"एक बनिया, बैल, सिंह और गीदड़ों की कहानी": अवतरणों में अंतर

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अपने से नीचे नीचे (हीन) अर्थात दरिद्रियों को देख कर किसकी महिमा नहीं बढ़ती है? अर्थात सबको अभिमान बढ़ जाता है और अपने से ऊपर अर्थात अधिक धनवानों को देखकर सब लोग अपने को दरिद्री समझते हैं।
अपने से नीचे नीचे (हीन) अर्थात दरिद्रियों को देख कर किसकी महिमा नहीं बढ़ती है? अर्थात सबको अभिमान बढ़ जाता है और अपने से ऊपर अर्थात अधिक धनवानों को देखकर सब लोग अपने को दरिद्री समझते हैं।
 
<blockquote><span style="color: blue"><poem>
ब्रह्महापि नरः पूज्यो यस्यास्ति विपुलं धनम्।  
ब्रह्महापि नरः पूज्यो यस्यास्ति विपुलं धनम्।  
शशिनस्तुल्यवंशोsपि निर्धनः परिभूयते।।
शशिनस्तुल्यवंशोsपि निर्धनः परिभूयते।।
 
</poem></span></blockquote>
जिसके पास बहुत सा धन है, उस ब्रह्मघातक मनुष्य का भी सत्कार होता है और चंद्रमा के समान अतिनिर्मल वंश में उत्पन्न हुए भी निर्धन मनुष्य का अपमान किया जाता है।
जिसके पास बहुत सा धन है, उस ब्रह्मघातक मनुष्य का भी सत्कार होता है और चंद्रमा के समान अतिनिर्मल वंश में उत्पन्न हुए भी निर्धन मनुष्य का अपमान किया जाता है।


जैसे नवजवान स्री बूढ़े पति को नहीं चाहती है, वैसे ही लक्ष्मी भी निरुद्योगी, आलसी, ""प्रारब्ध में जो लिखा है, सो होगा'' ऐसा भरोसा रख कर चुपचाप बैठने वाले, तथा पुरुषार्थ हीन मनुष्य को नहीं चाहती है।
जैसे नवजवान स्री बूढ़े पति को नहीं चाहती है, वैसे ही लक्ष्मी भी निरुद्योगी, आलसी, ""प्रारब्ध में जो लिखा है, सो होगा'' ऐसा भरोसा रख कर चुपचाप बैठने वाले, तथा पुरुषार्थ हीन मनुष्य को नहीं चाहती है।
 
<blockquote><span style="color: blue"><poem>
आलस्यं स्री सेवा सरोगता जन्मभूमिवात्सल्यम्।  
आलस्यं स्री सेवा सरोगता जन्मभूमिवात्सल्यम्।  
संतोषो भीरुत्वं षड् व्याघाता महत्वस्य।।
संतोषो भीरुत्वं षड् व्याघाता महत्वस्य।।
 
</poem></span></blockquote>
और भी आलस्य, स्री की सेवा, रोगी रहना, जन्मभूति का स्नेह, संतोष और डरपोकपन ये छः बातें उन्नति के लिये बाधक है।
और भी आलस्य, स्री की सेवा, रोगी रहना, जन्मभूति का स्नेह, संतोष और डरपोकपन ये छः बातें उन्नति के लिये बाधक है।
 
<blockquote><span style="color: blue"><poem>
संपदा सुस्थितंमन्यो भवति स्वल्पयापि यः।  
संपदा सुस्थितंमन्यो भवति स्वल्पयापि यः।  
कृतकृत्यो विधिर्मन्ये न वर्धयति तस्य ताम्।।
कृतकृत्यो विधिर्मन्ये न वर्धयति तस्य ताम्।।
 
</poem></span></blockquote>
जो मनुष्य थोड़ी सी संपत्ति से अपने को सुखी मानता है, विधाता समाप्तकार्य मान कर उस मनुष्य की उस संपत्ति को नहीं बढ़ाता है।
जो मनुष्य थोड़ी सी संपत्ति से अपने को सुखी मानता है, विधाता समाप्तकार्य मान कर उस मनुष्य की उस संपत्ति को नहीं बढ़ाता है।


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क्योंकि लाभ की इच्छा करने वाले को धन मिलता ही है एवं प्राप्त हुए परंतु रक्षा नहीं किये गये खजाने का भी अपने आप नाश हो जाता है और भी यह है कि बढ़ाया नहीं गया धन कुछ काल में थोड़ा व्यय हो कर काजल के समान नाश हो जाता है और नहीं भोगा गया भी खजाना वृथा है।
क्योंकि लाभ की इच्छा करने वाले को धन मिलता ही है एवं प्राप्त हुए परंतु रक्षा नहीं किये गये खजाने का भी अपने आप नाश हो जाता है और भी यह है कि बढ़ाया नहीं गया धन कुछ काल में थोड़ा व्यय हो कर काजल के समान नाश हो जाता है और नहीं भोगा गया भी खजाना वृथा है।
 
<blockquote><span style="color: blue"><poem>
धनेन किं यो न ददाति नाश्रुते, बलेन कि यश्च रिपून्न बाधते।  
धनेन किं यो न ददाति नाश्रुते, बलेन कि यश्च रिपून्न बाधते।  
श्रुतेन किं यो न च धर्ममाचरेत्, किमात्मना यो न जितेन्द्रियो भवेत्।
श्रुतेन किं यो न च धर्ममाचरेत्, किमात्मना यो न जितेन्द्रियो भवेत्।
 
</poem></span></blockquote>
उस धन से क्या है ? जो न देता है और न खाता है, उस बल से क्या है ? जो वैरियों को नहीं सताता है, उस शास्र से क्या है ? जो धर्म का आचरण नहीं करता है और उस आत्मा से क्या है ? जो जितेंद्रिय नहीं है।
उस धन से क्या है ? जो न देता है और न खाता है, उस बल से क्या है ? जो वैरियों को नहीं सताता है, उस शास्र से क्या है ? जो धर्म का आचरण नहीं करता है और उस आत्मा से क्या है ? जो जितेंद्रिय नहीं है।


जैसे जल की एक बूँद के गिरने से धीरे- धीरे घड़ा भर जाता है, वही कारण सब कारण सब प्रकार की विद्याओं का, धन का और धर्म का भी है।
जैसे जल की एक बूँद के गिरने से धीरे- धीरे घड़ा भर जाता है, वही कारण सब कारण सब प्रकार की विद्याओं का, धन का और धर्म का भी है।
 
<blockquote><span style="color: blue"><poem>
दानोपभोगरहिता दिवसा यस्य यान्ति वै।  
दानोपभोगरहिता दिवसा यस्य यान्ति वै।  
स कर्मकारभस्रेव श्वसन्नपि न जीवति।।
स कर्मकारभस्रेव श्वसन्नपि न जीवति।।
 
</poem></span></blockquote>
दान और भोग के बिना जिसके दिन जाते हैं, वह लुहार की धोंकनी के समान सांस लेता हुआ भी मरे के समान है।
दान और भोग के बिना जिसके दिन जाते हैं, वह लुहार की धोंकनी के समान सांस लेता हुआ भी मरे के समान है।


यह सोच कर नंदक और संजीवक नामक दो बैलों को जुए में जोतकर और छकड़े को नाना प्रकार की वस्तुओं से लादकर व्यापार के लिए कश्मीर की ओर गया।
यह सोच कर नंदक और संजीवक नामक दो बैलों को जुए में जोतकर और छकड़े को नाना प्रकार की वस्तुओं से लादकर व्यापार के लिए कश्मीर की ओर गया।
 
