"प्रयोग:Asha": अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें
No edit summary
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
==अबुलकलाम आज़ाद==
{| class="wikitable"
==परिचय==
|-
मौलाना अबुलकलाम मुहीउद्दीन अहमद एक मुस्लिम विद्वान थे। उन्होंने [[भारतीय स्वतंत्रता संग्राम]] में भाग लिया। वह वरिष्ठ राजनैतिक नेता थे। उन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता का समर्थन किया और सांप्रदायिकता पर आधारित देश के विभाजन का विरोध किया। स्वतंत्र [[भारत]] में वह भारत सरकार के पहले शिक्षा मंत्री थे। उन्हें 'मौलाना आज़ाद' के नाम से जाना जाता है। 'आज़ाद' उनका उपनाम है।
! क्रम
==जन्म==
! वर्ष
{{tocright}}
! नाम
अबुल के पिता 'मौलाना खैरूद्दीन' एक विख्यात विद्वान थे, जो [[बंगाल]] में रहते थे। उनकी माँ 'आलिया' एक अरब थी और मदीन के शेख़ मोहम्मद ज़ाहिर वत्री की भतीजी थी। अरब देश के पवित्र मक्का में रहने वाले एक भारतीय पिता और अरबी माता के घर में उनका ज्न्म हुआ। पिता मौलाना खैरूद्दीन ने उनका नाम मोहिउद्दीन अहमद या फ़िरोज़ बख़्त (खुश-किस्मत) रक्खा। आगे चलकर वे 'मौलाना अबुलकलाम आज़ाद' या 'मौलाना साहब' के नाम से प्रसिद्ध हुए। बचपन से ही उनमें कुछ ख़ास बातें नज़र आने लगी थीं, जो जीवन भर उनके साथ रहीं। मौलाना आज़ाद को एक 'राष्ट्रीय नेता' के रूप में जाना जाता हैं। वास्तव में राष्टीय नेता तो वह थे, लेकिन वह नेता बनना चाहते ही नहीं थे।
!जीवन  
<blockquote>एक मित्र को उन्होंने पत्र में लिखा था, ".....मैं राजनीति के पीछे कभी नहीं दौड़ा था। वस्तुतः राजनीति ने ही मुझे पकड़ लिया....."।</blockquote>
|-
==बचपन==
|1
अन्य किसी छोटे लड़के की तरह बचपन में आज़ाद को गैस वाले रंगीन गुब्बारों, तैरने और खेल-कूद का बहुत शौक था। उनकी याददाश्त इतनी तेज थी कि विश्वास नहीं होता था। सीखने, पढ़ने-लिखने और बोलने की इच्छा उनमें दिन-ब-दिन बढ़ती जाती थी। दूसरे बच्चों की तरह स्कूल जाना, अपनी ही उम्र बच्चों के साथ रहना, मैदानों में खुलकर खेलना, बच्चे आमतौर से जो करते हैं, वैसी शरारतें करना—यह सब उन्हें पसंद था। लेकिन वह ये कर नहीं सकते थे। उनके पिता यह चाहते थे कि वह एक निष्ठावान धार्मिक विद्वान बनें और इसीलिए वे सब चीजें करने की उन्हें इजाज़त नहीं थी।
|1954 -  
 
|डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन
तेरह साल की आयु में उनका विवाह ज़ुलैखा बेग़म से हो गया । वे देवबन्दी विचारधारा के करीब थे और उन्होंने क़ुरान के अन्य भावरूपों पर लेख भी लिखे ।
|5 सितंबर 1888  – 17 अप्रैल 1975
 
|-
मौलाना आज़ाद एक विद्वान, पत्रकार, लेखक, कवि, दार्शनिक थे और इन सबसे बढ़कर अपने समय के धर्म के एक महान विद्वान थे। [[महात्मा गांधी]] की तरह भारत की भिन्न-भिन्न जातियों के बीच, विशेष तौर पर हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच एकता के लिए कार्य करने वाले कुछ महान लोगों में से वह भी एक थे। अपने गुरु की तरह उन्होंने भी जीवनभर दो दुश्मनों [[ब्रिटिश सरकार]] और हमारे राष्ट्र की एकता के विरोधियों का सामना किया।
|2
==शिक्षा==
|1954 -  
10 वर्ष की छोटी सी आयु में ही वह क़ुरान के पाठ में पूर्णत: निपुण हो गए थे। 17 वर्ष की अल्प आयु में ही अबुल कलाम इस्लामी दुनियाँ के धर्मविज्ञान में शिक्षित हो गये थे। काहिरा के 'अल अज़हर विश्वविद्यालय' में उन्होंने शिक्षा प्राप्त की जो उनके गम्भीर और गहन ज्ञान का आधार बनी। परिवार के [[कोलकाता]] में बसने पर उन्होंने 'लिसान-उल-सिद' नामक  पत्रिका प्रारम्भ की। उन पर [[उर्दू भाषा|उर्दू]] के दो महान आलोचकों 'मौलाना शिबली नाओमनी' और 'अल्ताफ हुसैन हाली' का बहुत प्रभाव था।
|चक्रवर्ती राजगोपालाचारी
==विद्वान==
|10 दिसंबर 1878 - 25 दिसंबर 1972
आज़ाद के पास बहुत सी क़िताबें थीं और बड़े-बड़े विद्वान शिक्षक उन्हें अरबी, फ़ारसी, उर्दू और धार्मिक विषयों के साथ-साथ गणित, यूनानी चिकित्सा पद्धति, सुलेखन और दूसरे विषयों की शिक्षा देते थे। अंग्रेजी सीखना तो मानों मना ही था। क्योंकि वह तो 'घृणित फिरंगियों' की भाषा थी। भाग्य से ऐसे एक आदमी से भेंट हो गई जो अंग्रेजी भाषा जानते थे। आज़ाद ने कुछ दिनों में उनसे अंग्रेजी वर्णमाला और पहली कक्षा की किताब पढ़ना सीख लिया। कुछ ही समय बाद उन्होंने शब्दकोश के सहारे बाइबिल और अंग्रेजी अखबार पढ़ना शुरू कर दिया। मोमबत्ती की हल्की रोशनी में वह रात में देर तक पढ़ते रहते थे। सवेरे जल्दी उठकर भी वह पढ़ते थे और कभी-कभी तो वह खाना भी भूल जाते थे। अकसर अपने पैसे वह किताबों पर ही खर्च कर देते थे। <blockquote>उन्होंने कहा- "लोग बचपन खेल-कूद में बिताते हैं, लेकिन मैं बारह-तेरह साल की उम्र में ही क़िताब लेकर लोगों की नज़रों से बचने के लिए एक कोने में अपने आपको छिपाने की कोशिश करता था।</blockquote>
|-
 
|3
<blockquote>उनके लेखन के बारे में एक बड़े विद्वान ने लिखा है, "प्रसिद्ध ब्रिटिश लेखक सॉमरसेट मॉम की तरह ही मौलाना आज़ाद ने लिखना शुरू किया वैसे ही जैसे मछली अपने आप तैरना सीख लेती है या बच्चा सांस लेना सीख लेता है।" आज़ाद में एक नया गुण यह था कि बहुत-सी बातों में वह अपनी उम्र से बहुत आगे रहे।</blockquote>
|1954 -
*बारह वर्ष के होने से पहले ही वह एक पुस्तकालय वाचनालय और डिबेटिग सोसाइटी चला रहे थे।
|डॉक्टर चन्‍द्रशेखर वेंकटरमण
*जब वह केवल पन्द्रह वर्ष के थे तब वह अपने से दुगुनी उम्र के विद्यार्थियों की एक क्लास को पढ़ाते थे।
|7 नवंबर 1888 - 21 नवंबर 1970
*तेरह से अठारह साल की उम्र के बीच उन्होंने बहुत-सी पत्रिकाओं का संपादन किया और
|-
*सोलह साल की उम्र में स्वयं एक उच्च स्तर की पत्रिका निकाली।
|4
<blockquote>इन बातों को देखते हुए [[जवाहरलाल नेहरू|नेहरू]] ने कहा था कि मौलाना आज़ाद सन 1923 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सबसे युवा प्रमुख थे ।</blockquote><br />
|1955
 
