"मनुष्य के रूप (उपन्यास)": अवतरणों में अंतर

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‘‘लेखक को कला की महानता इसमें है कि उसने उपन्यास में यथार्थ से ही सन्तोष किया है। अर्थ और काम की प्रेरणाओं की विगर्हणा उसने स्पष्ट कर दी है। अर्थ की समस्या जिस प्रकार वर्ग और श्रेणी के स्वरूप को लेकर खड़ी हुई है, उसमें उपन्यासकार ने अपने पक्ष का कोई कल्पित उपलब्ध स्वरूप एक स्वर्ग, प्रस्तुत नहीं किया,... अर्थ सिद्धांत की किसी यथार्थ स्थिति की कल्पना इसमें नहीं।
‘‘लेखक को कला की महानता इसमें है कि उसने उपन्यास में यथार्थ से ही सन्तोष किया है। अर्थ और काम की प्रेरणाओं की विगर्हणा उसने स्पष्ट कर दी है। अर्थ की समस्या जिस प्रकार वर्ग और श्रेणी के स्वरूप को लेकर खड़ी हुई है, उसमें उपन्यासकार ने अपने पक्ष का कोई कल्पित उपलब्ध स्वरूप एक स्वर्ग, प्रस्तुत नहीं किया,... अर्थ सिद्धांत की किसी यथार्थ स्थिति की कल्पना इसमें नहीं।
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मनुष्य के रूप (उपन्यास)
'मनुष्य के रूप' आवरण पृष्ठ
'मनुष्य के रूप' आवरण पृष्ठ
लेखक यशपाल
मूल शीर्षक मनुष्य के रूप
प्रकाशक लोकभारती प्रकाशन
प्रकाशन तिथि 1 जनवरी, 1996
देश भारत
पृष्ठ: 240
भाषा हिंदी
विधा उपन्यास
मुखपृष्ठ रचना सजिल्द

यशपाल के लिखे उपन्यासों में 'दिव्या' और 'मनुष्य के रूप' अमर कृतियाँ मानी जाती हैं। ‘‘लेखक को कला की महानता इसमें है कि उसने उपन्यास में यथार्थ से ही सन्तोष किया है। अर्थ और काम की प्रेरणाओं की विगर्हणा उसने स्पष्ट कर दी है। अर्थ की समस्या जिस प्रकार वर्ग और श्रेणी के स्वरूप को लेकर खड़ी हुई है, उसमें उपन्यासकार ने अपने पक्ष का कोई कल्पित उपलब्ध स्वरूप एक स्वर्ग, प्रस्तुत नहीं किया,... अर्थ सिद्धांत की किसी यथार्थ स्थिति की कल्पना इसमें नहीं।

समस्त उपन्यास का वातावरण बौद्धिक है। अतः आदि से अन्त तक यह यथार्थवादी है।... मनुष्यों की यथार्थ मनोवृति का चित्रांकन करने की लेखक ने सजग चेष्ठा की है।... यह उपन्यास लेखक के इस विश्वास को सिद्ध करता है कि परिस्थितियों से विवश होकर मनुष्य के रूप बदल जाते है ।

‘मनुष्य के रूप’ में मनुष्य की हीनता और महानता के यथार्थ के चित्रण का एक विशद् प्रयत्न किया गया है।’’[1] - डॉ. सत्येन्द्र


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मनुष्य के रूप (हिंदी)। । अभिगमन तिथि: 23 दिसम्बर, 2012।

बाहरी कड़ियाँ

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