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10:56, 23 दिसम्बर 2012 का अवतरण

यशपाल का पहला उपन्यास 'दादा कामरेड' है। इस उपन्यास में यशपाल ने क्रान्तिकारी जीवन का चित्रण करते हुए मज़दूरों के संगठन को राष्ट्रोद्धार का अधिक संगत उपाय बतलाया है। यह उपन्यास लेखक की पहली रचना थी जिसने हिन्दी में रोमान्स और राजनीति के मिश्रण का आरम्भ किया। यह उपन्यास बंगला उपन्यास सम्राट शरत बाबू के प्रमुख राजनैतिक उपन्यास ‘पथेरदावी’ के द्वारा क्रान्तिकारियों के जीवन और आदर्श के सम्बन्ध में उत्पन्न हुई भ्रामक धारणाओं का निराकरण करने के लिए लिखा गया था परन्तु इतना ही नहीं यह 'श्री जैनेन्द्र' की आदर्श नारी पुरुष की खिलौना ‘सुनीता’ का भी उत्तर है।

आधुनिक सोच

संसार में आज अनेक वादों-पूँजीवाद, नाजीवाद, गाँधीवाद, समाजवाद का संघर्ष चल रहा है। इस विचार संघर्ष की नींव में परिस्थितियों, व्यवस्था और धारणाओं में सामंजस्य बैठाने का प्रयत्न है। इन वादों के संघर्षों से उत्पन्न समन्वय ही मनुष्य की नयी सभ्यता का आधार होगा। मनुष्य होने के नाते हम इस संघर्ष की उपेक्षा नहीं कर सकते। इस संघर्ष के परिणाम के सम्बन्ध में हमारी चिन्ता की भावना नहीं, स्वयं अपने और समाज के जीवन की चिन्ता है। हमें यह सोचना ही पड़ेगा कि मनुष्य-समाज की आयु बढ़ने के परिणामस्वरूप जब समाज के बचपन के युग की झँगुलिया उसके बदन को दबाने लगे तब उसके लिये नये विचारों का विस्तृत कपड़ा बना लेना बेहतर होगा या शरीर को दबाकर पुरानी सीमाओं में ही रखना है ?’’ ’दादा कामरेड’ में इसी प्रश्न पर विचार करने का अनुरोध किया गया है।

अनुवाद

यशपाल के इस उपन्यास से चिढ़कर रूढ़िवाद के अन्ध अनुयायियों ने लेखक को कत्ल की धमकी दी थी परन्तु देश की प्रगतिशील जनता की रुचि के कारण 'दादा कॉमरेड' के न केवल हिन्दी के कई संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं बल्कि गुजराती, मराठी, सिन्धी और मलयालम में भी यह उपन्यास अनुवादित हो चुका है।

यशपाल के शब्दों में

‘दादा कामरेड’ उपन्यास के रूप में प्रस्तुत है। उपन्यास का रूप होने से यह रचना भी साहित्य के क्षेत्र में आ जाती है। इससे पूर्व ‘पिंजड़े की उड़ान’ और ‘न्याय का संघर्ष’ पेश कर साहित्य के किसी कोने में स्थान पाने की आशा की थी। आशा से बहुत अधिक सफलता मिली, उसके लिए पाठकों को धन्यवाद।

मेरी पुस्तक ‘मार्क्सवाद’ विप्लवी-ट्रैक्ट के रूप में अपनाये हुए कार्य का अंग था, परन्तु ‘दादा कामरेड’ में उस ‘कार्य से कुछ अधिक भी है। वह है, अपनी रचना की प्रवृत्ति को अवसर देने की इच्छा या कला के मार्ग पर प्रयत्न।

कला की भावना से जो प्रयत्न मैंने ‘पिजड़े की उड़ान’ के रूप में किया था, उसकी कद्र उत्साहवर्धक जरूर हुई, परन्तु साहित्य और कला के प्रेमियों को मेरे प्रति एक शिकायत है कि कला को गौण और प्रचार को प्रमुख स्थान देता हूँ। मेरे प्रति दिये गये इस फैसले के विरुद्ध मुझे अपील नहीं करनी है। संतोष है, अपना अभिप्राय स्पष्ट कर पाता हूँ।- यशपाल[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दादा कामरेड (हिंदी)। । अभिगमन तिथि: 23 दिसम्बर, 2012।

बाहरी कड़ियाँ

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