"सदस्य:रविन्द्र प्रसाद/1": अवतरणों में अंतर
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-[[सवैया]] | -[[सवैया]] | ||
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{[[अवधी भाषा|अवधी भाषा]] में रचित [[रामायण]] का क्या नाम है?(पृ.सं.-14 | |||
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-अवधी रामायण | |||
+[[रामचरितमानस]] | |||
-कंब रामायण | |||
-अध्यात्म रामायण | |||
||[[चित्र:Tulsidas-Ramacharitamanasa.jpg|right|80px|रामचरितमानस]]'रामचरितमानस' एक चरित-काव्य है, जिसमें [[श्रीराम]] का सम्पूर्ण जीवन-चरित वर्णित हुआ है। इसमें 'चरित' और 'काव्य' दोनों के गुण समान रूप से मिलते हैं। '[[रामचरितमानस]]' [[तुलसीदास]] की सबसे प्रमुख कृति है। इसकी रचना [[संवत]] 1631 ई. की [[रामनवमी]] को [[अयोध्या]] में प्रारम्भ हुई थी, किन्तु इसका कुछ अंश [[काशी]] (वाराणसी) में भी निर्मित हुआ था। यह इसके '[[किष्किन्धा काण्ड वा. रा.|किष्किन्धाकाण्ड]]' के प्रारम्भ में आने वाले एक सोरठे से निकलती है, उसमें काशी सेवन का उल्लेख है। यह रचना '[[अवधी भाषा|अवधी बोली]]' में लिखी गयी है। इसके मुख्य [[छन्द]] [[चौपाई]] और [[दोहा]] हैं, बीच-बीच में कुछ अन्य प्रकार के भी छन्दों का प्रयोग हुआ है।{{point}}अधिक जानकारी के लिए देखें:-[[रामचरितमानस]] | |||
{उस गुप्तचर का क्या नाम था, जिसके कहने पर [[श्रीराम]] ने [[सीता]] का परित्याग कर दिया?(पृ.सं.-12 | {उस गुप्तचर का क्या नाम था, जिसके कहने पर [[श्रीराम]] ने [[सीता]] का परित्याग कर दिया?(पृ.सं.-12 | ||
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-[[चित्ररथ]] | -[[चित्ररथ]] | ||
-[[दशरथ]] | -[[दशरथ]] | ||
||'विश्वामित्र' राजा गाधि के पुत्र थे। [[हिन्दू]] धार्मिक मान्यता के अनुसार यह माना जाता है कि उन्होंने कई हज़ार वर्ष राज्य किया और फिर [[पृथ्वी]] की परिक्रमा के लिए निकल पड़े। [[विश्वामित्र]] को भगवान [[श्रीराम]] का दूसरा गुरु होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। जब ये दण्डकारण्य में [[यज्ञ]] कर रहे थे, तब [[रावण]] के द्वारा वहाँ नियुक्त [[ताड़का]], [[सुबाहु]] और [[मारीच]] जैसे [[राक्षस]] इनके यज्ञ में बार-बार विघ्न उपस्थित कर देते थे। विश्वामित्र ने अपने तपोबल से जान लिया कि त्रैलोक्य को भय से त्राण दिलाने वाले परब्रह्म श्रीराम का [[अवतार]] [[अयोध्या]] में हो गया है। इसीलिए अपने यज्ञ की रक्षा के लिये [[राम]] को [[दशरथ]] से माँग ले आये थे।{{point}}अधिक जानकारी के लिए देखें:-[[विश्वामित्र]] | ||'विश्वामित्र' [[गाधि|राजा गाधि]] के पुत्र थे। [[हिन्दू]] धार्मिक मान्यता के अनुसार यह माना जाता है कि उन्होंने कई हज़ार वर्ष राज्य किया और फिर [[पृथ्वी]] की परिक्रमा के लिए निकल पड़े। [[विश्वामित्र]] को भगवान [[श्रीराम]] का दूसरा गुरु होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। जब ये दण्डकारण्य में [[यज्ञ]] कर रहे थे, तब [[रावण]] के द्वारा वहाँ नियुक्त [[ताड़का]], [[सुबाहु]] और [[मारीच]] जैसे [[राक्षस]] इनके यज्ञ में बार-बार विघ्न उपस्थित कर देते थे। विश्वामित्र ने अपने तपोबल से जान लिया कि त्रैलोक्य को भय से त्राण दिलाने वाले परब्रह्म श्रीराम का [[अवतार]] [[अयोध्या]] में हो गया है। इसीलिए अपने यज्ञ की रक्षा के लिये [[राम]] को [[दशरथ]] से माँग ले आये थे।{{point}}अधिक जानकारी के लिए देखें:-[[विश्वामित्र]] | ||
