्बाई) के बराबर चौड़ा एवं एक वितस्ति (बारह अंगुल) गहरा होना चाहिए। श्मशान चतुर्दिक खुला रहना चाहिए। इसमें जड़ी-बूटियों का समूह होना चाहिए, किन्तु कँटीले एवं दुग्धयुक्त पौधे निकाल बाहर कर देने चाहिए (देखिए आश्वलायनगृह्यसूत्र 2।7।5, वास्तु-परीक्षा)। उस स्थान से पानी चारों ओर जाता हो, अर्थात् श्मशान कुछ ऊँची भूमि पर होना चाहिए। यह सब उस श्मशान के लिए है, जहाँ पर शव जलाया जाता है। उन्हें शव के सिर के केश एवं नख काट देने चाहिए (देखिए आश्वलायनगृह्यसूत्र 6।10।2) यज्ञिय घास एवं घृत का प्रबन्ध करना चाहिए। इसमें (अन्त्येष्टि क्रिया में) वे घृत को दही में डालते हैं। यही पृषदाज्य है, जो पितरों के कृत्यों में प्रयुक्त होता है। (मृत के सम्बन्धी) उसकी पूताग्नियों एवं उसके पवित्र पात्रों को उस दिशा में जहाँ चिता के लिए गड्डा खोदा गया है, ले जाते हैं। इसके उपरान्त संख्या में बूढ़े (पुरुष और स्त्रियाँ साथ नहीं चलतीं) लोग शव को ढोते हैं। कुछ लोगों का कथन है कि शव बैलगाड़ी में ढोया जाता है। कुछ लोगों ने व्यवस्था दी है कि (श्मशान में) एक रंग की काली गाय या बकरी ले जानी चाहिए। (मृत के सम्बन्धी) बायें पैर में (एक रस्सी) बाँधते हैं और उसे शव के पीछे-पीछे लेकर चलते हैं। उसके उपरान्त (मृत के) अन्य सम्बन्धी यज्ञोपवीत नीचा करके (शरीर के चारों ओर करके) एवं शिखा खोलकर चलते हैं; वृद्ध लोग आगे-आगे और छोटी अवस्था वाले पीछे-पीछे चलते हैं। श्मशान के पास पहुँच जाने पर अन्त्येष्टि क्रिया करने वाला अपने शरीर के वामांग को उसकी ओर करके चिता-स्थल की तीर बार परिक्रमा करते हुए उस पर शमी की टहनी से जल छिड़कता है और 'अपेत वीता वि च सर्पतात:' (ऋग्वेद 10।14।9) का पाठ करता है। (श्मशान के) दक्षिण-पूर्व कुछ उठे हुए एक कोण पर वह (पुत्र या कोई अन्य व्यक्ति) आहवनीय अग्नि, उत्तर-पश्चिम दिशा में गार्हपत्य अग्नि और दक्षिण-पश्चिम में दक्षिण अग्नि रखता है। इसके उपरान्त चिता-निर्माण में कोई निपुण व्यक्ति चितास्थल पर चिता के लिए लकड़ियाँ एकत्र करता है। तब कृत्यों को सम्पादित करने वाला लकड़ी के ढूह पर (कुश) बिछाता है और उस पर कृष्ण हरिण का चर्म, जिसका केश वाला भाग ऊपर रहता है, रखता है और सम्बन्धी लोग गार्हपत्य अग्नि के उत्तर से और आहवनीय अग्नि की ओर सिर करके शव को चिता पर रखते हैं। वे तीन उच्च वर्णों में किसी भी एक वर्ण की मृत व्यक्ति की पत्नी को शव के उत्तर चिता पर सो जाने को कहते हैं और यदि मृत क्षत्रिय रहता है तो उसका धनुष उत्तर में रख दिया जाता है। देवर, पति का कोई प्रतिनिधि या कोई शिष्य या पुराना नौकर या दास 'उदीर्ष्व नार्यभि जीवलोकम्' (ऋग्वेद 10।18।8) मन्त्र के साथ-साथ उस स्त्री को उठ जाने को कहता है।<ref>बहुत-से सूत्र पत्नि को शव के उत्तर में चिता पर सो जाने और पुन: उठ जाने की बात कहते हैं। देखिए कौशिकसूत्र (80।40-45) 'इयं नारीति पत्नीमुपसंवेशयति। उदीर्ष्वेत्युत्थापयति।' ये दोनों मन्त्र अथर्ववेद (18।3।1-2) के हैं। सत्याषाढश्रौतसूत्र (28।2।14-16) का कथन है कि शव को चिता पर रखने के पूर्व पत्नी 'इयं नारी' उच्चारण के साथ उसके पास बुलायी जाती है और उसके उपरान्त देवर या कोई ब्राह्मण 'उदीर्ष्व नारी' के साथ उसे उठाता है। वही सूत्र (28।2।22) यह भी कहता है कि शव को चिता पर रखे जाने पर या उसके पूर्व पत्नी को उसके पास सुलाना चाहिए।</ref> यदि शूद्र उठने को कहता है तो मन्त्रपाठ अन्त्येष्टि-क्रिया करने वाली ही करता है, और 'धनुर्हस्तादाददानो' (ऋग्वेद 10।18।9) के साथ धनुष उठा लेता है। प्रत्यंचा को तानकर (चिता बनाने के पूर्व, जिसका वर्णन नीचे होगा) उसे टुकड़े-टुकड़े करके लकड़ियों के समूह पर फेंक देता है।<ref>यहाँ पर शतपथ ब्राह्मण (12।5।2।6) एवं कुछ सूत्र (यथा-कात्यायनश्रौतसूत्र 25।7।19; शांखायनश्रौतसूत्र 4।14।16-35; सत्याषाढश्रौतसूत्र 24।2।23-50; कौशिकसूत्र 81।1-19; बौधायनपितृमेधसूत्र 1।8-9) तथा गोभिल (3।34) जैसी कुछ स्मृतियाँ इतना और जोड़ देती हैं कि सात मार्मिक वायु-स्थानों, यथा मुख, दोनों नासारंध्रों, दोनों आंखों एवं दोनों कर्णों पर वे सोने के टुकड़े रखते हैं। कुछ लोगों ने यह भी कहा है कि घृत मिश्रित तिल भी शव पर छिड़के जाते हैं। गौतमपितृमेधसूत्र (2।7।12) का कथन है कि अध्वर्य मृत शरीर के सिर पर कपालों (गोल पात्रों) को रखता है।</ref> इसके उपरान्त उसे शव पर निम्नलिखित यज्ञिय वस्तुएँ रखनी चाहिए; दाहिने हाथ में जुहू नामक चमस, बायें हाथ में उपभृत चमस, दाहिनी ओर स्फय (काठ की तलवार), बायीं ओर अग्निहोत्रहवणी (वह दर्वी या चमस जिससे अग्नि में हवि डाली जाती है), छाती, सिर, दाँतों पर क्रम से स्रुव (बड़ी यज्ञिय दर्वी), पात्र (या कपाल अर्थात् गोल पात्र) एवं रस निकालने वाले प्रस्तर खण्ड (पत्थर के वे टुकड़े जिनसे सोमरस निकाला जाता है), दोनों नासिकारंध्रों पर दो छोटे-छोटे स्रुव, कानों पर दो प्राशित्र-हरण<ref>प्राशित्रहरण वह पात्र है, जिसमें ब्रह्मा पुरोहित के लिए पुरोडाश का एक भाग रखा जाता है। शम्या हल के जुए की काँटी को कहा जाता है।</ref> (यदि एक ही हो तो दो टुकड़े करके), पेट पर पात्री (जिसमें हवि देने के पूर्व हव्य एकत्र किये जाते हैं) एवं चमस (जिसमें इडा भाग काटकर रखा जाता है), गुप्तांगों पर शम्या, जाँघों पर दो अरणियाँ (जिनके घर्षण से अग्नि प्रज्वलित की जाती है), पैरों पर उखल (ओखली) एवं मुसल (मूसल), पाँवों पर शूर्प (सूप) या यदि एक ही हो तो दो भागों में करके। वे वस्तुएँ जिनमें गड्ढे होते हैं (अर्थात् जिनमें तरल पदार्थ रखे जा सकते हैं), उनमें पृषदाज्य (घृत एवं दही का मिश्रण) भर दिया जाता है। मृत के पुत्र को स्वयं चक्की के ऊपरी एवं निचले पाट ग्रहण करने चाहिए, उसे वे वस्तुएँ भी ग्रहण करनी चाहिए, जो ताम्र, लोहे या मिट्टी की बनी होती हैं। किस वस्तु को कहाँ रखा जाए, इस विषय में मतैक्य नहीं है। जैमिनि (11।3।34) का कथन है कि यजमान के साथ उसकी यज्ञिय वस्तुएँ (वे उपकरण या वस्तुएँ, जो यज्ञ सम्पादन के काम आती हैं) जला दी जाती हैं और उसे प्रतिपत्ति कर्म नामक प्रमेय (सिद्धान्त) की संज्ञा दी जाती है अर्थात् इसे यज्ञपात्रों का प्रतिपत्तिकर्म कहा जाता है।
इसके उपरान्त आश्वलायन गृह्यसूत्र<ref>आश्वलायन गृह्यसूत्र 4.4.2-5</ref> यह बताता है कि यदि आहवनीय अग्नि या गार्हपत्य या दक्षिण अग्नि शव के पास प्रथम पहुँचती है या सभी अग्नियाँ एक साथ ही शव के पास पहुँचती हैं, तो क्या समझना चाहिए; और जब शव जलता रहता है तो वह उस पर मन्त्रपाठ करता है।<ref>ऋग्वेद 10.14.7 आदि</ref> जो व्यक्ति यह सब जानता है, उसके द्वारा जलाये जाने पर धूम के साथ मृत व्यक्ति स्वर्गलोक जाता है, ऐसा ही (श्रुति से) ज्ञात है। 'इमे जीवा:'<ref>ऋग्वेद 10.18.3</ref> के पाठ के उपरान्त सभी (सम्बन्धी) लोग दाहिने से बायें घूमकर बिना पीछे देखे चल देते हैं। वे किसी स्थिर जल के स्थल पर जाते हैं और उसमें एक बार डुबकी लेकर और दोनों हाथों को ऊपर करके मृत का गौत्र, नाम उच्चारित करते हैं, बाहर आते हैं, दूसरा [[वस्त्र]] पहनते हैं, एक बार पहने हुए वस्त्र को निचोड़ते हैं और अपने कुरतों के साथ उन्हें उत्तर की ओर दूर रखकर वे तारों के उदय होने तक बैठे रहते हैं या सूर्यास्त का एक अंश दिखाई देता है तो वे घर लौट आते हैं, छोटे लोग पहले और बूढे लोग अन्त में प्रवेश करते हैं। घर लौटने पर वे पत्थर, अग्नि, गोबर, भुने जौ, तिल एवं जल स्पर्श करते हैं। और<ref>शतपथ ब्राह्मण (13.8.4.5) एवं वाजसनेयी संहिता (35-14, ऋग्वेद 1.50.10)</ref> जहाँ अन्य कृत्य भी दिये गये हैं, यथा स्नान करना, जल-तर्पण करना, बैल को छूना, आंख में अंजन लगाना तथा शरीर में अंगराग लगाना।
 
====शीर्षक====
शतपथ ब्राह्मण (12।5।2।14) का कथन है कि पत्थर एवं मिट्टी के बने यज्ञ-पात्र किसी ब्राह्मण को दान दे देने चाहिए, किन्तु लोग मिट्टी के पात्रों को शववाहन समझते हैं, अत: उन्हें जल में फेंक देना चाहिए। अनुस्तरणी (बकरी या गाय) की वपा निकालकर उससे (अन्त्येष्टि क्रिया करने वाले द्वारा) मृत के मुख एवं सिर को ढँक देना चाहिए और ऐसा करते समय 'अग्नेर्वर्म' (ऋग्वेद 10।16।7) का पाठ करना चाहिए। पशु के दोनों वृक्क निकालकर मृत के हाथों में रख देने चाहिए-दाहिना वृक्क दाहिने हाथ में और बायाँ बायें हाथ में-और 'अतिद्रव' (ऋग्वेद 10।14।10) का केवल एक बार पाठ करना चाहिए। वह पशु के हृदय को शव के हृदय पर रखता है, कुछ लोगों के मत से भात या जौ के आटे के दो पिण्ड भी रखता है।<ref>कात्यायनश्रौतसूत्र के अनुसार अनुस्तरणी पशु को कान के पास घायल करके मारा जाता है। जातूकर्ण्य के मत से शव के विभिन्न भागों पर पशु के उन्हीं भागों के अंग रखे जाते हैं। किन्तु कात्यायन इसे नहीं मानते, क्योंकि ऐसा करने पर जलाने के पश्चात् अस्थियों को एकत्र करते समय पशु की अस्थियाँ भी एकत्र हो जायेंगी, अत: उनके मत से केवल मांस भाग ही शव के अंगों में लगाना चाहिए। मिलाइए शतपथ ब्राह्मण (12।5।9-12) आश्वलायनगृह्यसूत्र (4।2।4) ने (जैसी कि नारायण ने व्याख्या की है) कहा है कि पशु का प्रयोग विकल्प से होता है, अर्थात् या तो पशु काटा जा सकता है या छोड़ दिया जा सकता है या किसी ब्राह्मण को दे दिया जा सकता है(देखिए बौधायनपितृमेधसूत्र 1।10।2 भी)। शांखायनश्रौतसूत्र (4।14।14-15) का कथन है कि मारे गये या जीवित पशु के दोनों वृक्क पीछे से निकालकर दक्षिण अग्नि में थोड़ा गर्म करके मृत के दोनों हाथों में रख देने चाहिए और 'अतिद्रव' (ऋग्वेद 10।14।10-11) का पाठ करना चाहिए।</ref> शव के अंगों पर पशु के वही अंग काट-काटकर रख देता है और पुन: उसकी खाल से शव को ढँककर प्रणीता के जल को आगे ले जाते समय वह (अन्त्येष्टि कर्म करने वाला) 'इमम् अग्ने' (ऋग्वेद 10।16।8) का आह्वान के रूप में पाठ करता है। अपना बायाँ घुटना मोड़कर वह दक्षिण-अग्नि में घृत की चार आहुति यह कहकर डालता है-'अग्नि को स्वाहा! सोम को स्वाहा! लोक को स्वाहा! अनुमति को स्वाहा!' पाँचवीं आहुति शव की छाती पर यह कहकर दी जाती है, 'जहाँ से तू उत्पन्न हुआ है! वह तुझसे उत्पन्न हो, न न। स्वर्गलोक को स्वाहा' (वाजसनेयी संहिता 25।22)। इसके उपरान्त आश्वलायनगृह्यसूत्र (4।4।2-5) यह बताता है कि यदि आहवनीय अग्नि या गार्हपत्य या दक्षिण अग्नि शव के पास प्रथम पहुँचती है या सभी अग्नियाँ एक साथ ही शव के पास पहुँचती हैं, तो क्या समझना चाहिए; और जब शव जलता रहता है तो वह उस पर मन्त्रपाठ करता है (ऋग्वेद 10।14।7 आदि)। जो व्यक्ति यह सब जानता है, उसके द्वारा जलाये जाने पर धूम के साथ मृत व्यक्ति स्वर्गलोक जाता है, ऐसा ही (श्रुति से) ज्ञात है। 'इमे जीवा:' (ऋग्वेद 10।18।3) के पाठ के उपरान्त सभी (सम्बन्धी) लोग दाहिने से बायें घूमकर बिना पीछे देखे चल देते हैं। वे किसी स्थिर जल के स्थल पर जाते हैं और उसमें एक बार डुबकी लेकर और दोनों हाथों को ऊपर करके मृत का गौत्र, नाम उच्चारित करते हैं, बाहर आते हैं, दूसरा वस्त्र पहनते हैं, एक बार पहने हुए वस्त्र को निचोड़ते हैं और अपने कुरतों के साथ उन्हें उत्तर की ओर दूर रखकर वे तारों के उदय होने तक बैठे रहते हैं या सूर्यास्त का एक अंश दिखाई देता है तो वे घर लौट आते हैं, छोटे लोग पहले और बूढे लोग अन्त में प्रवेश करते हैं। घर लौटने पर वे पत्थर, अग्नि, गोबर, भुने जौ, तिल एवं जल स्पर्श करते हैं। और देखिए शतपथ ब्राह्मण (13।8।4।5) एवं वाजसनेयी संहिता (35-14, ऋग्वेद 1।50।10) जहाँ अन्य कृत्य भी दिये गये हैं, यथा स्नान करना, जल-तर्पण करना, बैल को छूना, आंख में अंजन लगाना तथा शरीर में अंगराग लगाना।
शतपथ ब्राह्मण<ref>शतपथ ब्राह्मण 13.8.4.11</ref> एवं पारस्कर गृह्यसूत्र<ref>पारस्कर गृह्यसूत्र 3.10.10</ref> ने स्पष्ट लिखा है कि जिसका [[उपनयन संस्कार]] हो चुका है, उसकी अन्त्येष्टि क्रिया उसी प्रकार की जाती है, जिस प्रकार श्रौत अग्निहोत्र करने वाले व्यक्ति की, अन्तर केवल इतना होता है कि आहिताग्नि तीनों वैदिक अग्नियों के साथ जला दिया जाता है, जिसके पास केवल स्मार्त अग्नि या औपासन अग्नि होती है, वह उसके साथ जला दिया जाता है और साधारण लोगों का शव केवल साधारण अग्नि से जलाया जाता है। देवल का कथन है कि साधारण अग्नि के प्रयोग में चाण्डाल की अग्नि या अशुद्ध अग्नि या सूतकगृह-अग्नि या पतित के घर की अग्नि या चिता की अग्नि का व्यवहार नहीं करना चाहिए। पितदयिता के मत से जिसने अग्निहोत्र न किया हो, उसके लिए 'अस्मात् त्वम् आदि' मन्त्र का पाठ नहीं करना चाहिए। पारस्कर गृह्यसूत्र ने व्यवस्था दी है कि एक ही गाँव के रहने वाले सम्बन्धी एक ही प्रकार का कृत्य करते हैं, वे एक ही वस्त्र धारण करते हैं, यज्ञोपवीत को दाहिने कंधे से लटकाते हैं और बायें हाथ की चौथी अँगुली से वाजसनेयी संहिता<ref>वाजसनेयी संहिता 35.6</ref> के साथ जल तर्पण करते हैं तथा दक्षिणाभिमुख होकर जल में डुबकी लेते हैं और अंजलि से एक बार जल तर्पण करते हैं।
 
