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| ममता, माओवाद और आतंकhttp://loksangharsha.blogspot.com/2011/12/4.html
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| ये वे लोग हैं जो वाम शासन में भूमिसुधार कार्यक्रम लागू किए जाने के बाद से विगत 20 सालों से भी ज्यादा समय से इस जमीन पर खेती, मछली पालन आदि कर रहे थे। लेकिन राज्य विधानसभा चुनावों में वाममोर्चे की हार के बाद अचानक इन लोगों पर तृणमूल कांग्रेस और भूस्वामियों के गुण्डों के हमले बढ़ गए। जिन किसानों पर हमले किए गए उनके पास वैध पट्टे थे।
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| इन हमलों में टेंटुलिया मौजा में 1263 बीघा, बातारगाछी में 800 बीघा, मुन्शीर घेरी में 1200 बीघा और नेबुतला में 2800 बीघा जमीन पर गुण्डों ने कब्जा कर लिया और पट्टादार किसानों को बेदखल कर दिया और पूरे इलाके में आतंकराज कायम कर दिया । टेंटुलिया में पूर्व वाम शासन के तहत भूमिसुधार के लिए अधिगृहीत 508 बीघा जमीन को 1205 किसानों में बाँटा गया था। इसके अलावा यहीं पर 755 बीघा जमीन और है जोअदालती मुकदमों में फँसी हुई थी और इसीलिए इस जमीन के औपचारिक पट्टे नहीं दिए जा सके थे। बहरहाल 2000 किसान इन जमीनों पर खेती कर रहे थे और सुप्रीम कोर्ट ने भी यथास्थिति बनाए रखने का आदेश दिया था। लेकिन इस जमीन पर खेती कर रहे तीन हजार किसानों पर तृणमूली गुण्डों ने हमले किए और उनको इस जमीन से बेदखल कर दिया।
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| उल्लेखनीय है हरोआ एक जमाने में सामंती भूस्वामियों का मजबूत गढ़ हुआ करता था। लंबे किसान आंदोलन के बाद इस इलाके में वाममोर्चा सरकार भूमि
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| सुधारों को लागू कर पाई थी। भूस्वामियों ने अपनी पुरानी जमीन को हथियाने के लिए दो स्तरों पर हमले आरंभ किए हैं। पहले स्तर पर सीधे माकपा के कार्यकर्ताओं और हमदर्दों को निशाना बनाया जा रहा है, उन्हें डरा-धमकाकर इलाका छोड़ने के लिए मजबूर किया जा रहा है। जो घर-द्वार छोड़कर नहीं जाना चाहते उन्हें सीधे झूठे मुकदमों में फँसाकर पुलिस ने गिरफ्तार किया है। इस योजना में तथाकथित हथियारों की तलाशी के नाम पर झूठे केस बनाकर गिरफ्तारियाँ की जा रही हैं।
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| हरोआ के अलावा वीरभूमि, नानुर, दुबराजपुर, इलमबाजार, बाकुंडा के कोतुलपुर,इंदपुर, मेदिनीपुर के कांथी, नंदीग्राम, खेजुरी, भगवानपुर, पाताशपुर, एगरा, हुगली के पुरशुरा, खानकुल, धनियाखाली आदि में बड़े पैमाने पर किसानों को बेदखल किया गया है। इसी तरह वर्द्धवान जिले के कमरकाटी इलाके में 2200 किसान परिवारों की 1200 बीघा जमीन छीनी गई है। दूसरी ओर किसान सभा के नेतृत्व में पुनः नए सिरे से किसानों ने अपने को एकजुट किया और 1200 बीघा जमीन में से 700 बीघा पर फिर से अपना कब्जा जमा लिया। उसी तरह हरोआ में भी किसानों ने अपनी जमीन पर कब्जा करने के लिए सशस्त्र आंदोलन किया और तृणमूली गुण्डों और भूस्वामियों को जमीन छोड़कर भागने को मजबूर किया।
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| ममता सरकार आने के साथ ही लालगढ़ इलाके में माओवादियों के खिलाफ चल रहा सशस्त्र सैन्यबलों का ऑपरेशन बिना कहे ढीला कर दिया गया और इस बीच में माओवादियों ने जो इलाके सैन्यबलों के ऑपरेशन के कारण खोए थे उन पर पुनः कब्जा जमा लिया। लालगढ़ में चल रहा माओवाद विरोधी ऑपरेशन केन्द्र सरकार और राज्य सरकार के संयुक्त कमान के तहत चलाया जा रहा है, लेकिन ममता बनर्जी ने अपने माओवादी प्रेम के चलते इस ऑपरेशन को ठंडा कर दिया और विगत 5 महीनों में पुनः आतंक का राज कायम कर लिया, अपने खोए हुए इलाकों पर पुनः कब्जा जमा लिया, ममता सरकार से मित्र संबंध के बावजूद एक भी माओवादी ने न तो समर्पण किया और न ही माओवादियों ने लालगढ़ में आतंक और हत्या की राजनीति को बंद किया।