|डॉक्टर भगवान दास
'''प्रसिद्ध घटना''' <br />
|12 जनवरी1869  - 18 सितंबर1958
 
|-
उर्दू बोलने वाले लोगों ने एक बार 'एक बड़े विद्वान' को सन 1904 में एक राष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस में भाषण देने के लिए आमंत्रित किया। उस 'बड़े विद्वान' के लेखों के वे बड़े प्रशंसक थे, लेकिन जब मौलाना वर्ष के दुबले-पतले, बिना दाढ़ी के और गोरे रंग के मौलाना आज़ाद रेल की प्रथम श्रेणी के डिब्बे से उतरे तो लाहौर स्टेशन पर जमा हुए उनके हज़ारों प्रशंसकों को अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ। कुछ लोगों को निराशा भी हुई और जब उस लड़के ने कोई ढाई घंटे तक बिना लिखित भाषण के सीधे ही अपना भाषण दिया तो कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष मौलाना हाली, जो स्वयं सड़सठ वर्ष के मशहूर शायर और विद्वान थे, उनको प्यार से अपनी बांहों में भरकर बोले, "प्यारे बेटे, अब मैं अपनी ज्ञानेंद्रियों पर तो भरोसा कर रहा हूँ, लेकिन अभी भी मेरा आश्चर्य बना हुआ है।"<br />
|5
'''दूसरी घटना'''<br />
|1955
 
|सर डॉ. मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या
इस तरह सन 1910 के क़रीब एक लज्जाशील युवक, जो अपनी तस्वीर तक प्रकाशित कराने के लिए तैयार नहीं होता था, उसका शरीर दुर्बल था, लेकिन निश्चय दृढ़ था; उसके दिल में आग सुलगती थी पर मन शान्त था; उसकी आदतें उत्कृष्ट थीं किन्तु निश्चय अटल था; उसकी बुद्धि तेज़ थी पर स्वभाव कोमल था—देश को आज़ादी की ओर ले जाने वाले महान सिपाहियों के दल में शामिल हो जाने के लिए तैयार हो गया था। सच कहा जाए तो मौलाना क़िताबों की दुनिया में रहने वाले थे। कड़ी सर्दी, एकांत, संगीत और सबसे बढ़िया चाय—इनकी पसंद थे। वह सवेरे जल्दी उठते थे और समय के पाबन्द थे। किसी भी कठिनाई को सह लेने के लिए और अपने देश और उसके लोगों की ख़ातिर कुछ भी बलिदान कर देने के लिए तैयार रहते थे।
|15 सितंबर 1860 - 12 अप्रैल 1962
==राजनीति में आने की भूमिका==
|-  
आज़ाद ने राजनीति में उस समय प्रवेश किया जब ब्रिटिश शासन ने 1905 में धार्मिक आधार पर बंगाल का विभाजन कर दिया था। मुस्लिम मध्यम वर्ग ने इस विभाजन को समर्थन दिया किन्तु आज़ाद इस विभाजन के विरोध में थे। आज़ाद ने स्वतत्रता आन्दोलनों में सक्रिय भाग लिया। वह गुप्त सभाओं और क्रांतिकारी संगठन में शामिल हो गए। तत्पश्चात आज़ाद [[अरबिंद घोष]] और [[श्यामसुंदर चक्रवर्ती]] के संपर्क में आए, और वे अखण्ड भारत के निर्माण में लग गये।
|6
<blockquote>उन्होंने अपनी प्रसिध्द पुस्तक 'इंडिया विन्स फ्रीडम' में लिखा है कि- 'लोगों को यह सलाह देना सबसे बड़े धोखों में से एक होगा कि भौगोलिक, आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से भिन्न क्षेत्रों को धार्मिक संबंध जोड़ सकते हैं।'</blockquote>
|1955
 
|पं. जवाहर लाल नेहरु
वह जोशीले भाषण देते, उत्तेजना भरे लेख लिखते और पढ़े-लिखे मुसलमानों के साथ सम्पर्क बढ़ा रहे थे। बंगाल के क्रांतिकारी श्यामसुन्दर चक्रवर्ती से उन्होंने क्रांन्ति के लिए प्रशिक्षण प्राप्त किया था और उसकी ही सहायता से सन 1905 में महान क्रांतिकारी अरविन्द घोष से उनकी मुलाकात हुई थी। मुसलमानों के कुछ गुप्त मंडलों की भी उन्होंने स्थापना की थी। मौलाना को लगा कि कुछ ऐसे कारण है जिनको लेकर सन 1857 की आज़ादी की लड़ाई के बाद मुसलमान बहुत सी बातों में अपने दूसरे देशवासियों से पीछे रह गए हैं। बहुत से मुसलमान ऐसा सोच रहे थे कि भारत में हमेशा अंग्रेजों का ही राज बना रहेगा और इसलिए उनको अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष करने की कोई आवश्यकता नहीं है। लेकिन अपने लेखों द्वारा मौलाना ने उन्हें समझाया कि विदेशी सरकार की ग़ुलामी से छुटकारा पाना सिर्फ राष्ट्रीय ध्येय ही नहीं है बल्कि यह उनका धार्मिक कर्तव्य भी है।
|14 नवंबर1889 - 27 मई1964
<blockquote>एक बार उन्होंने घोषणा की- "मुसलमानों के लिए बिच्छू और साँप से सुलह कर लेना, पहाड़, ग़ुफा और बिलों के भीतर घूमना और वहाँ जंगली जानवरों के साथ चैन से रहना आसान है, लेकिन उनके लिए अंग्रेजों के साथ संधि के लिए हाथ बढ़ाना मुमकिन नहीं है।"</blockquote>
|-  
 
|७.
अपने इस संदेश को फैलाने के लिए सन 1912 में उन्होंने अपना प्रसिद्ध साप्ताहिक अखबार 'अल-हिलाल' आरम्भ किया।
|1957
 
|गोविंद वल्लभ पंत
जब कांग्रेसी नेताओं ने 1947 के विभाजन को स्वीकार कर लिया था किंतु मौलाना इसका विरोध करते रहे। हिन्दू-मुस्लिम एकता पर उनका विश्वास था।
|10 सितंबर 1887 - 7 मार्च 1961
<blockquote>वे कहते है - '''अगर एक देवदूत स्वर्ग से उतरकर कुतुब मीनार की ऊंचाई से यह घोषणा करता है कि हिन्दू-मुस्लिम एकता को नकार दें तो 24 घंटे के भीतर स्वराज तुम्हारा हो जाएगा, तो मैं इस स्वराज को लेने से इंकार करूंगा, लेकिन अपने रुख से एक इंच भी नहीं हटूंगा, क्योंकि स्वराज से इंकार सिर्फ भारत को प्रभावित करेगा लेकिन हमारी एकता की समाप्ति से हमारे समूचे मानव जगत को हानि होगी।'''</blockquote>
|-
 
|8
==अल-हिलाल का प्रकाशन==
|1958
1912 में 'अल हिलाल' नामक एक उर्दू अख़बार का प्रकाशन प्रारम्भ किया। इस अख़बार में उन्होंने अपने प्रगतिशील विचार, कुशल तर्क और इस्लामी जनश्रुतियाँ और इतिहास के प्रति अपने दृष्टिकोण को प्रकाशित किया। यह अख़बार भारत और विदेशों में इतनी जल्दी प्रसिद्ध हो गया कि आज यह बात एक चमत्कार ही लगती है। कुछ ही दिनों में 'अल-हिलाल' की 26,000 प्रतियाँ बिकने लगीं। लोग इकट्ठे होकर उस अख़बार के हर शब्द को ऐसे पढ़ते या सुनते जैसे वह स्कूल में पढ़ाया जाने वाला कोई पाठ हो। कुछ ही दिनों में उस अख़बार ने न सिर्फ मुसलमानों में बल्कि उस समय के उर्दू पढ़ने वाले बहुत से लोगों में जागृति की एक लहर उत्पन्न कर दी।
|डॉ. धोंडो केशव कर्वे
 
|18 अप्रैल 1858 – 9 नवंबर 1962
<blockquote>'भारत की खोज' में नेहरू जी ने लिखा है कि - "मौलाना ने तार्किक दृष्टिकोण से धर्मग्रंथों की व्याख्या की है।"</blockquote> आख़िर सरकार ने 'अल-हिलाल' की 2,000 रुपये और 10,000 रुपये की जमानतें ज़ब्त कर लीं और मौलाना आज़ाद को सरकार के ख़िलाफ़ लिखने के जुर्म में बंगाल से बाहर भेज दिया। बाद में वह चार साल से भी ज्यादा समय तक [[रांची]], [[बिहार]] में क़ैद रहे।
|-  
 