====परिवारजनों द्वारा स्नान====
गृह्यसूत्रों में वर्णित अन्य बातें स्थानाभाव से यहाँ नहीं दी जा सकतीं। कुछ मनोरंजक बातें दी जा रही हैं। शतपथ ब्राह्मण (13।8।4।11) एवं पारस्करगृह्यसूत्र (3।10।10) ने स्पष्ट लिखा है कि जिसका उपनयन संस्कार हो चुका है, उसकी अन्त्येष्टि क्रिया उसी प्रकार की जाती है, जिस प्रकार श्रौत अग्निहोत्र करने वाले व्यक्ति की, अन्तर केवल इतना होता है कि आहिताग्नि तीनों वैदिक अग्नियों के साथ जला दिया जाता है, जिसके पास केवल स्मार्त अग्नि या औपासन अग्नि होती है, वह उसके साथ जला दिया जाता है और साधारण लोगों का शव केवल साधारण अग्नि से जलाया जाता है। देवल का कथन है कि साधारण अग्नि के प्रयोग में चाण्डाल की अग्नि या अशुद्ध अग्नि या सूतकगृह-अग्नि या पतित के घर की अग्नि या चिता की अग्नि का व्यवहार नहीं करना चाहिए। पितदयिता के मत से जिसने अग्निहोत्र न किया हो, उसके लिए 'अस्मात् त्वम् आदि' मन्त्र का पाठ नहीं करना चाहिए। पारस्करगृह्यसूत्र ने व्यवस्था दी है कि एक ही गाँव के रहने वाले सम्बन्धी एक ही प्रकार का कृत्य करते हैं, वे एक ही वस्त्र धारण करते हैं, यज्ञोपवीत को दाहिने कंधे से लटकाते हैं और बायें हाथ की चौथी अँगुली से वाजसनेयी संहिता (35।6) के साथ जल तर्पण करते हैं तथा दक्षिणाभिमुख होकर जल में डुबकी लेते हैं और अंजलि से एक बार जल तर्पण करते हैं। आपस्तम्बधर्मसूत्र (2।6।15।2-7) का कथन है कि जब किसी व्यक्ति की माता या पिता की सातवीं पीढ़ी के सम्बन्धी या जहाँ तक वंशावली ज्ञात हो, वहाँ तक के व्यक्ति मरते हैं, तो एक वर्ष से छोटे बच्चों को छोड़कर सभी लोगों को स्नान करना चाहिए। जब एक वर्ष से कम अवस्था वाला बच्चा मरता है तो माता-पिता एवं उनको जो बच्चे का शव ढोते हैं, स्नान करना चाहिए। उपर्युक्त सभी लोगों को बाल नहीं सँवारने चाहिए, बालों से धूल हटा देनी चाहिए, एक ही वस्त्र धारण करना चाहिए, दक्षिणाभिमुख होना चाहिए, पानी में डुबकी लगानी चाहिए, मृत को तीन बार जल तर्पण करना चाहिए और नदी या जलाशय के पास बैठ जाना चाहिए। इसके पश्चात् गाँव को लौट जाना चाहिए तथा स्त्रियाँ जो कुछ कहें उसे करना चाहिए (अग्नि, पत्थर, बैल आदि स्पर्श करना चाहिए)। याज्ञवल्क्यस्मृति (3।2) ने भी ऐसे नियम दिये हैं और 'अप न: शोशुचद् अघम्' (ऋग्वेद 1।97।1; अथर्ववेद 4।33।1 एवं तैत्तिरीयारण्यक 6।10।1) के पाठ की व्यवस्था दी है। गौतमपितृमेधसूत्र (2।23) के मत से चिता का निर्माण यज्ञिय वृक्ष की लकड़ी से करना चाहिए और सपिण्ड लोग जिनमें स्त्रियाँ और विशेषत: कम अवस्था वाली सबसे आगे रहती हैं। चिता पर रखे गये शव पर अपने वस्त्र के अन्तभाग (आँचल) से हवा करते हैं, अन्त्येष्टि क्रिया करने वाला एक जलपूर्ण घड़ा लेता है और अपने सिर पर दर्भेण्डु (?) रखता है और तीन बार शव की परिक्रमा करता है। पुरोहित घड़े पर एक पत्थर (अश्म) या कुल्हाड़ी से धीमी चोट करता है और 'इमा आप: आदि' का पाठ करता है। जब टूटे घड़े से जल की धार बाहर निकलने लगती है तो मन्त्र के शब्दों में कुछ परिवर्तन हो जाता है, यथा 'अस्मिन् लोके' के स्थान पर 'अन्तरिक्षे आदि'। अन्त्येष्टिकर्ता खड़े रूप में जलपूर्ण घड़े को पीछे फेंक देता है। इसके उपरान्त 'तस्मात् त्वमधिजातोसि......असौ स्वर्गाय लोकाय स्वाहा' के पाठ के साथ शव को जलाने के लिए चिता में अग्नि प्रज्वलित करता है (गौतमपितृमेधसूत्र 1।3।1-13)। शतपथ ब्राह्मण (28।1।38) का कथन है कि घर के लोग अपनी दाहिनी जाँघों को पीटते हैं, आँचल से शव पर हवा करते हैं और तीन बार शव की बायें ओर होकर परिक्रमा करते हैं तथा 'अप न: शोशुचदघम्' (ऋग्वेद 1।47।1 तथा तैत्तिरीयारण्यक 6।10।1) पढ़ते हैं। इसने आगे कहा है (28।1।37-46) कि शव किसी गाड़ी में या चार पुरुषों के द्वारा ढोया जाता है, और ढोते समय चार स्थानों पर रोका जाता है और उन चारों स्थानों पर पृथ्वी खोद दी जाती है और उसमें भात का पिण्ड 'पूषा त्वेत:' (ऋग्वेद 10173 एवं तैत्तिरीयारण्यक 6।10।1) एवं 'आयुर्विश्वायु:' (ऋग्वेद 10।17।4 एवं तैत्तिरीयारण्यक 6।10।2) मन्त्रों के साथ आहुति के रूप में रख दिया जाता है। वराहपुराण के अनुसार पौराणिक मन्त्रों का उच्चारण करना चाहिए, अन्त्येष्टिकर्ता को चिता की परिक्रमा करनी चाहिए और उसके उस भाग में अग्नि प्रज्वलित करनी चाहिए जहाँ पर सिर रखा रहता है।
[[आपस्तम्ब धर्मसूत्र]]<ref>[[आपस्तम्ब धर्मसूत्र]] 2.6.15.2-7</ref> का कथन है कि जब किसी व्यक्ति की माता या पिता की सातवीं पीढ़ी के सम्बन्धी या जहाँ तक वंशावली ज्ञात हो, वहाँ तक के व्यक्ति मरते हैं, तो एक वर्ष से छोटे बच्चों को छोड़कर सभी लोगों को स्नान करना चाहिए। जब एक वर्ष से कम अवस्था वाला बच्चा मरता है तो माता-पिता एवं उनको जो बच्चे का शव ढोते हैं, स्नान करना चाहिए। उपर्युक्त सभी लोगों को बाल नहीं सँवारने चाहिए, बालों से धूल हटा देनी चाहिए, एक ही वस्त्र धारण करना चाहिए, दक्षिणाभिमुख होना चाहिए, पानी में डुबकी लगानी चाहिए, मृत को तीन बार जल तर्पण करना चाहिए और नदी या जलाशय के पास बैठ जाना चाहिए। इसके पश्चात् गाँव को लौट जाना चाहिए तथा स्त्रियाँ जो कुछ कहें उसे करना चाहिए।<ref>अग्नि, पत्थर, बैल आदि स्पर्श करना चाहिए</ref> याज्ञवल्क्यस्मृति<ref>याज्ञवल्क्यस्मृति 3.2</ref> ने भी ऐसे नियम दिये हैं और 'अप न: शोशुचद् अघम्'<ref>ऋग्वेद 1.97.1; अथर्ववेद 4.33.1 एवं [[तैत्तिरीय आरण्यक|तैत्तिरीयारण्यक]] 6.10.1</ref> के पाठ की व्यवस्था दी है।
 
====गौतमपितृमेधसूत्र के मत से चिता का निर्माण====
आधुनिक काल में अन्त्येष्टिक्रिया की विधि सामान्यत: उपर्युक्त आश्वलायनगृह्यसूत्र के नियमों के अनुसार या गरुड़पुराण (2।4।41) में वर्णित व्यवस्था पर आधारित है। स्थानाभाव से हम इसका वर्णन यहाँ उपस्थित नहीं कर सकेंगे। एक बात और है, विभिन्न स्थानों में विभिन्न विधियाँ परम्परा से प्रयुक्त होती आयी हैं। एक स्थान की विधि दूसरे स्थान में ज्यों कि त्यों नहीं पाई जाती। इस प्रकार की विभिन्नता के मूल में विभिन्न शाखाएँ आदि हैं।
गौतमपितृमेधसूत्र<ref>गौतमपितृमेधसूत्र 2.23</ref> के मत से चिता का निर्माण यज्ञिय वृक्ष की लकड़ी से करना चाहिए और सपिण्ड लोग जिनमें स्त्रियाँ और विशेषत: कम अवस्था वाली सबसे आगे रहती हैं। चिता पर रखे गये शव पर अपने वस्त्र के अन्तभाग (आँचल) से हवा करते हैं, अन्त्येष्टि क्रिया करने वाला एक जलपूर्ण घड़ा लेता है और अपने सिर पर दर्भेण्डु रखता है और तीन बार शव की परिक्रमा करता है। पुरोहित घड़े पर एक पत्थर (अश्म) या कुल्हाड़ी से धीमी चोट करता है और 'इमा आप: आदि' का पाठ करता है। जब टूटे घड़े से जल की धार बाहर निकलने लगती है तो मन्त्र के शब्दों में कुछ परिवर्तन हो जाता है, यथा 'अस्मिन् लोके' के स्थान पर 'अन्तरिक्षे आदि'। अन्त्येष्टिकर्ता खड़े रूप में जलपूर्ण घड़े को पीछे फेंक देता है। इसके उपरान्त 'तस्मात् त्वमधिजातोसि......असौ स्वर्गाय लोकाय स्वाहा' के पाठ के साथ शव को जलाने के लिए चिता में अग्नि प्रज्वलित करता है।<ref>गौतमपितृमेधसूत्र 1.3.1-13</ref> शतपथ ब्राह्मण<ref>शतपथ ब्राह्मण 28.1.38</ref> का कथन है कि घर के लोग अपनी दाहिनी जाँघों को पीटते हैं, आँचल से शव पर हवा करते हैं और तीन बार शव की बायें ओर होकर परिक्रमा करते हैं तथा 'अप न: शोशुचदघम्'<ref>ऋग्वेद 1.47.1 तथा तैत्तिरीयारण्यक 6.10.1</ref> पढ़ते हैं। इसने आगे कहा है<ref>28.1.37-46</ref> कि शव किसी गाड़ी में या चार पुरुषों के द्वारा ढोया जाता है, और ढोते समय चार स्थानों पर रोका जाता है और उन चारों स्थानों पर पृथ्वी खोद दी जाती है और उसमें भात का पिण्ड 'पूषा त्वेत:'<ref>ऋग्वेद 10.17.3 एवं तैत्तिरीयारण्यक 6.10.1</ref> एवं 'आयुर्विश्वायु:'<ref>ऋग्वेद 10.17.4 एवं तैत्तिरीयारण्यक 6.10.2</ref> मन्त्रों के साथ आहुति के रूप में रख दिया जाता है। [[वराह पुराण]] के अनुसार पौराणिक मन्त्रों का उच्चारण करना चाहिए, अन्त्येष्टिकर्ता को चिता की परिक्रमा करनी चाहिए और उसके उस भाग में अग्नि प्रज्वलित करनी चाहिए जहाँ पर सिर रखा रहता है।
 