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| इसके विपरीत स्थिति यह है कि लालगढ़ में तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं पर भी माओवादियों के कातिलाना हमले हो रहे हैं। किसी भी दल को लालगढ़ में काम करने की मनाही है और इस इलाके में माओवादियों ने जबरिया धन वसूली का
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| धंधा तेज कर दिया है। पहले माओवादियों ने माकपा के 270 से ज्यादा सदस्यों की हत्या की और उनके आतंक के कारण सैंकड़ों लोग आज भी लालगढ़ से बाहर रह रहे हैं।
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| ममता सरकार ने यह मान लिया था कि वह विधानसभा चुनाव जीतने के चंद घंटों में माओवादी हिंसा को बंद कर देगी। लेकिन माओवादियों ने हिंसा और तेज कर दी और सीधे तृणमूल कांग्रेस के स्थानीय नेताओं को सरेआम कत्ल करके मौत के घाट उतार दिया।
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| हाल में ममता बनर्जी सरकार को केन्द्र सरकार ने हिदायत दी है कि किसी भी माओवादी नेता या कार्यकर्ता को छोड़ा न जाए। दूसरी हिदायत यह दी है कि लालगढ़ में सैन्यबलों का ऑपरेशन तेज किया जाए। फलतः ममता सरकार को मजबूर होकर माओवादियों के खिलाफ अभियान चलाना पड़ रहा है।
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| उल्लेखनीय है कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी चुनाव जीतने के पहले बार-बार यह कहती रही हैं कि लालगढ़ में माओवादी नहीं हैं वहाँ तो माकपा की हरमदवाहिनी हमले कर रही है। ममता बनर्जी लंबे समय से पश्चिम बंगाल में खासकर लालगढ़ में माओवादियों की मौजूदगी को अस्वीकार करती रही हैं। इसके पीछे साफ कारण था कि वे माओवादियों के साथ साँठ-गाँठ करके किसी तरह चुनाव जीतना चाहती थीं और इसके लिए वे एकसिरे से झूठ बोलती रही हैं। अभी भी वास्तविकता यह है कि वे खुलकर माओवादियों के खिलाफ सक्रिय रूप से एक्शन नहीं ले रही हैं। पिछले दरवाजे से अपने हमदर्दों और मानवाधिकार कर्मियों के जरिए माओवादियों से मधुर
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| संबंध बनाए रखने की कोशिश कर रही हैं।
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| लालगढ़ में अभी जो ऑपरेशन चल रहा है वह केन्द्र सरकार के दबाव के कारण चल रहा है। केन्द्र का दबाव ही है जिसके कारण लालगढ़ से सैन्यबलों को हटाया नहीं गया है। माओवादियों ने ममता सरकार के पुनर्वास पैकेज की पूरी तरह उपेक्षा की है। उल्लेखनीय है कि माओवादियों के खिलाफ लालगढ़ इलाके में माकपा का एकमात्र सांगठनिक मोर्चा लगा हुआ था और माकपा अपने सक्रिय सदस्यों के जरिए आम लोगों को संगठित करके माओवाद विरोधी जनमत तैयार कर रही थी और दूसरी ओर सशस्त्र बलों की भी लोकल ताकत के रूप में मदद कर रही थी।
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| लेकिन ममता सरकार आने के बाद सशस्त्र बलों का माकपा को सहयोग मिलना बंद हो गया और राज्य सरकार ने विभिन्न किस्म के झूठे मुकदमों में माकपा के कार्यकर्ताओं को फँसाना आरंभ कर दिया और स्थानीय स्तर पर माकपा कार्यकर्ताओं और हमदर्दों को लालगढ़ इलाक़ा छोड़ने के लिए मजबूर किया और इसका माओवादियों को सीधे लाभ मिला। लालगढ़ इलाके में अन्य किसी दल के पास माओवादियों से लड़ने की सांगठनिक क्षमता नहीं है। ऐसे में ममता बनर्जी सरकार का माकपा पर किया गया हमला मूलतः माओवादियों के लिए एक तरह से खुली छूट की सूचना थी कि वे अब लालगढ़ में मनमानी कर सकते हैं।