|9
गांधी जी को मौलाना के सशक्त लेखों के बारे में पता था। मौलाना जब रांची के जेल में थे तब गांधी जी उनसे मुलाकात करना चाहते थे। लेकिन सरकार ने इसकी स्वीकृति नहीं दी। उसके तुरन्त बाद जनवरी सन 1920 में रिहा होने के बाद उनकी [[दिल्ली]] में हक़ीम अजमल ख़ाँ के घर गांधी जी से भेंट हुई। उस मुलाक़ात को याद करते हुए मौलाना ने बाद में लिखा- <blockquote>"...आज तक...हम जैसे एक ही छत के नीचे रहते आए हैं.....हमारे बीच मतभेद भी हुए....लेकिन हमारी राहें कभी अलग नहीं हुईं। जैसे-जैसे दिन बीतते, वैसे-वैसे उन पर मेरा विश्वास और भी दृढ़ होता गया।"</blockquote>
|1961
 
|डॉ. बिधनचंद्र रॉय
<blockquote>दूसरी ओर गांधी जी ने कहा, "मुझे खुशी है कि सन 1920 से मुझे मौलाना के साथ काम करने का मौका मिला है। जैसी उनकी इस्लाम में श्रृद्धा है वैसा ही दृढ़ उनका देश प्रेम है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सबसे महान नेताओं में से वह एक हैं। यह बात किसी को भी नहीं भूलनी चाहिए......"</blockquote>
|1 जुलाई 1882 - 1 जुलाई 1962
 
|-
जेल से छूटकर उन्होंने फिर से लेखन कार्य आरंभ कर दिया। <blockquote>नेहरू जी ने लिखा है कि - "वह एक नई भाषा में लिखते हैं, यह न सिर्फ विचारों और दृष्टिकोण में ही एक नई भाषा है बल्कि इसकी शैली भी भिन्न थी।" </blockquote>
|10
 
|1961
'अल हिलाल' के बंद होने के बाद आज़ाद ने 'अल बलघ' नामक साप्ताहिक पत्रिका प्रारम्भ की। 1916 में आज़ाद के गिरफ्तार होने के बाद यह पत्रिका भी बंद हो गई। आज़ाद चार वर्षों तक जेल में रहे। जेल से बाहर आने पर उन्हें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल किया गया।
|पुरूषोत्तम दास टंडन
==उर्दू भाषा का विकास==
|1 अगस्त 1882 - 1 जुलाई 1962
फ़ारसी पृष्ठभूमि होने के कारण कभी-कभी आज़ाद की शैली और विचारों को समझना थोड़ा मुश्किल था। उन्होंने नये विचारों के लिए नए मुहावरों का प्रयोग किया और निश्चित रूप से आज की उर्दू भाषा को आकार देने में उनका बहुत बड़ा हाथ रहा है। पुराने रूढिवादी मुसलमानों ने इसके लिए उनके पक्ष में प्रतिक्रिया जाहिर नहीं की और आज़ाद की राय एवं दृष्टिकोण की आलोचना की। मौलाना मध्यकालीन दर्शन, अठारहवीं सदी के बुध्दिवाद और आधुनिक दृष्टिकोण का एक अजब मिश्रण थे। पुरानी पीढी में से 'शिल्बी' और अलीगढ विश्वविद्यालय के 'सर सैय्यद' जैसे कुछ लोगों ने आज़ाद के लेखन को मान्यता दी।
|-  
==रचनायें==
|11
उर्दू, फारसी और अरबी की किताबों के मौलाना  थे।
|1962
*इंडिया विन्स फ्रीडम अर्थात भारत की आज़ादी की जीत,
|डॉ. राजेंद्र प्रसाद
*उनकी राजनैतिक आत्मकथा,
|3 दिसंबर 1884 - 28 फरवरी 1963
*उर्दू से अंग्रेजी में अनुवाद के अलावा 1977 में साहित्य अकादमी द्वारा छ: संस्करणों में प्रकाशित कुरान का अरबी से उर्दू में अनुवाद उनके शानदार लेखक को दर्शाता है।
|-  
*इसके बाद तर्जमन-ए-कुरान के कई संस्करण निकले हैं।
|12
*उनकी अन्य पुस्तकों में गुबारे-ए-खातिर, हिज्र--वसल, खतबात--आज़ाद, हमारी आज़ादी और तजकरा शामिल हैं।
|1963
*उन्होंने अंजमने-तारीकी-ए-हिन्द को भी एक नया जीवन दिया।
|डॉ. जाकिर हुसैन
==अंजमने-तारीकी-ए-हिन्द==
|8 फरवरी 1897 - 3 मई 1969
विभाजन के दंगों के समय जब 'अंजमने-तारीकी-उर्दू' के सामने समस्या आई तो इसके सचिव मौलवी अब्दुल हक ने अंजमन की क़िताबों के साथ पाकिस्तान जाने का निर्णय किया। अब्दुल हक़ ने क़िताबों को बाँध लिया किंतु मौलाना आज़ाद ने उन्हें निकाल लिया और इस तरह से उन्होंने एक राष्ट्रीय खज़ाने को पाकिस्तान जाने से बचाया। उन्होंने शिक्षा मंत्रालय की ओर से अंजमन को 48,000 रूपए प्रति माह के अनुदान की मंजूरी देकर उसे फिर से चलाने में मदद भी की। इसी तरह उन्होंने [[जामिया मिलिया इस्लामिया]], और [[अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय]] के वित्तीय संकट के समय में उनके अनुदान में वृद्धि करके मदद की। उन्होंने संरक्षित स्मारकों की मरम्मत और उन्हें बनाए रखने के भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के प्रयासों की ओर विशेष ध्यान दिया। अपने संपूर्ण जीवन में, उन्होंने हिन्दू-मुसलमानों और भारत की सम्मिलित संस्कृति के बीच सौहार्द बनाने का प्रयास किया। वे धर्मनिरपेक्ष विचारधारा, सर्वव्यापक चरित्र और अंतर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण वाले आधुनिक भारत के निर्माण के लिए डटे रहे।
|-
 
|13
==राष्ट्रीयता को बढ़ावा==
|1963
युवावस्था में आज़ाद धर्म और दर्शन पर उर्दू में कविताएं लिखते थे। पत्रकारिता के कारण उन्हें ख्याति मिली। उन्होंने अंग्रेजी शासन के विरुद्ध लिखा और साथ ही भारतीय राष्ट्रीयता को बढ़ावा दिया। आंदोलन के नेता के रूप में वे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के संपर्क में आए और गांधी जी के अहिंसक आंदोलन '[[सविनय अवज्ञा आंदोलन]]' के समर्थक हो गए। उन्होंने 1919 के [[रॉलेट एक्ट]] के विरोध में [[असहयोग आंदोलन]] को संगठित करने में सक्रिय भूमिका निभाई। आज़ाद गांधी जी के स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग और स्वराज जैसे आदर्शों के प्रबल समर्थक थे। 1920 में उन्होंने [[बालगंगाधर तिलक|तिलक]] और गांधी जी से मुलाकात की। गांधी जी ने देवबंद विद्यालय और फिरंगी महल से खिलाफत आंदोलन शुरू किया, जहां गांधी और आज़ाद दोनों ही निरंतर आते-जाते रहते थे। लेकिन मुस्लिम लीग ने जब गांधी जी के सत्याग्रह की निंदा की तो आज़ाद ने हमेशा के लिए मुस्लिम लीग को छोड़ दिया। उनकी लोकप्रियता इतनी अधिक थी कि 35 वर्ष की आयु में 1923 मेंवह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अब तक के सबसे युवा अध्यक्ष बन गये। 1942 में, भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान उन्हें कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता के तौर पर चुना गया। 1946 में शिमला में, मंत्रिमंडल अभियान बातचीत में भी उन्हें यह उपलब्धि मिली।
|डॉ. पांडुरंग वामन काणे
==प्रभावशाली वक्ता==
|1880 -1972
जब मौलाना बोलते थे तो श्रोता मंत्रमुग्ध होकर उन्हें सुनते थे। उनके शब्दों में जादू का-सा प्रभाव होता था। उनकी भाषा अनुशासित और सभ्य थी और उनकी  भाषण शैली प्रभावशाली होती था। अक्टूबर, 1947 में जब हजारों की संख्या में दिल्ली के मुसलमान पाकिस्तान जा रहे थे तो वे जामा मस्जिद की प्राचीर से एक प्राचीन देव पुरूष की भाँति मौलाना बोले,-  
|-  
<blockquote>"जामा मस्जिद की ऊंची मीनारें तुमसे पूछ रही है कि जा रहे हो, तुमने इतिहास के पन्नों को कहाँ खो दिया। कल तक तुम यमुना के तट पर वजू किया करते थे और आज तुम यहां रहने से डर रहे हो। याद रखो कि तुम्हारे खून में दिल्ली बसी है। तुम समय के इस झटके से डर रहे हो। वे तुम्हारे पूर्वज ही थे जिन्होंने गहरे समुद्र में छलांग लगाई, मजबूत चट्टानों को काट डाला, कठिनाइयों में भी मुस्कुराए, आसमान की गड़गडाहट का उत्तर तुम्हारी हँसी के वेग से दिया, हवाओं की दिशा बदल दी और तूफानों का रूख मोड़ दिया। यह भाग्य की विडम्बना है कि जो लोग कल तक राजाओं की नियति के साथ खेले उन्हें आज अपने ही भाग्य से जूझना पड़ रहा है और इसलिए वे इस मामले में अपने परमेश्वर को भी भूल गये हैं जैसे कि उसका कोई आस्तित्व ही न हो। वापस आओ यह तुम्हारा घर है, तुम्हारा देश।''</blockquote>
|14
 
