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'''चुम्बी घाटी''' [[सिक्किम]] और [[भूटान]] के बीच स्थित है, जहाँ [[तिब्बत]] का एक हिस्सा [[भारत]] के भीतर घुसा हुआ-सा दिखाई देता है। यह घाटी तिब्बत से व्यापार करने का प्रमुख मार्ग रहा था। ब्रिटिश शासन काल में भारत के व्यापारी चुम्बी घाटी में सुविधापूर्वक व्यपार करते रहे और तिब्बत के लोगों का भी आवागमन जारी रहा। चुम्बी घाटी के स्थानीय लोग स्वयं को 'त्रो-भोवा' तथा घाटी को 'त्रो-मो' कहकर पुकारते हैं। मूल रूप से ये लोग पूर्वी तिब्बत के निवासी हैं। भारत के साथ व्यापारिक संबंध होने के कारण चुम्बी घाटी के निवासी सामान्य तिब्बतियों की अपेक्षा अधिक धनवान हैं। एक भारतीय यात्री यह देखकर चकित हो सकता है कि चुम्बी घाटी के गाँवों के मकान भारतीय गाँवों के मकानों से अधिक साफ, सुंदर और ऐश्वर्यशाली हैं।
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==क्षेत्रफल==
चुम्बा घाटी का क्षेत्रफल लगभग 700 वर्ग मील है। घाटी पूर्वी [[पाकिस्तान]] के ठीक उत्तर में है। पूर्वी पाकिस्तान और चुम्बी घाटी के बीच बंगाल प्रदेश का क्षेत्र है, जिसका अंतर मुश्किल से 50-60 मील है। यदि [[चीन]] उत्तर से और पूर्वी पाकिस्तान दक्षिण से एक साथ हमला बोलकर इस 50-60 मील के गलियारे पर अधिकार कर ले तो सारा [[आसाम]], नेफा, [[मणिपुर]], [[त्रिपुरा]] और [[नागालैण्ड]] भारत से बिलकुल अलग हो जाएंगे। वैसे चुम्बी घाटी के क्षेत्र में भारत की सामरिक स्थिति चीन की तुलना में अधिक सुदृढ़ है। पहला तो [[ल्हासा]] और पैकिंग के बीच अभी तक रेल लाईन नहीं है, और फिर ल्हासा से भी जो सड़कें चुम्बी घाटी तक आती हैं, वे सीमा से आठ मील {{मील|मील=8}} पहले ही समाप्त हो जाती हैं। बाकी आठ मील का रास्ता खच्चर पर या फिर पैदल पार करना पड़ता है। जबकि भारतीय सामरिक अड्डे [[नाथुला दर्रा|नाथुला]] और जेलपला तक पहुँचने के लिए पक्की सड़कें हैं। इसके अतिरिक्त नाथूला काफ़ी ऊँचाई पर स्थित है। ढलान पर चीनी सीमा प्रारंभ होती है। किंतु अपुष्ट समाचारों के अनुसार चीनी शासक रेल और सड़कों के निर्माण पर बहुत जोर दे रहे हैं, जैसा कि उन्होंने 'अक्साई चिन' में किया था, जो कि कुछ समय बाद सामरिक स्थिति की दृष्टि से भारत और चीन को एक ही स्थान पर ला खड़ा कर सकता है। कोई आश्चर्य नहीं कि चुम्बी घाटी दूसरा 'अक्साई चिन' बन जाये।<ref name="ab">{{cite web |url=http://www.vpvaidik.com/%E0%A4%9A%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A5%8D%E0%A4%AC%E0%A5%80-%E0%A4%98%E0%A4%BE%E0%A4%9F%E0%A5%80-%E0%A4%A6%E0%A5%82%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A4%BE-%E0%A4%85%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%88|title=चुम्बा घाटी- दूसरा अक्साई चिन|accessmonthday= 22 मार्च|accessyear= 2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref>
====चार्ल्स बैल का कथन====