शव को ले जाने के विषय में कई प्रकार के नियमों की व्यवस्था है। हमने ऊपर देख लिया है कि शव गाड़ी में ले जाया जाता था या सम्बन्धियों या नौकरों (दासों) द्वारा विशिष्ट प्रकार से बने पलंग या कुर्सी या अरथी द्वारा ले जाया जाता था। इस विषय में कुछ सूत्रों, स्मृतियो, टीकाओं एवं अन्य ग्रन्थों ने बहुत-से नियम प्रतिपादित किये हैं। रामायण (अयोध्या. 76।13) में आया है कि दशरथ की मृत्यु पर उनके पुरोहितों द्वारा शव के आगे वैदिक अग्नियाँ ले जायी जा रही थीं, शव एक पालकी (शिबिका) में रखा हुआ था, नौकर ढो रहे थे, सोने के सिक्के एवं वस्त्र अरथी के आगे दरिद्रों के लिए फेंके जा रहे थे। सामान्य नियम यह था कि तीन उच्च वर्णों में शव को मृत व्यक्ति के वर्ण वाले ही ढोते थे और शूद्र उच्च वर्ण का शव तब तक नहीं ढो सकते थे, जब तक उस वर्ण के लोग नहीं पाये जाते थे। उच्च वर्ण के लोग शूद्र के शव को नहीं ढोते थे और इस नियम का पालन करने पर तत्सम्बन्धी अशौच मृत व्यक्ति की जाति से निर्णीत होता था। देखिए विष्णुधर्मसूत्र (9।1-4), गौतमधर्मसूत्र (14।29), मनुस्मृति (5।10।4), याज्ञवल्क्यस्मृति (3।26) एवं पराशरमाधवीय (3।43-45)। ब्रह्मचारी को किसी व्यक्ति या अपनी जाति के किसी व्यक्ति के शव को ढोने की आज्ञा नहीं थी, किन्तु वह अपने माता-पिता, गुरु, आचार्य एवं उपाध्याय के शव को ढो सकता था और ऐसा करने पर उसे कोई कल्मष नहीं लगता था। देखिए वसिष्ठ (23।7), मनुस्मृति (5।91), याज्ञवल्क्यस्मृति (3।15), लघु हारीत (92-93), ब्रह्मपुराण (पराशरमाधवीय 1।2, पृष्ठ 278)। गुरु, आचार्य और उपाध्याय की परिभाषा याज्ञवल्क्यस्मृति (1।34-35) ने दी है। यदि कोई ब्रह्मचारी उपर्युक्त पाँच व्यक्तियों के अतिरिक्त किसी अन्य का शव ढोता था, तो उसका ब्रह्मचर्यव्रत खण्डित माना जाता था और उसे व्रतलोप का प्रायश्चित करना पड़ता था। मनुस्मृति (5।103 एवं याज्ञवल्क्यस्मृति 3।13-14) का कथन है कि जो लोग स्वजातीय व्यक्ति का शव ढोते हैं, उन्हें वस्त्रसहित स्नान करना चाहिए; नीम की पत्तियाँ दाँत से चबानी चाहिए; आचमन करना चाहिए; अग्नि, जल, गोबर, श्वेत सरसों का स्पर्श करना चाहिए; धीरे से किसी पत्थर पर पैर रखना चाहिए और तब घर में प्रवेश करना चाहिए। सपिण्डों का यह कर्तव्य है कि वे अपने सम्बन्धी का शव ढोएँ, ऐसा करने के उपरान्त उन्हें केवल स्नान करना होता है, अग्नि को छूना होता है और पवित्र होने के लिए घृत पीना पड़ता है (गौतमधर्मसूत्र 14।29; याज्ञवल्क्यस्मृति 3।26; मनुस्मृति 4।103; पराशरमाधवीय 3।42; देवल, पराशरमाधवीय 1।2, पृष्ठ 277 एवं हारीत, अपरार्क पृष्ठ 871)।
 
सपिण्डरहित ब्राह्मण के मृत शरीर को ढोने वाले की पराशरमाधवीय (3।3।41) ने बड़ी प्रशंसा की है और कहा है कि जो व्यक्ति मृत ब्राह्मण के शरीर को ढोता है, वह प्रत्येक पग पर एक-एक यज्ञ के सम्पादन का फल पाता है और केवल पानी में डुबकी लेने और प्राणायाम करने से ही पवित्र हो जाता है। मनुस्मृति (5।101-102) का कथन है कि जो व्यक्ति किसी सपिण्डरहित व्यक्ति के शव को प्रेमवश ढोता है, वह तीन दिनों के उपरान्त ही अशौचरहित हो जाता है। आदिपुराण को उद्धृत करते हुए हारलता (पृष्ठ 121) ने लिखा है कि यदि कोई क्षत्रिय या वैश्य किसी दरिद्र ब्राह्मण या क्षत्रिय (जिसने सब कुछ खो दिया हो) के या दरिद्र वैश्य के शव को ढोता है, वह बड़ा यश एवं पुण्य पाता है और स्नान के उपरान्त ही पवित्र हो जाता है। सामान्यत: आज भी (विशेषत: ग्रामों में) एक ही जाति के लोग शव को ढोते हैं या साथ जाते हैं और वस्त्रसहित स्नान करने के पश्चात् पवित्र मान लिये जाते हैं। कुछ मध्यकाल की टीकाओं, यथा मिताक्षरा ने जाति-संकीर्णता की भावना से प्रेरित होकर व्यवस्था दी है कि "यदि कोई व्यक्ति प्रेमवश शव ढोता है, मृत के परिवार में भोजन करता है और वहीं रह जाता है तो वह दस दिनों तक अशौच में रहता है। यह नियम तभी लागू होता है, जब कि शव को ढोने वाला मृत की जाति का रहता है। यदि ब्राह्मण किसी मृत शूद्र के शव को ढोता है, तो वह एक मास तक अपवित्र रहता है, किन्तु यदि कोई शूद्र किसी मृत ब्राह्मण के शव को ढोता है तो वह दस दिनों तक अशौच में रहता है।" कूर्मपुराण ने व्यवस्था दी है कि यदि कोई ब्राह्मण किसी मृत ब्राह्मण के शव को शुल्क लेकर ढोता है या किसी अन्य स्वार्थ के लिए ऐसा करता है तो वह दस दिनों तक अपवित्र (अशौच) में रहता है, और इसी प्रकार कोई क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र ऐसा करता है तो क्रम से 12, 15 एवं 30 दिनों तक अपवित्र रहता है।


विष्णुपुराण का कथन है कि यदि कोई व्यक्ति शुल्क लेकर शव ढोता है तो वह मृत व्यक्ति की जाति के लिए व्यवस्थित अवधि तक अपवित्र रहता है। हारीत (मिताक्षरा, याज्ञवल्क्यस्मृति 3।2; मदनपारिजात पृष्ठ 395) के मत से शव को मार्ग के गाँवों में होकर नहीं ले जाना चाहिए। मनुस्मृति (5।92) एवं वृद्ध-हारीत (9।100-101) का कथन है कि शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय एवं ब्राह्मण का मृत शरीर क्रम से ग्राम या बस्ती के दक्षिणी, पश्चिमी, उत्तरी एवं पूर्वी मार्ग से ले जाना चाहिए। यम एवं गरुड़पुराण (2।4।56-58) का कथन है कि चिता के लिए अग्नि, काष्ठ (लकड़ी), तृण, हवि आदि उच्च वर्णों की अन्त्येष्टि के लिए शूद्र द्वारा नहीं ले जाना चाहिए, नहीं तो मृत व्यक्ति सदा प्रेतावस्था में ही रह जायेगा। हारलता (पृष्ठ 121) का कथन है कि यदि शूद्रों द्वारा लकड़ी ले जायी जाये तो ब्राह्मण के शव के चिता-निर्माण के लिए ब्राह्मण ही प्रयुक्त होना चाहिए। स्मृतियों एवं पुराणों ने व्यवस्था दी है कि शव को नहलाकर जलाना चाहिए, शव को नग्न रूप में कभी नहीं जलाना चाहिए। उसे वस्त्र से ढँका रहना चाहिए, उस पर पुष्प रखने चाहिए और चन्दन लेप करना चाहिए; अग्नि को शव के मुख की ओर ले जाना चाहिए। किसी व्यक्ति को कच्ची मिट्टी के पात्र में पका हुआ भोजन ले जाना चाहिए, किसी अन्य व्यक्ति को उस भोजन का कुछ अंश मार्ग में रख देना चाहिए और चाण्डाल आदि (जो श्मशान में रहते हैं) के लिए वस्त्र आदि दान करना चाहिए।
==शव को ले जाने के नियम==
 
शव को ले जाने के विषय में कई प्रकार के नियमों की व्यवस्था है। हमने ऊपर देख लिया है कि शव गाड़ी में ले जाया जाता था या सम्बन्धियों या नौकरों (दासों) द्वारा विशिष्ट प्रकार से बने पलंग या कुर्सी या अरथी द्वारा ले जाया जाता था। इस विषय में कुछ सूत्रों, स्मृतियों, टीकाओं एवं अन्य ग्रन्थों ने बहुत-से नियम प्रतिपादित किये हैं। [[रामायण]]<ref>[[अयोध्या काण्ड|अयोध्या काण्ड वा. रा.]] 76.13</ref>  में आया है कि [[दशरथ]] की मृत्यु पर उनके पुरोहितों द्वारा शव के आगे वैदिक अग्नियाँ ले जायी जा रही थीं, शव एक पालकी (शिबिका) में रखा हुआ था, नौकर ढो रहे थे, सोने के सिक्के एवं वस्त्र अरथी के आगे दरिद्रों के लिए फेंके जा रहे थे। सामान्य नियम यह था कि तीन उच्च वर्णों में शव को मृत व्यक्ति के वर्ण वाले ही ढोते थे और शूद्र उच्च वर्ण का शव तब तक नहीं ढो सकते थे, जब तक उस वर्ण के लोग नहीं पाये जाते थे। उच्च वर्ण के लोग शूद्र के शव को नहीं ढोते थे और इस नियम का पालन करने पर तत्सम्बन्धी अशौच मृत व्यक्ति की जाति से निर्णीत होता था।<ref>[[विष्णु धर्मसूत्र]] (9.1-4), [[गौतम धर्मसूत्र]] (14.29), [[मनुस्मृति]] (5.10.4), याज्ञवल्क्यस्मृति (3.26) एवं पराशरमाधवीय (3.43-45)</ref> ब्रह्मचारी को किसी व्यक्ति या अपनी जाति के किसी व्यक्ति के शव को ढोने की आज्ञा नहीं थी, किन्तु वह अपने माता-पिता, गुरु, आचार्य एवं उपाध्याय के शव को ढो सकता था और ऐसा करने पर उसे कोई कल्मष नहीं लगता था।<ref>वसिष्ठ (23.7), मनुस्मृति (5.91), याज्ञवल्क्यस्मृति (3.15), लघु हारीत (92-93), [[ब्रह्म पुराण]] (पराशरमाधवीय 1.2, पृष्ठ 278)</ref> गुरु, आचार्य और उपाध्याय की परिभाषा याज्ञवल्क्यस्मृति<ref>याज्ञवल्क्यस्मृति 1.34-35</ref> ने दी है। यदि कोई ब्रह्मचारी उपर्युक्त पाँच व्यक्तियों के अतिरिक्त किसी अन्य का शव ढोता था, तो उसका ब्रह्मचर्यव्रत खण्डित माना जाता था और उसे व्रतलोप का प्रायश्चित करना पड़ता था। मनुस्मृति<ref>मनुस्मृति (5.103 एवं याज्ञवल्क्यस्मृति 3.13-14)</ref> का कथन है कि जो लोग स्वजातीय व्यक्ति का शव ढोते हैं, उन्हें वस्त्रसहित स्नान करना चाहिए; नीम की पत्तियाँ दाँत से चबानी चाहिए; आचमन करना चाहिए; अग्नि, जल, गोबर, श्वेत सरसों का स्पर्श करना चाहिए; धीरे से किसी पत्थर पर पैर रखना चाहिए और तब घर में प्रवेश करना चाहिए। सपिण्डों का यह कर्तव्य है कि वे अपने सम्बन्धी का शव ढोएँ, ऐसा करने के उपरान्त उन्हें केवल स्नान करना होता है, अग्नि को छूना होता है और पवित्र होने के लिए घृत पीना पड़ता है।<ref>गौतम धर्मसूत्र 14.29; याज्ञवल्क्यस्मृति 3.26; मनुस्मृति 4.103; पराशरमाधवीय 3.42; देवल, पराशरमाधवीय 1.2, पृष्ठ 277 एवं हारीत, अपरार्क पृष्ठ 871</ref>
ब्रह्मपुराण (शुद्धिप्रकाश, पृष्ठ 159) का कथन है कि शव को श्मशान ले जाते समय वाद्ययंत्रों द्वारा पर्याप्त निनाद किया जाता है।<ref>भरत ने चार प्रकार के वाद्यों की चर्चा यों की है-'ततं चैवावनद्धं घनं सुषिरमेव च।' अमरकोश ने उन्हें निम्न प्रकार से समझाया है-'ततं वीणादिकं वाद्यमानद्धं मुरजादिकम्। वंशादिकं तु सुषिरं कांस्यतालादिकं घनम्।'</ref>
====मृत शरीर को ढोने वाले के लिए नियम====
सपिण्डरहित ब्राह्मण के मृत शरीर को ढोने वाले की पराशरमाधवीय<ref>पराशरमाधवीय 3.3.41</ref> ने बड़ी प्रशंसा की है और कहा है कि जो व्यक्ति मृत ब्राह्मण के शरीर को ढोता है, वह प्रत्येक पग पर एक-एक [[यज्ञ]] के सम्पादन का फल पाता है और केवल पानी में डुबकी लेने और प्राणायाम करने से ही पवित्र हो जाता है। मनुस्मृति<ref>मनुस्मृति 5.101-102</ref> का कथन है कि जो व्यक्ति किसी सपिण्डरहित व्यक्ति के शव को प्रेमवश ढोता है, वह तीन दिनों के उपरान्त ही अशौचरहित हो जाता है। आदिपुराण को उद्धृत करते हुए हारलता<ref>हारलता पृष्ठ 121</ref> ने लिखा है कि यदि कोई क्षत्रिय या वैश्य किसी दरिद्र ब्राह्मण या क्षत्रिय (जिसने सब कुछ खो दिया हो) के या दरिद्र वैश्य के शव को ढोता है, वह बड़ा यश एवं पुण्य पाता है और स्नान के उपरान्त ही पवित्र हो जाता है। सामान्यत: आज भी (विशेषत: ग्रामों में) एक ही जाति के लोग शव को ढोते हैं या साथ जाते हैं और वस्त्रसहित स्नान करने के पश्चात् पवित्र मान लिये जाते हैं। कुछ मध्यकाल की टीकाओं, यथा मिताक्षरा ने जाति-संकीर्णता की भावना से प्रेरित होकर व्यवस्था दी है कि "यदि कोई व्यक्ति प्रेमवश शव ढोता है, मृत के परिवार में भोजन करता है और वहीं रह जाता है तो वह दस दिनों तक अशौच में रहता है। यह नियम तभी लागू होता है, जब कि शव को ढोने वाला मृत की जाति का रहता है। यदि ब्राह्मण किसी मृत शूद्र के शव को ढोता है, तो वह एक मास तक अपवित्र रहता है, किन्तु यदि कोई शूद्र किसी मृत ब्राह्मण के शव को ढोता है तो वह दस दिनों तक अशौच में रहता है।" [[कूर्म पुराण]] ने व्यवस्था दी है कि यदि कोई ब्राह्मण किसी मृत ब्राह्मण के शव को शुल्क लेकर ढोता है या किसी अन्य स्वार्थ के लिए ऐसा करता है तो वह दस दिनों तक अपवित्र (अशौच) में रहता है, और इसी प्रकार कोई क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र ऐसा करता है तो क्रम से 12, 15 एवं 30 दिनों तक अपवित्र रहता है।
====चिता-निर्माण====
[[विष्णु पुराण]] का कथन है कि यदि कोई व्यक्ति शुल्क लेकर शव ढोता है तो वह मृत व्यक्ति की जाति के लिए व्यवस्थित अवधि तक अपवित्र रहता है। हारीत<ref>मिताक्षरा, याज्ञवल्क्यस्मृति 3.2; मदनपारिजात पृष्ठ 395</ref> के मत से शव को मार्ग के गाँवों में होकर नहीं ले जाना चाहिए। मनुस्मृति<ref>मनुस्मृति 5.92</ref> एवं वृद्ध-हारीत<ref>वृद्ध-हारीत 9.100-101</ref> का कथन है कि [[शूद्र]], [[वैश्य]], [[क्षत्रिय]] एवं [[ब्राह्मण]] का मृत शरीर क्रम से ग्राम या बस्ती के दक्षिणी, पश्चिमी, उत्तरी एवं पूर्वी मार्ग से ले जाना चाहिए। यम एवं [[गरुड़ पुराण]]<ref>यम एवं [[गरुड़ पुराण]] 2.4.56-58</ref> का कथन है कि चिता के लिए अग्नि, काष्ठ (लकड़ी), तृण, हवि आदि उच्च वर्णों की अन्त्येष्टि के लिए शूद्र द्वारा नहीं ले जाना चाहिए, नहीं तो मृत व्यक्ति सदा प्रेतावस्था में ही रह जायेगा। हारलता<ref>हारलता पृष्ठ 121</ref> का कथन है कि यदि शूद्रों द्वारा लकड़ी ले जायी जाये तो ब्राह्मण के शव के चिता-निर्माण के लिए ब्राह्मण ही प्रयुक्त होना चाहिए। [[स्मृतियाँ|स्मृतियों]] एवं [[पुराण|पुराणों]] ने व्यवस्था दी है कि शव को नहलाकर जलाना चाहिए, शव को नग्न रूप में कभी नहीं जलाना चाहिए। उसे वस्त्र से ढँका रहना चाहिए, उस पर पुष्प रखने चाहिए और चन्दन लेप करना चाहिए; अग्नि को शव के मुख की ओर ले जाना चाहिए। किसी व्यक्ति को कच्ची मिट्टी के पात्र में पका हुआ भोजन ले जाना चाहिए, किसी अन्य व्यक्ति को उस भोजन का कुछ अंश मार्ग में रख देना चाहिए और चाण्डाल आदि (जो श्मशान में रहते हैं) के लिए वस्त्र आदि दान करना चाहिए। [[ब्रह्म पुराण]]<ref>ब्रह्म पुराण - शुद्धिप्रकाश, पृष्ठ 159</ref> का कथन है कि शव को श्मशान ले जाते समय वाद्ययंत्रों द्वारा पर्याप्त निनाद किया जाता है।<ref>भरत ने चार प्रकार के वाद्यों की चर्चा यों की है-'ततं चैवावनद्धं घनं सुषिरमेव च।' अमरकोश ने उन्हें निम्न प्रकार से समझाया है-'ततं वीणादिकं वाद्यमानद्धं मुरजादिकम्। वंशादिकं तु सुषिरं कांस्यतालादिकं घनम्।'</ref>


