"बुंदेलखंड वाकाटक और गुप्तशासन": अवतरणों में अंतर

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==हरिसेन==
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हरिसेन ने पश्चिमी और पूर्वी समुद्र के बीच की सारी भूमि पर राज किया था। [[गुप्तवंश]] का उद्भव चतुर्थ शताब्दी में [[भारत|उत्तरी भारत]] में  हुआ था। चीनी यात्री [[हुएनसांग]] जब बुंदेलखंड में आया था, उस समय भारतीय नेपोलियन समुद्रगुप्त का शासनकाल था। वाकाटकों को उसने अपने अधीन कर लिया था । कलचुरियों के उद्भव का समय भी इसी के आसपास माना गया है। सभी इतिहासकारों ने समुद्रगुप्त की दिग्विजय और [[एरन]] पर उसका अधिकार [[शिलालेख|शिलालेखों]] और [[ताम्रपट|ताम्रपटों]] के आधार पर  माना है, एरन की पुरातात्विक ख़ोजों को प्रो० कृष्णदत्त वाजपेयी ने अपनी पुस्तिका "सागर थ्रू एजेज' में प्रस्तुत किया है।  
हरिसेन ने पश्चिमी और पूर्वी समुद्र के बीच की सारी भूमि पर राज किया था। [[गुप्तवंश]] का उद्भव चतुर्थ शताब्दी में [[भारत|उत्तरी भारत]] में  हुआ था। चीनी यात्री [[हुएनसांग]] जब बुंदेलखंड में आया था, उस समय भारतीय नेपोलियन समुद्रगुप्त का शासनकाल था। वाकाटकों को उसने अपने अधीन कर लिया था । कलचुरियों के उद्भव का समय भी इसी के आसपास माना गया है। सभी इतिहासकारों ने समुद्रगुप्त की दिग्विजय और [[एरन]] पर उसका अधिकार [[शिलालेख|शिलालेखों]] और [[ताम्रपट|ताम्रपटों]] के आधार पर  माना है, एरन की पुरातात्विक ख़ोजों को प्रो0 कृष्णदत्त वाजपेयी ने अपनी पुस्तिका "सागर थ्रू एजेज' में प्रस्तुत किया है।  


एरन के दो नाम मिलते हैं [[एरिकण]] और [[स्वभोनगर]] ।  
एरन के दो नाम मिलते हैं [[एरिकण]] और [[स्वभोनगर]] ।  

11:24, 11 जून 2010 का अवतरण

वाकाटक वंश का सर्वश्रेष्ठ राजा विन्ध्यशक्ति का पुत्र प्रवरसेन था। इसने अपने साम्राजय का विस्तार उत्तर में नर्मदा से आगे तक किया था। उसने परिक नामक नगरी पर अधिकार किया था जिसे नागराज दैहित्र शिशुक ने अपने अधीन कर रखा था। पुरिका प्रवरसेन के राज्य की राजधानी भी रही है। वाकाटक राज्य की परम्परा तीन रुपों में मिलती है -

  • स्वतंत्र वाकाटक साम्राज्य
  • गुप्तकालीन वाकाटक साम्राजय
  • गुप्तों के उपरान्त वाकाटक साम्राजय

सन् 345 से वाकाटक, गुप्तों के प्रभाव में आये और पाँचवीं शताब्दी के मध्य तक उनके आश्रित रहे हैं। कतिपय विद्वान विन्ध्यशक्ति के समय से सन् 255 तक वाकाटकों का काल मानते हैं। ये झाँसी के पास बागाट स्थान से प्रारम्भ हैं अत: इनका बुंदेलखंड से विशेष संबंध रहा है। तथा बुंदेलखंड के इतिहास में वाकाटक और गुप्तशासन भी प्रमुख है।

हरिसेन

हरिसेन ने पश्चिमी और पूर्वी समुद्र के बीच की सारी भूमि पर राज किया था। गुप्तवंश का उद्भव चतुर्थ शताब्दी में उत्तरी भारत में हुआ था। चीनी यात्री हुएनसांग जब बुंदेलखंड में आया था, उस समय भारतीय नेपोलियन समुद्रगुप्त का शासनकाल था। वाकाटकों को उसने अपने अधीन कर लिया था । कलचुरियों के उद्भव का समय भी इसी के आसपास माना गया है। सभी इतिहासकारों ने समुद्रगुप्त की दिग्विजय और एरन पर उसका अधिकार शिलालेखों और ताम्रपटों के आधार पर माना है, एरन की पुरातात्विक ख़ोजों को प्रो0 कृष्णदत्त वाजपेयी ने अपनी पुस्तिका "सागर थ्रू एजेज' में प्रस्तुत किया है।

एरन के दो नाम मिलते हैं एरिकण और स्वभोनगर

स्वभोनगर वैभव की नगरी रही है। हटा तहसील (वर्तमान दमोह जिला) के सकौर ग्राम में 24 सोने के सिक्के मिले हैं जिनमें गुप्तवंश के राजाओं के नाम अंकित हैं। गुप्तों के समय में बुंदेलखंड एक वैभवशाली प्रदेश था। बुंदेलखंड स्कन्दगुप्त के उपरांत बुधगुप्त के अधीन था। मांडलीक सुश्मिचंद्र यहाँ की देखरेख करता था। सुश्मिचंद्र ने मातृविष्णु और धान्य विष्णु ब्राह्मणों को एरन का शासक बनाया था जिसकी पुष्टि एरन के स्तम्भ से होती है। सुश्मिचंद्र गुप्त का शासन यमुना और नर्मदा के बीच के भाग पर माना जाता है।

उच्छकल्पों की राजसत्ता की स्थापना पाँचवी शताब्दी के आसपास हुई थी। इस वंश का प्रतीक ओधदेव था। इस वंश के चौथे शासक व्याघ्रदेव ने वाकाटकों की अधीनता स्वीकार कर ली थी। उच्छकल्पों की राजधानी उच्छकल्प (वर्तमान ऊँचेहरा) में थी। इनके शासन में आने वाले भूभाग को महाकान्तर प्रदेश कहा जाता है। यहीं पर परिव्राजकों की राजधानी थी । परिव्राजकों ने अपने राज्य की स्थापना विक्रम की चौथी सदी में की थी । पाँचवी शताब्दी के अंत तक हूण शासकों द्वारा बुंदेलखंड पर शासन करना इतिहासकारों ने स्वीकार किया है। हूणों का प्रमुख तोरमाण था जिसने गुप्तों को पराजित करके पूर्वी मालवा तक अपना साम्राज्य बढ़ाया था । भानुगुप्त और तोरमाण हर्षवर्धन के पूर्व का समय अंधकारमय है। चीनी यात्री ह्यानसांग के यात्रा के विवरण में बुंदेलखंड का शासन ब्राह्मण राजा के द्वारा बताया गया है। कालांतर में ब्राह्मण राजा ने स्वयं हर्ष की अधीनता स्वीकार कर ली थी। हर्ष के उपरांत अराजकता की स्थिती में बुंदेलखंड, नरेश भोज के अधिकार में आया । इसके बाद सूरजपाल कछवाहा, तेजकर्ण, वज्रदामा, कीर्तिराज आदि शासक हुए पर इन्होनें कोई उल्लेखनीय योगदान नहीं दिया।