{[[बालि]] और [[सुग्रीव]] जिस वानर से उत्पन्न हुए थे, उसका नाम क्या था?(पृ.सं.-12 | {[[बालि]] और [[सुग्रीव]] जिस वानर से उत्पन्न हुए थे, उसका नाम क्या था?(पृ.सं.-12 | ||
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+ | +ऋक्षराज | ||
-जंभन | -जंभन | ||
-[[केसरी वानर राज|केसरी]] | -[[केसरी वानर राज|केसरी]] | ||
-[[जामवन्त]] | -[[जामवन्त]] | ||
{[[महर्षि वाल्मीकि]] का बचपन का नाम क्या था?(पृ.सं.-14 | |||
|type="()"} | |||
-रत्नेश | |||
-रत्नसेन | |||
+रत्नाकर | |||
-रत्नाभ | |||
||[[चित्र:Valmiki-Ramayan.jpg|right|80px|महर्षि वाल्मीकि]]'महर्षि वाल्मीकि' [[संस्कृत भाषा]] के आदि [[कवि]] और [[हिन्दू|हिन्दुओं]] के आदि काव्य '[[रामायण]]' के रचयिता के रूप में प्रसिद्ध हैं। [[कश्यप|महर्षि कश्यप]] और [[अदिति]] के नवम पुत्र '[[वरुण देवता|वरुण]]' (आदित्य) से इनका जन्म हुआ। इनकी माता चर्षणी और भाई [[भृगु]] थे। जिस [[वाल्मीकि]] के डाकू का जीवन व्यतीत करने का उल्लेख मिलता है, उसे रामायण के रचयिता से भिन्न माना जाता है। पौराणिक विवरण के अनुसार यह 'रत्नाकर' नाम का [[दस्यु]] था। वह लूट-पाट करता था और यात्रियों को मारकर व उनका धन आदि छीनकर उससे अपना परिवार पालता था।{{point}}अधिक जानकारी के लिए देखें:-[[महर्षि वाल्मीकि]] | |||
{[[श्रीराम]] ने जिन वृक्षों की ओट से वानरराज [[बालि]] को मारा, उनका क्या नाम था?(पृ.सं.-13 | {[[श्रीराम]] ने जिन वृक्षों की ओट से वानरराज [[बालि]] को मारा, उनका क्या नाम था?(पृ.सं.-13 | ||
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-सुमाली | -सुमाली | ||
||'उच्चै:श्रवा' पौराणिक धर्म ग्रंथों और [[हिन्दू]] मान्यताओं के अनुसार देवताओं के राजा [[इन्द्र]] के अश्व का नाम है। यह अश्व '[[समुद्र मंथन]]' के दौरान जो चौदह मूल्यवान वस्तुएँ प्राप्त हुई थीं, उनमें से एक था। इसे देवराज इन्द्र को दे दिया गया था। उच्चै:श्रवा के कई अर्थ हैं, जैसे- 'जिसका यश ऊँचा हो', 'जिसके कान ऊँचे हों' अथवा 'जो ऊँचा सुनता हो'।{{point}}अधिक जानकारी के लिए देखें:-[[उच्चै:श्रवा]] | ||'उच्चै:श्रवा' पौराणिक धर्म ग्रंथों और [[हिन्दू]] मान्यताओं के अनुसार देवताओं के राजा [[इन्द्र]] के अश्व का नाम है। यह अश्व '[[समुद्र मंथन]]' के दौरान जो चौदह मूल्यवान वस्तुएँ प्राप्त हुई थीं, उनमें से एक था। इसे देवराज इन्द्र को दे दिया गया था। उच्चै:श्रवा के कई अर्थ हैं, जैसे- 'जिसका यश ऊँचा हो', 'जिसके कान ऊँचे हों' अथवा 'जो ऊँचा सुनता हो'।{{point}}अधिक जानकारी के लिए देखें:-[[उच्चै:श्रवा]] | ||
{[[समुद्र मंथन]] से प्राप्त उस [[हाथी]] का क्या नाम था, जो श्वेत वर्ण का था?(पृ.सं.-15 | {[[समुद्र मंथन]] से प्राप्त उस [[हाथी]] का क्या नाम था, जो श्वेत वर्ण का था?(पृ.सं.-15 |
08:13, 7 मई 2013 का अवतरण
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