शव को जलाने के उपरान्त, अन्त्येष्टि क्रिया के अंग के रूप में कर्ता को वपन (मुंडन) करवाना पड़ता है और उसके उपरान्त स्नान करना होता है, किन्तु वपन के विषय में कई नियम हैं। स्मृति-वचन यों है-'दाढ़ी-मूँछ बनवाना सात बातों में घोषित है, यथा-गंगातट पर, भास्कर क्षेत्र में, माता, पिता या गुरु की मृत्यु पर, श्रौताग्नियों की स्थापना पर एवं सोमयज्ञ में।'<ref>गंगायां भास्करक्षेत्रे मातापित्रोर्गृरोम् तौ। आधानकाले सोमे च वपनं सप्तसु स्मृतम्।। देखिए मिताक्षरा (याज्ञवल्क्यस्मृति 3।17), पराशरमाधवीय (1।2, पृष्ठ 296), शुद्धिप्रकाश (पृष्ठ 161), प्रायश्चितत्ततत्त्व (पृष्ठ 496)। भास्कर क्षेत्र प्रयाग का नाम है।</ref> अन्त्यकर्मदीपक (पृष्ठ 19) का कथन है कि अन्त्येष्टि क्रिया करने वाले पुत्र या किसी अन्य कर्ता को सबसे पहले वपन कराकर स्नान करना चाहिए और तब शव को किसी पवित्र स्थल पर ले जाना चाहिए तथा वहाँ स्नान कराना चाहिए, या यदि ऐसा स्थान वहाँ न हो तो शव को स्नान कराने वाले जल में गंगा, गया या अन्य तीर्थों का आवाहन करना चाहिए। इसके उपरान्त शव पर घी या तिल के तेल का लेप करके पुन: उसे नहलाना चाहिए, नया वस्त्र पहनाना चाहिए, यज्ञोपवीत, गोपीचन्दन, तुलसी की माला से सजाना चाहिए और सम्पूर्ण शरीर में चन्दन, कपूर, कुंकुम, कस्तूरी आदि सुंगधित पदार्थों का प्रयोग करना चाहिए। यदि अन्त्येष्टि क्रिया रात्रि में हो तो वपन रात्रि में नहीं होना चाहिए, बल्कि दूसरे दिन होना चाहिए।<ref>रात्रौ दग्ध्वा तु पिण्डान्त कृत्वा वपनवर्जितम्। वपनं नेष्यते रात्रौ श्वस्तनी वपनक्रिया।। संग्रह संग्रह (शुद्धिप्रकाश, पृष्ठ 161)।</ref> अन्य स्मृतियों ने दूसरे, तीसरे, पाँचवें या सातवें दिन या ग्यारहवें दिन के श्राद्धकर्म के पूर्व किसी दिन भी वपन की व्यवस्था दी है।<ref>अलुप्तकेशो य: पूर्व सोऽत्र केशान् प्रवापचेत्। द्वितीये तृतीयेऽह्नि पंचमे स्पतमेऽपि वा।। यावच्छाद्धं प्रदीयेत तावदित्यपरं मतम्।। बौधायन (पराशरमाधवीय 1।2, पृष्ठ 2); वपनं दशमेऽहनि कार्यम्। तदाह देवल:। दशमेऽहनि संप्राप्ते स्नानं ग्रामाद बहिर्भवेत्। तत्र त्याज्यानि वासांसि केशश्मश्रुनखानि च।। (मिताक्षरा, याज्ञवल्क्यस्मृति 3।17); मदनपारिजात (पृष्ठ 416) ने देवल आदि को उद्धृत करते हुए लिखा है-'पंचमादिदिनेषु कृतक्षौरस्यापि शुद्धयर्थ दशमदिनेपि वपनं कर्तव्यम्।'</ref> आपस्तम्बधर्मसूत्र (1।3।10।6) के मत से मृत व्यक्ति से छोटे सभी सपिण्ड लोगों को वपन कराना चाहिए। मदनपारिजात का कथन है कि अन्त्येष्टि कर्ता को वपन-कर्म प्रथम दिन तथा अशौच की समाप्ति पर कराना चाहिए, किन्तु शुद्धिप्रकाश (पृष्ठ 162) ने मिताक्षरा (याज्ञवल्क्यस्मृति 3।17) के मत का समर्थन करते हुए कहा है कि वपन-कर्म का दिन स्थान-विशेष की परम्परा पर निर्भर है। वाराणसी सम्प्रदाय के मत से कर्ता अन्त्येष्टि कर्म के समय वपन कराता है, किन्तु मिथिला सम्प्रदाय के मत से अन्त्येष्टि के समय वपन नहीं होता।
शव को जलाने के उपरान्त, अन्त्येष्टि क्रिया के अंग के रूप में कर्ता को वपन (मुंडन) करवाना पड़ता है और उसके उपरान्त स्नान करना होता है, किन्तु वपन के विषय में कई नियम हैं। स्मृति-वचन यों है-'दाढ़ी-मूँछ बनवाना सात बातों में घोषित है, यथा-गंगातट पर, भास्कर क्षेत्र में, माता, पिता या गुरु की मृत्यु पर, श्रौताग्नियों की स्थापना पर एवं सोमयज्ञ में।'<ref>गंगायां भास्करक्षेत्रे मातापित्रोर्गृरोम् तौ। आधानकाले सोमे च वपनं सप्तसु स्मृतम्।। देखिए मिताक्षरा (याज्ञवल्क्यस्मृति 3।17), पराशरमाधवीय (1।2, पृष्ठ 296), शुद्धिप्रकाश (पृष्ठ 161), प्रायश्चितत्ततत्त्व (पृष्ठ 496)। भास्कर क्षेत्र प्रयाग का नाम है।</ref> अन्त्यकर्मदीपक (पृष्ठ 19) का कथन है कि अन्त्येष्टि क्रिया करने वाले पुत्र या किसी अन्य कर्ता को सबसे पहले वपन कराकर स्नान करना चाहिए और तब शव को किसी पवित्र स्थल पर ले जाना चाहिए तथा वहाँ स्नान कराना चाहिए, या यदि ऐसा स्थान वहाँ न हो तो शव को स्नान कराने वाले जल में गंगा, गया या अन्य तीर्थों का आवाहन करना चाहिए। इसके उपरान्त शव पर घी या तिल के तेल का लेप करके पुन: उसे नहलाना चाहिए, नया वस्त्र पहनाना चाहिए, यज्ञोपवीत, गोपीचन्दन, तुलसी की माला से सजाना चाहिए और सम्पूर्ण शरीर में चन्दन, कपूर, कुंकुम, कस्तूरी आदि सुंगधित पदार्थों का प्रयोग करना चाहिए। यदि अन्त्येष्टि क्रिया रात्रि में हो तो वपन रात्रि में नहीं होना चाहिए, बल्कि दूसरे दिन होना चाहिए।<ref>रात्रौ दग्ध्वा तु पिण्डान्त कृत्वा वपनवर्जितम्। वपनं नेष्यते रात्रौ श्वस्तनी वपनक्रिया।। संग्रह संग्रह (शुद्धिप्रकाश, पृष्ठ 161)।</ref> अन्य स्मृतियों ने दूसरे, तीसरे, पाँचवें या सातवें दिन या ग्यारहवें दिन के श्राद्धकर्म के पूर्व किसी दिन भी वपन की व्यवस्था दी है।<ref>अलुप्तकेशो य: पूर्व सोऽत्र केशान् प्रवापचेत्। द्वितीये तृतीयेऽह्नि पंचमे स्पतमेऽपि वा।। यावच्छाद्धं प्रदीयेत तावदित्यपरं मतम्।। बौधायन (पराशरमाधवीय 1।2, पृष्ठ 2); वपनं दशमेऽहनि कार्यम्। तदाह देवल:। दशमेऽहनि संप्राप्ते स्नानं ग्रामाद बहिर्भवेत्। तत्र त्याज्यानि वासांसि केशश्मश्रुनखानि च।। (मिताक्षरा, याज्ञवल्क्यस्मृति 3।17); मदनपारिजात (पृष्ठ 416) ने देवल आदि को उद्धृत करते हुए लिखा है-'पंचमादिदिनेषु कृतक्षौरस्यापि शुद्धयर्थ दशमदिनेपि वपनं कर्तव्यम्।'</ref> आपस्तम्बधर्मसूत्र (1।3।10।6) के मत से मृत व्यक्ति से छोटे सभी सपिण्ड लोगों को वपन कराना चाहिए। मदनपारिजात का कथन है कि अन्त्येष्टि कर्ता को वपन-कर्म प्रथम दिन तथा अशौच की समाप्ति पर कराना चाहिए, किन्तु शुद्धिप्रकाश (पृष्ठ 162) ने मिताक्षरा (याज्ञवल्क्यस्मृति 3।17) के मत का समर्थन करते हुए कहा है कि वपन-कर्म का दिन स्थान-विशेष की परम्परा पर निर्भर है। वाराणसी सम्प्रदाय के मत से कर्ता अन्त्येष्टि कर्म के समय वपन कराता है, किन्तु मिथिला सम्प्रदाय के मत से अन्त्येष्टि के समय वपन नहीं होता।
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====कपाल-क्रिया====
====कपाल-क्रिया====
हिंदुओं में यह मान्यता भी है की मृत्यु के बाद भी आत्मा शरीर के प्रति वासना बने रहने के कारण अपने स्थूलशरीर के आस-पास मंडराती रहती है, इसलिए उसे अग्नि को समर्पित कर दिया जाता है, ताकि उनके बीच कोई संबध न रहे।<ref name="pjv"></ref> अंत्येष्टि-संस्कार में कपाल-क्रिया क्यों की जाती है, उसका उल्लेख [[गरुड़पुराण]] में मिलता है। जब शवदाह के समय मृतक की खोपडी को [[घी]] की आहुति सात बार देकर डंडे से तीन बार प्रहार करके फोड़ा जाता है, तो उस समय प्रक्रिया को कपालक्रिया के नाम से जाना जाता है। चूंकि खोपडी की हड्डी इतनी मज़बूत होती है कि उसे आग से भस्म होने में भी समय लगता है। वह टूटकर [[मस्तिष्क]] में स्थित ब्रह्मरंध्र पंचतत्त्व में पूर्ण रुप से विलीन हो जाएं, इसलिए उसे तोड़ना जरुरी होता है। इसके अलावा अलग-अलग मान्यताएं भी प्रचलित है। मसलन कपाल का भेदन होने पर प्राण पूरी तरह स्वतंत्र होते है और नए जन्म की प्रक्रिया में आगे बढते हैं। दूसरी मान्यता यह है की खोपड़ी को फोड़कर मस्तिष्क को इसलिए जलाया जाता है। ताकि वह अधजला न रह जाए अन्यथा अगले जन्म में वह अविकसित रह जाता है। हमारे शरीर के प्रत्येक अंग में विभिन्न [[देवता|देवताओं]] का वास होने की मान्यता का विवरण श्राद्धचंद्रिका में मिलता है। चूँकि सिर में [[ब्रह्मा]] का वास माना जाता है इसलिए शरीर को पूर्णरुप से मुक्ति प्रदान करने के लिए कपालक्रिया द्धारा खोपड़ी को फोड़ा जाता है। पुत्र के द्वारा पिता को अग्नि देना व कपालक्रिया इसलिए करवाई जाती है ताकि उसे इस बात का एहसास हो जाए कि उसके पिता अब इस दुनिया में नहीं रहे और घर-परिवार का संपूर्ण भार उसे ही वहन करना है।<ref name="pjv"></ref>
हिंदुओं में यह मान्यता भी है की मृत्यु के बाद भी आत्मा शरीर के प्रति वासना बने रहने के कारण अपने स्थूलशरीर के आस-पास मंडराती रहती है, इसलिए उसे अग्नि को समर्पित कर दिया जाता है, ताकि उनके बीच कोई संबध न रहे।<ref name="pjv"></ref> अंत्येष्टि-संस्कार में कपाल-क्रिया क्यों की जाती है, उसका उल्लेख [[गरुड़पुराण]] में मिलता है। जब शवदाह के समय मृतक की खोपडी को [[घी]] की आहुति सात बार देकर डंडे से तीन बार प्रहार करके फोड़ा जाता है, तो उस समय प्रक्रिया को कपालक्रिया के नाम से जाना जाता है। चूंकि खोपडी की हड्डी इतनी मज़बूत होती है कि उसे आग से भस्म होने में भी समय लगता है। वह टूटकर [[मस्तिष्क]] में स्थित ब्रह्मरंध्र पंचतत्त्व में पूर्ण रुप से विलीन हो जाएं, इसलिए उसे तोड़ना जरुरी होता है। इसके अलावा अलग-अलग मान्यताएं भी प्रचलित है। मसलन कपाल का भेदन होने पर प्राण पूरी तरह स्वतंत्र होते है और नए जन्म की प्रक्रिया में आगे बढते हैं। दूसरी मान्यता यह है की खोपड़ी को फोड़कर मस्तिष्क को इसलिए जलाया जाता है। ताकि वह अधजला न रह जाए अन्यथा अगले जन्म में वह अविकसित रह जाता है। हमारे शरीर के प्रत्येक अंग में विभिन्न [[देवता|देवताओं]] का वास होने की मान्यता का विवरण श्राद्धचंद्रिका में मिलता है। चूँकि सिर में [[ब्रह्मा]] का वास माना जाता है इसलिए शरीर को पूर्णरुप से मुक्ति प्रदान करने के लिए कपालक्रिया द्धारा खोपड़ी को फोड़ा जाता है। पुत्र के द्वारा पिता को अग्नि देना व कपालक्रिया इसलिए करवाई जाती है ताकि उसे इस बात का एहसास हो जाए कि उसके पिता अब इस दुनिया में नहीं रहे और घर-परिवार का संपूर्ण भार उसे ही वहन करना है।<ref name="pjv"></ref>
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आश्वलायनगृह्यसूत्र (4।1 एवं 2) ने आहिताग्नि की मृत्यु से सम्बन्धित सामान्य कृत्यों का वर्णन किया है, किन्तु आश्वलायनश्रौतसूत्र (जिसका ऊपर वर्णन किया गया है) ने उस आहिताग्नि की अन्त्येष्टि का वर्णन किया है, जो सोमयज्ञ या अन्य यज्ञों में लगे रहते समय मर जाता है। आश्वलायनगृह्यसूत्र का कहना है-"जब आहिताग्नि मर जाता है तो किसी को (पुत्र या कोई अन्य सम्बन्धी को) चाहिए कि वह दक्षिण-पूर्व या दक्षिण-पश्चिम में ऐसे स्थान पर भूमि-खण्ड खुदवाये, जो दक्षिण या दक्षिण-पूर्व की ओर ढालू हो, या कुछ लोगों के मत से वह भूमि-खण्ड दक्षिण-पश्चिम की ओर ढालू हो सकता है। गड्डा एक उठे हुए हाथों वाले पुरुष की लम्बाई का, एक व्यास (पूरी बाँह तक लम्बाई) के बराबर चौड़ा एवं एक वितस्ति (बारह अंगुल) गहरा होना चाहिए। श्मशान चतुर्दिक खुला रहना चाहिए। इसमें जड़ी-बूटियों का समूह होना चाहिए, किन्तु कँटीले एवं दुग्धयुक्त पौधे निकाल बाहर कर देने चाहिए (देखिए आश्वलायनगृह्यसूत्र 2।7।5, वास्तु-परीक्षा)। उस स्थान से पानी चारों ओर जाता हो, अर्थात् श्मशान कुछ ऊँची भूमि पर होना चाहिए। यह सब उस श्मशान के लिए है, जहाँ पर शव जलाया जाता है। उन्हें शव के सिर के केश एवं नख काट देने चाहिए (देखिए आश्वलायनगृह्यसूत्र 6।10।2) यज्ञिय घास एवं घृत का प्रबन्ध करना चाहिए। इसमें (अन्त्येष्टि क्रिया में) वे घृत को दही में डालते हैं। यही पृषदाज्य है, जो पितरों के कृत्यों में प्रयुक्त होता है। (मृत के सम्बन्धी) उसकी पूताग्नियों एवं उसके पवित्र पात्रों को उस दिशा में जहाँ चिता के लिए गड्डा खोदा गया है, ले जाते हैं। इसके उपरान्त संख्या में बूढ़े (पुरुष और स्त्रियाँ साथ नहीं चलतीं) लोग शव को ढोते हैं। कुछ लोगों का कथन है कि शव बैलगाड़ी में ढोया जाता है। कुछ लोगों ने व्यवस्था दी है कि (श्मशान में) एक रंग की काली गाय या बकरी ले जानी चाहिए। (मृत के सम्बन्धी) बायें पैर में (एक रस्सी) बाँधते हैं और उसे शव के पीछे-पीछे लेकर चलते हैं। उसके उपरान्त (मृत के) अन्य सम्बन्धी यज्ञोपवीत नीचा करके (शरीर के चारों ओर करके) एवं शिखा खोलकर चलते हैं; वृद्ध लोग आगे-आगे और छोटी अवस्था वाले पीछे-पीछे चलते हैं। श्मशान के पास पहुँच जाने पर अन्त्येष्टि क्रिया करने वाला अपने शरीर के वामांग को उसकी ओर करके चिता-स्थल की तीर बार परिक्रमा करते हुए उस पर शमी की टहनी से जल छिड़कता है और 'अपेत वीता वि च सर्पतात:' (ऋग्वेद 10।14।9) का पाठ करता है। (श्मशान के) दक्षिण-पूर्व कुछ उठे हुए एक कोण पर वह (पुत्र या कोई अन्य व्यक्ति) आहवनीय अग्नि, उत्तर-पश्चिम दिशा में गार्हपत्य अग्नि और दक्षिण-पश्चिम में दक्षिण अग्नि रखता है। इसके उपरान्त चिता-निर्माण में कोई निपुण व्यक्ति चितास्थल पर चिता के लिए लकड़ियाँ एकत्र करता है। तब कृत्यों को सम्पादित करने वाला लकड़ी के ढूह पर (कुश) बिछाता है और उस पर कृष्ण हरिण का चर्म, जिसका केश वाला भाग ऊपर रहता है, रखता है और सम्बन्धी लोग गार्हपत्य अग्नि के उत्तर से और आहवनीय अग्नि की ओर सिर करके शव को चिता पर रखते हैं। वे तीन उच्च वर्णों में किसी भी एक वर्ण की मृत व्यक्ति की पत्नी को शव के उत्तर चिता पर सो जाने को कहते हैं और यदि मृत क्षत्रिय रहता है तो उसका धनुष उत्तर में रख दिया जाता है। देवर, पति का कोई प्रतिनिधि या कोई शिष्य या पुराना नौकर या दास 'उदीर्ष्व नार्यभि जीवलोकम्' (ऋग्वेद 10।18।8) मन्त्र के साथ-साथ उस स्त्री को उठ जाने को कहता है।<ref>बहुत-से सूत्र पत्नि को शव के उत्तर में चिता पर सो जाने और पुन: उठ जाने की बात कहते हैं। देखिए कौशिकसूत्र (80।40-45) 'इयं नारीति पत्नीमुपसंवेशयति। उदीर्ष्वेत्युत्थापयति।' ये दोनों मन्त्र अथर्ववेद (18।3।1-2) के हैं। सत्याषाढश्रौतसूत्र (28।2।14-16) का कथन है कि शव को चिता पर रखने के पूर्व पत्नी 'इयं नारी' उच्चारण के साथ उसके पास बुलायी जाती है और उसके उपरान्त देवर या कोई ब्राह्मण 'उदीर्ष्व नारी' के साथ उसे उठाता है। वही सूत्र (28।2।22) यह भी कहता है कि शव को चिता पर रखे जाने पर या उसके पूर्व पत्नी को उसके पास सुलाना चाहिए।</ref> यदि शूद्र उठने को कहता है तो मन्त्रपाठ अन्त्येष्टि-क्रिया करने वाली ही करता है, और 'धनुर्हस्तादाददानो' (ऋग्वेद 10।18।9) के साथ धनुष उठा लेता है। प्रत्यंचा को तानकर (चिता बनाने के पूर्व, जिसका वर्णन नीचे होगा) उसे टुकड़े-टुकड़े करके लकड़ियों के समूह पर फेंक देता है।<ref>यहाँ पर शतपथ ब्राह्मण (12।5।2।6) एवं कुछ सूत्र (यथा-कात्यायनश्रौतसूत्र 25।7।19; शांखायनश्रौतसूत्र 4।14।16-35; सत्याषाढश्रौतसूत्र 24।2।23-50; कौशिकसूत्र 81।1-19; बौधायनपितृमेधसूत्र 1।8-9) तथा गोभिल (3।34) जैसी कुछ स्मृतियाँ इतना और जोड़ देती हैं कि सात मार्मिक वायु-स्थानों, यथा मुख, दोनों नासारंध्रों, दोनों आंखों एवं दोनों कर्णों पर वे सोने के टुकड़े रखते हैं। कुछ लोगों ने यह भी कहा है कि घृत मिश्रित तिल भी शव पर छिड़के जाते हैं। गौतमपितृमेधसूत्र (2।7।12) का कथन है कि अध्वर्य मृत शरीर के सिर पर कपालों (गोल पात्रों) को रखता है।</ref> इसके उपरान्त उसे शव पर निम्नलिखित यज्ञिय वस्तुएँ रखनी चाहिए; दाहिने हाथ में जुहू नामक चमस, बायें हाथ में उपभृत चमस, दाहिनी ओर स्फय (काठ की तलवार), बायीं ओर अग्निहोत्रहवणी (वह दर्वी या चमस जिससे अग्नि में हवि डाली जाती है), छाती, सिर, दाँतों पर क्रम से स्रुव (बड़ी यज्ञिय दर्वी), पात्र (या कपाल अर्थात् गोल पात्र) एवं रस निकालने वाले प्रस्तर खण्ड (पत्थर के वे टुकड़े जिनसे सोमरस निकाला जाता है), दोनों नासिकारंध्रों पर दो छोटे-छोटे स्रुव, कानों पर दो प्राशित्र-हरण<ref>प्राशित्रहरण वह पात्र है, जिसमें ब्रह्मा पुरोहित के लिए पुरोडाश का एक भाग रखा जाता है। शम्या हल के जुए की काँटी को कहा जाता है।</ref> (यदि एक ही हो तो दो टुकड़े करके), पेट पर पात्री (जिसमें हवि देने के पूर्व हव्य एकत्र किये जाते हैं) एवं चमस (जिसमें इडा भाग काटकर रखा जाता है), गुप्तांगों पर शम्या, जाँघों पर दो अरणियाँ (जिनके घर्षण से अग्नि प्रज्वलित की जाती है), पैरों पर उखल (ओखली) एवं मुसल (मूसल), पाँवों पर शूर्प (सूप) या यदि एक ही हो तो दो भागों में करके। वे वस्तुएँ जिनमें गड्ढे होते हैं (अर्थात् जिनमें तरल पदार्थ रखे जा सकते हैं), उनमें पृषदाज्य (घृत एवं दही का मिश्रण) भर दिया जाता है। मृत के पुत्र को स्वयं चक्की के ऊपरी एवं निचले पाट ग्रहण करने चाहिए, उसे वे वस्तुएँ भी ग्रहण करनी चाहिए, जो ताम्र, लोहे या मिट्टी की बनी होती हैं। किस वस्तु को कहाँ रखा जाए, इस विषय में मतैक्य नहीं है। जैमिनि (11।3।34) का कथन है कि यजमान के साथ उसकी यज्ञिय वस्तुएँ (वे उपकरण या वस्तुएँ, जो यज्ञ सम्पादन के काम आती हैं) जला दी जाती हैं और उसे प्रतिपत्ति कर्म नामक प्रमेय (सिद्धान्त) की संज्ञा दी जाती है अर्थात् इसे यज्ञपात्रों का प्रतिपत्तिकर्म कहा जाता है।
==टीका टिप्पणी==
==टीका टिप्पणी==