|1966
उनके इस भाषण का इतना अधिक प्रभाव हुआ कि जो लोग पाकिस्तान जाने के लिए अपना सामान बाँध कर तैयार थे वे स्वतंत्रता और देशभक्ति की एक नई भावना के साथ घर लौट आए और इसके बाद यहाँ से नहीं गए। अंतर्राष्ट्रीय भाषणों के इतिहास में, जामा मस्ज़िद पर दिए गये मौलाना आज़ाद के इस भाषण की तुलना केवल अब्राहम लिंकन के गैट्सबर्ग में दिए भाषण से, गांधी जी की हत्या पर नेहरू के बिरला हाऊस में दिये गये भाषण और मार्टिन लूथर के भाषण- 'मेरा एक सपना है,' से तुलना की जा सकती है।
|लाल बहादुर शास्त्री
 
|2 अक्तूबर 1904 - 11 जनवरी 1966, मरणोपरान्त
मौलाना का अंग्रेजी भाषा का ज्ञान उच्च कोटि का था । मौलाना बड़े निर्भीक वक्ता थे । इनकी योग्यता को देख कर एक बार मद्रास की कांग्रेस कमेटी ने अखिल भारतवर्षीय कांग्रेस का प्रतिनिधि चुन कर भेजा था । [[आगरा]] की 'आर्यमित्र सभा' के वार्षिकोत्सव पर मौलाना के व्याख्यानों को सुन कर [[राजा महेन्द्र प्रताप]] बड़े मुग्ध हुये। राजा साहब ने आपके पैर छुए और अपनी कोठी पर ले गये । उस समय के बाद  से राजा साहब अक्सर मौलाना के उपदेश सुना करते थे।
|-
<blockquote>राजा साहब मौलाना को अपना गुरू मानते थे - "इतना साफ निर्भीक बोलने वाला मैंने आज तक नहीं देखा ।  सन 1913 ई0 में मैंने आप का पहला व्याख्यान शाहज़हाँपुर में सुना था । आर्य समाज के वार्षिकोत्सव पर आप पधारे थे ।"</blockquote>
|15
==धारासन सत्याग्रह==
|1971
1931 में धारासन सत्याग्रह के प्रमुख आयोजक थे। धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद और हिंदू-मुस्लिम एकता को उन्होंने बढ़ावा दिया । 1945 में 'भारत छोड़ो आंदोलन' में उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष पद पर कार्य किया। अन्य नेताओं के साथ मौलाना आज़ाद को तीन साल की जेल की सजा हुई। स्वंतत्र भारत की अंतरिम सरकार में आज़ाद शामिल थे। भारत विभाजन की हिंसा के समय वे सांप्रदायिक सौहार्द्र बढ़ाने का कार्य कर रहे थे।
|इंदिरा गाँधी
==एकता के लिए कार्य==
|19 नवंबर1917 -31 अक्तूबर1984
शुरू से ही मौलाना यह जानते थे कि अगर भारत के लोग आपस में मिलजुल कर रहेंगे तभी वे एक मज़बूत राष्ट्र बना सकेंगे। महात्मा गांधी की तरह उनके लिए भी लोगों की एकता से बढ़कर कुछ और प्यारा नहीं था। जिस तरह उनके गुरु ने उसी ध्येय के लिए अपने जीवन का बलिदान कर दिया था, उसी तरह मौलाना भी राष्ट्र की एकता के लिए सब कुछ न्योछावर कर देने के लिए तैयार थे।
|-  
 
|16
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सन 1923 के अपने प्रथम अध्यक्षीय भाषण में उर्दू के अपने विशेष अन्दाज में मौलाना ने कहा था-  
|1975
<blockquote>"आज अगर आसमान से फ़रिश्ता भी उतर आए और दिल्ली के क़ुतुब मीनार की चोटी पर से एलान करे कि हिन्दुस्तान अगर हिन्दू-मुस्लिम एकता का ख्याल छोड़ दे तो वह चौबीस घंटों में आज़ाद हो सकता है, तो हिन्दू-मुस्लिम एकता के बजाय देश की आज़ादी को मैं छोड़ दूंगा—क्योंकि अगर आज़ादी आने में देर लग भी जाए तो इससे सिर्फ भारत का ही नुकसान होगा, लेकिन हिन्दू-मुसलमानों के बीच एकता अगर न रहे तो इससे दुनिया की सारी इन्सानियत का नुकसान होगा।"</blockquote>
|वराहगिरी वेंकट गिरी
 
|10 अगस्त1894 - 23 जून 1980
बदकिस्मती यह थी कि देश में कुछ लोग ऐसे थे जो इस तरह की एकता नहीं चाहते थे। स्वाभाविक ही है कि गांधी जी की तरह मौलाना के भी ऐसे ही लोग जिन्दगी भर कट्टर दुश्मन बने रहे। उन लोगों ने मौलाना की हंसी उड़ाई, उन्हें गालियाँ दीं, उन्हें तरह-तरह के नाम और ताने दिये, उनका मज़ाक उड़ाया। लेकिन मौलाना ने इन लोगों के साथ कभी समझौता नहीं किया।
|-
मौलाना आज़ाद ने 1935 में मुस्लिम लीग, जिन्ना और कांग्रेस के साथ बातचीत की वकालत की जिससे राजनैतिक आधार को सुदृढ़ किया जा सके। जब जिन्ना ने विरोध किया तो मौलाना आज़ाद ने उनकी आलोचना कर उन्हें समझाने में कोई कोताही नहीं बरती। सन 1938 में आज़ाद ने गांधी जी के समर्थकों और तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सुभाषचंद्र बोस के बीच पैदा हुए मतभेदों में पुल का काम किया।
|17
 
|1976
1940 में लाहौर में हुए अधिवेशन में पाकिस्तान ने जब [[मुस्लिम लीग]] की मांग रखी, मौलाना आज़ाद उस समय कांग्रेस के रामगढ़ अधिवेशन में कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए थे। उन्होंने जिन्ना के दो राष्ट्र सिद्धांत की खूब खबर ली। मौलाना आज़ाद ने यह मानने से इंकार कर दिया कि मुस्लिम और हिंदू दो अलग राष्ट्र हैं। इस्लाम धर्म के इस विद्वान ने इस्लाम के आधार पर बनने वाले देश को अस्वीकार कर दिया। उन्होंने सभी मुसलमानों से हिंदुस्तान में ही रहने की बात कही।
|के. कामराज
 
|15 जुलाई 1903 - 1975, मरणोपरान्त
मौलाना आज़ाद ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा-  
|-
<blockquote>'हिंदुस्तान की धरती पर इस्लाम को आए ग्यारह सदियां बीत गई हैं। और अगर हिंदू धर्म यहां के लोगों का हजारों बरसों से धर्म रहा है तो इस्लाम को भी हजार साल हो गए हैं। जिस तरह से एक हिंदू गर्व के साथ यह कहता है कि वह एक भारतीय है और हिंदू धर्म को मानता है, तो उसी तरह और उतने ही गर्व के साथ हम भी कह सकते हैं कि हम भी भारतीय हैं और इस्लाम को मानते हैं। इसी तरह ईसाई भी यह बात कह सकते हैं।'</blockquote>
|18
 
|1980
मौलाना आज़ाद के अध्यक्ष रहने के दौरान 1942 में ‘भारत छोडो’ आंदोलन शुरू हुआ। उन्होंने देश भर की यात्रा की और जगह-जगह लोगों को राष्ट्र होने का अर्थ समझाया और आज़ादी की मशाल को घर-घर तक ले गए।
|मदर टेरेसा
 