<blockquote><span style="color: blue"><poem>
अंजनस्य क्षयं दृष्ट्व वल्मीकस्य च संचयम्।  
अंजनस्य क्षयं दृष्ट्व वल्मीकस्य च संचयम्।  
अवन्धयं दिवसं कुर्याद्दानाध्ययनकर्मसु।।
अवन्धयं दिवसं कुर्याद्दानाध्ययनकर्मसु।।
 
</poem></span></blockquote>
काजल के क्रम से घटने को और वाल्मीक नामक चीटी के संचय को देखकर, दान, पड़ना और कामधंधा में दिन को सफल करना चाहिए।
काजल के क्रम से घटने को और वाल्मीक नामक चीटी के संचय को देखकर, दान, पड़ना और कामधंधा में दिन को सफल करना चाहिए।
   
   
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समुद्र में डूबे हुए की, पर्वत से गिरे हुए की और तक्षक नामक सपं से डसे हुए की आयु की प्रबलता मर्म (जीवनस्थान) की रक्षा करती है।  
समुद्र में डूबे हुए की, पर्वत से गिरे हुए की और तक्षक नामक सपं से डसे हुए की आयु की प्रबलता मर्म (जीवनस्थान) की रक्षा करती है।  
 
<blockquote><span style="color: blue"><poem>
अरक्षितं तिष्ठति दैवरक्षितं,  
अरक्षितं तिष्ठति दैवरक्षितं, सुरक्षितं दैवहतं विनश्यति।  
सुरक्षितं दैवहतं विनश्यति।  
जीवत्यनाथोsपि वने विसर्जितः। कृतप्रयत्नोsपि गृहे न जीवति।।
जीवत्यनाथोsपि वने विसर्जितः।  
</poem></span></blockquote>
कृतप्रयत्नोsपि गृहे न जीवति।।
 
दैव से रक्षा किया हुआ, बिना रक्षा के भी ठहरता है और अच्छी तरह रक्षा किया हुआ भी, दैव का मारा हुआ नहीं बचता है, जैसे वन में छोड़ा हुआ सहायताहीन भी जीता रहता है, घर पर कई उपाय करने से भी नहीं जीता है।
दैव से रक्षा किया हुआ, बिना रक्षा के भी ठहरता है और अच्छी तरह रक्षा किया हुआ भी, दैव का मारा हुआ नहीं बचता है, जैसे वन में छोड़ा हुआ सहायताहीन भी जीता रहता है, घर पर कई उपाय करने से भी नहीं जीता है।


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और वह एक दिन प्यास से व्याकुल होकर पानी पीने के लिए यमुना के किनारे गया और वहाँ उस सिंह ने नवीन ॠतुकाल के मेघ की गर्जना के समान संजीवक का डकराना सुना। यह सुन कर पानी के बिना पिये वह घबराया सा लौट कर अपने स्थान पर आ कर यह क्या है ? यह सोचता हुआ चुप- सा बैठ गया और उसके मंत्री के बेटे दमनक और करटक दो गीदड़ों ने उसे वैसा बैठा देखा। उसको इस दशा में देख कर दमनक ने करटक से कहा- भाई करटक, यह क्या बात है कि प्यासा स्वामी पानी को बिना पीये डर से धीरे- धीरे आ बैठा है ? करटक बोला -- भाई दमनक, हमारी समझ से तो इसकी सेवा ही नहीं की जाती है। जो ऐसे बैठा भी है, तो हमें स्वामी की चेष्ठा का निर्णय करने से क्या प्रयोजन है ? क्योंकि इस राजा से बिना अपराध बहुत काल तक तिरस्कार किये गये हम दोनों ने बड़ा दुख सहा है।
और वह एक दिन प्यास से व्याकुल होकर पानी पीने के लिए यमुना के किनारे गया और वहाँ उस सिंह ने नवीन ॠतुकाल के मेघ की गर्जना के समान संजीवक का डकराना सुना। यह सुन कर पानी के बिना पिये वह घबराया सा लौट कर अपने स्थान पर आ कर यह क्या है ? यह सोचता हुआ चुप- सा बैठ गया और उसके मंत्री के बेटे दमनक और करटक दो गीदड़ों ने उसे वैसा बैठा देखा। उसको इस दशा में देख कर दमनक ने करटक से कहा- भाई करटक, यह क्या बात है कि प्यासा स्वामी पानी को बिना पीये डर से धीरे- धीरे आ बैठा है ? करटक बोला -- भाई दमनक, हमारी समझ से तो इसकी सेवा ही नहीं की जाती है। जो ऐसे बैठा भी है, तो हमें स्वामी की चेष्ठा का निर्णय करने से क्या प्रयोजन है ? क्योंकि इस राजा से बिना अपराध बहुत काल तक तिरस्कार किये गये हम दोनों ने बड़ा दुख सहा है।
 
<blockquote><span style="color: blue"><poem>
सेवया धनमिच्छाद्भिः सेवकै: पश्य यत्कृतम।
सेवया धनमिच्छाद्भिः सेवकै: पश्य यत्कृतम।
स्वायब्यं यच्छरीरस्य मूढैस्तदपि हारितम।।
स्वायब्यं यच्छरीरस्य मूढैस्तदपि हारितम।।
 
</poem></span></blockquote>
सेवा से धन को चाहने वाले सेवकों ने जो किया, सो देख कि शरीर की स्वतंत्रता भी मूखाç ने हार दी है।
सेवा से धन को चाहने वाले सेवकों ने जो किया, सो देख कि शरीर की स्वतंत्रता भी मूखाç ने हार दी है।


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धनवान पुरुष, आशारुपी ग्रह से भरमाये गये हुए याचकों के साथ, इधर आ, चला आ, बैठ जा, खड़ा हो, बोल, चुप सा रह इस तरह खेल किया करते हैं।
धनवान पुरुष, आशारुपी ग्रह से भरमाये गये हुए याचकों के साथ, इधर आ, चला आ, बैठ जा, खड़ा हो, बोल, चुप सा रह इस तरह खेल किया करते हैं।
 
<blockquote><span style="color: blue"><poem>
अबुधैरर्थलाभाय पण्यस्रीभिरिव स्वयम्।
अबुधैरर्थलाभाय पण्यस्रीभिरिव स्वयम्।
आत्मा संस्कृत्य संस्कृत्य परोपकरणीकृतः।।
आत्मा संस्कृत्य संस्कृत्य परोपकरणीकृतः।।
 
</poem></span></blockquote>
जैसे वेश्या दूसरों के लिए सिंगार करती है, वैसे ही मूखाç ने भी धन के लाभ के लिए अपनी आत्मा को संस्कार करके हृष्ट पुष्ट बनवा कर पराये उपकार के लिए कर रखी हैं।
जैसे वेश्या दूसरों के लिए सिंगार करती है, वैसे ही मूखाç ने भी धन के लाभ के लिए अपनी आत्मा को संस्कार करके हृष्ट पुष्ट बनवा कर पराये उपकार के लिए कर रखी हैं।


जो दृष्टि स्वभाव से चपल है और मल, मूत्र आदि नीची वस्तुओं पर भी गिरती है, ऐसी स्वामी की दृष्टि का सेवकलोग बहुत गौरव करते हैं।
जो दृष्टि स्वभाव से चपल है और मल, मूत्र आदि नीची वस्तुओं पर भी गिरती है, ऐसी स्वामी की दृष्टि का सेवकलोग बहुत गौरव करते हैं।
 