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08:04, 3 नवम्बर 2011 का अवतरण

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सूत्रग्रंथों के अनुसार मरणोपरांत कृत्य

आश्वलायन श्रौतसूत्र के अनुसार

सोमयज्ञ या सत्र के लिए दीक्षित व्यक्ति के (यज्ञ-समाप्ति के पूर्व ही) मर जाने पर जो कृत्य होते थे, उनका वर्णन आश्वलायन श्रौतसूत्र[1] में हुआ है। इसमें आया है-"जब दीक्षित मर जाता है, तो उसके शरीर को वे तीर्थ से ले जाते हैं, उसे उस स्थान पर रखते हैं, जहाँ अवभृथ[2] होने वाला था और उसे उन अलंकरणों से सजाते हैं, जो बहुधा शव पर रखे जाते हैं। वे शव के सिर, चेहरे एवं शरीर के बाल और नख काटते हैं। वे नलद (जटामांसी) का लेप लगाते हैं और शव पर नलदों का हार चढ़ाते हैं। कुछ लोग अँतड़ियों को काटकर उनसे मल निकाल देते हैं और उनमें पृषदाज्य (मिश्रित घृत एवं दही) भर देते हैं। वे शव के पाँव के बराबर नवीन वस्त्र का एक टुकड़ा काट लेते हैं और उससे शव को इस प्रकार ढँक देते हैं कि अंचल पश्चिम दिशा में पड़ जाता है (शव पूर्व में रखा रहता है) और शव के पाँव खुले रहते हैं। कपड़े के टुकड़े का भाव पुत्र आदि ले लेते हैं।

मृत की श्रौत अग्नियाँ अरणियों पर रखी रहती हैं, शव को वेदि से बाहर लाया जाता है और दक्षिण की ओर ले जाते हैं, घर्षण से अग्नि उत्पन्न की जाती है और उसी में शव जला दिया जाता है। श्मशान से लौटने पर उन्हें दिन का कार्य समाप्त करना चाहिए। दूसरे दिन प्रात: शस्त्रों का पाठ, स्तोत्रों का गायन एवं सस्तवों (समवेत रूप में मन्त्रपाठ) का गायन बिना दुहराये एवं बिना 'हिम्' स्वर उच्चारित किये होता है। उसी दिन पुरोहित लोग ग्रहों (प्यालों) को लेने के पूर्व तीर्थों से आते हैं, दाहिने हाथ को ऊँचा करके श्मशान की परिक्रमा करते हैं और निम्न प्रकार से उसके चतुर्दिक बैठ जाते हैं; होता श्मशान के पश्चिम में, अध्वर्यु उत्तर में, अद्गाता अध्वर्यु के पश्चिम और ब्रह्मा दक्षिण में। इसके उपरान्त धीमे स्वर में 'आयं गौ: पृश्निरक्रमीत्' से आरम्भ होने वाला मन्त्र गाते हैं। गायन समाप्त होने के उपरान्त होता अपने बायें हाथ को श्मशान की ओर करके श्मशान की तीन परिक्रमा करता है और बिना 'ओम' का उच्चारण किये उद्गाता के गायन तुरंत पश्चात् धीमें स्वर में स्तोत्रिय का पाठ करता है और निम्न मन्त्रों को, जो यम एवं याम्यायनों (ऋषियों या प्रणेताओं) के मन्त्र हैं, कहता है; यथा-ऋग्वेद।[3]उन्हें ऋग्वेद[4] के साथ समाप्त करना चाहिए और इसके उपरान्त किसी घड़े में अस्थियाँ एकत्र करनी चाहिए, घड़े को तीर्थ की तरफ़ से ले जाना चाहिए और उस आसन पर रखना चाहिए, जहाँ मृत यजमान बैठता था।[5]