|27 अगस्त1910 -5 सितंबर1997
सन 1924 में महात्मा गांधी ने हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए आमरण अनशन शुरू किया। उस वक्त मौलाना ने दिन-रात घूम-घूम कर सभी सम्प्रदायों के लोगो को समझाया और गांधी जी से प्रार्थना की कि वह अपना अनशन तोड़ दें। उसी तरह गांधी जी ने अपनी हत्या के कुछ ही दिन पहले जब आख़िरी बार जनवरी 1948 में अनशन किया तो राष्ट्रपिता के जीवन को बचाने के लिए मौलाना उसी तरह पागलों की तरह घूमे। यह बिल्कुल सच है कि अपने देश और देशवासियों के प्रति उनके दिल में जो प्रेम और कर्तव्य की भावना थी उसी ने विद्वान आज़ाद को उनके विस्तृत संग्रहालय से बाहर लाकर करोड़ों देशवासियों के बीच खड़ा कर दिया।
|-
 
|19
मौलाना सचमुच ही एक बेहतरीन इंसान थे। जिस दिन उन्होंने अपने साथियों के साथ बड़े ही महत्वपूर्ण विषयों पर चर्चा की हो, देश के भविष्य को निश्चित करने वाले किसी प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व किया हो या दिनभर कांग्रेस की किसी बैठक के प्रमुख के नाते कार्यवाही को सम्भाला हो, उसी दिन शाम को यहाँ तक की आधी रात में वह अपने आप स्वादिष्ट चाय बनाकर, गम्भीर शैक्षिक कार्य करते हुए या कुछ बेहतर साहित्य की रचना करते हुए या फिर धर्म सम्बन्धी कोई अधूरा लेख पूरा करते हुए दिखाई पड़ते थे। मौलाना का अपने मस्तिष्क पर पूरा-पूरा नियंत्रण था और वह अपने समय का इस्तेमाल बहुत ही बढ़िया तरीके से करना जानते थे।
|1983
==भारत छोड़ो आंदोलन==
|आचार्य विनोबा भावे
8 अगस्त सन 1942 को रात में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी (आल इंडिया कांग्रेस कमेटी) की ऐतिहासिक बैठक में मौलाना की अध्यक्षता में अंग्रेज सरकार को 'भारत छोड़ो' के नारे द्वारा भारत छोड़ने के लिए कहा गया। दूसरे दिन बड़े सवेरे देश के महान नेता एक विशेष ट्रेन के डिब्बों में पाए गए। ट्रेन पूना स्टेशन पर रुकी और उसमें से गांधी जी और [[सरोजिनी नायडू]] कुछ पुलिस अफसरों के साथ बाहर आये। दोपहर को मौलाना को उनके साथियों के साथ [[अहमदनगर]] के ऐतिहासिक क़िले में ले जाया गया। वहाँ से उन्होंने अपने एक दोस्त को लिखा- "सिर्फ नौ महीन पहले ही.....नैनी सेन्ट्रल जेल के दरवाज़े मेरे लिए खोले गए थे (मेरी रिहाई के लिए) और कल 9 अगस्त सन 1942 के दिन अहमदनगर के पुराने क़िले के नए दरवाज़े मेरे पीछे बंद कर दिए गए।"
|11 सितंबर 1895 - 15 नवंबर 1982, मरणोपरान्त
 
|-
<blockquote>दूसरे दिन उन्होंने लिखा- "यह छठवाँ अनुभव है...पिछली पाँच बार में मैंने जेलों में कुल मिलाकर सात साल और आठ महीने की अवधि बताई है..... जो मेरी आज तक की तिरप्पन साल की उम्र का सातवां हिस्सा है।"</blockquote>
|20
 
|1987
इस बार के कारावास के अंत तक (जुलाई 1945) उन्होंने दस साल और पाँच महीने जेल में ग़ुजारे थे। अहमदनगर के क़िले की जेल एक छोटी और शान्त जगह थी। सभा, चर्चा जलूस और भाषण बिल्कुल भी नहीं थे। मौलाना की प्यारी किताबें भी वहाँ बहुत कम थीं। एक दिन दोपहर को, मौलाना जेल के जिस कमरे में थे वहाँ बहुत सारी चिड़ियाँ जोरों से चहकती हुईं एक कोने से दूसरे कोने तक उड़ने लगीं। सफेद खादी का कुर्ता पजामा पहने मुल्ला की तरह छोटी-सी दाढ़ी वाले मौलाना एक बाँस उठाकर उन चिड़ियों को भगाने लगे। कुछ ही देर में वह बिल्कुल थक गये और हांफते हुए एक पुराने सोफे पर जा गिरे। कुछ पल बीतने के बाद उन्होंने अपनी ऊनी टोपी, शेरवानी और टेबल पर पड़ी हुईं क़िताबों और काग़ज़ों पर से धूल झाड़ी और फिर पलंग के नीचे झाड़ू लेकर धूल, घास-फूस और चिड़ियों की बीट बुहारने लगे। झाड़ू लगाते हुए वह उर्दू के शेर भी गुनगुनाते रहे। फिर मन ही मन बोले, चलो हम दोस्त बन जाएँ।
|ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान]]
 
|20 जनवरी 1890 - 1988, प्रथम अभारतीय
एक दिन दोपहर के सन्नाटे में वह लिखने में बिल्कुल खोये हुए थें, तभी एक चिड़िया आकर हिचकिचाते हुए पहले एक सोफे पर बैठी, फिर फुदक कर उनकी कुर्सी पर जा बैठी और आख़िर में मौलाना के कंधे पर बैठ गई। मौलाना ने बाई आँख के कोने से उस चिड़िया को प्यार से देखा और फिर धीरे से अपनी मुट्ठी खोल दी जिसमें बाजरे के कुछ दाने थे। चिड़िया कूद कर उनकी हथेली के किनारे पर बैठ गई और दाने चुगने लगी। आख़िर मौलाना ने चिड़िया के साथ दोस्ती कर ही ली थी।
|-
<poem>कुछ महीनों के बाद जेल के अंग्रेज सुपरिन्टेन्डट ने, जो फौजी अफसर था और इस समय वर्दी में था, दरवाज़े पर धीरे से दस्तक दी।
|21
"तशरीफ लाइये।"
|1988
"यह आज का अखबार है, "अफसर बुदबुदाया। "साहब आपके लिए इसमें खास खबर है।"
|मरुदुर गोपाला रामचन्द्रन (एम जी आर)
"शुक्रिया, "मौलाना ने उसकी ओर देखे बिना ही नम्रता से मगर भारी आवाज़ में कहा। "मेहरबानी करके अखबार छोड़ जाइये।"
|17 जनवरी 1917 - 24 दिसंबर 1987, मरणोपरान्त
अफसर चला गया और भारी क़दमों से चलते हुए मौलाना ने अखबार उठा लिया। अखबार में कुछ पढ़ा और धम्म से सोफे पर बैठ गए। अब वह गहरे सोच में डूबे हुए और कुछ उदास लग रहे थे।</poem>
|-
कुछ देर बाद, मौलाना जवाहर लाल नेहरू के साथ बड़ी गम्भीरता से बात करते हुए दिखाई दिए। जवाहरलाल ने कुछ कहा और गहरी सोच में खड़े हुए मौलाना ने सिर्फ अपना सिर हिला दिया।
|22
"अब कुछ भी हो," मौलाना ने आखिर दृढ़ स्वर में कहा, " अपनी पत्नी से मिलने की खातिर मैं देश के दुश्मनों से रिहाई के लिए भीख नहीं मांगूँगा। जवाहर लाल नज़रें झुकाकर और उदास चेहरा लिए वापस चले गए। मौलाना भारी क़दमों से कमरे में टहलने लगे।
|1990
कुछ दिनों बाद, जवाहरलाल ने ही मौलाना को यह खबर दी कि उनकी पत्नी जुलैखा की मृत्यु हो गई है। जब जवाहरलाल ने इस बात पर ज़ोर दिया कि कुछ हफ्तों के लिए ही सही, मौलाना को बाहर जाना चाहिए, तो मौलाना ने नम्रता से लेकिन दृढ़ स्वर में जवाब दिया, "भाई मेरे, जो सरकार हमें सही मायने में आज़ादी देने से इनकार कर रही है, उससे कुछ हफ्तों के लिए आज़ादी माँगने का कोई फायदा नहीं है।" कुछ देर तक वह रुके और बिल्कुल ही अपने ख्यालों में खोये हुए बोले, "अब अगर ख़ुदा चाहे तो हम जन्नत में मिलेंगे।"
|डॉ. भीमराव रामजी आंबेडकर
 
