"चाणक्य नीति- अध्याय 5": अवतरणों में अंतर

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द्विजन अग्नि गुरु चारिहूँ, वरन विप्र गुरु मान ॥1॥
द्विजन अग्नि गुरु चारिहूँ, वरन विप्र गुरु मान ॥1॥
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ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य इन तीनों का गुरु अग्नि है। उपर्युक्त चारो वर्णों का गुरु ब्राह्मण है, स्त्री का गुरु उसका पति है और संसार मात्र का गुरु अतिथि है।
'''अर्थ -- '''ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य इन तीनों का गुरु अग्नि है। उपर्युक्त चारो वर्णों का गुरु ब्राह्मण है, स्त्री का गुरु उसका पति है और संसार मात्र का गुरु अतिथि है।
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पंक्ति 15: पंक्ति 15:
त्यागशील गुण कर्म तिमि, चारिहि पुरुष विचारि ॥2॥
त्यागशील गुण कर्म तिमि, चारिहि पुरुष विचारि ॥2॥
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जैसे रगडने से, काटने से, तपाने से और पीटने से, इन चार उपायों से सुवर्ण की परीक्षा की जाती है, उसी प्रकार त्याग, शील, गुण और कर्म, इन चार बातों से मनुष्य की परीक्षा होती है।
'''अर्थ -- '''जैसे रगडने से, काटने से, तपाने से और पीटने से, इन चार उपायों से सुवर्ण की परीक्षा की जाती है, उसी प्रकार त्याग, शील, गुण और कर्म, इन चार बातों से मनुष्य की परीक्षा होती है।
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पंक्ति 22: पंक्ति 22:
आये शंका छाडि के, चाहिय कीन्ह प्रहार ॥3॥
आये शंका छाडि के, चाहिय कीन्ह प्रहार ॥3॥
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भय से तभी तक डरो, जब तक कि वह तुम्हारे पास तक न आ जाय। और जन आ ही जाय तो डरो नहीं बल्कि उसे निर्भिक भाव से मार भगाने की कोशिश करो।
'''अर्थ -- '''भय से तभी तक डरो, जब तक कि वह तुम्हारे पास तक न आ जाय। और जन आ ही जाय तो डरो नहीं बल्कि उसे निर्भिक भाव से मार भगाने की कोशिश करो।
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पंक्ति 29: पंक्ति 29:
नाहिं शील सम होत है, बेर काँट सम होय ॥4॥
नाहिं शील सम होत है, बेर काँट सम होय ॥4॥
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एक पेट से और एक ही नक्षत्र में उत्पन्न होने से किसी का शील एक सा नहीं हो जाता। उदाहरण स्वरूप बेर के काँटों को देखो।
'''अर्थ -- '''एक पेट से और एक ही नक्षत्र में उत्पन्न होने से किसी का शील एक सा नहीं हो जाता। उदाहरण स्वरूप बेर के काँटों को देखो।
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पंक्ति 36: पंक्ति 36:
नहिं अचतुर प्रिय बोल नहिं, बंचक साफ कलाम ॥5॥
नहिं अचतुर प्रिय बोल नहिं, बंचक साफ कलाम ॥5॥
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निस्पृह मनुष्य कभी अधिकारी नहीं हो सकता। वासना से शुन्य मनुष्य श्रृंगार का प्रेमी नहीं हो सकता। जड मनुष्य कभी मीठी वाणी नहीं बोल सकता और साफ-साफ बात करने वाला धोखेबाज नहीं होता।
'''अर्थ -- '''निस्पृह मनुष्य कभी अधिकारी नहीं हो सकता। वासना से शुन्य मनुष्य श्रृंगार का प्रेमी नहीं हो सकता। जड मनुष्य कभी मीठी वाणी नहीं बोल सकता और साफ-साफ बात करने वाला धोखेबाज नहीं होता।
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पंक्ति 43: पंक्ति 43:
परकीया स्वकियाहु का, विधवा सुभगा जान ॥6॥
परकीया स्वकियाहु का, विधवा सुभगा जान ॥6॥