अन्य श्रौतसूत्रों के अनुसार

शांखायन श्रौतसूत्र[6] ने आहिताग्नि की अन्त्येष्टि-क्रिया के विषय में विस्तार के साथ लिखा है। कात्यायन श्रौतसूत्र[7] ने यही बातें संक्षेप में कही है। कात्यायन श्रौतसूत्र[8] ने केश एवं नख काटने एवं मल पदार्थ निकाल देने की चर्चा की है। कौशिकसूत्र[9] एवं शांखायन श्रौतसूत्र[10] ने भी इन सब बातों की ओर संकेत किया है और इतना जोड़ दिया है कि यदि वे दाहिनी ओर से अँतड़ियाँ काटकर निकालते हैं, तो उन्हें पुन: दर्भ से सी देते हैं या वे केवल शरीर को स्नान करा देते हैं (बिना मल स्वच्छ किये), उसे वस्त्र से ढँक देते हैं, सँवारते हैं, आसन्दी पर, जिस पर काला मृगचर्म[11] बिछा रहता है, रख देते हैं, उस पर नलद की माला रख देते हैं,[12] और उसे नवीन वस्त्र से ढँक देते हैं।[13] सत्याषाढ श्रौतसूत्र[14] एवं गौतमपितृमेधसूत्र[15] में भी ऐसी बातें दी हुई हैं और यह भी है कि शव के हाथ एवं पैर के अँगूठे श्वेत सूत्रों या वस्त्र के अंचल भाग से बाँध दिये जाते हैं और आसन्दी[16] उदुम्बर लकड़ी की बनी होती है। कौशिकसूत्र[17] ने अथर्ववेद के बहुत-से मन्त्रों का उल्लेख किया है, जो चिता जलाने पर एवं हवि देते समय कहे जाते हैं।[18]

शवदहन प्रक्रिया

शतपथ ब्राह्मण[19] का कथन है कि पत्थर एवं मिट्टी के बने यज्ञ-पात्र किसी ब्राह्मण को दान दे देने चाहिए, किन्तु लोग मिट्टी के पात्रों को शववाहन समझते हैं, अत: उन्हें जल में फेंक देना चाहिए। अनुस्तरणी (बकरी या गाय) की वपा निकालकर उससे (अन्त्येष्टि क्रिया करने वाले द्वारा) मृत के मुख एवं सिर को ढँक देना चाहिए और ऐसा करते समय 'अग्नेर्वर्म'[20] का पाठ करना चाहिए। पशु के दोनों वृक्क निकालकर मृत के हाथों में रख देने चाहिए-दाहिना वृक्क दाहिने हाथ में और बायाँ बायें हाथ में-और 'अतिद्रव'[21] का केवल एक बार पाठ करना चाहिए। वह पशु के हृदय को शव के हृदय पर रखता है, कुछ लोगों के मत से भात या जौ के आटे के दो पिण्ड भी रखता है।[22] शव के अंगों पर पशु के वही अंग काट-काटकर रख देता है और पुन: उसकी खाल से शव को ढँककर प्रणीता के जल को आगे ले जाते समय वह (अन्त्येष्टि कर्म करने वाला) 'इमम् अग्ने'[23] का आह्वान के रूप में पाठ करता है। अपना बायाँ घुटना मोड़कर वह दक्षिण-अग्नि में घृत की चार आहुति यह कहकर डालता है-'अग्नि को स्वाहा! सोम को स्वाहा! लोक को स्वाहा! अनुमति को स्वाहा!' पाँचवीं आहुति शव की छाती पर यह कहकर दी जाती है, 'जहाँ से तू उत्पन्न हुआ है! वह तुझसे उत्पन्न हो, न न। स्वर्गलोक को स्वाहा'।[24]

इसके उपरान्त आश्वलायन गृह्यसूत्र[25] यह बताता है कि यदि आहवनीय अग्नि या गार्हपत्य या दक्षिण अग्नि शव के पास प्रथम पहुँचती है या सभी अग्नियाँ एक साथ ही शव के पास पहुँचती हैं, तो क्या समझना चाहिए; और जब शव जलता रहता है तो वह उस पर मन्त्रपाठ करता है।[26] जो व्यक्ति यह सब जानता है, उसके द्वारा जलाये जाने पर धूम के साथ मृत व्यक्ति स्वर्गलोक जाता है, ऐसा ही (श्रुति से) ज्ञात है। 'इमे जीवा:'[27] के पाठ के उपरान्त सभी (सम्बन्धी) लोग दाहिने से बायें घूमकर बिना पीछे देखे चल देते हैं। वे किसी स्थिर जल के स्थल पर जाते हैं और उसमें एक बार डुबकी लेकर और दोनों हाथों को ऊपर करके मृत का गौत्र, नाम उच्चारित करते हैं, बाहर आते हैं, दूसरा वस्त्र पहनते हैं, एक बार पहने हुए वस्त्र को निचोड़ते हैं और अपने कुरतों के साथ उन्हें उत्तर की ओर दूर रखकर वे तारों के उदय होने तक बैठे रहते हैं या सूर्यास्त का एक अंश दिखाई देता है तो वे घर लौट आते हैं, छोटे लोग पहले और बूढे लोग अन्त में प्रवेश करते हैं। घर लौटने पर वे पत्थर, अग्नि, गोबर, भुने जौ, तिल एवं जल स्पर्श करते हैं। और[28] जहाँ अन्य कृत्य भी दिये गये हैं, यथा स्नान करना, जल-तर्पण करना, बैल को छूना, आंख में अंजन लगाना तथा शरीर में अंगराग लगाना।

शीर्षक

शतपथ ब्राह्मण[29] एवं पारस्कर गृह्यसूत्र[30] ने स्पष्ट लिखा है कि जिसका उपनयन संस्कार हो चुका है, उसकी अन्त्येष्टि क्रिया उसी प्रकार की जाती है, जिस प्रकार श्रौत अग्निहोत्र करने वाले व्यक्ति की, अन्तर केवल इतना होता है कि आहिताग्नि तीनों वैदिक अग्नियों के साथ जला दिया जाता है, जिसके पास केवल स्मार्त अग्नि या औपासन अग्नि होती है, वह उसके साथ जला दिया जाता है और साधारण लोगों का शव केवल साधारण अग्नि से जलाया जाता है। देवल का कथन है कि साधारण अग्नि के प्रयोग में चाण्डाल की अग्नि या अशुद्ध अग्नि या सूतकगृह-अग्नि या पतित के घर की अग्नि या चिता की अग्नि का व्यवहार नहीं करना चाहिए। पितदयिता के मत से जिसने अग्निहोत्र न किया हो, उसके लिए 'अस्मात् त्वम् आदि' मन्त्र का पाठ नहीं करना चाहिए। पारस्कर गृह्यसूत्र ने व्यवस्था दी है कि एक ही गाँव के रहने वाले सम्बन्धी एक ही प्रकार का कृत्य करते हैं, वे एक ही वस्त्र धारण करते हैं, यज्ञोपवीत को दाहिने कंधे से लटकाते हैं और बायें हाथ की चौथी अँगुली से वाजसनेयी संहिता[31] के साथ जल तर्पण करते हैं तथा दक्षिणाभिमुख होकर जल में डुबकी लेते हैं और अंजलि से एक बार जल तर्पण करते हैं।

परिवारजनों द्वारा स्नान

आपस्तम्ब धर्मसूत्र[32] का कथन है कि जब किसी व्यक्ति की माता या पिता की सातवीं पीढ़ी के सम्बन्धी या जहाँ तक वंशावली ज्ञात हो, वहाँ तक के व्यक्ति मरते हैं, तो एक वर्ष से छोटे बच्चों को छोड़कर सभी लोगों को स्नान करना चाहिए। जब एक वर्ष से कम अवस्था वाला बच्चा मरता है तो माता-पिता एवं उनको जो बच्चे का शव ढोते हैं, स्नान करना चाहिए। उपर्युक्त सभी लोगों को बाल नहीं सँवारने चाहिए, बालों से धूल हटा देनी चाहिए, एक ही वस्त्र धारण करना चाहिए, दक्षिणाभिमुख होना चाहिए, पानी में डुबकी लगानी चाहिए, मृत को तीन बार जल तर्पण करना चाहिए और नदी या जलाशय के पास बैठ जाना चाहिए। इसके पश्चात् गाँव को लौट जाना चाहिए तथा स्त्रियाँ जो कुछ कहें उसे करना चाहिए।[33] याज्ञवल्क्यस्मृति[34] ने भी ऐसे नियम दिये हैं और 'अप न: शोशुचद् अघम्'[35] के पाठ की व्यवस्था दी है।

गौतमपितृमेधसूत्र के मत से चिता का निर्माण

गौतमपितृमेधसूत्र[36] के मत से चिता का निर्माण यज्ञिय वृक्ष की लकड़ी से करना चाहिए और सपिण्ड लोग जिनमें स्त्रियाँ और विशेषत: कम अवस्था वाली सबसे आगे रहती हैं। चिता पर रखे गये शव पर अपने वस्त्र के अन्तभाग (आँचल) से हवा करते हैं, अन्त्येष्टि क्रिया करने वाला एक जलपूर्ण घड़ा लेता है और अपने सिर पर दर्भेण्डु रखता है और तीन बार शव की परिक्रमा करता है। पुरोहित घड़े पर एक पत्थर (अश्म) या कुल्हाड़ी से धीमी चोट करता है और 'इमा आप: आदि' का पाठ करता है। जब टूटे घड़े से जल की धार बाहर निकलने लगती है तो मन्त्र के शब्दों में कुछ परिवर्तन हो जाता है, यथा 'अस्मिन् लोके' के स्थान पर 'अन्तरिक्षे आदि'। अन्त्येष्टिकर्ता खड़े रूप में जलपूर्ण घड़े को पीछे फेंक देता है। इसके उपरान्त 'तस्मात् त्वमधिजातोसि......असौ स्वर्गाय लोकाय स्वाहा' के पाठ के साथ शव को जलाने के लिए चिता में अग्नि प्रज्वलित करता है।[37] शतपथ ब्राह्मण[38] का कथन है कि घर के लोग अपनी दाहिनी जाँघों को पीटते हैं, आँचल से शव पर हवा करते हैं और तीन बार शव की बायें ओर होकर परिक्रमा करते हैं तथा 'अप न: शोशुचदघम्'[39] पढ़ते हैं। इसने आगे कहा है[40] कि शव किसी गाड़ी में या चार पुरुषों के द्वारा ढोया जाता है, और ढोते समय चार स्थानों पर रोका जाता है और उन चारों स्थानों पर पृथ्वी खोद दी जाती है और उसमें भात का पिण्ड 'पूषा त्वेत:'[41] एवं 'आयुर्विश्वायु:'[42] मन्त्रों के साथ आहुति के रूप में रख दिया जाता है। वराह पुराण के अनुसार पौराणिक मन्त्रों का उच्चारण करना चाहिए, अन्त्येष्टिकर्ता को चिता की परिक्रमा करनी चाहिए और उसके उस भाग में अग्नि प्रज्वलित करनी चाहिए जहाँ पर सिर रखा रहता है।

शव को ले जाने के नियम

शव को ले जाने के विषय में कई प्रकार के नियमों की व्यवस्था है। हमने ऊपर देख लिया है कि शव गाड़ी में ले जाया जाता था या सम्बन्धियों या नौकरों (दासों) द्वारा विशिष्ट प्रकार से बने पलंग या कुर्सी या अरथी द्वारा ले जाया जाता था। इस विषय में कुछ सूत्रों, स्मृतियों, टीकाओं एवं अन्य ग्रन्थों ने बहुत-से नियम प्रतिपादित किये हैं। रामायण[43] में आया है कि दशरथ की मृत्यु पर उनके पुरोहितों द्वारा शव के आगे वैदिक अग्नियाँ ले जायी जा रही थीं, शव एक पालकी (शिबिका) में रखा हुआ था, नौकर ढो रहे थे, सोने के सिक्के एवं वस्त्र अरथी के आगे दरिद्रों के लिए फेंके जा रहे थे। सामान्य नियम यह था कि तीन उच्च वर्णों में शव को मृत व्यक्ति के वर्ण वाले ही ढोते थे और शूद्र उच्च वर्ण का शव तब तक नहीं ढो सकते थे, जब तक उस वर्ण के लोग नहीं पाये जाते थे। उच्च वर्ण के लोग शूद्र के शव को नहीं ढोते थे और इस नियम का पालन करने पर तत्सम्बन्धी अशौच मृत व्यक्ति की जाति से निर्णीत होता था।[44] ब्रह्मचारी को किसी व्यक्ति या अपनी जाति के किसी व्यक्ति के शव को ढोने की आज्ञा नहीं थी, किन्तु वह अपने माता-पिता, गुरु, आचार्य एवं उपाध्याय के शव को ढो सकता था और ऐसा करने पर उसे कोई कल्मष नहीं लगता था।[45] गुरु, आचार्य और उपाध्याय की परिभाषा याज्ञवल्क्यस्मृति[46] ने दी है। यदि कोई ब्रह्मचारी उपर्युक्त पाँच व्यक्तियों के अतिरिक्त किसी अन्य का शव ढोता था, तो उसका ब्रह्मचर्यव्रत खण्डित माना जाता था और उसे व्रतलोप का प्रायश्चित करना पड़ता था। मनुस्मृति[47] का कथन है कि जो लोग स्वजातीय व्यक्ति का शव ढोते हैं, उन्हें वस्त्रसहित स्नान करना चाहिए; नीम की पत्तियाँ दाँत से चबानी चाहिए; आचमन करना चाहिए; अग्नि, जल, गोबर, श्वेत सरसों का स्पर्श करना चाहिए; धीरे से किसी पत्थर पर पैर रखना चाहिए और तब घर में प्रवेश करना चाहिए। सपिण्डों का यह कर्तव्य है कि वे अपने सम्बन्धी का शव ढोएँ, ऐसा करने के उपरान्त उन्हें केवल स्नान करना होता है, अग्नि को छूना होता है और पवित्र होने के लिए घृत पीना पड़ता है।[48]

मृत शरीर को ढोने वाले के लिए नियम

सपिण्डरहित ब्राह्मण के मृत शरीर को ढोने वाले की पराशरमाधवीय[49] ने बड़ी प्रशंसा की है और कहा है कि जो व्यक्ति मृत ब्राह्मण के शरीर को ढोता है, वह प्रत्येक पग पर एक-एक यज्ञ के सम्पादन का फल पाता है और केवल पानी में डुबकी लेने और प्राणायाम करने से ही पवित्र हो जाता है। मनुस्मृति[50] का कथन है कि जो व्यक्ति किसी सपिण्डरहित व्यक्ति के शव को प्रेमवश ढोता है, वह तीन दिनों के उपरान्त ही अशौचरहित हो जाता है। आदिपुराण को उद्धृत करते हुए हारलता[51] ने लिखा है कि यदि कोई क्षत्रिय या वैश्य किसी दरिद्र ब्राह्मण या क्षत्रिय (जिसने सब कुछ खो दिया हो) के या दरिद्र वैश्य के शव को ढोता है, वह बड़ा यश एवं पुण्य पाता है और स्नान के उपरान्त ही पवित्र हो जाता है। सामान्यत: आज भी (विशेषत: ग्रामों में) एक ही जाति के लोग शव को ढोते हैं या साथ जाते हैं और वस्त्रसहित स्नान करने के पश्चात् पवित्र मान लिये जाते हैं। कुछ मध्यकाल की टीकाओं, यथा मिताक्षरा ने जाति-संकीर्णता की भावना से प्रेरित होकर व्यवस्था दी है कि "यदि कोई व्यक्ति प्रेमवश शव ढोता है, मृत के परिवार में भोजन करता है और वहीं रह जाता है तो वह दस दिनों तक अशौच में रहता है। यह नियम तभी लागू होता है, जब कि शव को ढोने वाला मृत की जाति का रहता है। यदि ब्राह्मण किसी मृत शूद्र के शव को ढोता है, तो वह एक मास तक अपवित्र रहता है, किन्तु यदि कोई शूद्र किसी मृत ब्राह्मण के शव को ढोता है तो वह दस दिनों तक अशौच में रहता है।" कूर्म पुराण ने व्यवस्था दी है कि यदि कोई ब्राह्मण किसी मृत ब्राह्मण के शव को शुल्क लेकर ढोता है या किसी अन्य स्वार्थ के लिए ऐसा करता है तो वह दस दिनों तक अपवित्र (अशौच) में रहता है, और इसी प्रकार कोई क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र ऐसा करता है तो क्रम से 12, 15 एवं 30 दिनों तक अपवित्र रहता है।