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| माओवादियों ने इस मौके का लाभ उठाया और दुकानदारों से लेकर मकानमालिकों-किराएदारों और सरकारी नौकरों तक सबसे रंगदारी हफ्ता वसूली का धंधा तेज कर दिया है। वे लालगढ़ में प्रतिमाह दो करोड़ रूपये से ज्यादा चैथ वसूली कर रहे हैं। चैथ वसूली करने वालों के खिलाफ यदि कोई व्यक्ति पुलिस में शिकायत करने जाता है तो उसकी शिकायतदर्ज ही नहीं की जाती है और उलटे पुलिसवाले माओवादी आतंक से परेशानी की अपनी दास्तानें सुनाने लगते हैं।
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| ममता सरकार के आने के बाद केन्द्र-राज्य सरकार की संयुक्त कमान में चल रहा संयुक्त अभियान कमजोर हुआ है। जबकि वामशासन में लालगढ़ इलाके से माओवादियों को पूरी तरह खदेड़ दिया गया था और कई दर्जन माओवादी गिरफ्तार किए गए थे। लेकिन ममता सरकार आने के बाद किसी भी माओवादी को सशस्त्रबलों ने पकड़ा नहीं है,उलटे राज्य सरकार गिरफ्तार माओवादियों को रिहा करने का मन बना चुकी है। संयोग की बात है कि केन्द्रीय गृहमंत्री पी.चिदम्बरम् ने ममता बनर्जी से साफ कहा है कि किसी भी माओवादी को रिहा नहीं किया जाना चाहिए।
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| सवाल यह है कि माओवाद की समस्या का समाधान क्या है? यह एक खुला सच है कि माओवाद की समस्या उन इलाकों में ज्यादा है जहाँ पुलिस थानों की संख्या कम है, थानों में पर्याप्त पुलिस नहीं है। सामान्य पुलिस व्यवस्था का जहाँ अभाव है वहाँ पर माओवादी जल्दी अपनी गतिविधियाँ संगठित करते हैं। माओवाद से लड़ने के लिए पुलिस व्यवस्था के विकास, थानों में पर्याप्त पुलिसकर्मी नियुक्त करने, थानों के अपग्रेडेशन की जरूरत है, इसके अलावा पुलिसकर्मियों को चुस्त-दुरूस्त बनाए जाने की भी सख्त जरूरत है। इसके अलावा माओवाद और विभिन्न किस्म के आतंकी संगठनों से निबटने के लिए माओवाद प्रभावित इलाकों में विशेषदलों की पर्याप्त मात्रा में समान रूप से नियुक्ति करने की जरूरत है।
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| भारत के प्रसिद्ध सुरक्षा विशेषज्ञ अजय साहनी के अनुसार माओवाद प्रभावित जिलों में आज तकरीबन 70 बटालियन नियुक्त करने की जरूरत है। एक बटालियन में 400 सैनिक होते हैं। साहनी का मानना है कि किसी एक इलाके में सैन्यबलों की खास मौजूदगी देखकर माओवादी उस इलाके से निकलकर अन्य कम पुलिसवाले इलाकों में चले जाते हैं। अतः माओवाद प्रभावित इलाकों में स्थाई तौर पर 28 हजार सैन्यबलों को नियुक्त किया जाना चाहिए और यह काम दीर्घ कालिक (मियादी) होना चाहिए। माओवाद से दीर्घ कालिक (मियादी) योजना बनाकर ही लड़ा जा सकता है। इस समस्या का समाधान यह नहीं है कि माओवाद प्रभावित इलाकों में विकास के कार्यक्रम लागू कर दिए जाएँ। विकास को माओवादविरोधी रणनीति के रूप में इस्तेमाल नहीं करना चाहिए बल्कि विकास को निरंतर चलने वाली सामान्य प्रक्रिया के रूप में देखा जाना चाहिए।
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| माओवाद का समाधान विकास नहीं है। माओवाद का समाधान पुलिस एक्शन भी नहीं है। विकास को निरंतर जारी प्रक्रिया के रूप में लिया जाना चाहिए, दूसरा, माओवाद प्रभावित इलाकों में थानों को चुस्त बनाया जाना चाहिए। सामान्य तौर पर थानों में पर्याप्त पुलिस बलों की मौजूदगी और विशेषबलों द्वारा तुरंत, प्रभावशाली एक्शन लेने की मनोदशा तैयार करने की जरूरत है और इस काम को दलीय स्वार्थ से मुक्त होकर करना चाहिए।
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| कुछ विशेषज्ञ तर्क दे रहे हैं कि माओवादियों के सक्रिय होने का प्रधान कारण यह है कि नव्य आर्थिक उदारीकरण के कारण बड़े पैमाने पर देशी-विदेशी कारपोरेट घरानों को जमीनें दी गई हैं और इसके कारण ही माओवादी संगठनों को इन इलाकों में अपना जाल फैलाने का अवसर मिला। यह तर्क एब्सर्ड है। माओवादी पहले से हैं और उन्हें हम नक्सल नाम से जानते हैं। नेपाल में विदेशी कपनियों का कोई पैसा नहीं लगा है फिर वहाँ माओवादी संगठनों ने व्यापक जनाधार कैसे बना लिया?