<blockquote><span style="color: blue"><poem>
मौनान्मूर्खः प्रवचनपटुर्वातुलो जल्पको वा, क्षान्त्या भीरुर्यदि न सहते प्रायशो नाभिजातः।  
मौनान्मूर्खः प्रवचनपटुर्वातुलो जल्पको वा, क्षान्त्या भीरुर्यदि न सहते प्रायशो नाभिजातः।  
धृष्ट: पार्श्वे वसति नियतं दूरतश्चाप्रगल्भः, सेवाधर्मः परमगहनो योगिनामप्यगम्यः।।
धृष्ट: पार्श्वे वसति नियतं दूरतश्चाप्रगल्भः, सेवाधर्मः परमगहनो योगिनामप्यगम्यः।।
 
</poem></span></blockquote>
चुपचाप रहने से मूर्ख, बहुत बातें करने में चतुर होने से उन्मत्त अथवा बातूनी, क्षमाशील होने से डरपोक, न सहन सकने से नीतिरहित, सर्वदा पास रहने से ढ़ीठ और दूर रहने से घमंडी कहलाता है। इसलिए सेवा का धर्म बड़ा रहस्यमय है, योगियो से भी पहचाना नहीं जा सका है।
चुपचाप रहने से मूर्ख, बहुत बातें करने में चतुर होने से उन्मत्त अथवा बातूनी, क्षमाशील होने से डरपोक, न सहन सकने से नीतिरहित, सर्वदा पास रहने से ढ़ीठ और दूर रहने से घमंडी कहलाता है। इसलिए सेवा का धर्म बड़ा रहस्यमय है, योगियो से भी पहचाना नहीं जा सका है।


पंक्ति 105: पंक्ति 103:


मित्रों के उपकार के लिये, और शत्रुओं के अपकार के लिए चतुर मनुष्य राजा का आश्रय करते हैं और केवल पेट कौन नहीं भर लेता है ? अर्थात सभी भरते हैं।
मित्रों के उपकार के लिये, और शत्रुओं के अपकार के लिए चतुर मनुष्य राजा का आश्रय करते हैं और केवल पेट कौन नहीं भर लेता है ? अर्थात सभी भरते हैं।
 
<blockquote><span style="color: blue"><poem>
जीविते यस्य जीवन्ति विप्रा मित्राणि बान्धवा:।  
जीविते यस्य जीवन्ति विप्रा मित्राणि बान्धवा:।  
सफलं जीवितं तस्य आत्मार्थे को न जीवति ?
सफलं जीवितं तस्य आत्मार्थे को न जीवति ?
 
</poem></span></blockquote>
जिसके जीने से ब्राह्मण, मित्र और भाई जीते हैं, उसी का जीवन सफल है और केवल अपने स्वार्थ के लिए कौन नहीं जीता है ?
जिसके जीने से ब्राह्मण, मित्र और भाई जीते हैं, उसी का जीवन सफल है और केवल अपने स्वार्थ के लिए कौन नहीं जीता है ?


पंक्ति 114: पंक्ति 112:


कोई मनुष्य पाँच पुराण में दासपने को करने लगता है, कोई लाख में करता है ओर कोई एक लाख में भी नहीं मिलता है।
कोई मनुष्य पाँच पुराण में दासपने को करने लगता है, कोई लाख में करता है ओर कोई एक लाख में भी नहीं मिलता है।
 
<blockquote><span style="color: blue"><poem>
मनुष्यजातौ तुल्यायां भृत्यत्वमतिगर्हितम।  
मनुष्यजातौ तुल्यायां भृत्यत्वमतिगर्हितम।  
प्रथमों यो न तत्रापि स किं जीवत्सु गण्यते।।
प्रथमों यो न तत्रापि स किं जीवत्सु गण्यते।।
 
</poem></span></blockquote>
मनुष्यों को समान जाति के सेवकाई काम करना अति निन्दित है और सेवकों में भी जो प्रथम अर्थात सबका मुखिया नहीं है, क्या वह जीते हुओं में गिना जा सकता है ? अर्थात उसका जीना और मरना समान है।
मनुष्यों को समान जाति के सेवकाई काम करना अति निन्दित है और सेवकों में भी जो प्रथम अर्थात सबका मुखिया नहीं है, क्या वह जीते हुओं में गिना जा सकता है ? अर्थात उसका जीना और मरना समान है।
 
<blockquote><span style="color: blue"><poem>
अहितहितविचारशून्यबुध्दे:।  
अहितहितविचारशून्यबुध्दे:। श्रुतिसमयैर्वहुभिस्तिरस्कृतस्य।  
श्रुतिसमयैर्वहुभिस्तिरस्कृतस्य।  
उदरभरणमात्रकेवलेच्छो:। पुरुषपशोश्च पशोश्च को विशेषः?
उदरभरणमात्रकेवलेच्छो:।  
</poem></span></blockquote>
पुरुषपशोश्च पशोश्च को विशेषः?
 
हित और अहित के विचार करने में जडमति वाला, और शास्र के ज्ञान से रहित होकर जिसकी इच्छा केवल पेट भरने की ही रहती है, ऐसा पुरुषरुपी पशु और सचमुच पशु में कौन सा अंतर समझा जा सकता है ? अर्थात ज्ञानहीन एवं केवल भोजन की इच्छा रखने वाले से घास खाकर जीने वाला पशु अच्छा है।
हित और अहित के विचार करने में जडमति वाला, और शास्र के ज्ञान से रहित होकर जिसकी इच्छा केवल पेट भरने की ही रहती है, ऐसा पुरुषरुपी पशु और सचमुच पशु में कौन सा अंतर समझा जा सकता है ? अर्थात ज्ञानहीन एवं केवल भोजन की इच्छा रखने वाले से घास खाकर जीने वाला पशु अच्छा है।


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दमनक बोला-- भाई, मैं सेवा करना क्यों नहीं जानता हूँ ? कोई वस्तु स्वभाव से अच्छी और बुरी होती है, जो जिसको रुचती है, वही उसको सुंदर लगती है।
दमनक बोला-- भाई, मैं सेवा करना क्यों नहीं जानता हूँ ? कोई वस्तु स्वभाव से अच्छी और बुरी होती है, जो जिसको रुचती है, वही उसको सुंदर लगती है।
 
<blockquote><span style="color: blue"><poem>
यस्य यस्य हि यो भावस्तेन तेन हि तं नरम।  
यस्य यस्य हि यो भावस्तेन तेन हि तं नरम।  
अनुप्रविश्य मेधावी क्षिप्रमात्मवशं नयेत।।
अनुप्रविश्य मेधावी क्षिप्रमात्मवशं नयेत।।
 
</poem></span></blockquote>
बुद्धिमान को चाहिये कि जिस मनुष्य का जैसा मनोरथ होय उसी अभिप्राय को ध्यान में रख कर एवं उस पुरुष के पेट में घुस कर उसे अपने वश में कर ले।
बुद्धिमान को चाहिये कि जिस मनुष्य का जैसा मनोरथ होय उसी अभिप्राय को ध्यान में रख कर एवं उस पुरुष के पेट में घुस कर उसे अपने वश में कर ले।


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दोष के डर से किसी काम का आरंभ न करना यह कायर पुरुष का चिंह है। हे भाई, अजीर्ण के डर से कौन भोजन को छोड़ते हैं
दोष के डर से किसी काम का आरंभ न करना यह कायर पुरुष का चिंह है। हे भाई, अजीर्ण के डर से कौन भोजन को छोड़ते हैं
 
