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| | | {{सुदामा चरित}} |
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| <poem> | | <poem> |
| सुदामाचरित (संपूर्ण)
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| '''भाग-1 प्रेरक वार्तालाप''' | | '''भाग-1 प्रेरक वार्तालाप''' |
| (मंगलाचरण) | | (मंगलाचरण) |
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पंक्ति 52: |
| कह्यौ सुदामा एक दिन, कृस्न हमारे मित्र। | | कह्यौ सुदामा एक दिन, कृस्न हमारे मित्र। |
| करत रहति उपदेस गुरु, ऐसो परम विचित्र॥5॥ | | करत रहति उपदेस गुरु, ऐसो परम विचित्र॥5॥ |
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| (सुदामा की पत्नी) | | (सुदामा की पत्नी) |
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| (सुदामा) | | (सुदामा) |
| कह्यौ सुदामा, बाम सुनु, बृथा और सब भोग। | | कह्यौ सुदामा, बाम सुनु, बृथा और सब भोग। |
| सत्य भजन भगवान को, धर्म-सहित जग जोग।।7।। | | सत्य भजन भगवान को, धर्म-सहित जग जोग।।7।। |
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| (सुदामा की पत्नी) | | (सुदामा की पत्नी) |
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| द्वारिका के गये हरि दारिद हरैंगे पियए | | द्वारिका के गये हरि दारिद हरैंगे पियए |
| द्वारिका के नाथ वै अनाथन के नाथ हैं॥8॥ | | द्वारिका के नाथ वै अनाथन के नाथ हैं॥8॥ |
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| (सुदामा) | | (सुदामा) |
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| मेरे हिये हरि के पद पंकज, बार हजार लै देखि परिच्छा। | | मेरे हिये हरि के पद पंकज, बार हजार लै देखि परिच्छा। |
| औरन को धन चाहिये बावरिए ब्राह्मन को धन केवल भिच्छा॥9॥ | | औरन को धन चाहिये बावरिए ब्राह्मन को धन केवल भिच्छा॥9॥ |
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| (सुदामा की पत्नी) | | (सुदामा की पत्नी) |
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| दीनदयाल के द्वार न जात सो, और के द्वार पै दीन ह्वै बोलै। | | दीनदयाल के द्वार न जात सो, और के द्वार पै दीन ह्वै बोलै। |
| श्री जदुनाथ के जाके हितू सो, तिहूँपन क्यों कन मॉगत डोलै।।10।। | | श्री जदुनाथ के जाके हितू सो, तिहूँपन क्यों कन मॉगत डोलै।।10।। |
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| (सुदामा) | | (सुदामा) |
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| बिप्रन के पन है जु यही, सुख सम्पति को कुछ काज नहीं। | | बिप्रन के पन है जु यही, सुख सम्पति को कुछ काज नहीं। |
| कै पढिबो कै तपोधन है, कन मॉगत बॉभनै लाज नहीं।।11।। | | कै पढिबो कै तपोधन है, कन मॉगत बॉभनै लाज नहीं।।11।। |
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| (सुदामा की पत्नी) | | (सुदामा की पत्नी) |
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| जो जनती न हितू हरि सों तुम्हेंए काहे को द्वारिका पेलि पठौती। | | जो जनती न हितू हरि सों तुम्हेंए काहे को द्वारिका पेलि पठौती। |
| या घर ते न गयौ कबहूँ पियए टूटो तवा अरु फूटी कठौती।।12।। | | या घर ते न गयौ कबहूँ पियए टूटो तवा अरु फूटी कठौती।।12।। |
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| (सुदामा) | | (सुदामा) |
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पंक्ति 101: |
| जातहि दैहैंए लदाय लढ़ा भरिए लैहैं लदाय यहै जिय जानी॥ | | जातहि दैहैंए लदाय लढ़ा भरिए लैहैं लदाय यहै जिय जानी॥ |
| पाँउ कहाँ ते अटारि अटाए जिनको विधि दीन्हि है टूटि सी छानी। | | पाँउ कहाँ ते अटारि अटाए जिनको विधि दीन्हि है टूटि सी छानी। |
| जो पै दरिद्र लिखो है ललाट तौए काहु पै मेटि न जात अयानी॥१३॥ | | जो पै दरिद्र लिखो है ललाट तौए काहु पै मेटि न जात अयानी॥13॥ |
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| (सुदामा की पत्नी) | | (सुदामा की पत्नी) |
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| ग्राह ते छूटि गयो पिय, याहिं सो है निहचै जिय मेरे। | | ग्राह ते छूटि गयो पिय, याहिं सो है निहचै जिय मेरे। |
| ऐसे दरिद्र हजार हरैं वे, कृपानिधि लोवन कोर के हेरे।।14।। | | ऐसे दरिद्र हजार हरैं वे, कृपानिधि लोवन कोर के हेरे।।14।। |
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| (सुदामा) | | (सुदामा) |
| चक्कवे चौंकि रहे चकि से, जहॉ भूले से भूप मितेक गिनाऊॅ। | | चक्कवे चौंकि रहे चकि से, जहॉ भूले से भूप मितेक गिनाऊॅ। |
| देव गंधर्व और किन्नर -जच्छ से,सॉझ लौं ठाढे रहैं जिहि ठाऊॅ।।15।। | | देव गंधर्व और किन्नर -जच्छ से,सॉझ लौं ठाढे रहैं जिहि ठाऊॅ।।15।। |
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| (सुदामा की पत्नी) | | (सुदामा की पत्नी) |
पंक्ति 132: |
पंक्ति 118: |
| अन्तरजामी ते आपुही जानिहैं, मानो यहै सिखि आजु हमारी। | | अन्तरजामी ते आपुही जानिहैं, मानो यहै सिखि आजु हमारी। |
