"रश्मिरथी तृतीय सर्ग": अवतरणों में अंतर

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मैत्री की राह बताने को,
मैत्री की राह बताने को,
सबको सुमार्ग पर लाने को,
सबको सुमार्ग पर लाने को,
[[दुर्योधन]] को समझाने को,
[[दुर्योधन]] को समझाने को,
भीषण विध्वंस बचाने को,
भीषण विध्वंस बचाने को,
भगवान [[हस्तिनापुर]] आये,
भगवान [[हस्तिनापुर]] आये,
[[पांडव]] का संदेशा लाये।
[[पांडव]] का संदेशा लाये।


'दो न्याय अगर तो आधा दो,
'दो न्याय अगर तो आधा दो,
पर, इसमें भी यदि बाधा हो,
पर, इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम,
रक्खो अपनी धरती तमाम।
रक्खो अपनी धरती तमाम।
हम वही ख़ुशी से खायेंगे,
हम वही ख़ुशी से खायेंगे,
परिजन पर असि न उठायेंगे!
परिजन पर असि न उठायेंगे!


दुर्योधन वह भी दे ना सका,
दुर्योधन वह भी दे ना सका,
आशिष समाज की ले न सका,
आशिष समाज की ले न सका,
उलटे, हरि को बाँधने चला,
उलटे, हरि को बाँधने चला,
जो था असाध्य, साधने चला।
जो था असाध्य, साधने चला।
जब नाश मनुज पर छाता है,
जब नाश मनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।
पहले विवेक मर जाता है।


हरि ने भीषण हुंकार किया,
हरि ने भीषण हुंकार किया,
अपना स्वरूप-विस्तार किया,
अपना स्वरूप-विस्तार किया,
डगमग-डगमग दिग्गज डोले,
डगमग-डगमग दिग्गज डोले,
भगवान कुपित होकर बोले-
भगवान कुपित होकर बोले-
'जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,
'जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,
हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।
हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।


यह देख, गगन मुझमें लय है,
यह देख, गगन मुझमें लय है,
यह देख, पवन मुझमें लय है,
यह देख, पवन मुझमें लय है,
मुझमें विलीन झंकार सकल,
मुझमें विलीन झंकार सकल,
मुझमें लय है संसार सकल।
मुझमें लय है संसार सकल।
अमरत्व फूलता है मुझमें,
अमरत्व फूलता है मुझमें,
संहार झूलता है मुझमें।
संहार झूलता है मुझमें।




'उदयाचल मेरा दीप्त भाल,
'उदयाचल मेरा दीप्त भाल,
भूमंडल वक्षस्थल विशाल,
भूमंडल वक्षस्थल विशाल,
भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं,
भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं,
मैनाक-मेरु पग मेरे हैं।
मैनाक-मेरु पग मेरे हैं।
दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर,
दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर,
सब हैं मेरे मुख के अन्दर।
सब हैं मेरे मुख के अन्दर।




'दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख,
'दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख,
मुझमें सारा [[ब्रह्माण्ड पुराण|ब्रह्माण्ड]] देख,
मुझमें सारा [[ब्रह्माण्ड पुराण|ब्रह्माण्ड]] देख,
चर-अचर जीव, जग, क्षर-अक्षर,
चर-अचर जीव, जग, क्षर-अक्षर,
नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर।
नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर।
शत कोटि [[सूर्य देवता|सूर्य]], शत कोटि [[चंद्र देवता|चन्द्र]],
शत कोटि [[सूर्य देवता|सूर्य]], शत कोटि [[चंद्र देवता|चन्द्र]],
शत कोटि सरित, सर, सिन्धु मन्द्र।
शत कोटि सरित, सर, सिन्धु मन्द्र।
'शत कोटि [[विष्णु]], [[ब्रह्मा]], [[महेश]],
'शत कोटि [[विष्णु]], [[ब्रह्मा]], [[महेश]],
शत कोटि विष्णु जलपति, धनेश,
शत कोटि विष्णु जलपति, धनेश,
शत कोटि [[रुद्र]], शत कोटि काल,
शत कोटि [[रुद्र]], शत कोटि काल,
शत कोटि दण्डधर लोकपाल।
शत कोटि दण्डधर लोकपाल।


जंजीर बढ़ाकर साध इन्हें,
जंजीर बढ़ाकर साध इन्हें,
हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें।
हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें।


