"द्विजदेव (महाराज मानसिंह)": अवतरणों में अंतर

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12:33, 8 जनवरी 2012 का अवतरण

द्विजदेव (महाराज मानसिंह) अयोध्या के महाराज थे और बड़ी ही सरस कविता करते थे। ऋतुओं के वर्णन इनके बहुत ही मनोहर हैं। इनके भतीजे 'भुवनेश जी'[1] ने द्विजदेव जी की दो पुस्तकें बताई हैं -

  1. 'श्रृंगारबत्तीसी' और
  2. 'श्रृंगारलतिका'।'
श्रृंगारलतिका

'श्रृंगारलतिका' का एक बहुत ही विशाल और सटीक संस्करण महारानी अयोध्या की ओर से हाल में प्रकाशित हुआ है। इसके टीकाकार हैं भूतपूर्व अयोध्या नरेश महाराज प्रतापनारायण सिंह।

श्रृंगारबत्तीसी

'श्रृंगारबत्तीसी' भी एक बार छपी थी। द्विजदेव के कवित्त काव्यप्रेमियों में वैसे ही प्रसिद्ध हैं जैसे पद्माकर के। ब्रजभाषा के श्रृंगारी कवियों की परंपरा में इन्हें अंतिम प्रसिद्ध कवि समझना चाहिए। जिस प्रकार लक्षण ग्रंथ लिखनेवाले कवियों में पद्माकर अंतिम प्रसिद्ध कवि हैं उसी प्रकार समूची श्रृंगार परंपरा में ये। इनकी सी सरस और भावमयी फुटकल श्रृंगारी कविता फिर दुर्लभ हो गई।

भाषा

इनमें बड़ा भारी गुण है भाषा की स्वच्छता। अनुप्रास आदि चमत्कारों के लिए इन्होंने भाषा भद्दी कहीं नहीं होने दी है। ऋतुवर्णनों में इनके हृदय का उल्लास उमड़ पड़ता है। बहुत से कवियों के ऋतुवर्णन हृदय की सच्ची उमंग का पता नहीं देते, रस्म सी अदा करते जान पड़ते हैं। पर इनके चकोरों की चहक के भीतर इनके मन की चहक भी साफ झलकती है। एक ऋतु के उपरांत दूसरी ऋतु के आगमन पर इनका हृदय अगवानी के लिए मानो आप से आप आगे बढ़ता था। -

मिलि माधावी आदिक फूल के ब्याज विनोद-लवा बरसायो करैं।
रचि नाच लतागन तानि बितान सबै विधि चित्त चुरायो करैं।
द्विजदेव जू देखि अनोखी प्रभा अलिचारन कीरति गायो करैं।
चिरजीवो बसंत! सदा द्विजदेव प्रसूननि की झरि लायो करैं

सुर ही के भार सूधो सबद सुकीरन के
मंदिरन त्यागि करैं अनत कहूँ न गौन।
द्विजदेव त्यौं ही मधुभारन अपारन सों
नेकु झुकि झूमि रहै मोगरे मरुअ दौन
खोलि इन नैनन निहारौं तौ निहारौं कहा?
सुषमा अभूत छाय रही प्रति भौन भौन।
चाँदनी के भारन दिखात उनयो सो चंद,
गंधा ही के भारन बहत मंद मंद पौन


बोलि हारे कोकिल, बुलाय हारे केकीगन,
सिखै हारी सखी सब जुगुति नई नई।
द्विजदेव की सौं लाज बैरिन कुसंग इन
अंगन हू आपने अनीति इतनी ठई
हाय इन कुंजन तें पलटि पधारे स्याम,
देखन न पाई वह मूरति सुधामई।
आवन समै में दुखदाइनि भई री लाज,
चलत समैं मे चल पलन दगा दई

आजु सुभायन ही गई बाग, बिलोकि प्रसून की पाँति रही पगि।
ताहि समय तहँ आये गोपाल, तिन्हें लखि औरौ गयो हियरो ठगि
पै द्विजदेव न जानि परयो धौं कहा तेहि काल परे अंसुवा जगि।
तू जो कही सखि! लोनो सरूप सो मो अंखियान कों लोनी गईलगि

बाँके संकहीने राते कंज छबि छीने माते,
झुकि झुकि, झूमि झूमि काहू को कछू गनैन।
द्विजदेव की सौं ऐसी बनक बनाय बहु,
भाँतिन बगारे चित चाहन चहूँधा चैन
पेखि परे प्रात जौ पै गातिन उछाह भरे,
बार बार तातें तुम्हैं बूझती कछूक बैन।
एहो ब्रजराज! मेरो प्रेमधान लूटिबे को,
बीरा खाय आये कितै आपके अनोखे नैन

भूले भूले भौंर बन भाँवरें भरैंगे चहूँ,
फूलि फूलि किंसुक जके से रहि जायहैं।
द्विजदेव की सौं वह कूजन बिसारि कूर,
कोकिल कलंकी ठौर ठौर पछिताय हैं
आवत बसंत के न ऐहैं जो पै स्याम तौ पै,
बावरी! बलाय सों हमारेऊ उपाय हैं।
पीहैं पहिलेई तें हलाहल मँगाय या,
कलानिधि की एकौ कला चलन न पायहैं

घहरि घहरि घन सघन चहूँधा घेरि,
छहरि छहरि विष बूँद बरसावै ना।
द्विजदेव की सौं अब चूक मत दाँव, एरे
पातकी पपीहा! तू पिया की धुनि गावै ना।
फेरि ऐसो औसर न ऐहै तेरे हाथ, एरे
मटकि मटकि मोर सोर तू मचावै ना।
हौं तौ बिन प्रान, प्रान चाहत तजोई अब,
कत नभ चंद तू अकास चढ़ि धावै ना


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्री त्रिलोकीनाथ जी, जिनसे अयोध्या नरेश ददुआ साहब से राज्य के लिए अदालत हुई थी

आचार्य, रामचंद्र शुक्ल “प्रकरण 3”, हिन्दी साहित्य का इतिहास (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: कमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ सं. 273-75।

बाहरी कड़ियाँ

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