पहले चुम्बी घाटी [[सिक्किम]] राज्य का अभिन्न अंग थी। 19वीं शती के अंतिम दशकों में तो सिक्किम के राजा ग्रीष्मावकाश व स्वास्थ्य लाभ के लिए प्रतिवर्ष चुम्बी घाटी में निवास करने जाते थे। [[अंग्रेज़]] भी मुक्त रूप से आते जाते रहे। यह घाटी तिब्बत से व्यापार करने का प्रमुख मार्ग रही थी। [[तिब्बत]], [[भूटान]] तथा [[सिक्किम]] के तत्कालीन ब्रिटिश राजनैतिक प्रतिनिधि सर चार्ल्स बैल ने लिखा है कि- "उस समय सन [[1904]]-[[1907]] में चुम्बी घाटी ब्रिटिश अधिकार में थी। उसके प्रशासन की व्यवस्था करना जरूरी था। तिब्बती और चीनी व्यवस्था के विपरीत गाँवों का प्रशासन उनके मुखियाओं के हाथ में छोड़ दिया गया। 'बेगार प्रथा' समाप्त कर दी गई। कर-संग्रह मुखियाओं के सुपुर्द कर दिया गया। तिब्बती केंद्रीय शासन के दो प्रतिनिधियों को फारी जोंग में रहने दिय गया, किंतु प्रशासन के हस्तक्षेप की अनुमति नहीं दी गई। [[भारतीय सेना]] की चार कम्पनी घाटी में रखी गईं…सन [[1905]] में मेरा स्थानांतरण हो गया। दो वर्ष बाद जब चीन ने यंगहसबैंड अभियान का 25 लाख [[रुपया]] हर्जाना भरा तो घाटी पुन: तिब्बत को दे दी गई।" इंग्लैण्ड अभियान सन [[1904]] में संपन्न हुआ। जब कर्नल यंगहसबैंड तिब्बत के खम्बा जोंग नामक स्थान में घुस गए तो तिब्बती प्रतिनधि ने आपत्ति उठाई। उसका उत्तर देते हुए यंगहसबैंड ने अभियान का कारण बताया। अपनी पुस्तक 'भारत और तिब्बत' में वे लिखते हैं कि- "हम एक समुचित व्यापारिक-स्थल चाहते हैं, जिसके पीछे कोई दीवार नहीं खड़ी हो, बल्कि यातुंग के समान हो, जहाँ तिब्बत और भारत के व्यापारी परस्पर मिलते हैं।" वास्तव में तिब्बती सरकार ने यातुंग के उस पार एक दीवार खड़ी कर दी थी, जो कि सन [[1890]] की संधि के अनुकूल नहीं थी। यंगहसबैंड अभियान को संघर्ष करना पड़ा, दीवार टूटी और हर्जाना ब्रिटिश शासन को मिला।
==भारतीय व्यापारियों पर प्रतिबंध==
ब्रिटिश शासन काल में [[भारत]] के व्यापारी चुम्बी घाटी में सुविधापूर्वक व्यापार करते रहे और [[तिब्बत]] के लोगों का भी आवागमन जारी रहा, किंतु इधर भारत को स्वतंत्रता मिली और उधर [[चीन]] में कम्युनिस्ट शासन आ गया। चीन ने [[1951]] में तिब्बत पर चढ़ाई कर दी। माओ-त्से-तुंग के मस्तिष्क में सीमा नीति बहुत स्पष्ट थी। उसने न केवल नेफा [[लद्दाख]] के क्षेत्रों में सामरिक तैयारियाँ आरंभ कीं बल्कि भारत की व्यापारिक तथा सैन्य सुविधाओं को भी तिब्बत से हटाने का प्रयत्न किया। फलस्वरूप सन [[1954]] में चीन के साथ भारत ने एक व्यापारिक समझौता किया, जिसके अनुसार अन्य स्थानों के अतिरिक्त चुम्बा घाटी में स्थित यातुंग नगर से सारे भारतीय सुरक्षा सैनिक हटाए गए तथा 'यातुंग ट्रेड एजेंसी' के कंपाउंड के बाहर जितनी भी भारतीय सम्पति थी, वह चीन को लौटा दी गई। [[पंडित जवाहरलाल नेहरू]] समझते थे कि ऐसा करने से चीन प्रसन्न होगा और भारत-चीन भाईचारा बढ़ेगा, किंतु चीनी मंसूबे धीरे-धीरे प्रकट होने लगे। भारतीय व्यापारियों और नागरिकों पर पाबंदियाँ लगा दी गईं। सन [[1960]] तक स्थिति यहाँ तक पहुँच गई कि भारतीय व्यापारियों के लिए दो मील से अधिक जाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। उनसे कुछ विशेष सामान जबर्दस्ती मंगवाया गया तथा बहुत से सामान को रोक दिया गया। व्यापारियों को भारी हानि हुई। भारत सरकार ने विरोध किया, लेकिन कुछ परिणाम नहीं निकला। उधर तिब्बत के सीमावर्ती क्षेत्रों में चीनी सामरिक तैयारियाँ इतनी अधिक बढ़ गई थीं कि चुम्बा घाटी से भारतीयों का निष्कासन ही चीन के हित में था। परिणामस्वरूप [[जून]], [[1962]] में 1954 के व्यापारिक समझौते पर जो हस्ताक्षर फिर से होने थे, लेकिन ये नहीं हुए और भारत को अपनी ट्रेड एजेंसी उठा लेनी पड़ी। आज चुम्बी घाटी के द्वार बिलकुल बंद हैं। भारत और चीन की सेनाएँ दोनों तरफ़ सेनाएँ जमी हुई हैं।<ref name="ab"/>
 