| द्वारिका नाथ के द्वार गए, सबतें पहिले सुधि लैहें तिहारी।।16।। | | द्वारिका नाथ के द्वार गए, सबतें पहिले सुधि लैहें तिहारी।।16।। |
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| (सुदामा) | | (सुदामा) |
पंक्ति 139: |
पंक्ति 124: |
| याहि ते भावति मो मन दीनता, जो निवहै निबही जस आई। | | याहि ते भावति मो मन दीनता, जो निवहै निबही जस आई। |
| जौ ब्रजराज सौ प्रीति नहीं, केहि काज सुरेसहु की ठकुराई।।17।। | | जौ ब्रजराज सौ प्रीति नहीं, केहि काज सुरेसहु की ठकुराई।।17।। |
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| (सुदामा की पत्नी) | | (सुदामा की पत्नी) |
पंक्ति 150: |
पंक्ति 134: |
| जौ पै सब जन्म या दरिद्र ही सतायौ तोपै, | | जौ पै सब जन्म या दरिद्र ही सतायौ तोपै, |
| कौन काज आइहै, कृपानिधि की मित्रई।।18।। | | कौन काज आइहै, कृपानिधि की मित्रई।।18।। |
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| (सुदामा) | | (सुदामा) |
पंक्ति 162: |
पंक्ति 145: |
| बिपति परे पैद्वार मित्र के न जाइये।।19।। | | बिपति परे पैद्वार मित्र के न जाइये।।19।। |
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| (सुदामा की पत्नी) | | (सुदामा की पत्नी) |
| विप्र के भगत हरि जगत विदित बंधुए | | विप्र के भगत हरि जगत विदित बंधुए |
पंक्ति 171: |
पंक्ति 153: |
| तुम सम कौन दीन जाकौ जिय जानि हैं। | | तुम सम कौन दीन जाकौ जिय जानि हैं। |
| नाम लेते चौगुनीए गये तें द्वार सौगुनी सोए | | नाम लेते चौगुनीए गये तें द्वार सौगुनी सोए |
| देखत सहस्त्र गुनी प्रीति प्रभु मानिहैं॥२०॥ | | देखत सहस्त्र गुनी प्रीति प्रभु मानिहैं॥20॥ |
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पंक्ति 192: |
पंक्ति 174: |
| जौ न कहौ करिये तो बड़ौ दुखए जैये कहाँ अपनी गति हेरे॥ | | जौ न कहौ करिये तो बड़ौ दुखए जैये कहाँ अपनी गति हेरे॥ |
| द्वार खरे प्रभु के छरिया तहँए भूपति जान न पावत नेरे। | | द्वार खरे प्रभु के छरिया तहँए भूपति जान न पावत नेरे। |
| पाँच सुपारि तै देखु बिचार कैए भेंट को चारि न चाउर मेरे॥२३॥ | | पाँच सुपारि तै देखु बिचार कैए भेंट को चारि न चाउर मेरे॥23॥ |
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| यह सुनि कै तब ब्राह्मनीए गई परोसी पास। | | यह सुनि कै तब ब्राह्मनीए गई परोसी पास। |
| पाव सेर चाउर लियेए आई सहित हुलास॥२४॥ | | पाव सेर चाउर लियेए आई सहित हुलास॥24॥ |
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| सिद्धि करी गनपति सुमिरिए बाँधि दुपटिया खूँट। | | सिद्धि करी गनपति सुमिरिए बाँधि दुपटिया खूँट। |
| माँगत खात चले तहाँए मारग वाली बूट॥२५॥ | | माँगत खात चले तहाँए मारग वाली बूट॥25॥ |
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| भाग-1 समाप्त
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| ''' भाग-2 सुदामा का द्वारिका गमन '''
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| (सुदामा)
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| तीन दिवस चलि विप्र के, दूखि उठे जब पॉय।
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| एक ठौर सोए कहॅू, घास पयार बिछाय।।26।।
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| अन्तरयामी आपु हरि, जानि भगत की पीर।
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| सोवत लै ठाढौ कियो, नदी गोमती तीर।।27।।
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| इतै गोमती दरस तें, अति प्रसन्न भौ चित।
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| बिप्र तहॉ असनान करि, कीन्हो नित्त निमित्त।।28।।
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| भाल तिलक घसि कै दियो, गही सुमिरनी हाथ,
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| देखि दिव्य द्वारावती, भयो अनाथ सनाथ।।29।।
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| दीठि चकचौंधि गई देखत सुबर्नमईए
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| एक तें सरस एक द्वारिका के भौन हैं।
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| पूछे बिन कोऊ कहूँ काहू सों न करे बातए
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| देवता से बैठे सब साधि.साधि मौन हैं।
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| देखत सुदामा धाय पौरजन गहे पाँयए
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| कृपा करि कहौ विप्र कहाँ कीन्हौ गौन हैं।
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| धीरज अधीर के हरन पर पीर केए
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| बताओ बलवीर के महल यहाँ कौन हैंघ्॥३०॥
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| दीन जानि काहू पुरूस, कर गहि लीन्हों आय।