<blockquote><span style="color: blue"><poem>
आसन्नमेव नृपतिर्भजते मनुष्यं, विद्याविहीनमकुलीनमसंगतं वा।  
आसन्नमेव नृपतिर्भजते मनुष्यं, विद्याविहीनमकुलीनमसंगतं वा।  
प्रायेण भूमिपतयः प्रमदा लताश्च, यः पार्श्वतो वसति तं परिवेष्टयन्ति।।
प्रायेण भूमिपतयः प्रमदा लताश्च, यः पार्श्वतो वसति तं परिवेष्टयन्ति।।
 
</poem></span></blockquote>
पास रहने वाला कैसा ही विद्याहीन, कुलहीन तथा विसंगत मनुष्य क्यों न हो राजा उसी से हित करने लगता है, क्योंकि राजा, स्री और बेल ये बहुधा जो अपने पास रहता है, उसी का आश्रय कर लेते हैं।
पास रहने वाला कैसा ही विद्याहीन, कुलहीन तथा विसंगत मनुष्य क्यों न हो राजा उसी से हित करने लगता है, क्योंकि राजा, स्री और बेल ये बहुधा जो अपने पास रहता है, उसी का आश्रय कर लेते हैं।


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दमनक बोला-- सुनो दूर से बड़ी अभिलाषा से देख लेना, मुसकाना, समाचार आदि पूछने में अधिक आदर करना, पीठ पीछे भी गुणों की बड़ाई करना, प्रिय वस्तुओं में स्मरण रखना।
दमनक बोला-- सुनो दूर से बड़ी अभिलाषा से देख लेना, मुसकाना, समाचार आदि पूछने में अधिक आदर करना, पीठ पीछे भी गुणों की बड़ाई करना, प्रिय वस्तुओं में स्मरण रखना।
 
<blockquote><span style="color: blue"><poem>
असेवके चानुरक्तिर्दानं सप्रियभाषणम्।  
असेवके चानुरक्तिर्दानं सप्रियभाषणम्।  
अनुरक्तस्य चिह्मानि दोषेsपि गुणसंगंहः।
अनुरक्तस्य चिह्मानि दोषेsपि गुणसंगंहः।
 
</poem></span></blockquote>
जो सेवक न हो उसमें भी स्नेह दिखाना, सुंदर सुंदर वचनों के साथ धन आदि का देना और दोष में भी गुणों का ग्रहण करना, ये स्नेहयुक्त स्वामी के लक्षण हैं।
जो सेवक न हो उसमें भी स्नेह दिखाना, सुंदर सुंदर वचनों के साथ धन आदि का देना और दोष में भी गुणों का ग्रहण करना, ये स्नेहयुक्त स्वामी के लक्षण हैं।


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हे राजा, दांत के कुरेदने के लिए तथा कान खुजाने के लिए राजाओं को तुनके से भी काम पड़ता है फिर देह, वाणी तथा हाथ वाले मनुष्य से क्यों नहीं ? अर्थात अवश्य पड़ना ही है। यद्यपि बहुत काल से मुझ अनादर किये गये की बुद्धि के नाश की श्रीमहाराज शंका करते ही सो भी शंका न करनी चाहिये।
हे राजा, दांत के कुरेदने के लिए तथा कान खुजाने के लिए राजाओं को तुनके से भी काम पड़ता है फिर देह, वाणी तथा हाथ वाले मनुष्य से क्यों नहीं ? अर्थात अवश्य पड़ना ही है। यद्यपि बहुत काल से मुझ अनादर किये गये की बुद्धि के नाश की श्रीमहाराज शंका करते ही सो भी शंका न करनी चाहिये।
 
<blockquote><span style="color: blue"><poem>
कदर्थितस्यापि च धैर्यवृत्ते, र्बुध्देर्विनाशो न हि शंड्कनीयः।  
कदर्थितस्यापि च धैर्यवृत्ते, र्बुध्देर्विनाशो न हि शंड्कनीयः।  
अधःकृतस्यापि तनूनपातो, नाधः शिखा याति कदाचिदेव।।
अधःकृतस्यापि तनूनपातो, नाधः शिखा याति कदाचिदेव।।
 
</poem></span></blockquote>
अनादर भी किये गये धैर्यवान की बुद्धि के नाश की शंका नहीं करनी चाहिये, जैसे नीच की ओर की गई भी अग्नि की ज्वाला कभी भी नीचे नहीं जाती है, अर्थात हमेशा ऊँची ही रहती है।
अनादर भी किये गये धैर्यवान की बुद्धि के नाश की शंका नहीं करनी चाहिये, जैसे नीच की ओर की गई भी अग्नि की ज्वाला कभी भी नीचे नहीं जाती है, अर्थात हमेशा ऊँची ही रहती है।


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[[Category:नया पन्ना जुलाई-2012]]
[[Category:नया पन्ना जुलाई-2012]]


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__INDEX__[[Category:हितोपदेश_की_कहानियाँ]]

23:05, 12 जुलाई 2012 का अवतरण

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1. एक बनिया, बैल, सिंह और गीदड़ों की कहानी

दक्षिण दिशा में सुवर्णवती नामक नगरी है, उसमे वर्धमान नामक एक बनिया रहता था। उसके पास बहुत- सा धन भी था, परंतु अपने दूसरे भाई- बंधुओं को अधिक धनवान देखकर उसकी यह लालसा हुई, कि और अधिक धन इकट्ठा करना चाहिए।

अपने से नीचे नीचे (हीन) अर्थात दरिद्रियों को देख कर किसकी महिमा नहीं बढ़ती है? अर्थात सबको अभिमान बढ़ जाता है और अपने से ऊपर अर्थात अधिक धनवानों को देखकर सब लोग अपने को दरिद्री समझते हैं।

ब्रह्महापि नरः पूज्यो यस्यास्ति विपुलं धनम्।
शशिनस्तुल्यवंशोsपि निर्धनः परिभूयते।।

जिसके पास बहुत सा धन है, उस ब्रह्मघातक मनुष्य का भी सत्कार होता है और चंद्रमा के समान अतिनिर्मल वंश में उत्पन्न हुए भी निर्धन मनुष्य का अपमान किया जाता है।

जैसे नवजवान स्री बूढ़े पति को नहीं चाहती है, वैसे ही लक्ष्मी भी निरुद्योगी, आलसी, ""प्रारब्ध में जो लिखा है, सो होगा ऐसा भरोसा रख कर चुपचाप बैठने वाले, तथा पुरुषार्थ हीन मनुष्य को नहीं चाहती है।

आलस्यं स्री सेवा सरोगता जन्मभूमिवात्सल्यम्।
संतोषो भीरुत्वं षड् व्याघाता महत्वस्य।।

और भी आलस्य, स्री की सेवा, रोगी रहना, जन्मभूति का स्नेह, संतोष और डरपोकपन ये छः बातें उन्नति के लिये बाधक है।

संपदा सुस्थितंमन्यो भवति स्वल्पयापि यः।
कृतकृत्यो विधिर्मन्ये न वर्धयति तस्य ताम्।।

जो मनुष्य थोड़ी सी संपत्ति से अपने को सुखी मानता है, विधाता समाप्तकार्य मान कर उस मनुष्य की उस संपत्ति को नहीं बढ़ाता है।

निरुत्साही, आनंदरहित, पराक्रमहीन और शत्रु को प्रसन्न करने वाले ऐसे पुत्र को कोई स्री न जने अर्थात ऐसे पुत्र का जन्म न होना ही अच्छा है।

नहीं पाये धन के पाने की इच्छा करना, पाये हुए धन की चोरी आदि नाश से रक्षा करना, रक्षा किये हुए धन को व्यापार आदि से बढ़ाना और अच्छी तरह बढ़ाए धन को सत्पात्र में दान करना चाहिए।