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| गरीबी, विकास का अभाव, बहुराष्ट्रीय निगमों या करपोरेट घरानों के हाथों में बड़े पैमाने पर आदिवासियों की जमीन के स्वामित्व के कारण माओवादी संगठनों का प्रसार नहीं हुआ है। इसका प्रधान कारण है
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| मध्यवर्ग और निम्न मध्यवर्ग के लोगों का किसान, आदिवासी आदि के प्रति रोमैंटिक क्रांतिकारी नजरिया। दूसरा प्रधान कारण है माओवादी संगठनों का अवैध धंधों, जैसे फिरौती वसूली, तस्करी, ड्रग स्मगलिंग,
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| अवैध हथियारों की खरीद-फरोख्त के ग्लोबल नेटवर्कों के साथ साझेदारी और मित्रता। खासकर बहुराष्ट्रीय शस्त्रनिर्माता कंपनियों के हितों के विकास के लिए काम करना।
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| मसलन् माओवादी संगठन हिंसा ममता, माओवाद और आतंक के जरिए असुरक्षा का वातावरण बनाते हैं, और इस तरह वे पुलिसबलों को अत्याधुनिक हथियारों से लैस करने की जरूरत का एहसास तेज करते हैं। माओवादी या आतंकी हमलों के बाद यह माँग उठती रही है कि अत्याधुनिक हथियार खरीदे जाएँ, अत्याधुनिक संचारप्रणाली खरीदी जाए, पुलिसबलों को और भी सशस्त्र किया जाए। फलतः केन्द्र सरकार के विकासफंड का बहुत बड़ा हिस्सा सुरक्षामद में खर्च हो जाता है और देश में विकास के लिए पैसे का अभाव बना रहता है।
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| सामाजिक असुरक्षा और अस्थिरता का सब समय बने रहना, बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए बेहद जरूरी है। इसे बहाना बनाकर हथियार और संचार उपकरण बेचने में उन्हें सुविधा होती है, वहीं दूसरी ओर केन्द्र सरकार को भी दबाव में रखने में मदद मिलती है। इस तरह के संगठनों के माध्यम से प्रच्छन्नतः ड्रग कार्टेल, शस्त्र निर्माता बहुराष्ट्रीय कंपनियों, संचार कंपनियों को अपना कारोबार बढ़ाने में मदद मिलती है।
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| माओवादी विचारधारा के नाम पर जो संगठन सक्रिय हैं उनका माओ के विचारों से कोई लेना देना नहीं है। इस संदर्भ में उन्हें छद्म माओवादी कहना समीचीन होगा। माओवादी जिन इलाकों में रहते हैं वहाँ सामान्य जनजीवन ठप्प हो जाता है। वहाँ दहशत का माहौल रहता है। दहशत के माहौल में सबसे बड़ी क्षति लोकतंत्र की होती है। राजसत्ता और प्रशासनिक मशीनरी निष्क्रिय हो जाती है और ये चीजें बहुराष्ट्रीय निगमों के वैचारिक लक्ष्य को पूरा करने में मदद करती हैं। वे भारत में निष्क्रिय लोकतंत्र देखना चाहते हैं और माओवादी यह काम बड़े कौशल के साथ करते हैं।