|14 अप्रैल १९८१]] - [[६ दिसंबर]], [[१९५६]]), मरणोपरान्त
बाद में उन्होंने लिखा की वह उस घटना से बिल्कुल ही टूट चुके थे, फिर भी उन्होंने अपने पर नियंत्रण रखा। कुछ समय बाद वह अपनी स्वस्थ और स्वाभाविक स्थिति में आ गये। वह जेल में ही थे कि उनकी प्यारी बड़ी बहन भी चल बसीं। तब उन्होंने लिखा- " जेल में ज्यादातर समय मैंने भारी मानसिक तनाव के बीच गुज़ारा। इससे मेरी तबीयत पर बहुत बुरा असर पड़ा। मेरी गिरफ्तारी के वक्त मेरा वजन 170 पौंड था। जब मुझे बंगाल के बांकुरा जेल में भेज गया तब मेरा वजन कम होकर 130 पौंड रह गया था। मैं बड़ी मुश्किल से ही कुछ खा पाता था।"
|-
 
|२३.
==चुनौतियाँ==
|१९९० -
अपनी रिहाई के बार में मौलाना ने लिखा, <blockquote>"हावड़ा स्टेशन पर लोगों का समन्दर उमड़ा हुआ था। हम अभी चलने ही लगे थे कि तभी मैंने देखा कि मेरी कार के आगे मेरी रिहाई की खुशी में बैंड बजने लगा। मुझे यह अच्छा नहीं लगा और मैंने कहा कि यह कोई खुशी का मौका नहीं है....मेरे हज़ारों दोस्त और साथी अभी जेलों में हैं।"</blockquote>
|[[नेल्सन मंडेला]]
 
|([[१८ जुलाई]], [[१९१८]]), द्वितीय गैर-भारतीय  
जब तीन साल पहले वह कलकत्ते से चले थे उस वक्त की यादें सफर के दौरान उनके मन में ताजा हो गई। <blockquote>उन्होंने लिखा..."मेरी पत्नी फाटक तक मुझे छोड़ने के लिए आई थी। अब मैं तीन साल के बाद लौट रहा हूँ पर वह अपनी कब्र में हैं और मेरा घर सूना पड़ा है.....मेरी कार में फूलों के हारों के ढेर हैं। उनमें से एक हार उठाकर मैंने उसकी कब्र पर रख दिया और "फातिहा" (प्रार्थना) पढ़ने लगा।"</blockquote>
|-
 
|२४.
एक बार राजनीति में आ जाने के बाद मौलाना ने सारी जिम्मेदारियों और चुनौतियों को स्वीकार कर लिया। तीन बार वह कांग्रेस के अध्यक्ष बने। सन 1923 में वह कांग्रेस के सबसे युवा अध्यक्ष थे। इसके अलावा सन 1940 से सन 1946 तक प्रमुख के नाते अपने आखिरी सत्र के दौरान उन्होंने छः साल से भी लम्बे अर्से तक कांग्रेस का नेतृत्व किया। आज़ादी के पहले के दिनों में कांग्रेस के अध्यक्ष के लिए यह सबसे लम्बी अवधि थी। यही नहीं, कांग्रेस के समूचे इतिहास में यह सबसे ज्यादा कठिनाइयों का समय भी था। <blockquote>मौलाना ने लिखा- "मैंने सोचा कि....मैं अगर फिर से इनकार कर दूँ तो मैं अपने कर्तव्य का पालन नहीं करूँगा......जब गांधी जी ने मुझसे विनती की कि मैं कांग्रेस का अध्यक्ष बनूं तो मैं फौरन ही राजी हो गया।"
|१९९१ -  
</blockquote>
|[[राजीव गांधी]]
दूसरा विश्वयुद्ध आरम्भ हो गया था और सबका ऐसा ख्याल था कि देश आज़ादी की दहलीज पर खड़ा है। हमारे देश का उस समय का इतिहास बड़ा ही दिलचस्प है।
|([[२० अगस्त]], [[१९४४]] - [[२१ मई]], [[१९९१]]), मरणोपरान्त
 
|-
सन् 1942 में 'क्रिप्स मिशन' भारत की आज़ादी और युद्ध में भारत के सहयोग के बारे में चर्चा करने के लिए भारत आया। मिशन असफल रहा। "भारत छोड़ो" आंदोलन 8 अगस्त सन् 1942 के दिन छेड़ा गया। हज़ारों नर-नारियाँ और सभी बड़े-बड़े नेता जेल गए और बहुत कष्ट झेले। मार्च सन 1946 को ब्रिटिश कैबिनेट मिशन भारत आया। उस मिशन के एक प्रस्ताव के आधार पर कांग्रेस ने चुनाव लड़ा और केन्द्र में और अधिकतर राज्यों की विधान सभाओं में उसे विजय मिली।
|२५.
अंतरिम सरकार बनाई गई। कांग्रेस के अध्यक्ष ही नहीं, बल्कि एक ब़ड़े राष्ट्रीय नेता होने के कारण मौलाना ने बड़े जोश के साथ काम किया और दूसरे नेताओं के साथ मिलकर एक बड़े ही मुश्किल समय में देश का नेतृत्व किया। वास्वत में, कांग्रेस के लोग चाहते थे कि वह अगले सत्र के लिए भी कांग्रेस के अध्यक्ष रहें। लेकिन उन्होंने उस पद के लिए [[जवाहर लाल नेहरू]] का नाम सुझाया। <blockquote>नेहरू जी के शब्दों में- "कांग्रेस के इतिहास में और भारत के इतिहास में भी बहुत कम लोग यह जानते हैं कि कांग्रेस के प्रस्ताव और नीतियों को बनाने में कांग्रेस के प्रमुख के रूप में या कार्यकारी समिति के सदस्य के रूप में उन्होंने कितना महत्वपूर्ण कार्य किया है।"</blockquote>
|१९९१ -  
 
|[[सरदार वल्लभ भाई पटेल]]
कांग्रेस के नेताओं में मौलाना को उनकी अन्य महान विशेषता के लिए भी याद किया जाता था। जब कभी भी कांग्रेसियों के बीच मतभेद हो जाते थे। तब मौलाना ही उन्हें फिर से एक करते थे क्योंकि सब लोग उनका आदर करते थे।
|([[३१ अक्तूबर]], [[१८७५]] - [[१५ दिसंबर]], [[१९५०]]), मरणोपरान्त
बहुत सालों से मौलाना यह चाह रहे थे कि वह अपने जीवन के आख़िरी साल शान्ति में बिताएँ ताकि विद्या के क्षेत्र में अपना सबसे प्यारा काम कर सकें। अहमदनगर जेल से बाहर आने पर नेहरू जी ने भी मौलाना से उनके प्रमुख होने के नाते यह प्रार्थना की कि तुरन्त कांग्रेस की कोई मीटिंग न बुलाई जाए। क्योंकि वह भी कुछ आराम चाहते थे और एक क़िताब लिखने का काम भी पूरा करना चाहते थे। लेकिन मौलाना ने लिखा- <blockquote>"उस वक्त मुझे यह मालूम नहीं था कि हमको रिहा किया जाएगा....और (तब तो) शायद हमारे जीवन के आख़िरी पल तक हमको आराम का सवाल ही नहीं उठेगा।"</blockquote>
|-
 
|२६.
कुछ ही दिनों के बाद जवाहरलाल नेहरू और मौलाना को ऐतिहासिक 'शिमला कॉन्फ्रेंस में भाग लेने के लिए दौड़ना पड़ा। मौलाना के डाक्टर ने प्रार्थना की कि कॉन्फ्रेंस दो हफ्ते तक स्थगित कर दी जाये। लेकिन मौलाना इसके लिए राजी नहीं हुए। मौलाना की हालत देखकर वाइसराय लार्ड वेवल ने इन्हें वाइसरीगल इस्टेट में ही एक मकान में ठहराया और उनकी देखभाल के लिए अपने निजी स्टाफ के कुछ लोगों को तैनात किया। कर्तव्य पूरा करने की निष्ठा के बारे में मौलाना ने एक दोस्त को लिखा, <blockquote>"यदि कोई आदमी फौज में भर्ती होने से इन्कार कर दे तो यह कोई ग़ुनाह नहीं है। लेकिन सिपाही बनने के बाद युद्ध के मैदान से भाग निकलना--इसके लिए तो सिवाय मौत के और कोई सजा हो ही नहीं सकती है।"</blockquote> इसमें कोई शक नहीं है कि मौलाना हमारे स्वाधीनता संग्राम के सबसे बहादुर सिपाहियों में से एक थे।
|१९९१ -  
 