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| दीन द्वार ठाढो कियो, दीनदयाल के जाय।।31।।
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| द्वारपाल द्विज जानि कै, कीन्हीं दण्ड प्रनाम।
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| विप्र कृपा करि भाषिये, सकुल आपनो नाम।।32।।
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| नाम सुदामा, कृस्न हम, पढे. एकई साथ।
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| कुल पाँडे वृजराज सुति, सकल जानि हैं गाथ।।33।।
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| द्वारपाल चलि तहँ गयो, जहाँ कृस्न यदुराय।
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| हाथ जोडि. ठाढो भयो, बोल्यो सीस नवाय।।34।।
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| ;श्रीकृष्ण का द्वारपालद् सुदामा से)
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| सीस पगा न झगा तन में प्रभुए जानै को आहि बसै केहि ग्रामा।
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| धोति फटी.सी लटी दुपटी अरुए पाँय उपानह की नहिं सामा॥
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| द्वार खड्यो द्विज दुर्बल एकए रह्यौ चकिसौं वसुधा अभिरामा।
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| पूछत दीन दयाल को धामए बतावत आपनो नाम सुदामा।।35।।
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| बोल्यौ द्वारपाल सुदामा नाम पाँड़े सुनिए
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| छाँड़े राज.काज ऐसे जी की गति जानै कोघ्
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| द्वारिका के नाथ हाथ जोरि धाय गहे पाँयए
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| भेंटत लपटाय करि ऐसे दुख सानै कोघ्
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| नैन दोऊ जल भरि पूछत कुसल हरिए
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| बिप्र बोल्यौं विपदा में मोहि पहिचाने कोघ्
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| जैसी तुम करौ तैसी करै को कृपा के सिंधुए
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| ऐसी प्रीति दीनबंधु! दीनन सौ माने कोघ्प्प् ३६प्प्
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| लोचन पूरि रहे जल सों, प्रभु दूरिते देखत ही दुख मेट्यो।
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| सोच भयो सुुरनायक के कलपद्रुम के हित माँझ सखेट्यो।
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| कम्प कुबेर हियो सरस्यो, परसे पग जात सुमेरू ससेट्यो।
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| रंक ते राउ भयो तबहीं, जबहीं भरि अंक रमापति भेट्यो।।37।।
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| भेंटि भली विधि विप्र सों, कर गहिं त्रिभुवन राय।
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| अन्तःपुर माँ लै गए, जहाँ न दूजो जाय।।38।।
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| मनि मंडित चौकी कनक, ता ऊपर बैठाय।
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| पानी धर्यो परात में, पग धोवन को लाय।।39।।
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| राजरमनि सोरह सहस, सब सेवकन सनीति।
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| आठो पटरानी भई चितै चकित यह प्रीति।40।।
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| जिनके चरनन को सलिल, हरत गत सन्ताप।
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| पाँय सुदामा विप्र के धोवत , ते हरि आप।।41।।
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| ऐसे बेहाल बेवाइन सों पगए कंटक.जाल लगे पुनि जोये।
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| हाय! महादुख पायो सखा तुमए आये इतै न किते दिन खोये॥
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| देखि सुदामा की दीन दसाए करुना करिके करुनानिधि रोये।
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| पानी परात को हाथ छुयो नहिंए नैनन के जल सौं पग धोये॥ प्प्४२प्प्
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| धोइ चरन पट-पीत सों, पोंछत भे जदुराय।
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| सतिभामा सों यों कह्यो, करो रसोई जाय।।43।।
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| तन्दुल तिय दीन्हें हुते, आगे धरियो जाय।
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| देखि राज -सम्पति विभव, दै नहिं सकत लजाय।।44।।
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| अन्तरजामी आपु हरि, जानि भगत की रीति।
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| सुहृद सुदामा विप्र सों, प्रगट जनाई प्रीति।।45।।
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| (प्रभु श्री कृष्ण सुदामा से)