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मूर्खों के पण्डित शत्रु होते हैं। दरिद्रों के शत्रु धनी होते हैं। कुलवती स्त्रीयों के शत्रु वेश्यायें होती हैं और सुन्दर मनुष्यों के शत्रु कुरूप होते है।
'''अर्थ -- '''मूर्खों के पण्डित शत्रु होते हैं। दरिद्रों के शत्रु धनी होते हैं। कुलवती स्त्रीयों के शत्रु वेश्यायें होती हैं और सुन्दर मनुष्यों के शत्रु कुरूप होते है।
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पंक्ति 50: पंक्ति 50:
अल्प बीज से खेत अरु, दल दलपति बिनु साथ ॥7॥
अल्प बीज से खेत अरु, दल दलपति बिनु साथ ॥7॥
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आलस्य से विद्या, पराये हाथ में गया धन, बीज में कमी करने से खेती और सेनापति विहीन सेना नष्ट हो जाती है।
'''अर्थ -- '''आलस्य से विद्या, पराये हाथ में गया धन, बीज में कमी करने से खेती और सेनापति विहीन सेना नष्ट हो जाती है।
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पंक्ति 57: पंक्ति 57:
गुणते जानहिं श्रेष्ठ कहँ, नयनहिं कोप निवास ॥8॥
गुणते जानहिं श्रेष्ठ कहँ, नयनहिं कोप निवास ॥8॥
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अभ्यास से विद्या की और शील से कुल की रक्षा होती है। गुण से मनुष्य पहिचाना जाता है और आँखें देखने से क्रोध का पता लग जाता है।
'''अर्थ -- '''अभ्यास से विद्या की और शील से कुल की रक्षा होती है। गुण से मनुष्य पहिचाना जाता है और आँखें देखने से क्रोध का पता लग जाता है।
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पंक्ति 64: पंक्ति 64:
रक्षित गेह सुतीय ते, धन ते धर्म विशाल ॥9॥
रक्षित गेह सुतीय ते, धन ते धर्म विशाल ॥9॥
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धन से धर्म की, योग से विद्या की, कोमलता से राजा की और अच्छी स्त्री से घर की रक्षा होती है।
'''अर्थ -- '''धन से धर्म की, योग से विद्या की, कोमलता से राजा की और अच्छी स्त्री से घर की रक्षा होती है।
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पंक्ति 71: पंक्ति 71:
जो कहते लहते वृथा, लोग कलेश अपार ॥10॥
जो कहते लहते वृथा, लोग कलेश अपार ॥10॥
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वेद को, पाण्डित्य को, शास्त्र को, सदाचार को और अशान्त मनुष्य को जो लोग बदनाम करना चाहता हैं, वे व्यर्थ कष्ट करते हैं।
'''अर्थ -- '''वेद को, पाण्डित्य को, शास्त्र को, सदाचार को और अशान्त मनुष्य को जो लोग बदनाम करना चाहता हैं, वे व्यर्थ कष्ट करते हैं।
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पंक्ति 78: पंक्ति 78:
बुध्दि नाश अज्ञा, भय नाशत है भावना ॥11॥
बुध्दि नाश अज्ञा, भय नाशत है भावना ॥11॥
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दान दरिद्रता को नष्ट करता है, शील दुरवस्था को नष्ट कर देता है, बुध्दि अज्ञान को नष्ट कर देती है और विचार भय को नष्ट कर दिया करता है।
'''अर्थ -- '''दान दरिद्रता को नष्ट करता है, शील दुरवस्था को नष्ट कर देता है, बुध्दि अज्ञान को नष्ट कर देती है और विचार भय को नष्ट कर दिया करता है।
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पंक्ति 85: पंक्ति 85:
अग्नि कोप से आन, नहीं ज्ञान से सुख परे ॥12॥
अग्नि कोप से आन, नहीं ज्ञान से सुख परे ॥12॥
