"मेवाड़ की जातिगत सामाजिक व्यवस्था": अवतरणों में अंतर
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18वीं शाताब्दी के पूर्वार्द्ध से ब्रिटिश संरक्षण की स्थापना तक अन्तरराज्यीय युद्धों, उत्तराधिकार का संघर्ष महाराणा और उसके सामन्तों के पारस्परिक संघर्षों तथा [[मराठा]] व [[पिण्डारी|पिण्डारियों]] की लूटमार के परिणामस्वरूप राज्य की आर्थिक स्थिति अस्त-व्यस्त हो गयी और अब परम्परागत जातीय व्यवस्थाओं का पालन करने की पहले जैसी मर्यादा नहीं रही। 'आंग्ल-मेवाड़ संधि' (1818 ई.) के बाद राज्य पर ब्रिटिश नियंत्रण स्थापित हो गया। सामन्तों की चाकरी को नकद रकम की अदायगी में परिवर्तित कर दिया गया, जिसके फलस्वरूप सामन्तों की सेनाओं का विघटन, आधुनिक शिक्षा का प्रसार, प्रशासनिक संस्थाओं का अंग्रेज़ीकरण, भूमि-बन्दोबस्त, यातायात के नये साधन आदि ने लोगों को अपने जीवन-यापन हेतु अपने परम्परागत जातिगत व्यवसाय के अतिरिक्त कुछ अन्य व्यवसायों को अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया। | 18वीं शाताब्दी के पूर्वार्द्ध से ब्रिटिश संरक्षण की स्थापना तक अन्तरराज्यीय युद्धों, उत्तराधिकार का संघर्ष महाराणा और उसके सामन्तों के पारस्परिक संघर्षों तथा [[मराठा]] व [[पिण्डारी|पिण्डारियों]] की लूटमार के परिणामस्वरूप राज्य की आर्थिक स्थिति अस्त-व्यस्त हो गयी और अब परम्परागत जातीय व्यवस्थाओं का पालन करने की पहले जैसी मर्यादा नहीं रही। 'आंग्ल-मेवाड़ संधि' (1818 ई.) के बाद राज्य पर ब्रिटिश नियंत्रण स्थापित हो गया। सामन्तों की चाकरी को नकद रकम की अदायगी में परिवर्तित कर दिया गया, जिसके फलस्वरूप सामन्तों की सेनाओं का विघटन, आधुनिक शिक्षा का प्रसार, प्रशासनिक संस्थाओं का अंग्रेज़ीकरण, भूमि-बन्दोबस्त, यातायात के नये साधन आदि ने लोगों को अपने जीवन-यापन हेतु अपने परम्परागत जातिगत व्यवसाय के अतिरिक्त कुछ अन्य व्यवसायों को अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया। | ||
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==धार्मिक आधार पर जातीय वर्गीकरण== | ==धार्मिक आधार पर जातीय वर्गीकरण== | ||
जब मेवाड़ की आलोच्यकालीन सामाजिक संरचना के स्वरूप का विश्लेषण करते हैं तो पाते हैं कि सामाजिक रचना में वर्ण-व्यवस्था केवल भावात्मक रूप में विद्यमान रह गई थी। जाति और [[धर्म]] ही इस काल के वर्ग तथा व्यवसाय को प्रभावित किये हुए थे। 18वीं शताब्दी तक का मेवाड़ी समाज धर्म के आधार पर दो भागों [[हिन्दू]] तथा [[मुस्लिम]] में वर्गीकृत था। हिन्दू समुदाय में वैदिक, जैन तथा आत्मवादी माने जा सकते हैं, वही मुस्लिम समुदाय में 'शिया' तथा 'सुन्नी' दो उपभाग विद्यमान थे। पुन: धार्मिक विभेदों के अनुसार वैदिक [[शैव संप्रदाय|शैव]], [[शाक्त सम्प्रदाय|शाक्त]] तथा [[वैष्णव संप्रदाय|वैष्णव]] में तथा जैन 'श्वेताम्बर' व 'दिगम्बर' में उप विभाजित थे। आत्मवादी शुद्ध प्रकृति उपासक और वैदिक प्रभावालिप्त ईश्वरवादी के मतमतांतरों मे विभाजित थे। शैवों में सन्यासी, नाथ, गोसाई, आचार्य आदि रूपों में कई प्रकार के भेद व्याप्त रहे। वैष्णवों में रामावत नीमावत, माधवाचार्य तथा विष्णुस्वामी नामक चार सम्प्रदाय थे और फिर रामस्नेही, [[दादूपंथ|दादूपंथी]], [[कबीरपंथ|कबीरपंथी]], नारायणपंथी आदि अनेक शाखाओं में फैले हुए थे, जिनके आचारों-विचारों में उपासना की दृष्टि से काफ़ी अन्तर था। | जब मेवाड़ की आलोच्यकालीन सामाजिक संरचना के स्वरूप का विश्लेषण करते हैं तो पाते हैं कि सामाजिक रचना में वर्ण-व्यवस्था केवल भावात्मक रूप में विद्यमान रह गई थी। जाति और [[धर्म]] ही इस काल के वर्ग तथा व्यवसाय को प्रभावित किये हुए थे। 