क्योंकि लाभ की इच्छा करने वाले को धन मिलता ही है एवं प्राप्त हुए परंतु रक्षा नहीं किये गये खजाने का भी अपने आप नाश हो जाता है और भी यह है कि बढ़ाया नहीं गया धन कुछ काल में थोड़ा व्यय हो कर काजल के समान नाश हो जाता है और नहीं भोगा गया भी खजाना वृथा है।

धनेन किं यो न ददाति नाश्रुते, बलेन कि यश्च रिपून्न बाधते।
श्रुतेन किं यो न च धर्ममाचरेत्, किमात्मना यो न जितेन्द्रियो भवेत्।

उस धन से क्या है ? जो न देता है और न खाता है, उस बल से क्या है ? जो वैरियों को नहीं सताता है, उस शास्र से क्या है ? जो धर्म का आचरण नहीं करता है और उस आत्मा से क्या है ? जो जितेंद्रिय नहीं है।

जैसे जल की एक बूँद के गिरने से धीरे- धीरे घड़ा भर जाता है, वही कारण सब कारण सब प्रकार की विद्याओं का, धन का और धर्म का भी है।

दानोपभोगरहिता दिवसा यस्य यान्ति वै।
स कर्मकारभस्रेव श्वसन्नपि न जीवति।।

दान और भोग के बिना जिसके दिन जाते हैं, वह लुहार की धोंकनी के समान सांस लेता हुआ भी मरे के समान है।

यह सोच कर नंदक और संजीवक नामक दो बैलों को जुए में जोतकर और छकड़े को नाना प्रकार की वस्तुओं से लादकर व्यापार के लिए कश्मीर की ओर गया।

अंजनस्य क्षयं दृष्ट्व वल्मीकस्य च संचयम्।
अवन्धयं दिवसं कुर्याद्दानाध्ययनकर्मसु।।

काजल के क्रम से घटने को और वाल्मीक नामक चीटी के संचय को देखकर, दान, पड़ना और कामधंधा में दिन को सफल करना चाहिए।

बलवानों को अधिक बोझ क्या है ? और उद्योग करने वालों को क्या दूर है ? और विद्यावानों को विदेश क्या है ? और मीठे बोलने वालों का शत्रु कौन है ?

फिर उस जाते हुए का, सुदुर्ग नामक घने वन में, संजीवक घुटना टूटने से गिर पड़ा।

यह देखकर वर्धमान चिंता करने लगा - नीति जानने वाला इधर- उधर भले ही व्यापार करे, परंतु उसको लाभ उतना ही होता है, कि जितना विधाता के जी में है।

सब कार्यों को रोकने वाले संशय को छोड़ देना चाहिये, एवं संदेह को छोड़ कर, अपना कार्य सिद्ध करना चाहिये।

यह विचार कर संजीवक को वहाँ छोड़ कर फिर वर्धमान आप धर्मपुर नामक नगर में जा कर एक दूसरे बड़े शरीर वाले बैल को ला कर जुए में जोत कर चल दिया। फिर संजीवक भी बड़े कष्ट से तीन खुरों के सहारे उठ कर खड़ा हुआ।

समुद्र में डूबे हुए की, पर्वत से गिरे हुए की और तक्षक नामक सपं से डसे हुए की आयु की प्रबलता मर्म (जीवनस्थान) की रक्षा करती है।

अरक्षितं तिष्ठति दैवरक्षितं, सुरक्षितं दैवहतं विनश्यति।
जीवत्यनाथोsपि वने विसर्जितः। कृतप्रयत्नोsपि गृहे न जीवति।।

दैव से रक्षा किया हुआ, बिना रक्षा के भी ठहरता है और अच्छी तरह रक्षा किया हुआ भी, दैव का मारा हुआ नहीं बचता है, जैसे वन में छोड़ा हुआ सहायताहीन भी जीता रहता है, घर पर कई उपाय करने से भी नहीं जीता है।

फिर बहुत दिनों के बाद संजीवक अपनी इच्छानुसार खाता पीता वन में फिरता- फिरता हृष्ट- पुष्ट हो कर ऊँचे स्वर से डकराने लगा। उसी वन में पिंगलक नामक एक सिंह अपनी भुजाओं से पाये हुए राज्य के सुख का भोग करता हुआ रहता था।

जैसा कहा गया है, मृगों ने सिंह का न तो राज्यतिलक किया और न संस्कार किया, परंतु सिंह अपने आप ही पराक्रम से राज् को पा कर मृगों का राजा होना दिखलाता है।

और वह एक दिन प्यास से व्याकुल होकर पानी पीने के लिए यमुना के किनारे गया और वहाँ उस सिंह ने नवीन ॠतुकाल के मेघ की गर्जना के समान संजीवक का डकराना सुना। यह सुन कर पानी के बिना पिये वह घबराया सा लौट कर अपने स्थान पर आ कर यह क्या है ? यह सोचता हुआ चुप- सा बैठ गया और उसके मंत्री के बेटे दमनक और करटक दो गीदड़ों ने उसे वैसा बैठा देखा। उसको इस दशा में देख कर दमनक ने करटक से कहा- भाई करटक, यह क्या बात है कि प्यासा स्वामी पानी को बिना पीये डर से धीरे- धीरे आ बैठा है ? करटक बोला -- भाई दमनक, हमारी समझ से तो इसकी सेवा ही नहीं की जाती है। जो ऐसे बैठा भी है, तो हमें स्वामी की चेष्ठा का निर्णय करने से क्या प्रयोजन है ? क्योंकि इस राजा से बिना अपराध बहुत काल तक तिरस्कार किये गये हम दोनों ने बड़ा दुख सहा है।

सेवया धनमिच्छाद्भिः सेवकै: पश्य यत्कृतम।
स्वायब्यं यच्छरीरस्य मूढैस्तदपि हारितम।।

सेवा से धन को चाहने वाले सेवकों ने जो किया, सो देख कि शरीर की स्वतंत्रता भी मूखाç ने हार दी है।

और दूसरे पराधीन हो कर जाड़ा, हवा और धूप में दुखों को सहते हैं और उस दुख के छोटे- से- छोटे भाग से तप करके बुद्धिमान सुखी हो सकता है।

स्वाधीनता का होना ही जन्म की सफलता है और जो पराधीन होने पर भी जीते है, तो मरे कौन से हैं ? अर्थात वे ही मरे के समान हैं, जो पराधीन हो कर रहते हैं।

धनवान पुरुष, आशारुपी ग्रह से भरमाये गये हुए याचकों के साथ, इधर आ, चला आ, बैठ जा, खड़ा हो, बोल, चुप सा रह इस तरह खेल किया करते हैं।

अबुधैरर्थलाभाय पण्यस्रीभिरिव स्वयम्।
आत्मा संस्कृत्य संस्कृत्य परोपकरणीकृतः।।

जैसे वेश्या दूसरों के लिए सिंगार करती है, वैसे ही मूखाç ने भी धन के लाभ के लिए अपनी आत्मा को संस्कार करके हृष्ट पुष्ट बनवा कर पराये उपकार के लिए कर रखी हैं।

जो दृष्टि स्वभाव से चपल है और मल, मूत्र आदि नीची वस्तुओं पर भी गिरती है, ऐसी स्वामी की दृष्टि का सेवकलोग बहुत गौरव करते हैं।

मौनान्मूर्खः प्रवचनपटुर्वातुलो जल्पको वा, क्षान्त्या भीरुर्यदि न सहते प्रायशो नाभिजातः।
धृष्ट: पार्श्वे वसति नियतं दूरतश्चाप्रगल्भः, सेवाधर्मः परमगहनो योगिनामप्यगम्यः।।