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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10:36, 22 मार्च 2013 का अवतरण

चुम्बी घाटी सिक्किम और भूटान के बीच स्थित है, जहाँ तिब्बत का एक हिस्सा भारत के भीतर घुसा हुआ-सा दिखाई देता है। यह घाटी तिब्बत से व्यापार करने का प्रमुख मार्ग रहा था। ब्रिटिश शासन काल में भारत के व्यापारी चुम्बी घाटी में सुविधापूर्वक व्यपार करते रहे और तिब्बत के लोगों का भी आवागमन जारी रहा। चुम्बी घाटी के स्थानीय लोग स्वयं को 'त्रो-भोवा' तथा घाटी को 'त्रो-मो' कहकर पुकारते हैं। मूल रूप से ये लोग पूर्वी तिब्बत के निवासी हैं। भारत के साथ व्यापारिक संबंध होने के कारण चुम्बी घाटी के निवासी सामान्य तिब्बतियों की अपेक्षा अधिक धनवान हैं। एक भारतीय यात्री यह देखकर चकित हो सकता है कि चुम्बी घाटी के गाँवों के मकान भारतीय गाँवों के मकानों से अधिक साफ, सुंदर और ऐश्वर्यशाली हैं।

क्षेत्रफल

चुम्बा घाटी का क्षेत्रफल लगभग 700 वर्ग मील है। घाटी पूर्वी पाकिस्तान के ठीक उत्तर में है। पूर्वी पाकिस्तान और चुम्बी घाटी के बीच बंगाल प्रदेश का क्षेत्र है, जिसका अंतर मुश्किल से 50-60 मील है। यदि चीन उत्तर से और पूर्वी पाकिस्तान दक्षिण से एक साथ हमला बोलकर इस 50-60 मील के गलियारे पर अधिकार कर ले तो सारा आसाम, नेफा, मणिपुर, त्रिपुरा और नागालैण्ड भारत से बिलकुल अलग हो जाएंगे। वैसे चुम्बी घाटी के क्षेत्र में भारत की सामरिक स्थिति चीन की तुलना में अधिक सुदृढ़ है। पहला तो ल्हासा और पैकिंग के बीच अभी तक रेल लाईन नहीं है, और फिर ल्हासा से भी जो सड़कें चुम्बी घाटी तक आती हैं, वे सीमा से आठ मील (लगभग 12.8 कि.मी.) पहले ही समाप्त हो जाती हैं। बाकी आठ मील का रास्ता खच्चर पर या फिर पैदल पार करना पड़ता है। जबकि भारतीय सामरिक अड्डे नाथुला और जेलपला तक पहुँचने के लिए पक्की सड़कें हैं। इसके अतिरिक्त नाथूला काफ़ी ऊँचाई पर स्थित है। ढलान पर चीनी सीमा प्रारंभ होती है। किंतु अपुष्ट समाचारों के अनुसार चीनी शासक रेल और सड़कों के निर्माण पर बहुत जोर दे रहे हैं, जैसा कि उन्होंने 'अक्साई चिन' में किया था, जो कि कुछ समय बाद सामरिक स्थिति की दृष्टि से भारत और चीन को एक ही स्थान पर ला खड़ा कर सकता है। कोई आश्चर्य नहीं कि चुम्बी घाटी दूसरा 'अक्साई चिन' बन जाये।[1]