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| यह अचानक नहीं है कि नव्य उदारीकरण के दौर में बहुराष्ट्रीय निगमों की शक्ति बढ़ी है, वहीं दूसरी ओर माओवादियों की भी शक्ति में इजाफा हुआ है। केन्द्रीय गृहमंत्रालय की 2010 की एक रिपोर्ट के अनुसार सन् 2001 में 54 जिलों में माओवादी सक्रिय थे आज 230 से ज्यादा जिलों में सक्रिय हैं। संक्षेप में हम माओवाद के मीडिया कवरेज को भी समझ लें।
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| माओवादी संगठनों के बारे में मीडिया में आने वाली सूचनाएँ हमें माओवाद के बारे में कम उनके हिंसाचार के बारे में ज्यादा जानकारी देती हैं। आधुनिक सूचना क्रांति की यह सामान्य विशेषता है कि वह सूचना का विभ्रम पैदा करती है।यह दावा किया जा रहा है कि सूचना के जरिए सब कुछ बताया जा सकता है। सूचना में सभी प्रश्नों के जबाव होते हैं। लेकिन प्रसिद्ध मीडिया विशेषज्ञ बौद्रिलार्द ने इस प्रसंग में लिखा है कि सूचनाओं से हमें ऐसे सवालों के जबाव मिलते हैं जो उठाए ही नहीं गए हैं। तथाकथित मीडिया क्रांति-नेट क्रांति आदि के माध्यम से आनेवाली माओवादी संगठनों की सूचनाएँ हमें माओवादी संगठनों से जुड़े बुनियादी सवालों या प्रासंगिक सवालों का कोई उत्तर नहीं देतीं।
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| माओवादियों की जो इमेज मीडिया में आई है उससे उनकी वास्तविक इमेज सामने नहीं आती बल्कि निर्मित इमेज सामने आती है। नकली इमेज सामने आती है। इन इमेजों से माओवाद का आख्यान समझ में नहीं आता। माओवादी हिंसा जब होती है तब ही मीडिया में माओवादी संगठनों की कोई खबर सामने आती है। इससे यही आभास मिलता है कि माओवादी हिंसक हैं।
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| हिंसा की इमेज असल में माओवाद का हाइपररीयल यथार्थ है इसका वास्तव में यथार्थ से अंशमात्र संबंध है। जिस तरह उपभोक्ता मालों के विज्ञापनों की इमेज देखकर, बाजार में भीड़ देखकर, दुकानों में ठसाठस भरे माल देखकर यह कहना कि भारत बहुत समृद्ध है, यहाँ मालों की कोई कमी नहीं है। यह बात हाइपररीयल है। इसका भारत के यथार्थ से कोई संबंध नहीं है।
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| मीडिया इमेजों में हमें हाइपररीयल और रीयल में अंतर पैदा करना चाहिए। अमूमन मीडिया में हाइपररीयल इमेजों की वर्षा होती है और इसके आधार पर यथार्थ के बारे में सही समझ बनाना संभव नहीं होता। बाजार में भीड़, क्रेताओं ने दुकानों को सब समय घेरा हुआ है, दुकान में माल भरे हैं, ये सारी चीजें यह सूचना नहीं देतीं कि भारत में चीजों का सरप्लस उत्पादन हो रहा है। इनसे यह भी पता नहीं चलता कि भारत के नागरिक की क्रयक्षमता क्या है?
