"प्रभावती गुप्ता": अवतरणों में अंतर
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'''प्रभावती गुप्ता''' [[गुप्त]] सम्राट [[चन्द्रगुप्त द्वितीय]] की पुत्री थी। उसका [[विवाह]] [[वाकाटक वंश|वाकाटक]] नरेश [[रुद्रसेन द्वितीय]] के साथ सम्पन्न हुआ था।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=भारतीय इतिहास कोश |लेखक= सच्चिदानन्द भट्टाचार्य|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान |संकलन= |संपादन= |पृष्ठ संख्या=250|url=}}</ref> | '''प्रभावती गुप्ता''' [[गुप्त]] सम्राट [[चन्द्रगुप्त द्वितीय]] की पुत्री थी। उसका [[विवाह]] [[वाकाटक वंश|वाकाटक]] नरेश [[रुद्रसेन द्वितीय]] के साथ सम्पन्न हुआ था।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=भारतीय इतिहास कोश |लेखक= सच्चिदानन्द भट्टाचार्य|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान |संकलन= |संपादन= |पृष्ठ संख्या=250|url=}}</ref> [[पूना]] तामपत्र के अनुसार यह विवाह संभवतः 380 ई. में हुआ था। इस विवाह से दोनों राजवंशों में घनिष्ठता स्थापित हो गई थी। रुद्रसेन द्वितीय [[शैव धर्म]] जबकि प्रभावती [[वैष्णव धर्म]] को मानने वाली थी। | ||
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==पति की मृत्यु== | |||
प्रभावती अपनी राजधानी नन्दिवर्धन के समीप रामगिरि पर स्थापित [[रामचन्द्र]] की पादुकाओं की [[भक्त]] थी। विवाह के बाद रुद्रसेन भी [[वैष्णव]] हो गया था। अपने अल्प शासन के बाद 390 ई. में रुद्रसेन द्वितीय की मृत्यु हो गई और 13 वर्ष तक प्रभावती ने अपने अल्प वयस्क पुत्रों की संरक्षिका के रूप में शासन किया। उसका ज्येष्ठ पुत्र दिवाकर सेन इस समय 5 वर्ष, तथा दामोदर सेन 2 वर्ष के नाबालिग थे। | |||
====राज्य की संरक्षिका==== | |||
दिवाकर सेन की मृत्यु प्रभावती के संरक्षण काल में ही हो गई और दामोदर सेन वयस्क होने पर सिंहासन पर बैठा। यही 410 ई. में [[प्रवरसेन द्वितीय]] के नाम से [[वाकाटक वंश|वाकाटक]] शासक बना। उसने अपनी राजधानी नन्दिवर्धन से परिवर्तन करके प्रवरपुर बनाई। [[शक|शकों]] के उन्मूलन का कार्य प्रभावती गुप्त के संरक्षण काल में ही संपन्न हुआ। इस विजय के फलस्वरूप [[गुप्त]] सत्ता [[गुजरात]] एवं [[काठियावाड़]] में स्थापित हो गई। प्रभावती गुप्ता ने व्यावहारिक कठिनाइयों और शासन कार्य का अनुभव न होने पर भी अपनी व्यक्तिगत योग्यता और पिता [[चन्द्रगुप्त द्वितीय]] की सहायता से दूर कर शासन किया। | |||
==पितृगोत्र धारण== | |||
प्रभावती ने अपने पितृगोत्र को ही धारण किया तथा अपने [[अभिलेख|अभिलेखों]] में पति की वंशावली न देकर पिता की वंशावली दी। अपने पिता के राज्य और पुत्र की रक्षा के उद्देश्य से वह पिता की सहायता और हर प्रकार का मशविरा आदि लेती थी। प्रभावती गुप्ता सौ वर्षों से अधिक उम्र तक जीवित रहीं। इस अवधि में उसे अपने दो पुत्रों की मृत्यु का शोक भी सहना पड़ा।<ref>{{cite web |url=http://pustak.org/home.php?bookid=5102 |title=प्रभावती |accessmonthday=5 सितम्बर|accessyear=2012|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=[[हिन्दी]]}} </ref> | |||
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12:37, 5 सितम्बर 2012 का अवतरण
प्रभावती गुप्ता गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय की पुत्री थी। उसका विवाह वाकाटक नरेश रुद्रसेन द्वितीय के साथ सम्पन्न हुआ था।[1] पूना तामपत्र के अनुसार यह विवाह संभवतः 380 ई. में हुआ था। इस विवाह से दोनों राजवंशों में घनिष्ठता स्थापित हो गई थी। रुद्रसेन द्वितीय शैव धर्म जबकि प्रभावती वैष्णव धर्म को मानने वाली थी।
पति की मृत्यु
प्रभावती अपनी राजधानी नन्दिवर्धन के समीप रामगिरि पर स्थापित रामचन्द्र की पादुकाओं की भक्त थी। विवाह के बाद रुद्रसेन भी वैष्णव हो गया था। अपने अल्प शासन के बाद 390 ई. में रुद्रसेन द्वितीय की मृत्यु हो गई और 13 वर्ष तक प्रभावती ने अपने अल्प वयस्क पुत्रों की संरक्षिका के रूप में शासन किया। उसका ज्येष्ठ पुत्र दिवाकर सेन इस समय 5 वर्ष, तथा दामोदर सेन 2 वर्ष के नाबालिग थे।
राज्य की संरक्षिका
दिवाकर सेन की मृत्यु प्रभावती के संरक्षण काल में ही हो गई और दामोदर सेन वयस्क होने पर सिंहासन पर बैठा। यही 410 ई. में प्रवरसेन द्वितीय के नाम से वाकाटक शासक बना। उसने अपनी राजधानी नन्दिवर्धन से परिवर्तन करके प्रवरपुर बनाई। शकों के उन्मूलन का कार्य प्रभावती गुप्त के संरक्षण काल में ही संपन्न हुआ। इस विजय के फलस्वरूप गुप्त सत्ता गुजरात एवं काठियावाड़ में स्थापित हो गई। प्रभावती गुप्ता ने व्यावहारिक कठिनाइयों और शासन कार्य का अनुभव न होने पर भी अपनी व्यक्तिगत योग्यता और पिता चन्द्रगुप्त द्वितीय की सहायता से दूर कर शासन किया।
पितृगोत्र धारण
प्रभावती ने अपने पितृगोत्र को ही धारण किया तथा अपने अभिलेखों में पति की वंशावली न देकर पिता की वंशावली दी। अपने पिता के राज्य और पुत्र की रक्षा के उद्देश्य से वह पिता की सहायता और हर प्रकार का मशविरा आदि लेती थी। प्रभावती गुप्ता सौ वर्षों से अधिक उम्र तक जीवित रहीं। इस अवधि में उसे अपने दो पुत्रों की मृत्यु का शोक भी सहना पड़ा।[2]
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