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| कछु भाभी हमको दियौए सो तुम काहे न देत।
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| चाँपि पोटरी काँख मेंए रहे कहौ केहि हेत॥प्प् ४६प्प्
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| आगे चना गुरु.मातु दिये तए लिये तुम चाबि हमें नहिं दीने।
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| श्याम कह्यौ मुसुकाय सुदामा सोंए चोरि कि बानि में हौ जू प्रवीने॥
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| पोटरि काँख में चाँपि रहे तुमए खोलत नाहिं सुधा.रस भीने।
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| पाछिलि बानि अजौं न तजी तुमए तैसइ भाभी के तंदुल कीने॥ प्प्४७प्प्
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| छोरत सकुचत गॉठरी, चितवत हरि की ओर।
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| जीरन पट फटि छुटि पर्यो, बिथिर गये तेहि ठोर।।48।।
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| एक मुठी हरि भरि लई, लीन्हीं मुख में डारि।
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| चबत चबाउ करन लगे, चतुरानन त्रिपुरारि।।४9।।
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| कांपि उठी कमला मन सोचति, मोसोंकह हरि को मन औंको।
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| ऋद्धि कॅपी, सबसिद्धि कॅपी, नव निद्धि कॅपी बम्हना यह धौं को।।
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| सोच भयो सुर-नायक के, जब दूसरि बार लिया भरि झोंको।
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| मेरू डर्यो बकसै जनि मोहिं, कुबेर चबावत चाउर चौंको।।50।।
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| हूल हियरा मैं सब काननि परी है टेर,
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| भेंटत सुदामै स्याम चाबि न अघातहीं।
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| कहै नरात्तम रिद्धि सिद्धिन में सोर भयो,
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| डाढी थरहरक और सोचें कमला तहीं।
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| नाकलोक नागलोक ओक ओक थोकथोक,
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| ठाढे थारहरै मुचा सूखे सब गात ही।
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| हाल्यो पर्यो थोकन में लाल्यो पर्यो,
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| चाल्यो पर्यो चौकन में, चाउर चबात ही।।51।।
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| भौन भरो पकवान मिठाइन, लोग कहैं निधि हैं सुखमा के।
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| सँाझ सबेरे पिता अभिलाखत , दाख न चाखत सिंधु छमा के।
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| बँाभन एक कोऊ दुखिया सेर-पावैक चाउर लायो समाँ के।
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| प््रीति की रीति कहा कहिये, तेहि बैठि चबात हैं कन्त रमा के।।52।।
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| मूठी तीसरी भरत ही, रूकुमनि पकरी बाँह।
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| ऐसी तुम्हैं कहा भई, सम्पति की अनचाह।।53।।
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| कह्यो रूकुमिनी कान मैं , यह धौ कौन मिलाप।
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| कहत सुदामहिं आपसों, होत सुदामा आप।।54।।
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| यहि कौतुक के समय में , कही सेवकनि आय।
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| भई रसोई सिद्ध प्रभु, भोजन करिये आय।।55।।
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| थ्वप्र सुदामहिं न्हृाय कर, धोती पहरि बनाय।
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| सन्ध्या करि मध्यान्ह की, चौका बैठे जाय।।56।।
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| रूपे के रूचिर धार पायस सहित सिता,
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| सोभा सब जीती जिन सरद के चन्द की।
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| दूसरे परोसा भात सोधों सुरभी को घृत,
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| फूले फूले फुलका प्रफुल्ल दुति मन्द की।
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| पपर-मुंगौरी - बरी व्यंजन अनेक भँाति,
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| देवता बिलोकि छवि देवकी के नन्द की।
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| या विधि सुदामा जू को आछे कैं जँवाएँ प्रभु,
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| पाछै केै पछ्यावरि परोसी आनि कन्द की।।57।।