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काम के समान कोई रोग नहीं है, मोह (अज्ञान) के समान शत्रु नहीं है, क्रोध के समान और कोई अग्नि नहीं है और ज्ञान से बढकर और कोई सुख नहीं है।
'''अर्थ -- '''काम के समान कोई रोग नहीं है, मोह (अज्ञान) के समान शत्रु नहीं है, क्रोध के समान और कोई अग्नि नहीं है और ज्ञान से बढकर और कोई सुख नहीं है।
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पंक्ति 92: पंक्ति 92:
नरक जात है एक, लहत एक ही मुक्तिपद ॥13॥
नरक जात है एक, लहत एक ही मुक्तिपद ॥13॥
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संसार के मनुष्यों में से एक मनुष्य जन्म मरण के चक्कर में पडता है, एक अपने शुभाशुभ कर्मों का फल भोगता है एक नरक में जा गिरता है और एक परम पद को प्राप्त कर लेता है।
'''अर्थ -- '''संसार के मनुष्यों में से एक मनुष्य जन्म मरण के चक्कर में पडता है, एक अपने शुभाशुभ कर्मों का फल भोगता है एक नरक में जा गिरता है और एक परम पद को प्राप्त कर लेता है।
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पंक्ति 99: पंक्ति 99:
शूरहिं तृण है जीवनी, निस्पृह कहँ संसार ॥14॥
शूरहिं तृण है जीवनी, निस्पृह कहँ संसार ॥14॥
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ब्रह्मज्ञानी के लिये स्वर्ग तिनके के समान है। बहादुर के लिए जीवन तृण के समान है जितेन्द्रिय को नारी और निस्पृह के लिए सारा संसार तृण के समान है।
'''अर्थ -- '''ब्रह्मज्ञानी के लिये स्वर्ग तिनके के समान है। बहादुर के लिए जीवन तृण के समान है जितेन्द्रिय को नारी और निस्पृह के लिए सारा संसार तृण के समान है।
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पंक्ति 106: पंक्ति 106:
रोगिहि औषध अरु मरे, धर्म होत है मीत ॥15॥
रोगिहि औषध अरु मरे, धर्म होत है मीत ॥15॥
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परदेश में विद्या मित्र है, घर में स्त्री मित्र है। रोगी को औषधि मित्र है और मरे हुए मनुष्य का धर्म मित्र है।
'''अर्थ -- '''परदेश में विद्या मित्र है, घर में स्त्री मित्र है। रोगी को औषधि मित्र है और मरे हुए मनुष्य का धर्म मित्र है।
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पंक्ति 113: पंक्ति 113:
धनिकहिं देनों व्यर्थ है, व्यर्थ दीप दीनमान ॥16॥
धनिकहिं देनों व्यर्थ है, व्यर्थ दीप दीनमान ॥16॥
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समुद्र में वर्षा व्यर्थ है। तृप्त को भोजन व्यर्थ है। धनाढ्य को दान देना व्यर्थ और दिन के समय दीपक जलाना व्यर्थ है।
'''अर्थ -- '''समुद्र में वर्षा व्यर्थ है। तृप्त को भोजन व्यर्थ है। धनाढ्य को दान देना व्यर्थ और दिन के समय दीपक जलाना व्यर्थ है।
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पंक्ति 120: पंक्ति 120:
नहिं प्रकाश है नैन सम, प्रिय अनाज सम आन ॥17॥
नहिं प्रकाश है नैन सम, प्रिय अनाज सम आन ॥17॥
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मेघ जल के समान उत्तम और कोई जल नहीं होता। आत्मबल के समान और कोई बल नहीं है। नेत्र के समान किसी में तेज नहीं है और अन्न के समान प्रिय कोई वस्तु नहीं है।
'''अर्थ -- '''मेघ जल के समान उत्तम और कोई जल नहीं होता। आत्मबल के समान और कोई बल नहीं है। नेत्र के समान किसी में तेज नहीं है और अन्न के समान प्रिय कोई वस्तु नहीं है।
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पंक्ति 127: पंक्ति 127:
नर चाहत है स्वर्ग को, सुरगण मुक्ति विशाल ॥18॥