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| उसी तरह भारत में माओवादी इमेजों में हाइपररीयल और रीयल में अंतर करने की जरूरत है। मीडिया में माओवादी हिंसा की जो इमेज दिखाई जाती है वह वास्तविक नहीं है बल्कि संकेत या प्रतीक या साइन मात्र के रूप में सामने आती है।
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| माओवादी संगठनों का सबसे ज्यादा विस्तार ऐसे समय में हुआ है जब दक्षिणपंथी भाजपा, दक्षिणपंथी मिलीटेंट और जातिवादी संगठनों की राजनैतिक शक्ति में सबसे ज्यादा इजाफा हुआ है। माओवादियों ने अपनी प्रमुख क्रीडास्थली के रूप में उन राज्यों में तेजी से विकास किया है जहाँ भाजपा का शासन है या भाजपा तेजी से मजबूत हुई है। पश्चिम बंगाल में भी ममता बनर्जी के राजनैतिक उदय के समय में माओवादी संगठनों की शक्ति में अभूतपूर्व विकास हुआ है।
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| अतिदक्षिणपंथ के मिलीटेंट राजनैतिक प्रत्युत्तर के रूप में माओवादी संगठनों ने अपील पैदा की है। खासकर बुद्धिजीवियों में अपील पैदा करने में उन्हें सफलता मिली है। आज के माओवादी हों या पुराने नक्सलवादी हों ,ये मूलतः अतिदक्षिणपंथी राजनीति के सिक्के के दूसरे पहलू का प्रतिनिधित्व करते हैं। इस अर्थ में ये कारपोरेट राजनीति के एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। यह भी कह सकते हैं कि माओवादी मूलतः अतिदक्षिणपंथी राजनीति की औलाद हैं। याद करें स्वतंत्र भारत में अतिदक्षिणपंथ का सबसे पहला आक्रामक उभार 60-70 के बीच में ही देखा गया और उस समय नक्सलबाड़ी हुआ। दूसरा बड़ा उभार रामजन्मभूमि आंदोलन के साथ पैदा हुआ और इसने भारत में दक्षिणपंथी राजनीति को सम्मानजनक स्थान दिला दिया।इसके समानान्तर माओवादी आतंक और विभिन्न किस्म के आतंकी संगठनों ने जन्म लिया।
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| माओवादी हिंसा की इमेज का मीडिया में प्रसारण उनके प्रति नफरत पैदा नहीं करता बल्कि उनके प्रति हमदर्दी पैदा करता है। हिंसा की इमेज के साथ यह प्रचारित किया जाता है कि जिस इलाके म हिंसा की घटना घटी है उस इलाके में सड़क नहीं है, पानी नहीं है, सामान्य नागरिक सुविधाएँ नहीं हैं। यानी माओवादी हिंसा की इमेज के साथ एक-दूसरे किस्म का विचार धारात्मक शोषण आरंभ हो जाता है जिसकी दर्शक ने कल्पना तक नहीं की थी, अब दर्शक को जिससे घृणा करनी चाहिए उससे वह प्रेम करने लगता है। इस अर्थ में माओवादी कवरेज माओवादियों के प्रति हमदर्दी पैदा करता है। यह कारपोरेट विचार धारा और माओवाद का प्रेम संबंध है। माओवादी हिंसा की इमेज में जो चीज सामने ज्यादा आती है वह है हिंसा से बड़ी राजसत्ता जनित हिंसा, जो उपेक्षा के गर्भ से पैदा होती है।
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| माओवादियों का अहर्निश हिंसा करना, अपने से भिन्न राजनीति करने वाले को कत्ल कर देने का भावबोध मूलतःधार्मिक उन्मादी (फैनेटिक) के भावबोध से मिलता-जुलता है। माओवादी कार्यकर्ता सीधे हिंसा करते हैं, निर्दोष लोगों को कत्ल करते हैं, उनको हीरो या नायक के रूप में माओवादी सम्मान देते हैं। यह वैसे ही है जैसे भिण्डरावाले या बिनलादेन को उनके भक्त पूजते हैं। यानी माओवादी हिंसा के कवरेज में मीडिया के चरित्र के कारण कातिल नायक हो जाता है और निर्दोष व्यक्ति जालिम या जुल्मी-शोषक-उत्पीड़क हो जाता है। यही वजह है कि माओवादी हिंसा का कवरेज उनके लिए मददगार साबित होता है।
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| प्रत्येक माओवादी हिंसा या कत्ल के बाद उनको समझना और भी मुश्किल हो जाता है। वे हिंसा करते हैं अपना संदेश देने के लिए, लेकिन उनका संदेश प्रत्येक हिंसा या कत्ल के बाद और भी जटिल हो जाता है। उन्होंने हिंसा क्यों की? उसके तर्क और भी मुश्किल क्यों होते चले जाते हैं? यह हिंसा अंततः नागरिक के चिंतन को कुंद करता है। वे हिंसा के जरिए माओवाद का प्रतीकात्मक विनिमय करते हैं। हिंसा उनकी राजनीति का अंतिम बिन्दु नहीं है बल्कि यहाँ से तो बात आगे जाती है। यानी माओवाद में कत्ल समापन नहीं है, नए के जन्म की सूचना नहीं है, बल्कि मौत या हिंसा या आतंक का विकास है। यह अनिश्चितता और सामाजिक असुरक्षा का विकास है।
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| -जगदीश्वर चतुर्वेदी
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| मो. 09331762368
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| समाप्त
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