18वीं शताब्दी तक का मेवाड़ी समाज धर्म के आधार पर दो भागों [[हिन्दू]] तथा [[मुस्लिम]] में वर्गीकृत था। हिन्दू समुदाय में वैदिक, जैन तथा आत्मवादी माने जा सकते हैं, वही मुस्लिम समुदाय में 'शिया' तथा 'सुन्नी' दो उपभाग विद्यमान थे। पुन: धार्मिक विभेदों के अनुसार वैदिक [[शैव संप्रदाय|शैव]], [[शाक्त सम्प्रदाय|शाक्त]] तथा [[वैष्णव संप्रदाय|वैष्णव]] में तथा जैन 'श्वेताम्बर' व 'दिगम्बर' में उप विभाजित थे। आत्मवादी शुद्ध प्रकृति उपासक और वैदिक प्रभावालिप्त ईश्वरवादी के मतमतांतरों मे विभाजित थे। शैवों में सन्यासी, नाथ, गोसाई, आचार्य आदि रूपों में कई प्रकार के भेद व्याप्त रहे। वैष्णवों में रामावत नीमावत, माधवाचार्य तथा विष्णुस्वामी नामक चार सम्प्रदाय थे और फिर रामस्नेही, [[दादूपंथ|दादूपंथी]], [[कबीरपंथ|कबीरपंथी]], नारायणपंथी आदि अनेक शाखाओं में फैले हुए थे, जिनके आचारों-विचारों में उपासना की दृष्टि से काफ़ी अन्तर था। | ||
उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में मेवाड़ी समाज में [[ईसाई|ईसाइयों]] का प्रवेश भी हो चुका था। यह समुदाय स्थान भेद के अनुसार शुद्ध ईसाई तथा एंग्लो-इण्डियन की श्रेणियों में वर्गीकृत था। राणा सज्जन सिंह (1874-1884 ई.) के शासन-काल में हिन्दू समुदाय के अंत्तर्गत [[सिक्ख]] समाज के मतावलम्बी भी सम्मिलित होने लगे थे। इन सभी धार्मिक समुदायों का जन संख्यात्मक प्रतिशत उन्नीसवीं शती के अन्त तक निम्न प्रकार रहा था- | उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में मेवाड़ी समाज में [[ईसाई|ईसाइयों]] का प्रवेश भी हो चुका था। यह समुदाय स्थान भेद के अनुसार शुद्ध ईसाई तथा एंग्लो-इण्डियन की श्रेणियों में वर्गीकृत था। राणा सज्जन सिंह (1874-1884 ई.) के शासन-काल में हिन्दू समुदाय के अंत्तर्गत [[सिक्ख]] समाज के मतावलम्बी भी सम्मिलित होने लगे थे। इन सभी धार्मिक समुदायों का जन संख्यात्मक प्रतिशत उन्नीसवीं शती के अन्त तक निम्न प्रकार रहा था- | ||
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14:03, 26 फ़रवरी 2013 का अवतरण
मेवाड़ की जातिगत सामाजिक व्यवस्था परम्परागत रूप से ऊँच-नीच, पद-प्रतिष्ठा तथा वंशोत्पन्न जातियों के आधार पर संगठित थी। सामाजिक संगठन में प्रत्येक जाति का महत्व उस जाति की वंशोत्पत्ति तथा उसके द्वारा अंगीकृत व्यवसाय पर निर्भर थी। जाति-व्यवस्था को स्थायित्व प्रदान करने तथा उसके अस्तित्व को अक्षुण बनाये रखने में जाति पंचायतों की भूमिका महत्वपूर्ण थी। जातिगत पंचायतें अपनी जातियों को व्यवस्थित रूप से संचालित करते हुए खान-पान, शादी-विवाह एवं रीति-रिवाजों से सम्बन्धित समय-समय पर नियम बनाती थीं और अपनी जाति के लोगों से जातीय विभागों एवं मर्यादाओं का पालन करवाती थीं। इस कार्य में जाति-पंचायतों को राजकीय संरक्षण भी प्राप्त था।
समाज विभाजन
सामान्यत: राज्य जाति पंचायतों के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करता था। वस्तुत: मेवाड़ के महाराणाओं ने भी परम्परागत सामाजिक ढाँचे को बनाये रखनें में काफ़ी योगदान दिया था। जाति पंचायतों के नियमों को भंग करने वाले व्यक्तियों को दण्ड देने की व्यवस्था थी। सबसे कड़ा दण्ड जाति से बहिष्कृत करना था। समाज परम्परागत रूप से चार भागों में विभक्त था-