|[[मोरारजी देसाई]]
==स्वतंत्रता प्राप्ति==
|([[२९ फरवरी]], [[१८९६]] - [[१० अप्रैल]], [[१९९५]])
15 अगस्त सन् 1947 के दिन भारत को आज़ादी मिली। गांधीजी, नेहरूजी, सरदार पटेल, मौलाना आज़ाद और दूसरे नेताओं ने उस आज़ादी का भारी मन से स्वागत किया क्योंकि अखंड भारत का उनका सपना साकार नहीं हुआ था। देश का बंटवारा हो गया। लेकिन चैन की साँस लिए बिना वे सब फौरन ही आधुनिक भारत के निर्माण के काम में जुट गये। करोड़ों के प्यारे नेता और हमारे प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाला नेहरू ने कहा- <blockquote>"मध्यरात्रि के ठीक बारह बजे......भारत के जीवन का, उसकी आज़ादी के युग का आरम्भ होगा......इस पवित्र क्षण में हम सब यह प्रतिज्ञा करते हैं कि भारत और उसकी जनता की सेवा में हम अपने को समर्पित कर देंगे......और इसलिए अपने सपनों को वास्वतिक रूप देने के लिए हमें और मेहनत करनी है और काम करना है।"</blockquote>
|-  
 
|२७.
ख़राब स्वास्थ्य और कलम और किताबों की दुनिया में लौटने की इच्छा के बावजूद मौलाना ने नई जिम्मेदारियाँ भी सम्भाल लीं। भारत सरकार के शिक्षा, सभ्यता और कला मंत्रालय के प्रथम मंत्री की हैसियत से वह शिक्षा का इस तरह प्रचार करना चाहते थे जिससे भारत के लोगों में एक नई मनोवृत्ति पैदा हो सके। उन्होंने सिर्फ शालाएँ, कॉलेज और महाविद्यालयों की ही नहीं, बल्कि [[साहित्य अकादमी]], [[संगीत नाटक अकादमी]] और [[ललित कला अकादमी]] जैसी महान संस्थाओं की भी स्थापना की ताकि भारत की महान संस्कृति को नया जीवन मिल सके। आख़िरी दिन तक वह [[जवाहरलाल नेहरू]] के सबसे निकटतम मित्र और साथी बने रहे। वह उनके सबसे विश्वनीय सलाहकार और समर्थक भी थे।
|१९९२ -  
 
|[[मौलाना अबुल कलाम आज़ाद]]
==स्वतंत्र भारत के शिक्षा मंत्री==
|([[११ नवंबर]], [[१८८८]] - [[२२ फरवरी]], [[१९५८]]), मरणोपरान्त
वह स्वतंत्र भारत के पहले शिक्षा मंत्री थे और उन्होंने ग्यारह वर्षो तक राष्ट्र की नीति का मार्गदर्शन किया। भारत के पहले शिक्षा मंत्री बनने पर उन्होंने नि:शुल्क शिक्षा, भारतीय शिक्षा पद्धति, उच्च शिक्षा संस्थानों की स्थापना में अत्यधिक के साथ कार्य किया। मौलाना आज़ाद को ही 'भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान' अर्थात 'आई॰आई॰टी॰ और 'विश्वविद्यालय अनुदान आयोग' की स्थापना का श्रेय है।
|-
 
|२८.  
वे संपूर्ण भारत में 10+2+3 की समान शिक्षा संरचना के पक्षधर रहे। यदि मौलाना अबुल कलाम आज जिंदा होते तो वे नि:शुल्क शिक्षा के अधिकार विधेयक को संसद की स्वीकृति के लिए दी जाने वाली मंत्रिमंडलीय मंजूरी को देखकर बेहद प्रसन्न होते। शिक्षा का अधिकार विधेयक के अंतर्गत नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा एक मौलिक अधिकार है।
|१९९२ -  
*उन्होंने शिक्षा और संस्कृति को विकसित करने के लिए उत्कृष्ट संस्थानों की स्थापना की।
|[[जहांगीर रतनजी दादाभाई टाटा | जे आर डी टाटा]]
*उन्होंने [[संगीत नाटक अकादमी]] (1953),  
|([[२९ जुलाई]], [[१९०४]] - [[२९ नवंबर]], [[१९९३]])
*[[साहित्य अकादमी]] (1954) और
|-  
*[[ललित कला अकादमी]] (1954) की स्थापना की।
|२९.
*1950 से पहले उनके द्वारा 'भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद' की स्थापना की गई। 
|१९९२ -
*केन्द्रीय सलाहकार शिक्षा बोर्ड के अध्यक्ष होने पर सरकार से केन्द्र और राज्यों दोनों के अतिरिक्त विश्वविद्यालयों में सार्वभौमिक प्राथमिक शिक्षा, 14 वर्ष तक की आयु के सभी बच्चों के लिए नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा, कन्याओं की शिक्षा, व्यावसायिक प्रशिक्षण, कृषि शिक्षा और तकनीकी शिक्षा जैसे सुधारों की वकालत की।
|[[सत्यजीत रे]]
*1956 में उन्होंने अनुदानों के वितरण और भारतीय विश्वविद्यालयों में मानकों के अनुरक्षण के लिए संसद के एक अधिनियम के द्वारा 'विश्वविद्यालय अनुदान आयोग' (यूजीसी) की स्थापना की। 
|([[२ मई]], [[१९२१]] - [[२३ अप्रैल]], [[१९९२]])
*तकनीकी शिक्षा के मामले में, 1951 में अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद, खड़गपुर की स्थापना की गई और इसके बाद श्रृंखलाबध्द रूप में [[मुम्बई]], [[चेन्नई]], [[कानपुर]] और [[दिल्ली]] में आई॰आई॰टी॰ की स्थापना की गई।
|-
*स्कूल ऑफ प्लानिंग और वास्तुकला विद्यालय की स्थापना दिल्ली में 1955 में हुई।
|३०.
 
|१९९७ -  
==मृत्यु==
|[[अब्दुल कलाम]]
22 फरवरी सन 1958 को हमारे राष्ट्रीय नेता का निधन हो गया। भिन्न-भिन्न—धार्मिक नेता, लेखक, पत्रकार, कवि, व्याख्याता, राजनीति और प्रशासन में काम करने वाले—भारत के इस महान सपूत को अपने-अपने ढंग से याद करते रहेंगे। इन सबसे बढ़कर मौलाना आज़ाद धार्मिक वृत्ति के व्यक्ति होते हुए भी सही अर्थों में भारत की धर्मनिरपेक्ष सभ्यता के प्रतिनिधि थे।
|([[१५ अक्तूबर]], [[१९३१]])
==भारत रत्न==
|-
वर्ष 1992 में मरणोपरान्त मौलाना को [[भारत रत्न]] से सम्मानित किया गया। एक इंसान के रूप में मौलाना महान थे, उन्होंने हमेशा सादगी का जीवन पसंद किया। उनमें कठिनाइयों से जूझने के लिए अपार साहस और एक संत जैसी मानवता थी। उनकी मृत्यु के समय उनके पास कोई संपत्ति नहीं थी और न ही कोई बैंक खाता था। उनकी निजी अलमारी में कुछ सूती अचकन, एक दर्जन खादी के कुर्ते पायजामें, दो जोड़ी सैडल, एक पुराना ड्रैसिंग गाऊन और एक उपयोग किया हुआ ब्रुश मिला किंतु वहाँ अनेक दुर्लभ पुस्तकें थी जो अब राष्ट्र की सम्पत्ति हैं।
|३१.  
 
|१९९७ -  
मौलाना आज़ाद जैसे व्यक्तित्व कभी-कभी ही जन्म लेते हैं। अपने संपूर्ण जीवन में वे भारत और इसकी सम्मिलित सांस्कृतिक एकता के लिए प्रयासरत रहे। वह अपने वरिष्ठ साथी '[[ख़ान अब्दुलगफ़्फ़ार खाँ]]' और अपने कनिष्ठ '[[अशफ़ाकउल्ला]]' के साथ रहे। <blockquote>इकबाल के शब्दों में, "हजारों साल नरगिस अपनी बेनूरी पर रोती है, बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा।"</blockquote>
|[[गुलजारी लाल नंदा]]  
==राष्ट्रीय शिक्षा दिवस==
|([[४ जुलाई]], [[१८९८]] - [[१५ जनवरी]], [[१९९८]])
मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के जन्मदिवस 11 नवम्बर को [[राष्ट्रीय शिक्षा दिवस]] घोषित किया गया है।  हैदराबाद में उन्हीं के नाम पर 'मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू युनिवर्सिटी' स्थापित कर राष्ट्र की ओर से एक स्वतन्त्रता सेनानी, क्रान्तिकारी, पत्रकार, समाजसुधारक, शिक्षा विशेषज्ञ और अभूतपूर्व शिक्षा मंत्री को श्रृद्धांजली दी गयी है।
|-  
 
|३२.
 