नर चाहत है स्वर्ग को, सुरगण मुक्ति विशाल ॥18॥
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दरिद्र मनुष्य धन चाहते हैं। चौपाये वाणी चाहते हैं। मनुष्य स्वर्ग चाहतें हैं और देवता लोग मोक्ष चाहते हैं।
'''अर्थ -- '''दरिद्र मनुष्य धन चाहते हैं। चौपाये वाणी चाहते हैं। मनुष्य स्वर्ग चाहतें हैं और देवता लोग मोक्ष चाहते हैं।
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पंक्ति 134: पंक्ति 134:
चले पवनहू सत्य ते, सत्यहिं सब आधार ॥19॥
चले पवनहू सत्य ते, सत्यहिं सब आधार ॥19॥
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सत्य के आधार पर पृथ्वी रुकी है। सत्य के सहारे सूर्य भगवान् संसार को गर्मी पहुँचाते हैं। सत्य के ही बल पर वायु वहता है। कहने का मतलब यह कि सब कुछ सत्य में ही है।
'''अर्थ -- '''सत्य के आधार पर पृथ्वी रुकी है। सत्य के सहारे सूर्य भगवान् संसार को गर्मी पहुँचाते हैं। सत्य के ही बल पर वायु वहता है। कहने का मतलब यह कि सब कुछ सत्य में ही है।
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पंक्ति 141: पंक्ति 141:
मह चलाचल जगत में, अचल धर्म अभिराम ॥20॥
मह चलाचल जगत में, अचल धर्म अभिराम ॥20॥
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लक्ष्मी चंचल है, प्राण भी चंचल ही है, जीवन तथा घर द्वार भी चंचल है और कहाँ तक कहें यह सारा संसार चंचल है, बस धर्म केवल अचल और अटल है।
'''अर्थ -- '''लक्ष्मी चंचल है, प्राण भी चंचल ही है, जीवन तथा घर द्वार भी चंचल है और कहाँ तक कहें यह सारा संसार चंचल है, बस धर्म केवल अचल और अटल है।
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पंक्ति 148: पंक्ति 148:
चौपायन में स्यार है, वायस पक्षिन माहिं ॥21॥
चौपायन में स्यार है, वायस पक्षिन माहिं ॥21॥
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मनुष्यों में नाऊ, पक्षियों में कौआ, चौपायों में स्यार और स्त्रियों में मालिन, ये सब धूर्त होते हैं।
'''अर्थ -- '''मनुष्यों में नाऊ, पक्षियों में कौआ, चौपायों में स्यार और स्त्रियों में मालिन, ये सब धूर्त होते हैं।
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पंक्ति 155: पंक्ति 155:
विद्या दाता पाँच यह, मनुज पिता सम होय ॥22॥
विद्या दाता पाँच यह, मनुज पिता सम होय ॥22॥
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संसार में पिता पाँच प्रकार के होते हैं। ऎसे कि जन्म देने वाला, विद्यादाता, यज्ञोपवीत आदि संस्कार करनेवाला, अन्न देनेवाला और भय से बचानेवाला।
'''अर्थ -- '''संसार में पिता पाँच प्रकार के होते हैं। ऎसे कि जन्म देने वाला, विद्यादाता, यज्ञोपवीत आदि संस्कार करनेवाला, अन्न देनेवाला और भय से बचानेवाला।
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पंक्ति 162: पंक्ति 162:
निजमाता और सासु ये, पाँचों मातु समान ॥23॥
निजमाता और सासु ये, पाँचों मातु समान ॥23॥
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उसी तरह माता भी पाँच ही तरह की होती हैं। जैसे राजा की पत्नी, गुरु की पत्नी, मित्र की पत्नी, अपनी स्त्री की माता और अपनी खास माता।
'''अर्थ -- '''उसी तरह माता भी पाँच ही तरह की होती हैं। जैसे राजा की पत्नी, गुरु की पत्नी, मित्र की पत्नी, अपनी स्त्री की माता और अपनी खास माता।
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;इति चाणक्ये पञ्चमोऽध्यायः ॥5॥  
;इति चाणक्ये पञ्चमोऽध्यायः ॥5॥  