चिता-निर्माण

विष्णु पुराण का कथन है कि यदि कोई व्यक्ति शुल्क लेकर शव ढोता है तो वह मृत व्यक्ति की जाति के लिए व्यवस्थित अवधि तक अपवित्र रहता है। हारीत[52] के मत से शव को मार्ग के गाँवों में होकर नहीं ले जाना चाहिए। मनुस्मृति[53] एवं वृद्ध-हारीत[54] का कथन है कि शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय एवं ब्राह्मण का मृत शरीर क्रम से ग्राम या बस्ती के दक्षिणी, पश्चिमी, उत्तरी एवं पूर्वी मार्ग से ले जाना चाहिए। यम एवं गरुड़ पुराण[55] का कथन है कि चिता के लिए अग्नि, काष्ठ (लकड़ी), तृण, हवि आदि उच्च वर्णों की अन्त्येष्टि के लिए शूद्र द्वारा नहीं ले जाना चाहिए, नहीं तो मृत व्यक्ति सदा प्रेतावस्था में ही रह जायेगा। हारलता[56] का कथन है कि यदि शूद्रों द्वारा लकड़ी ले जायी जाये तो ब्राह्मण के शव के चिता-निर्माण के लिए ब्राह्मण ही प्रयुक्त होना चाहिए। स्मृतियों एवं पुराणों ने व्यवस्था दी है कि शव को नहलाकर जलाना चाहिए, शव को नग्न रूप में कभी नहीं जलाना चाहिए। उसे वस्त्र से ढँका रहना चाहिए, उस पर पुष्प रखने चाहिए और चन्दन लेप करना चाहिए; अग्नि को शव के मुख की ओर ले जाना चाहिए। किसी व्यक्ति को कच्ची मिट्टी के पात्र में पका हुआ भोजन ले जाना चाहिए, किसी अन्य व्यक्ति को उस भोजन का कुछ अंश मार्ग में रख देना चाहिए और चाण्डाल आदि (जो श्मशान में रहते हैं) के लिए वस्त्र आदि दान करना चाहिए। ब्रह्म पुराण[57] का कथन है कि शव को श्मशान ले जाते समय वाद्ययंत्रों द्वारा पर्याप्त निनाद किया जाता है।[58]

शव को जलाने के उपरान्त, अन्त्येष्टि क्रिया के अंग के रूप में कर्ता को वपन (मुंडन) करवाना पड़ता है और उसके उपरान्त स्नान करना होता है, किन्तु वपन के विषय में कई नियम हैं। स्मृति-वचन यों है-'दाढ़ी-मूँछ बनवाना सात बातों में घोषित है, यथा-गंगातट पर, भास्कर क्षेत्र में, माता, पिता या गुरु की मृत्यु पर, श्रौताग्नियों की स्थापना पर एवं सोमयज्ञ में।'[59] अन्त्यकर्मदीपक (पृष्ठ 19) का कथन है कि अन्त्येष्टि क्रिया करने वाले पुत्र या किसी अन्य कर्ता को सबसे पहले वपन कराकर स्नान करना चाहिए और तब शव को किसी पवित्र स्थल पर ले जाना चाहिए तथा वहाँ स्नान कराना चाहिए, या यदि ऐसा स्थान वहाँ न हो तो शव को स्नान कराने वाले जल में गंगा, गया या अन्य तीर्थों का आवाहन करना चाहिए। इसके उपरान्त शव पर घी या तिल के तेल का लेप करके पुन: उसे नहलाना चाहिए, नया वस्त्र पहनाना चाहिए, यज्ञोपवीत, गोपीचन्दन, तुलसी की माला से सजाना चाहिए और सम्पूर्ण शरीर में चन्दन, कपूर, कुंकुम, कस्तूरी आदि सुंगधित पदार्थों का प्रयोग करना चाहिए। यदि अन्त्येष्टि क्रिया रात्रि में हो तो वपन रात्रि में नहीं होना चाहिए, बल्कि दूसरे दिन होना चाहिए।[60] अन्य स्मृतियों ने दूसरे, तीसरे, पाँचवें या सातवें दिन या ग्यारहवें दिन के श्राद्धकर्म के पूर्व किसी दिन भी वपन की व्यवस्था दी है।[61] आपस्तम्बधर्मसूत्र (1।3।10।6) के मत से मृत व्यक्ति से छोटे सभी सपिण्ड लोगों को वपन कराना चाहिए। मदनपारिजात का कथन है कि अन्त्येष्टि कर्ता को वपन-कर्म प्रथम दिन तथा अशौच की समाप्ति पर कराना चाहिए, किन्तु शुद्धिप्रकाश (पृष्ठ 162) ने मिताक्षरा (याज्ञवल्क्यस्मृति 3।17) के मत का समर्थन करते हुए कहा है कि वपन-कर्म का दिन स्थान-विशेष की परम्परा पर निर्भर है। वाराणसी सम्प्रदाय के मत से कर्ता अन्त्येष्टि कर्म के समय वपन कराता है, किन्तु मिथिला सम्प्रदाय के मत से अन्त्येष्टि के समय वपन नहीं होता।

गरुड़पुराण (2।4।67-69) के मत से घोर रुदन शवदाह के समय किया जाना चाहिए, किन्तु दाह-कर्म एवं जल-तर्पण के उपरान्त रुदन-कार्य नहीं होना चाहिए।

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मनुष्य के प्राण निकल जाने पर मृत शरीर को अग्नि में समर्पित कर अंत्येष्टि-संस्कार करने का विधान हमारे ऋषियों ने इसलिए बनाया, ताकि सभी स्वजन, संबधी, मित्र, परिचित अपनी विदाई देने आएं और इससे उन्हें जीवन का उद्देश्य समझने का मौक़ा मिले, साथ ही यह भी अनुभव हो कि भविष्य में उन्हें भी शरीर छोड़ना है।[62] हिन्दू धर्म में मृतक को जलाने की परंपरा है, जबकि अन्य धर्मों में प्रायः ज़मीन में गाड‌ने की। जलाने की परंपरा वैज्ञानिक है। शव को जला देने पर मात्र राख बचती है, शेष अंश जलकर समाप्त हो जाते हैं। राख को नदी आदि में प्रवाहित कर दिया जाता है। इससे प्रदूषण नहीं फैलता, जबकि शव को ज़मीन में गाड़ने से पृथ्वी में प्रदूषण फैलता है, दुर्गन्ध फैलती है तथा भूमि अनावश्यक रुप से फंसी रहती है। चूडा‌मण्युपनिषद् में कहा गया है की ब्रह्म से स्वयं प्रकाशरुप आत्मा की उत्पत्ति हुई। आत्मा से आकाश, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, जल से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई। इन पाँच तत्त्वों से मिलकर ही मनुष्य शरीर की रचना हुई है। हिन्दू अंत्येष्टि-संस्कार में मृत शरीर को अग्नि में समर्पित करके आकाश, वायु, जल, अग्नि और मिट्टी इन्हीं पंचतत्त्वों में पुनः मिला दिया जाता है।

मृतक देह को जलाने यानी शवदाय करने के सबंध में अथर्ववेद में लिखा है -

इमौ युनिज्मि ते वहनी असुनीताय वोढवे।
ताभ्यां यमस्य सादनं समितीश्चाव गाच्छ्तात्।।[62]

अर्थात है जीव! तेरे प्राणविहिन मृतदेह को सदगाति के लिए मैं इन दो अग्नियों को संयुक्त करता हूं। अर्थात तेरी मृतक देह में लगाता हूँ। इन दोनों अग्नियों के द्धारा तू सर्वनियंता यम परमात्मा के समीप परलोक को श्रेष्ठ गातियों के साथ प्राप्त हो।

आ रभस्व जातवेदस्तेजस्वदधरो अस्तु ते।
शरीरमस्य सं दहाथैनं धेहि सुकृतामु लोके।।[62]

अर्थात हे अग्नि! इस शव को तू प्राप्त हो। इसे अपनी शरण में ले। तेरा सामर्थ्य तेजयुक्त होवे। इस शव को तू जला दे और है अग्निरुप प्रभो, इस जीवात्मा को तू सुकृतलोक में धारण करा।

वायुरनिलममृतमथेदं भस्मांतं शरीरम् ।
ओद्दम् क्रतो स्मर। क्लिवे स्मर। कृतं स्मर।।[62]

अर्थात हे कर्मशील जीव, तू शरीर छूटते समय परमात्मा के श्रेष्ठ और मुख्य नाम ओम् का स्मरण कर। प्रभु को याद कर। किए हुए अपने कर्मों को याद कर। शरीर में आने जाने वाली वायु अमृत है, परंतु यह भौतिक शरीर भस्मपर्यन्त है। भस्मांत होने वाला है। यह शव भस्म करने योग्य है।

कपाल-क्रिया

हिंदुओं में यह मान्यता भी है की मृत्यु के बाद भी आत्मा शरीर के प्रति वासना बने रहने के कारण अपने स्थूलशरीर के आस-पास मंडराती रहती है, इसलिए उसे अग्नि को समर्पित कर दिया जाता है, ताकि उनके बीच कोई संबध न रहे।[62] अंत्येष्टि-संस्कार में कपाल-क्रिया क्यों की जाती है, उसका उल्लेख गरुड़पुराण में मिलता है। जब शवदाह के समय मृतक की खोपडी को घी की आहुति सात बार देकर डंडे से तीन बार प्रहार करके फोड़ा जाता है, तो उस समय प्रक्रिया को कपालक्रिया के नाम से जाना जाता है। चूंकि खोपडी की हड्डी इतनी मज़बूत होती है कि उसे आग से भस्म होने में भी समय लगता है। वह टूटकर मस्तिष्क में स्थित ब्रह्मरंध्र पंचतत्त्व में पूर्ण रुप से विलीन हो जाएं, इसलिए उसे तोड़ना जरुरी होता है। इसके अलावा अलग-अलग मान्यताएं भी प्रचलित है। मसलन कपाल का भेदन होने पर प्राण पूरी तरह स्वतंत्र होते है और नए जन्म की प्रक्रिया में आगे बढते हैं। दूसरी मान्यता यह है की खोपड़ी को फोड़कर मस्तिष्क को इसलिए जलाया जाता है। ताकि वह अधजला न रह जाए अन्यथा अगले जन्म में वह अविकसित रह जाता है। हमारे शरीर के प्रत्येक अंग में विभिन्न देवताओं का वास होने की मान्यता का विवरण श्राद्धचंद्रिका में मिलता है। चूँकि सिर में ब्रह्मा का वास माना जाता है इसलिए शरीर को पूर्णरुप से मुक्ति प्रदान करने के लिए कपालक्रिया द्धारा खोपड़ी को फोड़ा जाता है। पुत्र के द्वारा पिता को अग्नि देना व कपालक्रिया इसलिए करवाई जाती है ताकि उसे इस बात का एहसास हो जाए कि उसके पिता अब इस दुनिया में नहीं रहे और घर-परिवार का संपूर्ण भार उसे ही वहन करना है।[62]