चुपचाप रहने से मूर्ख, बहुत बातें करने में चतुर होने से उन्मत्त अथवा बातूनी, क्षमाशील होने से डरपोक, न सहन सकने से नीतिरहित, सर्वदा पास रहने से ढ़ीठ और दूर रहने से घमंडी कहलाता है। इसलिए सेवा का धर्म बड़ा रहस्यमय है, योगियो से भी पहचाना नहीं जा सका है।

विशेष बात यह है कि जो उन्नति के लिए झुकता है, जीने के लिए प्राण का भी त्याग करता है और सुख के लिए दुखी होता है, ऐसा सेवक को छोड़कर और कौन भला मूर्ख हो सकता है।

दमनक बोला -- मित्र, कभी यह बात मन से भी नहीं करनी चाहिये, क्योंकि खामियों की सेवा यत्न से क्यों नहीं करनी चाहिये, जो सेवा से प्रसन्न हो कर शीघ्र मनोरथ पूरे कर देते हैं। स्वामी की सेवा नहीं करने वालों को चमर के ढ़ लाव से युक्त ऐश्वर्य और ऊँचे दंड वाले श्वेत छत्र और घोड़े हाथियों की सेना कहाँ धरी है ?

करटक बोला -- तो भी हमको इस काम से क्या प्रयोजन है ? क्योंकि अयोग्य कामों में व्यापार करना सर्वथा त्यागने के योग्य है।

दमनक ने कहा -- तो भी सेवक को स्वामी के कामों का विचार अवश्य करना चाहिये। करटक बोला -- जो सब काम पर अधिकारी प्रधान मंत्री हो वही करे। क्योंकि सेवक को पराये काम की चर्चा कभी नहीं करनी चाहिये। पशुओं का ढ़ूढ़ना हमारा काम है। अपने काम की चर्चा करो। परंतु आज उस चर्चा से कुछ प्रयोजन नहीं। क्योंकि अपने दोनों के भोजन से बचा हुआ आहार बहुत धरा है। दमनक क्रोध से बोला -- क्या तुम केवल भोजन के ही अर्थी हो कर राजा की सेवा करते हो ? यह तुमने अयोग्य कहा।

मित्रों के उपकार के लिये, और शत्रुओं के अपकार के लिए चतुर मनुष्य राजा का आश्रय करते हैं और केवल पेट कौन नहीं भर लेता है ? अर्थात सभी भरते हैं।

जीविते यस्य जीवन्ति विप्रा मित्राणि बान्धवा:।
सफलं जीवितं तस्य आत्मार्थे को न जीवति ?

जिसके जीने से ब्राह्मण, मित्र और भाई जीते हैं, उसी का जीवन सफल है और केवल अपने स्वार्थ के लिए कौन नहीं जीता है ?

जिसके जीने से बहुत से लोग जिये वह तो सचमुच जिया और यों तो काग भी क्या चोंच से अपना पेट नहीं भर लेता है ?

कोई मनुष्य पाँच पुराण में दासपने को करने लगता है, कोई लाख में करता है ओर कोई एक लाख में भी नहीं मिलता है।

मनुष्यजातौ तुल्यायां भृत्यत्वमतिगर्हितम।
प्रथमों यो न तत्रापि स किं जीवत्सु गण्यते।।

मनुष्यों को समान जाति के सेवकाई काम करना अति निन्दित है और सेवकों में भी जो प्रथम अर्थात सबका मुखिया नहीं है, क्या वह जीते हुओं में गिना जा सकता है ? अर्थात उसका जीना और मरना समान है।

अहितहितविचारशून्यबुध्दे:। श्रुतिसमयैर्वहुभिस्तिरस्कृतस्य।
उदरभरणमात्रकेवलेच्छो:। पुरुषपशोश्च पशोश्च को विशेषः?

हित और अहित के विचार करने में जडमति वाला, और शास्र के ज्ञान से रहित होकर जिसकी इच्छा केवल पेट भरने की ही रहती है, ऐसा पुरुषरुपी पशु और सचमुच पशु में कौन सा अंतर समझा जा सकता है ? अर्थात ज्ञानहीन एवं केवल भोजन की इच्छा रखने वाले से घास खाकर जीने वाला पशु अच्छा है।

करकट बोला -- हम दोनों मंत्री नहीं है, फिर हमें इस विचार से क्या ? दमनक बोला- कुछ काल में मंत्री प्रधानता व अप्रधानता को पाते हैं।

इस दुनिया में कोई किसी का स्वभाव से अर्थात जन्म से सुशील अर्थवा दुष्ट नहीं होता है, परंतु मनुष्य को अपने कर्म ही बड़पन को अथवा नीचपन को पहुँचाते हैं।

मनुष्य अपने कर्मों से कुए के खोदने वाले के समान नीचे और राजभवन के बनाने वाले के समान ऊपर जाता है, अर्थात मनुष्य अपना उच्च कर्मों से उन्नति को और हीन कर्मों से अवनति को पाता है।

इसलिये यह ठीक है कि सबकी आत्मा अपने ही यत्न के अधीन रहती है। करकट बोला-- तुम अब क्या कहते हो ? वह बोला -- यह स्वामी पिंगलक किसी न किसी कारण से घबराया- सा लौट करके आ बैठा है। करटक ने कहा-- क्या तुम इसका भेद जानते हो ? दमनक बोला -- इसमें नहीं जानने की बात क्या है ?

जताए हुए अभिप्राय को पशु भी समझ लेता है और हांके हुए घोड़े और हाथी भी बोझा ढ़ोते हैं। पण्डित कहे बिना ही मन की बात तर्क से जान लेता है, क्योंकि पराये चित्त का भेद जान लेना ही बुद्धियों का फल है।

आकार से, हृदय के भाव से, चाल से, काम से, बोलने से और नेत्र और मुंह के विकार से औरों के मन की बात जाल ली जाती है।

इस भय के सुझाव में बुद्धि के बल से मैं इस स्वामी को अपना कर लूँगा। जो प्रसंग के समान वचन को, स्नेह के सदृश मित्र को और अपनी सामर्थ्य के सदृस क्रोध को समझता है, वह बुद्धिमान है।

करटक बोला -- मित्र, तुम सेवा करना नहीं जानते हो। जो मनुष्य बिना बुलाये घुसे और बिना पूछे बहुत बोलता है और अपने को राजा का प्रिय मित्र समझता है, वह मूर्ख है।

दमनक बोला-- भाई, मैं सेवा करना क्यों नहीं जानता हूँ ? कोई वस्तु स्वभाव से अच्छी और बुरी होती है, जो जिसको रुचती है, वही उसको सुंदर लगती है।

यस्य यस्य हि यो भावस्तेन तेन हि तं नरम।
अनुप्रविश्य मेधावी क्षिप्रमात्मवशं नयेत।।

बुद्धिमान को चाहिये कि जिस मनुष्य का जैसा मनोरथ होय उसी अभिप्राय को ध्यान में रख कर एवं उस पुरुष के पेट में घुस कर उसे अपने वश में कर ले।

थोड़ा चाहने वाला, धैर्यवान, पण्डित तथा सदा छाया के समान पीछे चलने वाला और जो आज्ञा पाने पर सोच- विचार न करे। अर्थात यथार्थरुप से आज्ञा का पालन करे ऐसा मनुष्य राजा के घर में रहना चाहिये।

करटक बोला-- जो कभी कुसमय पर घुस जाने से स्वामी तुम्हारा अनादर करे। वह बोला -- ऐसा हो तो भी सेवक के पास अवश्य जाना चाहिये।

दोष के डर से किसी काम का आरंभ न करना यह कायर पुरुष का चिंह है। हे भाई, अजीर्ण के डर से कौन भोजन को छोड़ते हैं

आसन्नमेव नृपतिर्भजते मनुष्यं, विद्याविहीनमकुलीनमसंगतं वा।
प्रायेण भूमिपतयः प्रमदा लताश्च, यः पार्श्वतो वसति तं परिवेष्टयन्ति।।

पास रहने वाला कैसा ही विद्याहीन, कुलहीन तथा विसंगत मनुष्य क्यों न हो राजा उसी से हित करने लगता है, क्योंकि राजा, स्री और बेल ये बहुधा जो अपने पास रहता है, उसी का आश्रय कर लेते हैं।

करटक बोला -- वहाँ जा कर क्या कहोगे ? वह बोला -- सुनो पहिले यह जानूँगा कि स्वामी मेरे ऊपर प्रसन्न है या उदास है ? करटक बोला -- इस बात को जानने का क्या चिंह है?