15:36, 4 जनवरी 2012 का अवतरण

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अध्याय 5


दोहा --

अभ्यागत सबको गुरु, नारि गुरु पति जान ।
द्विजन अग्नि गुरु चारिहूँ, वरन विप्र गुरु मान ॥1॥

अर्थ -- ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य इन तीनों का गुरु अग्नि है। उपर्युक्त चारो वर्णों का गुरु ब्राह्मण है, स्त्री का गुरु उसका पति है और संसार मात्र का गुरु अतिथि है।


दोहा --

आगिताप घसि काटि पिटि, सुवरन लख विधि चारि ।
त्यागशील गुण कर्म तिमि, चारिहि पुरुष विचारि ॥2॥

अर्थ -- जैसे रगडने से, काटने से, तपाने से और पीटने से, इन चार उपायों से सुवर्ण की परीक्षा की जाती है, उसी प्रकार त्याग, शील, गुण और कर्म, इन चार बातों से मनुष्य की परीक्षा होती है।


दोहा --

जौलौं भय आवै नहीं, तौलौं डरे विचार ।
आये शंका छाडि के, चाहिय कीन्ह प्रहार ॥3॥

अर्थ -- भय से तभी तक डरो, जब तक कि वह तुम्हारे पास तक न आ जाय। और जन आ ही जाय तो डरो नहीं बल्कि उसे निर्भिक भाव से मार भगाने की कोशिश करो।


दोहा --

एकहि गर्भ नक्षत्र में, जायमान यदि होय ।
नाहिं शील सम होत है, बेर काँट सम होय ॥4॥

अर्थ -- एक पेट से और एक ही नक्षत्र में उत्पन्न होने से किसी का शील एक सा नहीं हो जाता। उदाहरण स्वरूप बेर के काँटों को देखो।


दोहा --

नहि निस्पृह अधिकार गहु, भूषण नहिं निहकाम ।
नहिं अचतुर प्रिय बोल नहिं, बंचक साफ कलाम ॥5॥

अर्थ -- निस्पृह मनुष्य कभी अधिकारी नहीं हो सकता। वासना से शुन्य मनुष्य श्रृंगार का प्रेमी नहीं हो सकता। जड मनुष्य कभी मीठी वाणी नहीं बोल सकता और साफ-साफ बात करने वाला धोखेबाज नहीं होता।


दोहा --

मूरख द्वेषी पण्डितहिं, धनहीनहिं धनवान् ।
परकीया स्वकियाहु का, विधवा सुभगा जान ॥6॥

अर्थ -- मूर्खों के पण्डित शत्रु होते हैं। दरिद्रों के शत्रु धनी होते हैं। कुलवती स्त्रीयों के शत्रु वेश्यायें होती हैं और सुन्दर मनुष्यों के शत्रु कुरूप होते है।


दोहा --

आलस ते विद्या नशै, धन औरन के हाथ ।
अल्प बीज से खेत अरु, दल दलपति बिनु साथ ॥7॥

अर्थ -- आलस्य से विद्या, पराये हाथ में गया धन, बीज में कमी करने से खेती और सेनापति विहीन सेना नष्ट हो जाती है।


दोहा --

कुल शीलहिं ते धारिये, विद्या करि अभ्यास ।
गुणते जानहिं श्रेष्ठ कहँ, नयनहिं कोप निवास ॥8॥

अर्थ -- अभ्यास से विद्या की और शील से कुल की रक्षा होती है। गुण से मनुष्य पहिचाना जाता है और आँखें देखने से क्रोध का पता लग जाता है।


दोहा --

विद्या रक्षित योग ते, मृदुता से भूपाल ।
रक्षित गेह सुतीय ते, धन ते धर्म विशाल ॥9॥

अर्थ -- धन से धर्म की, योग से विद्या की, कोमलता से राजा की और अच्छी स्त्री से घर की रक्षा होती है।


दोहा --

वेद शास्त्र आचार औ, शास्त्रहुँ और प्रकार ।
जो कहते लहते वृथा, लोग कलेश अपार ॥10॥

अर्थ -- वेद को, पाण्डित्य को, शास्त्र को, सदाचार को और अशान्त मनुष्य को जो लोग बदनाम करना चाहता हैं, वे व्यर्थ कष्ट करते हैं।


सोरठा --

दारिद नाशन दान, शील दुर्गतिहिं नाशियत ।
बुध्दि नाश अज्ञा, भय नाशत है भावना ॥11॥

अर्थ -- दान दरिद्रता को नष्ट करता है, शील दुरवस्था को नष्ट कर देता है, बुध्दि अज्ञान को नष्ट कर देती है और विचार भय को नष्ट कर दिया करता है।


सोरठा --

व्याधि न काम समान, रिपु नहिं दूजो मोह सम ।
अग्नि कोप से आन, नहीं ज्ञान से सुख परे ॥12॥

अर्थ -- काम के समान कोई रोग नहीं है, मोह (अज्ञान) के समान शत्रु नहीं है, क्रोध के समान और कोई अग्नि नहीं है और ज्ञान से बढकर और कोई सुख नहीं है।


सोरठा --

जन्म मृत्यु लहु एक, भोगै है इक शुभ अशुभ ।
नरक जात है एक, लहत एक ही मुक्तिपद ॥13॥

अर्थ -- संसार के मनुष्यों में से एक मनुष्य जन्म मरण के चक्कर में पडता है, एक अपने शुभाशुभ कर्मों का फल भोगता है एक नरक में जा गिरता है और एक परम पद को प्राप्त कर लेता है।