|१९९७ -  
 
|[[अरुणा असाफ़ अली]]
 
|([[१६ जुलाई]], [[१९०९]] - [[२९ जुलाई]], [[१९९६]]), मरणोपरान्त
 
|-
 
|३३.
*[http://indiaedunews.net/In-Focus/November_2008/Maulana_Abul_Kalam_Azad_-_The_Builder_of_Modern_India_6559/  ]
|१९९८ -
*[http://books.google.com/books?id=ObFCT5_taSgC&pg=PA315&dq=Abul+Kalam+Azad&lr=&as_brr=3&ei=FeGBSfrLGoeyyQSTx_WJDA&hl=fr#v=onepage&q=Abul%20Kalam%20Azad&f=false]
|[[एम एस सुब्बुलक्ष्मी]]  
 
|([[१६ सितंबर]], [[१९१६]] - [[११ दिसंबर]], [[२००४]])
*[http://books.google.com/books?id=ObFCT5_taSgC&pg=PA315&dq=Abul+Kalam+Azad&lr=&as_brr=3&ei=FeGBSfrLGoeyyQSTx_WJDA&hl=fr#v=onepage&q=Abul%20Kalam%20Azad&f=false]
|-
*[http://www.india-today.com/itoday/millennium/100people/azad.html ]
|३४.
*[http://cities.expressindia.com/fullstory.php?newsid=157538]
|१९९८ -
*[http://www.liveindia.com/freedomfighters/5.htm]
|[[सी सुब्रामनीयम]]
*[http://www.cis-ca.org/voices/a/azad-mn.htm]
|([[३० जनवरी]], [[१९१०]] - [[७ नवंबर]], [[२०००]])
*[http://books.google.com.qa/books?id=pMfpg66gIREC&pg=PA309#v=onepage&q&f=false ]
|-
*[http://timesofindia.indiatimes.com/articleshow/2714615.cms ]
|३५.
|१९९८ -  
|[[जयप्रकाश नारायण]]
|([[११ अक्तूबर]], [[१९०२]] - [[८ अक्तूबर]], [[१९७९]]), मरणोपरान्त
|-
|३६.
|१९९९ -
|पं. [[रवि शंकर]]  
|([[७ अप्रैल]], [[१९२०]])
|-
|३७.
|१९९९ -
|[[अमृत्य सेन]]
|([[३ नवंबर]], [[१९३३]])
|-
|३८.
|१९९९ -
|[[गोपीनाथ बोरदोलोई]]
|([[१८९०]]-[[१९५०]]) , मरणोपरान्त
|-
|३९.  
|२००१ -  
|[[लता मंगेशकर]]  
|([[२८ सितंबर]], [[१९२९]])
|-
|४०.
|२००१ -
|[[उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ां]]  
|([[२१ मार्च]], [[१९१६]] - [[२१ अगस्त]], [[२००६]])
|-
|४१.  
|२००८ -  
|[[भीमसेन जोशी|पं.भीमसेन जोशी]]  
|([[४ फरवरी]], [[१९२२]] - )
|}

11:58, 24 मई 2010 का अवतरण

क्रम वर्ष नाम जीवन
1 1954 - डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन 5 सितंबर 1888 – 17 अप्रैल 1975
2 1954 - चक्रवर्ती राजगोपालाचारी 10 दिसंबर 1878 - 25 दिसंबर 1972
3 1954 - डॉक्टर चन्‍द्रशेखर वेंकटरमण 7 नवंबर 1888 - 21 नवंबर 1970
4 1955 डॉक्टर भगवान दास 12 जनवरी1869 - 18 सितंबर1958
5 1955 सर डॉ. मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या 15 सितंबर 1860 - 12 अप्रैल 1962
6 1955 पं. जवाहर लाल नेहरु 14 नवंबर1889 - 27 मई1964
७. 1957 गोविंद वल्लभ पंत 10 सितंबर 1887 - 7 मार्च 1961
8 1958 डॉ. धोंडो केशव कर्वे 18 अप्रैल 1858 – 9 नवंबर 1962
9 1961 डॉ. बिधनचंद्र रॉय 1 जुलाई 1882 - 1 जुलाई 1962
10 1961 पुरूषोत्तम दास टंडन 1 अगस्त 1882 - 1 जुलाई 1962
11 1962 डॉ. राजेंद्र प्रसाद 3 दिसंबर 1884 - 28 फरवरी 1963
12 1963 डॉ. जाकिर हुसैन 8 फरवरी 1897 - 3 मई 1969
13 1963 डॉ. पांडुरंग वामन काणे 1880 -1972
14 1966 लाल बहादुर शास्त्री 2 अक्तूबर 1904 - 11 जनवरी 1966, मरणोपरान्त
15 1971 इंदिरा गाँधी 19 नवंबर1917 -31 अक्तूबर1984
16 1975 वराहगिरी वेंकट गिरी 10 अगस्त1894 - 23 जून 1980
17 1976 के. कामराज 15 जुलाई 1903 - 1975, मरणोपरान्त
18 1980 मदर टेरेसा 27 अगस्त1910 -5 सितंबर1997
19 1983 आचार्य विनोबा भावे 11 सितंबर 1895 - 15 नवंबर 1982, मरणोपरान्त
20 1987 ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान]] 20 जनवरी 1890 - 1988, प्रथम अभारतीय
21 1988 मरुदुर गोपाला रामचन्द्रन (एम जी आर) 17 जनवरी 1917 - 24 दिसंबर 1987, मरणोपरान्त
22 1990 डॉ. भीमराव रामजी आंबेडकर 14 अप्रैल १९८१]] - ६ दिसंबर, १९५६), मरणोपरान्त
२३. १९९० - नेल्सन मंडेला (१८ जुलाई, १९१८), द्वितीय गैर-भारतीय
२४. १९९१ - राजीव गांधी (२० अगस्त, १९४४ - २१ मई, १९९१), मरणोपरान्त
२५. १९९१ - सरदार वल्लभ भाई पटेल (३१ अक्तूबर, १८७५ - १५ दिसंबर, १९५०), मरणोपरान्त
२६. १९९१ - मोरारजी देसाई (२९ फरवरी, १८९६ - १० अप्रैल, १९९५)
२७. १९९२ - मौलाना अबुल कलाम आज़ाद (११ नवंबर, १८८८ - २२ फरवरी, १९५८), मरणोपरान्त
२८. १९९२ - जे आर डी टाटा (२९ जुलाई, १९०४ - २९ नवंबर, १९९३)
२९. १९९२ - सत्यजीत रे (२ मई, १९२१ - २३ अप्रैल, १९९२)
३०. १९९७ - अब्दुल कलाम (१५ अक्तूबर, १९३१)
३१. १९९७ - गुलजारी लाल नंदा (४ जुलाई, १८९८ - १५ जनवरी, १९९८)
३२. १९९७ - अरुणा असाफ़ अली (१६ जुलाई, १९०९ - २९ जुलाई, १९९६), मरणोपरान्त
३३. १९९८ - एम एस सुब्बुलक्ष्मी (१६ सितंबर, १९१६ - ११ दिसंबर, २००४)
३४. १९९८ - सी सुब्रामनीयम (३० जनवरी, १९१० - ७ नवंबर, २०००)
३५. १९९८ - जयप्रकाश नारायण (११ अक्तूबर, १९०२ - ८ अक्तूबर, १९७९), मरणोपरान्त
३६. १९९९ - पं. रवि शंकर (७ अप्रैल, १९२०)
३७. १९९९ - अमृत्य सेन (३ नवंबर, १९३३)
३८. १९९९ - गोपीनाथ बोरदोलोई (१८९०-१९५०) , मरणोपरान्त
३९. २००१ - लता मंगेशकर (२८ सितंबर, १९२९)
४०. २००१ - उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ां (२१ मार्च, १९१६ - २१ अगस्त, २००६)
४१. २००८ - पं.भीमसेन जोशी (४ फरवरी, १९२२ - )