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| दाहिने वबद पढैं चतुरानन, सामुहें ध्यान महेस धर्यो है।
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| बाएँ दोऊ कर जोरि सुसेवक, देवन साथ सुरेश खर्यो है।
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| एतेई बीच अनेक लिये धन, पायन आय कुबेर पर्यो है।
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| छेखि विभौ अपनो सपनो, बपुरो वह बाभन चौंकि पर्यो है।।58।।
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| सात दिवस यहि विधि रहे, दिन आदर भाव।
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| चित्त चल्यौ घर चलन कौं, ताकर सुनौं बनाव।।59।।
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| देनो हुतौ सो दै चुकेए बिप्र न जानी गाथ।
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| चलती बेर गोपाल जूए कछू न दीन्हौं हाथ॥प्प् ६०प्प्
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| वह पुलकनि वह उठ मिलनिए वह आदर की भाँति।
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| यह पठवनि गोपाल कीए कछू ना जानी जाति॥प्प्६१प्प्
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| घर.घर कर ओड़त फिरेए तनक दही के काज।
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| कहा भयौ जो अब भयौए हरि को राज.समाज॥प्प्६२प्प्
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| हौं कब इत आवत हुतौए वाही पठ्यौ ठेलि।
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| कहिहौं धनि सौं जाइकैए अब धन धरौ सकेलि॥प्प्६३प्प्
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| बालापन के मित्र हैं, कहा देउँ मैं सराप।
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| जैसी हरि हमको दियौ, तैसों पइहैं आप।।64।।
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| नौगुन धारी छगुन सों, तिगुने मध्ये में आप।
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| लायो चापल चौगुनी, आठौं गुननि गँवाय।।65।।
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| और कहा कहिए दसा, कंचन ही के धाम।
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| निपट कठिन हरि को हियों, मोको दियो न दाम।।66।।
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| बहु भंडार रतनन भरे, कौन करे अब रोष।
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| लाग आपने भाग को, काको दीजै दोस।।67।।
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| इमि सोचत सोचत झींखत , आयो निज पुर तीर।
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| दीठि परी इक बार ही, अय गयन्द की भीर।।68।।
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| हरि दरसन से दूरि दुख भयो, गये निज देस।
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| गैतम ऋषि को नाउॅ लै, कीन्होे नगर प्रवेस।।69।।
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| भाग-2 समाप्त
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| '''भाग-3 पुनः ग्रह आगमन'''
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| (सुदामा ) -
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| वैसेइ राज.समाज बनेए गज.बाजि घनेए मन संभ्रम छायौ।
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| वैसेइ कंचन के सब धाम हैंए द्वारिके के महिलों फिरि आयौ।
| |
| भौन बिलोकिबे को मन लोचत सोचत ही सब गाँव मँझायौ।
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| पूछत पाँड़े फिरैं सबसों पर झोपरी को कहूँ खोज न पायौ॥प्प्७०प्प्
| |
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| देवनगर कै जच्छपुर, हौं भटक्यो कित आय।
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| नाम कहा यहि नगर को, सौ न कहौ समुझाय।।
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| सेा न कहौ समुझाय, नगरवासी तुम कैसे।
| |
| पथिक जहॉ झंखहि तहॉ के लोग अनैसे।
| |
| लोग अनैसे नाहिं, लखौ द्विजदेव नगर कै।
| |
| कृपा करी हरि देव, दियौ है देवनगर कै।।71।।
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| |
| सुन्दर महल मनि-मानिक जटित अति,
| |
| सुबरन सूरज प्रकास मानां दे रह्यो।
| |
| देखत सुदामा को नगर के लोग धाए,
| |
| भरै अकुलाय जोई सोई पगै छूवै रह्यो।
| |
| बॉभनीं कै भूसन विविध बिधि देखि कह्यो,
| |
| जहों हौं निकासो सो तमासो जग ज्वै रह्यो।
| |
| ऐसी उसा फिरी जब द्वारिका दरस पायो,
| |
| द्वारिका के सरिस सुदामापुर ह्वै रह्यो।।72।।
| |
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| कनक.दंड कर में लियेए द्वारपाल हैं द्वार।
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| जाय दिखायौ सबनि लैंए या है महल तुम्हार॥प्प्७३प्प्