दोहा --

ब्रह्मज्ञानिहिं स्वर्गतृन, जिद इन्द्रिय तृणनार ।
शूरहिं तृण है जीवनी, निस्पृह कहँ संसार ॥14॥

अर्थ -- ब्रह्मज्ञानी के लिये स्वर्ग तिनके के समान है। बहादुर के लिए जीवन तृण के समान है जितेन्द्रिय को नारी और निस्पृह के लिए सारा संसार तृण के समान है।


दोहा --

विद्या मित्र विदेश में, घर तिय मीत सप्रीत ।
रोगिहि औषध अरु मरे, धर्म होत है मीत ॥15॥

अर्थ -- परदेश में विद्या मित्र है, घर में स्त्री मित्र है। रोगी को औषधि मित्र है और मरे हुए मनुष्य का धर्म मित्र है।


दोहा --

व्यर्थहिं वृष्टि समुद्र में, तृप्तहिं भोजन दान ।
धनिकहिं देनों व्यर्थ है, व्यर्थ दीप दीनमान ॥16॥

अर्थ -- समुद्र में वर्षा व्यर्थ है। तृप्त को भोजन व्यर्थ है। धनाढ्य को दान देना व्यर्थ और दिन के समय दीपक जलाना व्यर्थ है।


दोहा --

दूजो जल नहिं मेघ सम, बल नहिं आत्म समान ।
नहिं प्रकाश है नैन सम, प्रिय अनाज सम आन ॥17॥

अर्थ -- मेघ जल के समान उत्तम और कोई जल नहीं होता। आत्मबल के समान और कोई बल नहीं है। नेत्र के समान किसी में तेज नहीं है और अन्न के समान प्रिय कोई वस्तु नहीं है।


दोहा --

अधनी धन को चाहते, पशु चाहे वाचाल ।
नर चाहत है स्वर्ग को, सुरगण मुक्ति विशाल ॥18॥

अर्थ -- दरिद्र मनुष्य धन चाहते हैं। चौपाये वाणी चाहते हैं। मनुष्य स्वर्ग चाहतें हैं और देवता लोग मोक्ष चाहते हैं।


दोहा --

सत्यहि ते रवि तपत हैं, सत्यहिं पर भुवभार ।
चले पवनहू सत्य ते, सत्यहिं सब आधार ॥19॥

अर्थ -- सत्य के आधार पर पृथ्वी रुकी है। सत्य के सहारे सूर्य भगवान् संसार को गर्मी पहुँचाते हैं। सत्य के ही बल पर वायु वहता है। कहने का मतलब यह कि सब कुछ सत्य में ही है।


दोहा --

चल लक्ष्मी औ प्राणहू, और जीविका धाम ।
मह चलाचल जगत में, अचल धर्म अभिराम ॥20॥

अर्थ -- लक्ष्मी चंचल है, प्राण भी चंचल ही है, जीवन तथा घर द्वार भी चंचल है और कहाँ तक कहें यह सारा संसार चंचल है, बस धर्म केवल अचल और अटल है।


दोहा --

नर में नाई धूर्त है, मालिन नारि लखाहिं ।
चौपायन में स्यार है, वायस पक्षिन माहिं ॥21॥

अर्थ -- मनुष्यों में नाऊ, पक्षियों में कौआ, चौपायों में स्यार और स्त्रियों में मालिन, ये सब धूर्त होते हैं।


दोहा --

पितु आचारज जन्म पद, भय रक्षक जो कोय ।
विद्या दाता पाँच यह, मनुज पिता सम होय ॥22॥

अर्थ -- संसार में पिता पाँच प्रकार के होते हैं। ऎसे कि जन्म देने वाला, विद्यादाता, यज्ञोपवीत आदि संस्कार करनेवाला, अन्न देनेवाला और भय से बचानेवाला।


दोहा --

रजतिय औ गुरु तिय, मित्रतियाहू जान ।
निजमाता और सासु ये, पाँचों मातु समान ॥23॥

अर्थ -- उसी तरह माता भी पाँच ही तरह की होती हैं। जैसे राजा की पत्नी, गुरु की पत्नी, मित्र की पत्नी, अपनी स्त्री की माता और अपनी खास माता।


इति चाणक्ये पञ्चमोऽध्यायः ॥5॥

चाणक्यनीति - अध्याय 6




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