दमनक बोला-- सुनो दूर से बड़ी अभिलाषा से देख लेना, मुसकाना, समाचार आदि पूछने में अधिक आदर करना, पीठ पीछे भी गुणों की बड़ाई करना, प्रिय वस्तुओं में स्मरण रखना।

असेवके चानुरक्तिर्दानं सप्रियभाषणम्।
अनुरक्तस्य चिह्मानि दोषेsपि गुणसंगंहः।

जो सेवक न हो उसमें भी स्नेह दिखाना, सुंदर सुंदर वचनों के साथ धन आदि का देना और दोष में भी गुणों का ग्रहण करना, ये स्नेहयुक्त स्वामी के लक्षण हैं।

आज कल कह करके, कृपा आदि करने में समय टालना तथा आशाओं का बढ़ाना और जब फल का समय आवे तब उसका खंडन करना ये उदास स्वामी के लक्षण मनुष्य को जानना चाहिये।

यह जान कर जैसे यह मेरे वश में हो जायेगा वैसे कर्रूँगा, क्योंकि पण्डित लोग नीतिशास्र में कही हुई बुराई के होने से उत्पन्न हुई विपत्ति को और उपाय से हुई सिद्धि को नेत्रों के सामने साक्षात झलकती हुई सी देखते हैं।

करटक बोला-- तो भी बिना अवसर के नहीं कह सकते हो, बिना अवसर की बात को कहते हुए वृहस्पति जी भी बुद्धि की निंदा और अनादर को सर्वदा पा सकते हैं।

दमनक बोला-- मित्र, डरो मत, मैं बिना अवसर की बात नहीं कहूँगा, आपत्ति में, कुमार्ग पर चलने में और कार्य का समय टले जाने में, हित चाहने वाले सेवक को बिना पूछे भी कहना चाहिये। और जो अवसर पा कर भी मैं राय नहीं कहूँगा तो मुझे मंत्री बनना भी अयोग्य है।

मनुष्य जिस गुणसे आजीविका पाता है और जिस गुण के कारण इस दुनिया में सज्जन उसकी बड़ाई करते हैं, गुणी को ऐसे गुण की रक्षा करना और बड़े यत्न से बढ़ाना चाहिये।

इसलिए हे शुभचिंतक, मुझे आज्ञा दीजिये। मैं जाता हूँ। करटक ने कहा-- कल्याण हो, और तुम्हारे मार्ग विघ्नरहित अर्थात शुभ हो। अपना मनोरथ पूरा करो। तब दमनक घबराया सा पिंगलक के पास गया।

तब दूर से ही बड़े आदर से राजा ने भीतर आने दिया और वह साष्टांग दंडवत करके बैठ गया। राजा बोला -- बहुत दिन से दिखे। दमनक बोला-- यद्यपि मुझ सेवक से श्रीमहाराज को कुछ प्रयोजन नहीं है, तो भी समय आने पर सेवक को अवश्य पास आना चाहिये, इसलिए आया हूँ।

हे राजा, दांत के कुरेदने के लिए तथा कान खुजाने के लिए राजाओं को तुनके से भी काम पड़ता है फिर देह, वाणी तथा हाथ वाले मनुष्य से क्यों नहीं ? अर्थात अवश्य पड़ना ही है। यद्यपि बहुत काल से मुझ अनादर किये गये की बुद्धि के नाश की श्रीमहाराज शंका करते ही सो भी शंका न करनी चाहिये।

कदर्थितस्यापि च धैर्यवृत्ते, र्बुध्देर्विनाशो न हि शंड्कनीयः।
अधःकृतस्यापि तनूनपातो, नाधः शिखा याति कदाचिदेव।।

अनादर भी किये गये धैर्यवान की बुद्धि के नाश की शंका नहीं करनी चाहिये, जैसे नीच की ओर की गई भी अग्नि की ज्वाला कभी भी नीचे नहीं जाती है, अर्थात हमेशा ऊँची ही रहती है।

हे महाराज, इसलिए सदा स्वामी को विवेकी होना चाहिये। मणि चरणों में ठुकराता है और कांच सिर पर धारण किया जाता है, सो जैसा है वैसा भले ही रहे, काँच- काँच ही है और मणि- मणि ही है।

इसके बाद एक दिन उस सिंह का भाई स्तब्धकर्ण नामक सिंह आया। उसका आदर- सत्कार करके और अच्छी तरह बैठा कर पिंगलक उसके भोजन के लिये पशु मारने चला। इतने में संजीवक बोला कि -- महाराज, आज मरे हुए मृगों का माँस कहाँ है ? राजा बोला -- दमनक करटक जाने, संजीवक ने कहा -- तो जान लीजिये कि है या नहीं सिंह सोच कर कहा-- अब वह नहीं है, संजीवक बोला -- इतना सारा मांस उन दोनों ने कैसे खा लिया ? राजा बोजा -- खाया, बाँटा, और फेंक फांक दिया। नित्य यही डाल रहता है। तब संजीवक ने कहा -- महाराज के पीठ पीछे इस प्रकार क्यों करते हैं ?राजा बोला-- मेरे पीठ पीछे ऐसा ही किया करते हैं। फिर संजीवक ने कहा -- यह बात उचित नहीं है।

निश्चय करके वही मंत्री श्रेष्ठ है जो दमड़ी दमड़ी करके कोष को बढ़ावे, क्योंकि कोषयुक्त राजा का कोष ही प्राण है, केवल जीवन ही प्राण नहीं है।

स्तब्धकर्ण बोला -- सुनों भाई, ये दमनक करटक बहुत दिनों से अपने आश्रय मं पड़े हैं और लड़ाई और मेल कराने के अधिकारी है। धन के अधिकार पर उनका कभी नहीं लगाने चाहिये। जब जैसा अवसर हो वैसा जान कर काम करना चाहिये। सिंह बोला-- यह तो है ही, पर ये सर्वथा मेरी बात को नहीं माननेवाले हैं। स्तब्धकर्ण बोला -- यह सब प्रकार से अनुचित है।