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| कह्यो सुदामा हॅसत हौ, ह्वै करि परम प्रवीन।
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| कुटी दिखावहु मोहिं वह , जहॉ बॉभनी दीन।।74।।
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| द्वारपाल सों तिन कही, कही पठवहु यह गाथ।
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| आये बिप्र महाबली, देखहु होहु सनाथ।।75।।
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| सुनत चली आनत्द युत, सब सखियन लै संग।
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| किंकिनी नूपुर दुन्दुभि, मनहु काम चतुरंग।।76।।
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| (सुदामा की पत्नी) -
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| कही बॉभनी आइ कै, यहै कन्त निज गेह।
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| श्री जदुपति तिहुॅ लोक में, कीन्ह प्रगट निजु नेह।।77।।
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| (सुदामा ) -
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| हमैं कन्त तुम जति कहो, बोलौ बचन सॅभारि।
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| इन्हैं कुटी मेरी हुती, दीन बापुरी नारि।।78।।
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| (सुदामा की पत्नी) -
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| मैं तो नारि तिहारियै, सुधि सॅभारिये कन्त।
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| प्रभुता सुन्दरता सबै, दई रूक्मिणी कन्त।।79।।
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| (सुदामा ) -
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| टूटी सी मड़ैया मेरी परी हुती याही ठौरए
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| तामैं परो दुख काटौं कहाँ हेम.धाम री।
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| जेवर.जराऊ तुम साजे प्रति अंग.अंगए
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| सखी सोहै संग वह छूछी हुती छाम री।
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| तुम तो पटंबर री ओढ़े किनारीदारए
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| सारी जरतारी वह ओढ़े कारी कामरी।
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| मेरी वा पंडाइन तिहारी अनुहार ही पैए
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| विपदा सताई वह पाई कहाँ पामरीघ्प्प्८०प्प्
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| ठाडी पंडिताइन कहत मंजु भावन सों,
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| प्यारे परौं पाइन तिहारोई यह घरू है।
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| आये चलि हरौं श्रम कीन्हों तुम भूरि दुःख,
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| दारिद गमायो यों हॅसत गह्यो करू है।
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| रिद्धि सिद्धि दासी करि दीन्हीं अविनासी कृस्न,
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| पूरन प्रकासी , कामधेनु कोटि बरू है।
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| चलो पति भूलो मति दीन्हों सुख जदुपति,
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| सम्पति सो लीजिये समेत सुरूतरू है।।81।।
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| समझायो पुनि कन्त को, मुदित गई लै गेह।
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| अन्हवायो तुरतहिं उबटि, सुचि सुगन्ध मलि देह।।82।।
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| पूज्यो अधिक सनेह सों, सिंहासन बैठाय।
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| सुचि सुगन्ध अम्बर रचे, बर भूसन पहिराय।।83।।
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| सीतल जल अॅचवाइ कै, पानदान धरि पान।
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| धर्यो आय आगे तुरत, छवि रवि प्रभा समान।।84।।
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| झरहिं चौंर चहुॅ ओर तें, रम्भादिक सब नारि।
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| प्तिव्रता अति प्रेम सों, ठाढी करै बयारि।।85।।
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| स्वेत छत्र की छॉह, राज मैं शक्र समान।
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| बहन गज रथ तुरंग वर, अरू अनेक सुभ यान।।86।।
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| भाग-3 समाप्त
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| '''भाग-4 कृष्ण महिमा गान'''
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| (सुदामा ) -
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| कामधेनु सुरतरू सहित, दीन्हीं सब बलवीर।
