"जनतन्त्र का जन्म -रामधारी सिंह दिनकर": अवतरणों में अंतर
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सदियों की ठंडी - बुझी राख सुगबुगा उठी, | सदियों की ठंडी - बुझी राख सुगबुगा उठी, | ||
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है; | मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है; | ||
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, | दो राह, समय के रथ का घर्घर - नाद सुनो, | ||
सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है। | सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है। | ||
जनता? हां, मिट्टी की अबोध मूरतें वही, | जनता? हां, मिट्टी की अबोध मूरतें वही, | ||
जाडे-पाले की कसक सदा सहने वाली, | जाडे - पाले की कसक सदा सहने वाली, | ||
जब अंग-अंग में लगे सांप हो चूस रहे | जब अंग - अंग में लगे सांप हो चूस रहे | ||
तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहने वाली। | तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहने वाली। | ||
जनता? हां, लंबी - बडी जीभ की वही कसम, | जनता? हां, लंबी - बडी जीभ की वही कसम, | ||
पंक्ति 48: | पंक्ति 48: | ||
जब चाहो तभी उतार सज़ा लो दोनों में; | जब चाहो तभी उतार सज़ा लो दोनों में; | ||
अथवा कोई दूधमुंही जिसे बहलाने के | अथवा कोई दूधमुंही जिसे बहलाने के | ||
जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में। | जन्तर - मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में। | ||
लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं, | लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं, | ||
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है; | जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है; | ||
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, | दो राह, समय के रथ का घर्घर - नाद सुनो, | ||
सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है। | सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है। | ||
पंक्ति 64: | पंक्ति 64: | ||
चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं। | चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं। | ||
सब से विराट जनतंत्र जगत का आ पहुंचा, | सब से विराट जनतंत्र जगत का आ पहुंचा, | ||
तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो | तैंतीस कोटि - हित सिंहासन तय करो | ||
अभिषेक आज राजा का नहीं, प्रजा का है, | अभिषेक आज राजा का नहीं, प्रजा का है, | ||
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो। | तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो। | ||
पंक्ति 74: | पंक्ति 74: | ||
फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं, | फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं, | ||
धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है; | धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है; | ||
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, | दो राह, समय के रथ का घर्घर - नाद सुनो, | ||
सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है। | सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है। | ||
12:30, 25 दिसम्बर 2011 का अवतरण
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सदियों की ठंडी - बुझी राख सुगबुगा उठी, |
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