भाई, सब प्रकार से मेरा कहना करो और व्यवहार तो हमने कर ही लिया है। इस घास चरने वाले संजीवका को धन के अधिकार पर रख दो। इस बात के ऐसा करने पर उसी दिन से पिंगलक और संजीवक का सब बांधवों को छोड़कर बड़े स्नेह से समय बीतने लगा। फिर सेवकों के आहार देने में शिथिलता देख दमनक और करटक आपस में चिंता करने लगे। तब दमनक करटक से बोला -- मित्र, अब क्या करना चाहिये। यह अपना ही किया हुआ दोष है, स्वयं ही दोष करने पर पछताना भी उचित नहीं है। जैसे मैंने इन दोनों की मित्रता कराई थी, वैसे ही मित्रों में फूट भी कराऊँगा। करटक बोला -- ऐसा ही होय, परंतु इन दोनों का आपस में स्वभाव से बढ़ा हुआ बड़ा स्नेह कैसे छुड़ाया जा सकता है। दमनक बोला -- उपाय करो, जैसा कहा है कि -- जो उपाय से हो सकता है, वह पराक्रम नहीं हो सकता है।

बाद में दमनक पिंगलक के पास जा कर प्रणाम करके बोला-- महाराज, नाशकारी और बड़े भय के करने वाले किसी काम को जान कर आया हूँ।

पिंगलक ने आदर से कहा -- तू क्या कहना चाहता है ? दमनक ने कहा -- यह संजीवक तुम्हारे ऊपर अयोग्य काम करने वाला सा दिखता है और मेरे सामने महाराज की तीनों शक्तियों की निंदा करके राज्य को ही छीनना चाहता है। यह सुनकर पिंगलक भय और आश्चर्य से मान कर चुप हो गया। दमनक फिर बोला -- महाराज, सब मंत्रियों को छोड़ कर एक इसी को जो तुमने सर्वाधिकारी बना रखा है। वही दोष है।

सिंह ने विचार कर कहा -- हे शुभचिंतक, जो ऐसा भी है, तो भी संजीवक के साथ मेरा अत्यंत स्नेह है। बुराईयाँ करता हुआ भी जो प्यारा है, सो तो प्यारा ही है, जैसे बहुत से दोषों से दूषित भी शरीर किसको प्यारा नहीं है।

दमनक फिर भी कहने लगा -- हे महाराज, वही अधिक दोष है। पुत्र, मंत्री और साधारण मनुष्य इनमें से जिसके ऊपर राजा अधिक दृष्टि करता है, लक्ष्मी उसी पुरुष की सेवा करती है।

हे महाराज सुनिये, अप्रिय भी, हितकारी वस्तु का परिणाम अच्छा होता है और जहाँ अच्छा उपदेशक और अच्छे उपदेश सुनने वाला हो, वहाँ सब संपत्तियाँ रमण करती है।

सिंह बोला -- बड़ा आश्चर्य है, मैं जिसे अभय वाचा दे कर लाया और उसको बढ़ाया, सो मुझसे क्यों वैर करता है ?

दमनक बोला -- महाराज, जैसे मली हुई और तैल आदि लगाने से सीधी करी हुई कुत्ते की पूँछ सीधी नहीं होती है, वैसे ही दुर्जन नित्य आदर करने से भी सीधा नहीं होता है।

और जो संजीवक के स्नेह में फँसे हुए स्वामी जताने पर भी न मानें तो मुझ सेवक पर दोष नहीं है। पिंगलक (अपने मन में सोचने लगा) कि किसी के बहकाने से दूसरों को दंड न देना चाहिये, परंतु अपने आप जान कर उसे मारे या सम्मान करें। फिर बोला -- तो संजीवक को क्या उपदेश करना चाहिये ? दमनक ने घबरा कर कहा -- महाराज, ऐसा नहीं, इससे गुप्त बात खुल जाती है। पहले यह तो सोच लो कि वह हमारा क्या कर सकता है ?

सिंह ने कहा- यह कैसे जाना जाए कि वह द्रोह करने लगा है ? दमनक ने कहा -- जब वह घमंड से सींगों की नोंक को मारने के लिए सामने करता हुआ निडर सा आवे तब स्वामी आप ही जान जायेंगे। इस प्रकार कह कर संजीवक के पास गया और वहाँ जा कर धीरे- धीरे पास खिसकता हुआ अपने को मन मलीन सा दिखाया। संजीवक ने आदत से कहा मित्र कुशल तो है ? दमनक ने कहा -- सेवकों को कुशल कहाँ ?

संजीवक ने कहा -- मित्र, कहो तो यह क्या बात है दमनक ने कहा -- मैं मंदभागी क्या कहूँ ? एक तरफ राजा का विश्वास और दूसरी तरफ बांधव का विनाश होना क्या कर्रूँ ? इस दुखसागर में पड़ा हँ।

यह कह कर लंबी साँस भर कर बैठ गया। तब संजीवक ने कहा-- मित्र, तो भी सब विस्तारपूर्वक मनकी बात कहो। दमनक ने बहुत छिपाते- छिपाते कहा-- यद्यपि राजा का गुप्त विचार नहीं कहना चाहिये, तो भी तुम मेरे भरोसे से आये हो। अतः मुझे परलोक की अभिलाषा के डर से अवश्य तुम्हारे हित की बात करनी चाहिये। सुनो तुम्हारे ऊपर क्रोधित इस स्वामी ने एकांत में कहा है कि संजीवक को मार कर अपने परिवार को दूँगा। यह सुनते ही संजीवक को बड़ा विषाद हुआ। फिर दमनक बोला -- विषाद मत करो, अवसर के अनुसार काम करो। संजीवक छिन भर चित्त मेंविचार कर कहने लगा-- निश्चय यह ठीक कहता है, संजीवक छिन भर चित्त में विचार कर कहने लगा -- निश्चय यह ठीक कहता है, अथवा दुर्जन का यह काम है या नहीं है, यह व्यवहार से निर्णय नहीं हो सकता है।

संजीवक फिर सांस भरकर बोला -- अरे, बड़े कष्ट की बात है, कैसे सिंह मुझ घास के चरने वाले को मारेगा ?

विजय होने से स्वामित्व और मरने पर स्वर्ग मिलता है, यह काया क्षणभंगुर है, फिर संग्राम में मरने की क्या चिंता है ?

यह सोच कर संजीवक बोला -- हे मित्र, वह मुझे मारने वाला कैसे समझ पड़ेगा ? तब दमनक बोला -- जब यह पिंगलक पूँछ फटकार कर उँचे पंजे करके और मुख फाड़ कर देखे तब तुम भी अपना पराक्रम दिखलाना। परंतु यंह सब बात गुप्त रखने योग्य है। नहीं तो न तुम और न मैं। यह कहकर दमनक करटक के पास गया। तब करटक ने पूछा -- क्या हुआ ? दमनक ने कहा-- दोनों के आपस में फूट फैल गई। करटक बोला -- इसमें क्या संदेह है ?

तब दमनक ने पिंगलक के पास जा कर कहा -- महाराज, वह पापी आ पहुँचा है, इसलिये सम्हाल कर बैठ जाइये, यह कह कर पहले जताए हुए आकार को करा दिया, संजीवक ने भी आ कर वैसे ही बदली हुई चेष्ठा वाले सिंह को देखकर अपने योग्य पराक्रम किया। फिर उन दोनों की लड़ाई में संजीवक को सिंह ने मार डाला।

बाद में सिंह, संजीवक सेवक को मार कर थका हुआ और शोक सा मारा बैठ गया। और बोला" -- कैसा मैंने दुष्ट कर्म किया है ?

दमनक बोला -- स्वामी, यह कौन- सा न्याय है कि शत्रु को मार कर पछतावा करते हो?

इस प्रकार जब दमनक ने संतोष दिलाया तब पिंगलक का जी में जी आया और सिंहासन पर बैठा। दमनक प्रसन्न चित्त होकर ""जय हो महाराज की, ""सब संसार का कल्याण हो, यह कहकर आनंद से रहने लगा।



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