चार्ल्स बैल का कथन

पहले चुम्बी घाटी सिक्किम राज्य का अभिन्न अंग थी। 19वीं शती के अंतिम दशकों में तो सिक्किम के राजा ग्रीष्मावकाश व स्वास्थ्य लाभ के लिए प्रतिवर्ष चुम्बी घाटी में निवास करने जाते थे। अंग्रेज़ भी मुक्त रूप से आते जाते रहे। यह घाटी तिब्बत से व्यापार करने का प्रमुख मार्ग रही थी। तिब्बत, भूटान तथा सिक्किम के तत्कालीन ब्रिटिश राजनैतिक प्रतिनिधि सर चार्ल्स बैल ने लिखा है कि- "उस समय सन 1904-1907 में चुम्बी घाटी ब्रिटिश अधिकार में थी। उसके प्रशासन की व्यवस्था करना जरूरी था। तिब्बती और चीनी व्यवस्था के विपरीत गाँवों का प्रशासन उनके मुखियाओं के हाथ में छोड़ दिया गया। 'बेगार प्रथा' समाप्त कर दी गई। कर-संग्रह मुखियाओं के सुपुर्द कर दिया गया। तिब्बती केंद्रीय शासन के दो प्रतिनिधियों को फारी जोंग में रहने दिय गया, किंतु प्रशासन के हस्तक्षेप की अनुमति नहीं दी गई। भारतीय सेना की चार कम्पनी घाटी में रखी गईं…सन 1905 में मेरा स्थानांतरण हो गया। दो वर्ष बाद जब चीन ने यंगहसबैंड अभियान का 25 लाख रुपया हर्जाना भरा तो घाटी पुन: तिब्बत को दे दी गई।" इंग्लैण्ड अभियान सन 1904 में संपन्न हुआ। जब कर्नल यंगहसबैंड तिब्बत के खम्बा जोंग नामक स्थान में घुस गए तो तिब्बती प्रतिनधि ने आपत्ति उठाई। उसका उत्तर देते हुए यंगहसबैंड ने अभियान का कारण बताया। अपनी पुस्तक 'भारत और तिब्बत' में वे लिखते हैं कि- "हम एक समुचित व्यापारिक-स्थल चाहते हैं, जिसके पीछे कोई दीवार नहीं खड़ी हो, बल्कि यातुंग के समान हो, जहाँ तिब्बत और भारत के व्यापारी परस्पर मिलते हैं।" वास्तव में तिब्बती सरकार ने यातुंग के उस पार एक दीवार खड़ी कर दी थी, जो कि सन 1890 की संधि के अनुकूल नहीं थी। यंगहसबैंड अभियान को संघर्ष करना पड़ा, दीवार टूटी और हर्जाना ब्रिटिश शासन को मिला।

भारतीय व्यापारियों पर प्रतिबंध

ब्रिटिश शासन काल में भारत के व्यापारी चुम्बी घाटी में सुविधापूर्वक व्यापार करते रहे और तिब्बत के लोगों का भी आवागमन जारी रहा, किंतु इधर भारत को स्वतंत्रता मिली और उधर चीन में कम्युनिस्ट शासन आ गया। चीन ने 1951 में तिब्बत पर चढ़ाई कर दी। माओ-त्से-तुंग के मस्तिष्क में सीमा नीति बहुत स्पष्ट थी। उसने न केवल नेफा लद्दाख के क्षेत्रों में सामरिक तैयारियाँ आरंभ कीं बल्कि भारत की व्यापारिक तथा सैन्य सुविधाओं को भी तिब्बत से हटाने का प्रयत्न किया। फलस्वरूप सन 1954 में चीन के साथ भारत ने एक व्यापारिक समझौता किया, जिसके अनुसार अन्य स्थानों के अतिरिक्त चुम्बा घाटी में स्थित यातुंग नगर से सारे भारतीय सुरक्षा सैनिक हटाए गए तथा 'यातुंग ट्रेड एजेंसी' के कंपाउंड के बाहर जितनी भी भारतीय सम्पति थी, वह चीन को लौटा दी गई। पंडित जवाहरलाल नेहरू समझते थे कि ऐसा करने से चीन प्रसन्न होगा और भारत-चीन भाईचारा बढ़ेगा, किंतु चीनी मंसूबे धीरे-धीरे प्रकट होने लगे। भारतीय व्यापारियों और नागरिकों पर पाबंदियाँ लगा दी गईं। सन 1960 तक स्थिति यहाँ तक पहुँच गई कि भारतीय व्यापारियों के लिए दो मील से अधिक जाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। उनसे कुछ विशेष सामान जबर्दस्ती मंगवाया गया तथा बहुत से सामान को रोक दिया गया। व्यापारियों को भारी हानि हुई। भारत सरकार ने विरोध किया, लेकिन कुछ परिणाम नहीं निकला। उधर तिब्बत के सीमावर्ती क्षेत्रों में चीनी सामरिक तैयारियाँ इतनी अधिक बढ़ गई थीं कि चुम्बा घाटी से भारतीयों का निष्कासन ही चीन के हित में था। परिणामस्वरूप जून, 1962 में 1954 के व्यापारिक समझौते पर जो हस्ताक्षर फिर से होने थे, लेकिन ये नहीं हुए और भारत को अपनी ट्रेड एजेंसी उठा लेनी पड़ी। आज चुम्बी घाटी के द्वार बिलकुल बंद हैं। भारत और चीन की सेनाएँ दोनों तरफ़ सेनाएँ जमी हुई हैं।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 चुम्बा घाटी- दूसरा अक्साई चिन (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 22 मार्च, 2013।

बाहरी कड़ियाँ

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