'भूलोक, अतल, पाताल देख,
'भूलोक, अतल, पाताल देख,
गत और अनागत काल देख,
गत और अनागत काल देख,
यह देख जगत का आदि-सृजन,
यह देख जगत का आदि-सृजन,
यह देख, [[महाभारत]] का रण,
यह देख, [[महाभारत]] का रण,
मृतकों से पटी हुई भू है,
मृतकों से पटी हुई भू है,
पहचान, कहाँ इसमें तू है।
पहचान, कहाँ इसमें तू है।


'अम्बर में कुन्तल-जाल देख,
'अम्बर में कुन्तल-जाल देख,
पद के नीचे पाताल देख,
पद के नीचे पाताल देख,
मुट्ठी में तीनों काल देख,
मुट्ठी में तीनों काल देख,
मेरा स्वरूप विकराल देख।
मेरा स्वरूप विकराल देख।
सब जन्म मुझी से पाते हैं,
सब जन्म मुझी से पाते हैं,
फिर लौट मुझ ही में आते हैं।
फिर लौट मुझ ही में आते हैं।
'जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन,
'जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन,
साँसों में पाता जन्म पवन,
साँसों में पाता जन्म पवन,
पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर,
पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर,
हँसने लगती है सृष्टि उधर!
हँसने लगती है सृष्टि उधर!
मैं जभी मूँदता हूँ लोचन,
मैं जभी मूँदता हूँ लोचन,
छा जाता चारों ओर मरण।
छा जाता चारों ओर मरण।


'बाँधने मुझे तो आया है,
'बाँधने मुझे तो आया है,
जंजीर बड़ी क्या लाया है?
जंजीर बड़ी क्या लाया है?
यदि मुझे बाँधना चाहे मन,
यदि मुझे बाँधना चाहे मन,
पहले तो बाँध अनन्त गगन।
पहले तो बाँध अनन्त गगन।
सूने को साध न सकता है,
सूने को साध न सकता है,
वह मुझे बाँध कब सकता है?
वह मुझे बाँध कब सकता है?


'हित-वचन नहीं तूने माना,
'हित-वचन नहीं तूने माना,
मैत्री का मूल्य न पहचाना,
मैत्री का मूल्य न पहचाना,
तो ले, मैं भी अब जाता हूँ,
तो ले, मैं भी अब जाता हूँ,
अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।
अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।
याचना नहीं, अब रण होगा,
याचना नहीं, अब रण होगा,
जीवन-जय या कि मरण होगा।
जीवन-जय या कि मरण होगा।


'टकरायेंगे नक्षत्र-निकर,
'टकरायेंगे नक्षत्र-निकर,
बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर,
बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर,
फण शेषनाग का डोलेगा,
फण शेषनाग का डोलेगा,
विकराल काल मुँह खोलेगा।
विकराल काल मुँह खोलेगा।
दुर्योधन! रण ऐसा होगा।
दुर्योधन! रण ऐसा होगा।
फिर कभी नहीं जैसा होगा।
फिर कभी नहीं जैसा होगा।


'भाई पर भाई टूटेंगे,
'भाई पर भाई टूटेंगे,
विष-बाण बूँद-से छूटेंगे,
विष-बाण बूँद-से छूटेंगे,
वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे,
वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे,
सौभाग्य मनुज के फूटेंगे।
सौभाग्य मनुज के फूटेंगे।
आख़िर तू भूशायी होगा,
आख़िर तू भूशायी होगा,
हिंसा का पर, दायी होगा।'
हिंसा का पर, दायी होगा।'


थी सभा सन्न, सब लोग डरे,
थी सभा सन्न, सब लोग डरे,
चुप थे या थे बेहोश पड़े।
चुप थे या थे बेहोश पड़े।
केवल दो नर ना अघाते थे,
केवल दो नर ना अघाते थे,
[[धृतराष्ट्र]]-[[विदुर]] सुख पाते थे।
[[धृतराष्ट्र]]-[[विदुर]] सुख पाते थे।
कर जोड़ खड़े प्रमुदित, निर्भय,
कर जोड़ खड़े प्रमुदित, निर्भय,
दोनों पुकारते थे 'जय-जय'!
दोनों पुकारते थे 'जय-जय'!
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10:29, 3 जनवरी 2012 का अवतरण