जैन अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखते हुए भी स्वंय को हिन्दू समाज के वैश्य वर्ग का ही मानते थे। ब्राह्मण, राजपूत, महाजन आदि जातियों को राज्य द्वारा जो परम्परागत सुविधाएँ प्राप्त थीं, शासक का कर्तव्य था कि वह उन्हें शाश्वत रूप से प्रचलित रखे। इस प्रकार 18वीं शताब्दी तक मेवाड़ में जाति प्रथा पर आधारित परम्परागत सामाजिक ढाँचे का अस्तित्व बना रहा।
ब्रिटिश संरक्षण की स्थापना
18वीं शाताब्दी के पूर्वार्द्ध से ब्रिटिश संरक्षण की स्थापना तक अन्तरराज्यीय युद्धों, उत्तराधिकार का संघर्ष महाराणा और उसके सामन्तों के पारस्परिक संघर्षों तथा मराठा व पिण्डारियों की लूटमार के परिणामस्वरूप राज्य की आर्थिक स्थिति अस्त-व्यस्त हो गयी और अब परम्परागत जातीय व्यवस्थाओं का पालन करने की पहले जैसी मर्यादा नहीं रही। 'आंग्ल-मेवाड़ संधि' (1818 ई.) के बाद राज्य पर ब्रिटिश नियंत्रण स्थापित हो गया। सामन्तों की चाकरी को नकद रकम की अदायगी में परिवर्तित कर दिया गया, जिसके फलस्वरूप सामन्तों की सेनाओं का विघटन, आधुनिक शिक्षा का प्रसार, प्रशासनिक संस्थाओं का अंग्रेज़ीकरण, भूमि-बन्दोबस्त, यातायात के नये साधन आदि ने लोगों को अपने जीवन-यापन हेतु अपने परम्परागत जातिगत व्यवसाय के अतिरिक्त कुछ अन्य व्यवसायों को अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया।
समुदाय | मतावलम्ब | प्रतिशत |
---|---|---|
हिन्दु | शैव, शाक्त व वैष्णव | 73.48% |
आत्मवादी (आदिवासी) | 13.34% | |
जैन | 9.25% | |
सिक्ख | 0.01% | |
आर्य | 0.01 | |
मुस्लिम | सुन्नी | 3.05% |
शिया | .40% | |
ईसाई | कैथोलिक तथा प्रोटोस्टण्ट | 0.02 |
धार्मिक आधार पर जातीय वर्गीकरण
जब मेवाड़ की आलोच्यकालीन सामाजिक संरचना के स्वरूप का विश्लेषण करते हैं तो पाते हैं कि सामाजिक रचना में वर्ण-व्यवस्था केवल भावात्मक रूप में विद्यमान रह गई थी। जाति और धर्म ही इस काल के वर्ग तथा व्यवसाय को प्रभावित किये हुए थे। 18वीं शताब्दी तक का मेवाड़ी समाज धर्म के आधार पर दो भागों हिन्दू तथा मुस्लिम में वर्गीकृत था। हिन्दू समुदाय में वैदिक, जैन तथा आत्मवादी माने जा सकते हैं, वही मुस्लिम समुदाय में 'शिया' तथा 'सुन्नी' दो उपभाग विद्यमान थे। पुन: धार्मिक विभेदों के अनुसार वैदिक शैव, शाक्त तथा वैष्णव में तथा जैन 'श्वेताम्बर' व 'दिगम्बर' में उप विभाजित थे। आत्मवादी शुद्ध प्रकृति उपासक और वैदिक प्रभावालिप्त ईश्वरवादी के मतमतांतरों मे विभाजित थे। शैवों में सन्यासी, नाथ, गोसाई, आचार्य आदि रूपों में कई प्रकार के भेद व्याप्त रहे। वैष्णवों में रामावत नीमावत, माधवाचार्य तथा विष्णुस्वामी नामक चार सम्प्रदाय थे और फिर रामस्नेही, दादूपंथी, कबीरपंथी, नारायणपंथी आदि अनेक शाखाओं में फैले हुए थे, जिनके आचारों-विचारों में उपासना की दृष्टि से काफ़ी अन्तर था।
उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में मेवाड़ी समाज में ईसाइयों का प्रवेश भी हो चुका था। यह समुदाय स्थान भेद के अनुसार शुद्ध ईसाई तथा एंग्लो-इण्डियन की श्रेणियों में वर्गीकृत था। राणा सज्जन सिंह (1874-1884 ई.) के शासन-काल में हिन्दू समुदाय के अंत्तर्गत सिक्ख समाज के मतावलम्बी भी सम्मिलित होने लगे थे। इन सभी धार्मिक समुदायों का जन संख्यात्मक प्रतिशत उन्नीसवीं शती के अन्त तक निम्न प्रकार रहा था-
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