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| जानि पीर गुरू बन्धु जन, हरि हरि लीन्हीं पीर।।87।।
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| विविध भॉति सेवा करी,.सुधा पियायो बाम।
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| अति विनीत मृदु वचन कहि, सब पुरो मन काम।।88।।
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| लै आयसु, प्रिय स्नान करि, सुचि सुगन्ध सब लाइ।
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| पूजी गौरि सोहाग हित, प्रीति सहित सुख पाइ।।89।।
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| षट्रस विविध प्रकार के, भोजन रचे बनाय।
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| कंचन थार मंगाइ कै, रचि रचि धरे बनाय।।90।।
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| कंचन चौकी डारि कै, दासी परम सुजानि।
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| रतन जटित भाजन कनक , भरि गंगोदक आनि।।91।।
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| घट कंचन को रतनयुत, सुचि सुगन्धि जल पूरि।
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| रच्छाधान समेत कै, जल प्रकास भरपूरि।।92।।
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| रतन जटित पीढा कनक, आन्यो जेंवन काम।
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| मरकत-मनि चौकी धरी, कछुक दूरि छबि धाम।।93।।
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| चौकी लई मॅगाय कै, पग धोवन के काज।
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| मनि-पादुका पवित्र अति, धरी विविध विधि साज।।94।।
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| चलि भोजन अब कीजिये, कह्यो दास मृदु भाखि।
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| कृस्न कृस्न सानन्द कहि, धन्य भरी हरि साखि।।95।।
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| बसन उतारे जाइ कै, धोवत चरन-सरोज।
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| चौकी पै छबि देत यौं, जनु तनु धरे मनोज।।96।।
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| पहिरि पादुका बिप्र बर, पीढा बैठे जाय।
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| रति ते अति छवि- आगरी, पति सो हँसि मुसकाय।।97।।
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| बिबिध भाँति भोजन धरे, व्यंजन चारि प्रकार।
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| जोरी पछिओरी सकल, प्रथम कहे नहिं पार।।98।।
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| हरिहिं समर्पो कन्त अब, कहो मन्द हँसि वाम।
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| करि घंटा को नाद त्यों, हरि सपर्पि लै नाम।।99।।
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| अगिनि जेंवाय विधान सों, वैस्यदेव करि नेम।
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| बली काढि जेंवन लगे, करत पवन तिय प्रेम।।100।।
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| बार बार पूछति प्रिया, लीजै जो रूचि होइ।
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| कृस्न- कृपा पूरन सबै, अबै परोसौं सोइ।।101।।
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| जेंइ चुके, अँचवन लगे, करन हेतु विश्राम।
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| रतन जटित पलका-कनक, बुनो सो रेशम दाम।।102।।
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| ललित बिछौना, बिरचि कै, पाँयत कसि कै डोरि।
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| राखे बसन सुसेवकनि, रूचिर अतर सों बोरि।।103।।
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| पानदान नेरे धर्यो भरि, बीरा छवि-धाम।
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| चरन धोय पौढन लगे, करन हेतु विश्राम।।104।।
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| कोउ चँवर कोउ बीजना, कोउ सेवत पद चारू।
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| अति विचित्र भूषन सजे, गज मोतिन के हारू।।105।।
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| करि सिंगार पिय पै गई, पान खाति मुसुकाति।
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| कहौ कथा सब आदि तें, किमि दीन्हों सौगाति।।106।।
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| कही कथा सब आदि ते, राह चले की पीर।
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| सेवत जिमि ठाढो कियो, नदी गोमती तीर।।107।।
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| गये द्वार जिहि भाँति सों, सो सब करी बखानि।
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| कहि न जाय मुख लाल सों, कृस्न मिले जिमि आनि।।108।।