रश्मिरथी तृतीय सर्ग
रामधारी सिंह दिनकर
रामधारी सिंह दिनकर
कवि रामधारी सिंह दिनकर
जन्म 23 सितंबर, सन 1908
जन्म स्थान सिमरिया, ज़िला मुंगेर (बिहार)
मृत्यु 24 अप्रैल, सन 1974
मृत्यु स्थान चेन्नई, तमिलनाडु
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
रामधारी सिंह दिनकर की रचनाएँ

मैत्री की राह बताने को,
सबको सुमार्ग पर लाने को,
दुर्योधन को समझाने को,
भीषण विध्वंस बचाने को,
भगवान हस्तिनापुर आये,
पांडव का संदेशा लाये।

'दो न्याय अगर तो आधा दो,
पर, इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम,
रक्खो अपनी धरती तमाम।
हम वही ख़ुशी से खायेंगे,
परिजन पर असि न उठायेंगे!

दुर्योधन वह भी दे ना सका,
आशिष समाज की ले न सका,
उलटे, हरि को बाँधने चला,
जो था असाध्य, साधने चला।
जब नाश मनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।

हरि ने भीषण हुंकार किया,
अपना स्वरूप-विस्तार किया,
डगमग-डगमग दिग्गज डोले,
भगवान कुपित होकर बोले-
'जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,
हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।

यह देख, गगन मुझमें लय है,
यह देख, पवन मुझमें लय है,
मुझमें विलीन झंकार सकल,
मुझमें लय है संसार सकल।
अमरत्व फूलता है मुझमें,
संहार झूलता है मुझमें।


'उदयाचल मेरा दीप्त भाल,
भूमंडल वक्षस्थल विशाल,
भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं,
मैनाक-मेरु पग मेरे हैं।
दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर,
सब हैं मेरे मुख के अन्दर।


'दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख,
मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख,
चर-अचर जीव, जग, क्षर-अक्षर,
नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर।
शत कोटि सूर्य, शत कोटि चन्द्र,
शत कोटि सरित, सर, सिन्धु मन्द्र।
'शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश,
शत कोटि विष्णु जलपति, धनेश,
शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल,
शत कोटि दण्डधर लोकपाल।

जंजीर बढ़ाकर साध इन्हें,
हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें।

'भूलोक, अतल, पाताल देख,
गत और अनागत काल देख,
यह देख जगत का आदि-सृजन,
यह देख, महाभारत का रण,
मृतकों से पटी हुई भू है,
पहचान, कहाँ इसमें तू है।

'अम्बर में कुन्तल-जाल देख,
पद के नीचे पाताल देख,
मुट्ठी में तीनों काल देख,
मेरा स्वरूप विकराल देख।
सब जन्म मुझी से पाते हैं,
फिर लौट मुझ ही में आते हैं।
'जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन,
साँसों में पाता जन्म पवन,
पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर,
हँसने लगती है सृष्टि उधर!
मैं जभी मूँदता हूँ लोचन,
छा जाता चारों ओर मरण।

'बाँधने मुझे तो आया है,
जंजीर बड़ी क्या लाया है?
यदि मुझे बाँधना चाहे मन,
पहले तो बाँध अनन्त गगन।
सूने को साध न सकता है,
वह मुझे बाँध कब सकता है?

'हित-वचन नहीं तूने माना,
मैत्री का मूल्य न पहचाना,
तो ले, मैं भी अब जाता हूँ,
अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।
याचना नहीं, अब रण होगा,
जीवन-जय या कि मरण होगा।

'टकरायेंगे नक्षत्र-निकर,
बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर,
फण शेषनाग का डोलेगा,
विकराल काल मुँह खोलेगा।
दुर्योधन! रण ऐसा होगा।
फिर कभी नहीं जैसा होगा।

'भाई पर भाई टूटेंगे,
विष-बाण बूँद-से छूटेंगे,
वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे,
सौभाग्य मनुज के फूटेंगे।
आख़िर तू भूशायी होगा,
हिंसा का पर, दायी होगा।'

थी सभा सन्न, सब लोग डरे,
चुप थे या थे बेहोश पड़े।
केवल दो नर ना अघाते थे,
धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे।
कर जोड़ खड़े प्रमुदित, निर्भय,
दोनों पुकारते थे 'जय-जय'!