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आश्वलायनगृह्यसूत्र (4।1 एवं 2) ने आहिताग्नि की मृत्यु से सम्बन्धित सामान्य कृत्यों का वर्णन किया है, किन्तु आश्वलायनश्रौतसूत्र (जिसका ऊपर वर्णन किया गया है) ने उस आहिताग्नि की अन्त्येष्टि का वर्णन किया है, जो सोमयज्ञ या अन्य यज्ञों में लगे रहते समय मर जाता है। आश्वलायनगृह्यसूत्र का कहना है-"जब आहिताग्नि मर जाता है तो किसी को (पुत्र या कोई अन्य सम्बन्धी को) चाहिए कि वह दक्षिण-पूर्व या दक्षिण-पश्चिम में ऐसे स्थान पर भूमि-खण्ड खुदवाये, जो दक्षिण या दक्षिण-पूर्व की ओर ढालू हो, या कुछ लोगों के मत से वह भूमि-खण्ड दक्षिण-पश्चिम की ओर ढालू हो सकता है। गड्डा एक उठे हुए हाथों वाले पुरुष की लम्बाई का, एक व्यास (पूरी बाँह तक लम्बाई) के बराबर चौड़ा एवं एक वितस्ति (बारह अंगुल) गहरा होना चाहिए। श्मशान चतुर्दिक खुला रहना चाहिए। इसमें जड़ी-बूटियों का समूह होना चाहिए, किन्तु कँटीले एवं दुग्धयुक्त पौधे निकाल बाहर कर देने चाहिए (देखिए आश्वलायनगृह्यसूत्र 2।7।5, वास्तु-परीक्षा)। उस स्थान से पानी चारों ओर जाता हो, अर्थात् श्मशान कुछ ऊँची भूमि पर होना चाहिए। यह सब उस श्मशान के लिए है, जहाँ पर शव जलाया जाता है। उन्हें शव के सिर के केश एवं नख काट देने चाहिए (देखिए आश्वलायनगृह्यसूत्र 6।10।2) यज्ञिय घास एवं घृत का प्रबन्ध करना चाहिए। इसमें (अन्त्येष्टि क्रिया में) वे घृत को दही में डालते हैं। यही पृषदाज्य है, जो पितरों के कृत्यों में प्रयुक्त होता है। (मृत के सम्बन्धी) उसकी पूताग्नियों एवं उसके पवित्र पात्रों को उस दिशा में जहाँ चिता के लिए गड्डा खोदा गया है, ले जाते हैं। इसके उपरान्त संख्या में बूढ़े (पुरुष और स्त्रियाँ साथ नहीं चलतीं) लोग शव को ढोते हैं। कुछ लोगों का कथन है कि शव बैलगाड़ी में ढोया जाता है। कुछ लोगों ने व्यवस्था दी है कि (श्मशान में) एक रंग की काली गाय या बकरी ले जानी चाहिए। (मृत के सम्बन्धी) बायें पैर में (एक रस्सी) बाँधते हैं और उसे शव के पीछे-पीछे लेकर चलते हैं। उसके उपरान्त (मृत के) अन्य सम्बन्धी यज्ञोपवीत नीचा करके (शरीर के चारों ओर करके) एवं शिखा खोलकर चलते हैं; वृद्ध लोग आगे-आगे और छोटी अवस्था वाले पीछे-पीछे चलते हैं। श्मशान के पास पहुँच जाने पर अन्त्येष्टि क्रिया करने वाला अपने शरीर के वामांग को उसकी ओर करके चिता-स्थल की तीर बार परिक्रमा करते हुए उस पर शमी की टहनी से जल छिड़कता है और 'अपेत वीता वि च सर्पतात:' (ऋग्वेद 10।14।9) का पाठ करता है। (श्मशान के) दक्षिण-पूर्व कुछ उठे हुए एक कोण पर वह (पुत्र या कोई अन्य व्यक्ति) आहवनीय अग्नि, उत्तर-पश्चिम दिशा में गार्हपत्य अग्नि और दक्षिण-पश्चिम में दक्षिण अग्नि रखता है। इसके उपरान्त चिता-निर्माण में कोई निपुण व्यक्ति चितास्थल पर चिता के लिए लकड़ियाँ एकत्र करता है। तब कृत्यों को सम्पादित करने वाला लकड़ी के ढूह पर (कुश) बिछाता है और उस पर कृष्ण हरिण का चर्म, जिसका केश वाला भाग ऊपर रहता है, रखता है और सम्बन्धी लोग गार्हपत्य अग्नि के उत्तर से और आहवनीय अग्नि की ओर सिर करके शव को चिता पर रखते हैं। वे तीन उच्च वर्णों में किसी भी एक वर्ण की मृत व्यक्ति की पत्नी को शव के उत्तर चिता पर सो जाने को कहते हैं और यदि मृत क्षत्रिय रहता है तो उसका धनुष उत्तर में रख दिया जाता है। देवर, पति का कोई प्रतिनिधि या कोई शिष्य या पुराना नौकर या दास 'उदीर्ष्व नार्यभि जीवलोकम्' (ऋग्वेद 10।18।8) मन्त्र के साथ-साथ उस स्त्री को उठ जाने को कहता है।[63] यदि शूद्र उठने को कहता है तो मन्त्रपाठ अन्त्येष्टि-क्रिया करने वाली ही करता है, और 'धनुर्हस्तादाददानो' (ऋग्वेद 10।18।9) के साथ धनुष उठा लेता है। प्रत्यंचा को तानकर (चिता बनाने के पूर्व, जिसका वर्णन नीचे होगा) उसे टुकड़े-टुकड़े करके लकड़ियों के समूह पर फेंक देता है।[64] इसके उपरान्त उसे शव पर निम्नलिखित यज्ञिय वस्तुएँ रखनी चाहिए; दाहिने हाथ में जुहू नामक चमस, बायें हाथ में उपभृत चमस, दाहिनी ओर स्फय (काठ की तलवार), बायीं ओर अग्निहोत्रहवणी (वह दर्वी या चमस जिससे अग्नि में हवि डाली जाती है), छाती, सिर, दाँतों पर क्रम से स्रुव (बड़ी यज्ञिय दर्वी), पात्र (या कपाल अर्थात् गोल पात्र) एवं रस निकालने वाले प्रस्तर खण्ड (पत्थर के वे टुकड़े जिनसे सोमरस निकाला जाता है), दोनों नासिकारंध्रों पर दो छोटे-छोटे स्रुव, कानों पर दो प्राशित्र-हरण[65] (यदि एक ही हो तो दो टुकड़े करके), पेट पर पात्री (जिसमें हवि देने के पूर्व हव्य एकत्र किये जाते हैं) एवं चमस (जिसमें इडा भाग काटकर रखा जाता है), गुप्तांगों पर शम्या, जाँघों पर दो अरणियाँ (जिनके घर्षण से अग्नि प्रज्वलित की जाती है), पैरों पर उखल (ओखली) एवं मुसल (मूसल), पाँवों पर शूर्प (सूप) या यदि एक ही हो तो दो भागों में करके। वे वस्तुएँ जिनमें गड्ढे होते हैं (अर्थात् जिनमें तरल पदार्थ रखे जा सकते हैं), उनमें पृषदाज्य (घृत एवं दही का मिश्रण) भर दिया जाता है। मृत के पुत्र को स्वयं चक्की के ऊपरी एवं निचले पाट ग्रहण करने चाहिए, उसे वे वस्तुएँ भी ग्रहण करनी चाहिए, जो ताम्र, लोहे या मिट्टी की बनी होती हैं। किस वस्तु को कहाँ रखा जाए, इस विषय में मतैक्य नहीं है। जैमिनि (11।3।34) का कथन है कि यजमान के साथ उसकी यज्ञिय वस्तुएँ (वे उपकरण या वस्तुएँ, जो यज्ञ सम्पादन के काम आती हैं) जला दी जाती हैं और उसे प्रतिपत्ति कर्म नामक प्रमेय (सिद्धान्त) की संज्ञा दी जाती है अर्थात् इसे यज्ञपात्रों का प्रतिपत्तिकर्म कहा जाता है।

टीका टिप्पणी

  1. आश्वलायन श्रौतसूत्र 6|10
  2. सोमयज्ञ या सत्र-यज्ञ की परिसमाप्ति पर स्नान
  3. ऋग्वेद 10|14|7-8, 10-11; 10|16|1-6; 10|17-3-6; 10|18|10-13; 10|154|1-5
  4. ऋग्वेद 10|14|10
  5. चात्वाल एवं उत्कर के मध्य वाले यज्ञ-स्थान को जाने वाला मार्ग तीर्थ कहा जाता है। देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड 2, अध्याय 29। स्तोत्रिय के लिए देखिए खण्ड 2, अध्याय 33। शतपथ ब्राह्मण (12|5|2|5) ने मृत व्यक्ति के शरीर से सभी गन्दे पदार्थों के निकाल देने की परम्परा की ओर संकेत किया है, किन्तु इसे अकरणीय ठहराया है। उसका इतना ही कथन है-'उसके भीतर को स्वच्छ कर लेने के उपरान्त वह उस पर घृत का लेप करता है और इस प्रकार शरीर को यज्ञिय रूप में पवित्र कर देता है।'
  6. शांखायन श्रौतसूत्र 4|14-15
  7. कात्यायन श्रौतसूत्र 25|7
  8. कात्यायन श्रौतसूत्र 25|7|18
  9. कौशिकसूत्र 80.13-16
  10. शांखायन श्रौतसूत्र 4.14.4-5
  11. जिसका मुख वाला भाग दक्षिण की ओर रहता है
  12. प्रयोगरत्न के सम्पादक ने नलद को उशीर कहा है। कुछ ग्रन्थों में नलद के स्थान पर जपा पुष्प की बात कही गयी है।
  13. जैसा कि ऊपर आश्वलायनश्रौतसूत्र के अनुसार लिखा गया है
  14. सत्याषाढ श्रौतसूत्र 28.1.22
  15. गौतमपितृमेधसूत्र 1.10-14
  16. वह छोटा सा पंलग या कुर्सी जिस पर शव रखकर ढोया जाता है
  17. कौशिकसूत्र 80.3.3.45
  18. कौशिकसूत्र 18.2.4 एवं 36; 18.3.4; 18.1.49-50 एवं 58; 18.1.41-43; 7.68.1-2; 18.3.25; 18.2.4-18; (18.2.10 को छोड़कर); 18.4.1-15 आदि।
  19. शतपथ ब्राह्मण 12.5.2.14
  20. ऋग्वेद 10.16.7
  21. ऋग्वेद 10.14.10
  22. कात्यायन श्रौतसूत्र के अनुसार अनुस्तरणी पशु को कान के पास घायल करके मारा जाता है। जातूकर्ण्य के मत से शव के विभिन्न भागों पर पशु के उन्हीं भागों के अंग रखे जाते हैं। किन्तु कात्यायन इसे नहीं मानते, क्योंकि ऐसा करने पर जलाने के पश्चात् अस्थियों को एकत्र करते समय पशु की अस्थियाँ भी एकत्र हो जायेंगी, अत: उनके मत से केवल मांस भाग ही शव के अंगों में लगाना चाहिए। मिलाइए शतपथ ब्राह्मण (12.5.9-12) आश्वलायनगृह्यसूत्र (4.2.4) ने (जैसी कि नारायण ने व्याख्या की है) कहा है कि पशु का प्रयोग विकल्प से होता है, अर्थात् या तो पशु काटा जा सकता है या छोड़ दिया जा सकता है या किसी ब्राह्मण को दे दिया जा सकता है (देखिए बौधायनपितृमेधसूत्र 1.10.2 भी)। शांखायनश्रौतसूत्र (4.14.14-15) का कथन है कि मारे गये या जीवित पशु के दोनों वृक्क पीछे से निकालकर दक्षिण अग्नि में थोड़ा गर्म करके मृत के दोनों हाथों में रख देने चाहिए और 'अतिद्रव' (ऋग्वेद 10.14.10-11) का पाठ करना चाहिए।
  23. ऋग्वेद 10.16.8
  24. वाजसनेयी संहिता 25.22
  25. आश्वलायन गृह्यसूत्र 4.4.2-5
  26. ऋग्वेद 10.14.7 आदि
  27. ऋग्वेद 10.18.3
  28. शतपथ ब्राह्मण (13.8.4.5) एवं वाजसनेयी संहिता (35-14, ऋग्वेद 1.50.10)
  29. शतपथ ब्राह्मण 13.8.4.11
  30. पारस्कर गृह्यसूत्र 3.10.10
  31. वाजसनेयी संहिता 35.6
  32. आपस्तम्ब धर्मसूत्र 2.6.15.2-7
  33. अग्नि, पत्थर, बैल आदि स्पर्श करना चाहिए
  34. याज्ञवल्क्यस्मृति 3.2
  35. ऋग्वेद 1.97.1; अथर्ववेद 4.33.1 एवं तैत्तिरीयारण्यक 6.10.1
  36. गौतमपितृमेधसूत्र 2.23
  37. गौतमपितृमेधसूत्र 1.3.1-13
  38. शतपथ ब्राह्मण 28.1.38
  39. ऋग्वेद 1.47.1 तथा तैत्तिरीयारण्यक 6.10.1
  40. 28.1.37-46
  41. ऋग्वेद 10.17.3 एवं तैत्तिरीयारण्यक 6.10.1
  42. ऋग्वेद 10.17.4 एवं तैत्तिरीयारण्यक 6.10.2
  43. अयोध्या काण्ड वा. रा. 76.13
  44. विष्णु धर्मसूत्र (9.1-4), गौतम धर्मसूत्र (14.29), मनुस्मृति (5.10.4), याज्ञवल्क्यस्मृति (3.26) एवं पराशरमाधवीय (3.43-45)
  45. वसिष्ठ (23.7), मनुस्मृति (5.91), याज्ञवल्क्यस्मृति (3.15), लघु हारीत (92-93), ब्रह्म पुराण (पराशरमाधवीय 1.2, पृष्ठ 278)
  46. याज्ञवल्क्यस्मृति 1.34-35
  47. मनुस्मृति (5.103 एवं याज्ञवल्क्यस्मृति 3.13-14)
  48. गौतम धर्मसूत्र 14.29; याज्ञवल्क्यस्मृति 3.26; मनुस्मृति 4.103; पराशरमाधवीय 3.42; देवल, पराशरमाधवीय 1.2, पृष्ठ 277 एवं हारीत, अपरार्क पृष्ठ 871
  49. पराशरमाधवीय 3.3.41
  50. मनुस्मृति 5.101-102
  51. हारलता पृष्ठ 121
  52. मिताक्षरा, याज्ञवल्क्यस्मृति 3.2; मदनपारिजात पृष्ठ 395
  53. मनुस्मृति 5.92
  54. वृद्ध-हारीत 9.100-101
  55. यम एवं गरुड़ पुराण 2.4.56-58
  56. हारलता पृष्ठ 121
  57. ब्रह्म पुराण - शुद्धिप्रकाश, पृष्ठ 159
  58. भरत ने चार प्रकार के वाद्यों की चर्चा यों की है-'ततं चैवावनद्धं घनं सुषिरमेव च।' अमरकोश ने उन्हें निम्न प्रकार से समझाया है-'ततं वीणादिकं वाद्यमानद्धं मुरजादिकम्। वंशादिकं तु सुषिरं कांस्यतालादिकं घनम्।'
  59. गंगायां भास्करक्षेत्रे मातापित्रोर्गृरोम् तौ। आधानकाले सोमे च वपनं सप्तसु स्मृतम्।। देखिए मिताक्षरा (याज्ञवल्क्यस्मृति 3।17), पराशरमाधवीय (1।2, पृष्ठ 296), शुद्धिप्रकाश (पृष्ठ 161), प्रायश्चितत्ततत्त्व (पृष्ठ 496)। भास्कर क्षेत्र प्रयाग का नाम है।
  60. रात्रौ दग्ध्वा तु पिण्डान्त कृत्वा वपनवर्जितम्। वपनं नेष्यते रात्रौ श्वस्तनी वपनक्रिया।। संग्रह संग्रह (शुद्धिप्रकाश, पृष्ठ 161)।
  61. अलुप्तकेशो य: पूर्व सोऽत्र केशान् प्रवापचेत्। द्वितीये तृतीयेऽह्नि पंचमे स्पतमेऽपि वा।। यावच्छाद्धं प्रदीयेत तावदित्यपरं मतम्।। बौधायन (पराशरमाधवीय 1।2, पृष्ठ 2); वपनं दशमेऽहनि कार्यम्। तदाह देवल:। दशमेऽहनि संप्राप्ते स्नानं ग्रामाद बहिर्भवेत्। तत्र त्याज्यानि वासांसि केशश्मश्रुनखानि च।। (मिताक्षरा, याज्ञवल्क्यस्मृति 3।17); मदनपारिजात (पृष्ठ 416) ने देवल आदि को उद्धृत करते हुए लिखा है-'पंचमादिदिनेषु कृतक्षौरस्यापि शुद्धयर्थ दशमदिनेपि वपनं कर्तव्यम्।'
  62. 62.0 62.1 62.2 62.3 62.4 62.5 अंत्येष्टि-संस्कार (हिन्दी) (ए.एस.पी) पूजा विधि। अभिगमन तिथि: 17 फ़रवरी, 2011।
  63. बहुत-से सूत्र पत्नि को शव के उत्तर में चिता पर सो जाने और पुन: उठ जाने की बात कहते हैं। देखिए कौशिकसूत्र (80।40-45) 'इयं नारीति पत्नीमुपसंवेशयति। उदीर्ष्वेत्युत्थापयति।' ये दोनों मन्त्र अथर्ववेद (18।3।1-2) के हैं। सत्याषाढश्रौतसूत्र (28।2।14-16) का कथन है कि शव को चिता पर रखने के पूर्व पत्नी 'इयं नारी' उच्चारण के साथ उसके पास बुलायी जाती है और उसके उपरान्त देवर या कोई ब्राह्मण 'उदीर्ष्व नारी' के साथ उसे उठाता है। वही सूत्र (28।2।22) यह भी कहता है कि शव को चिता पर रखे जाने पर या उसके पूर्व पत्नी को उसके पास सुलाना चाहिए।
  64. यहाँ पर शतपथ ब्राह्मण (12।5।2।6) एवं कुछ सूत्र (यथा-कात्यायनश्रौतसूत्र 25।7।19; शांखायनश्रौतसूत्र 4।14।16-35; सत्याषाढश्रौतसूत्र 24।2।23-50; कौशिकसूत्र 81।1-19; बौधायनपितृमेधसूत्र 1।8-9) तथा गोभिल (3।34) जैसी कुछ स्मृतियाँ इतना और जोड़ देती हैं कि सात मार्मिक वायु-स्थानों, यथा मुख, दोनों नासारंध्रों, दोनों आंखों एवं दोनों कर्णों पर वे सोने के टुकड़े रखते हैं। कुछ लोगों ने यह भी कहा है कि घृत मिश्रित तिल भी शव पर छिड़के जाते हैं। गौतमपितृमेधसूत्र (2।7।12) का कथन है कि अध्वर्य मृत शरीर के सिर पर कपालों (गोल पात्रों) को रखता है।
  65. प्राशित्रहरण वह पात्र है, जिसमें ब्रह्मा पुरोहित के लिए पुरोडाश का एक भाग रखा जाता है। शम्या हल के जुए की काँटी को कहा जाता है।