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| करि गहि भीतर लै गए, जहाँ सकल रनिवास।
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| पग धोवन को आपुही, बैठे रमानिवास।।109।।
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| देखि चरन मेरे चल्यो, प्रभु नयनन तें बारि।
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| ताही सों धोये चरन, देखि चकित नर-नारि।।110।।
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| बहुरि कही श्री कृस्न जिमि, तन्दुल लीन्हें आप।
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| भेंटे हृदय लगाय कै, मेटे भ्रम सन्ताप।।111।।
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| बहुरि कही जेवनार सब, जिमि कीन्हीं बहु भाँति।
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| बरनि कहाँ लगि को कहै, सब व्यंजन की पाँति।।112।।
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| जादिन अधिक सनेह सों, सपन दिखायो मोहिं।
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| सेा देख्यो परतच्छ ही,सपन न निसफल होहिं।।113।।
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| बरनि कथा वहि विधि सबै, कह्ययो आपनो मोह।
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| वृथा कृपानिधि भगत-हितु-चिदानन्द सन्दोह।।114।।
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| साजे सब साज-,बाजि गज राजत हैं,
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| विविध रूचिर रथ पालकी बहल है।
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| रतनजटित सुभ सिंहासन बैठिबे को,
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| चौक कामधेनु कल्पतरूहू लहलहैं।
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| देखि देखि भूषण वसन-दासि दासन के,
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| सुख पाकसासन के लागत सहल है।
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| सम्पति सुदामा जू को कहाँ लौं दई है प्रभु,
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| कहाँ लौं गिनाऊँ जहाँ कंचन महल है।।115।।
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| अगनित गज वाजि रथ पालकी समाज,
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| ब्रजराज महाराज राजन-समाज के।
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| बानिक विविध बने मंदिर कनक सोहैं,
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| मानिक जरे से मन मोहें देवतान के।
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| हिरा लाल ललित झरोखन में झलकत,
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| किमि किमि झूमर झुलत मुकतान के।
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| जानी नहिं विपति सुदामा जू की कहाँ गई,
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| देखिये विधान जदुराय के सुदान के।।116।।
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| कहूँ सपनेहूँ सुबरन के महल होते,
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| पौरि मनि मण्डित कलस कब धरते।
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| रतन जटित सिंहासन पर बैठिबे को,
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| कब ये खबास खरे मौपे चौंर ढरते।
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| देखि राजसामा निज बामा सों सुदामा कह्यो,
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| कब ये भण्डार मेरे रतनन भरते।
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| जो पै पतिवरता न देती उपदेश तू तो,
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| एती कृपा द्वारिकेस मो पैं कब करते।।117।।
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| पहरि उठे अम्बर रूचिर सिंहासन पर आय।
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| बैठे प्रभुता निरखि कै, सुर-पति रह्यो लजाई।।118।।
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| कै वह टूटि.सि छानि हती कहाँए कंचन के सब धाम सुहावत।
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| कै पग में पनही न हती कहँए लै गजराजहु ठाढ़े महावत॥
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| भूमि कठोर पै रात कटै कहाँए कोमल सेज पै नींद न आवत।
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| कैं जुरतो नहिं कोदो सवाँ प्रभुए के परताप तै दाख न भावत॥।119।।
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| धन्य धन्य जदुवंश - मनि, दीनन पै अनुकूल।
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| धन्य सुदामा सहित तिय, कहि बरसहिं सुर फूल।।120।।
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| समाप्त
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