"कालिदास लोकाचार और लोकतत्त्व": अवतरणों में अंतर

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{{सूचना बक्सा साहित्यकार
[[कालिदास]] लौकिक जीवन और ऐहलौकिक आस्था के कवि हैं। अपने समय में प्रचलित लोकाचारों, रीति-रिवाजों और लोकविश्वासों का उन्होंने प्रामाणिक उल्लेख किया है। [[मेघदूत]] जैसे लघु कलेवर काव्य में भी उन्होंने कई स्थलों पर लोकजीवन और लोकाचारों की छवियाँ उकेरी हैं। यक्ष ने अपने घर का अभिज्ञान बताते हुए कहा है - '''द्वारोपांते लिखितवपुषौ शङ्खपदमौ च दृष्टवा''' उसके घर के द्वार के निकट [[शंख]] और पद्म बनाये हुए थे। पूर्ण सरस्वती ने इसकी व्याख्या में कहा है कि शंख से लाँछित [[देवता]] शंखनिधि तथा पद्म से लाँछित पद्ममनिथि हैं, जिनकी आकृतियाँ उस काल में द्वार के निकट अंकित की जाती थीं।<ref>विद्युल्लताटीका, सं, कृष्णमारियर, पृष्ठ 118</ref>  
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;विष्णुधर्मोत्तर पुराण में
|पूरा नाम=[[कालिदास|महाकवि कालिदास]]
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|जन्म=150 वर्ष ईसा पूर्व से 450 ईसवी के मध्य
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|मृत्यु स्थान=
|मुख्य रचनाएँ=नाटक- [[अभिज्ञान शाकुन्तलम्]], [[विक्रमोर्वशीयम्]] और [[मालविकाग्निमित्रम्]]; महाकाव्य- [[रघुवंशम्]] और [[कुमारसंभवम्]], खण्डकाव्य- [[मेघदूतम्]] और [[ऋतुसंहार]]
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[[कालिदास]] लौकिक जीवन और ऐहलौकिक आस्था के [[कवि]] हैं। अपने समय में प्रचलित लोकाचारों, रीति-रिवाजों और लोकविश्वासों का उन्होंने प्रामाणिक उल्लेख किया है। [[मेघदूत]] जैसे लघु कलेवर काव्य में भी उन्होंने कई स्थलों पर लोकजीवन और लोकाचारों की छवियाँ उकेरी हैं। यक्ष ने अपने घर का अभिज्ञान बताते हुए कहा है - '''द्वारोपांते लिखितवपुषौ शङ्खपदमौ च दृष्टवा''' उसके घर के द्वार के निकट [[शंख]] और पद्म बनाये हुए थे। पूर्ण सरस्वती ने इसकी व्याख्या में कहा है कि शंख से लाँछित [[देवता]] शंखनिधि तथा पद्म से लाँछित पद्ममनिथि हैं, जिनकी आकृतियाँ उस काल में द्वार के निकट अंकित की जाती थीं।<ref>विद्युल्लताटीका, सं, कृष्णमारियर, पृष्ठ 118</ref>  
==विष्णुधर्मोत्तर पुराण में==
'भरतमल्लिक' ने द्वार पर शंख और पद्म बनाने के लोकाचार को पौराणिक विधान से जोड़ते हुए विष्णुधर्मोत्तर पुराण से चित्रसूत्र से शंख और पद्म का लक्षण उद्धत करते हुए इनका स्वरूप विशद रूप में प्रतिपादित किया है। वे यह भी बताते हैं कि शंख और पद्म की आकृतियों के साथ-साथ गृहस्वामी के नाम की सूचना देने वाले विशेष संकेत भी साथ में अंकित किये जाते थे।<ref>विद्युल्लताटीका, सं. कृष्णमाचारिय, पृष्ठ.118</ref>  
'भरतमल्लिक' ने द्वार पर शंख और पद्म बनाने के लोकाचार को पौराणिक विधान से जोड़ते हुए विष्णुधर्मोत्तर पुराण से चित्रसूत्र से शंख और पद्म का लक्षण उद्धत करते हुए इनका स्वरूप विशद रूप में प्रतिपादित किया है। वे यह भी बताते हैं कि शंख और पद्म की आकृतियों के साथ-साथ गृहस्वामी के नाम की सूचना देने वाले विशेष संकेत भी साथ में अंकित किये जाते थे।<ref>विद्युल्लताटीका, सं. कृष्णमाचारिय, पृष्ठ.118</ref>  
;मेघदूत में
==मेघदूत में==
*इस प्रकार यक्ष का यह कथन बड़ा सुसंगत लगता है कि मेरे गृहद्वार पर शंख और पद्म को देखकर तुम पहचान लोगे  कि वह मेरा ही घर है।
*इस प्रकार यक्ष का यह कथन बड़ा सुसंगत लगता है कि मेरे गृहद्वार पर शंख और पद्म को देखकर तुम पहचान लोगे  कि वह मेरा ही घर है।
यक्षिणी के वर्णन में '''विन्यस्यती भुवि गणनया देहलीदत्तपुष्पै:''' इस कथन में भी उस समय के लोकाचार का बड़ा मार्मिक रूप सामने आता है।  
यक्षिणी के वर्णन में '''विन्यस्यती भुवि गणनया देहलीदत्तपुष्पै:''' इस कथन में भी उस समय के लोकाचार का बड़ा मार्मिक रूप सामने आता है।  
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*यक्ष के कथन - '''वामश्चास्या: कररुहपदैर्मुच्यमानों मदीयै:''' की व्याख्या में भी भरतमल्लिक यह लोकाचार बताते हैं- '''प्रवासगमनकाले प्रियेण प्रियाया ऊर्वो: स्तनपार्श्वे च स्मरणार्थ तिस्त्रश्चतस्त्रो वा नखरेखा दीयंते।'''<ref>सुबोधाटीका, पृष्ठ72</ref>  
*यक्ष के कथन - '''वामश्चास्या: कररुहपदैर्मुच्यमानों मदीयै:''' की व्याख्या में भी भरतमल्लिक यह लोकाचार बताते हैं- '''प्रवासगमनकाले प्रियेण प्रियाया ऊर्वो: स्तनपार्श्वे च स्मरणार्थ तिस्त्रश्चतस्त्रो वा नखरेखा दीयंते।'''<ref>सुबोधाटीका, पृष्ठ72</ref>  
*'''आलोके ते निपतपि पुरा सा बलिव्याकुला वा''' - यक्षिणी की देवबलि में ऐसे व्यग्रता के चित्रण में दक्षिणावर्तनाथ प्रोषितभर्तृका का प्रिय के आगमन की वार्ता सुनाने वाले कौवे को बलिपिण्ड देने का उद्यम निरूपित करने वाली लोकजीवन से जुड़ी एक [[प्राकृत]] गाथा भी वे प्रमाण में यहाँ उद्धत करते हैं।<ref>मेघदूत: सं. एन. पी. उन्नि,पृष्ठ 150-51</ref>
*'''आलोके ते निपतपि पुरा सा बलिव्याकुला वा''' - यक्षिणी की देवबलि में ऐसे व्यग्रता के चित्रण में दक्षिणावर्तनाथ प्रोषितभर्तृका का प्रिय के आगमन की वार्ता सुनाने वाले कौवे को बलिपिण्ड देने का उद्यम निरूपित करने वाली लोकजीवन से जुड़ी एक [[प्राकृत]] गाथा भी वे प्रमाण में यहाँ उद्धत करते हैं।<ref>मेघदूत: सं. एन. पी. उन्नि,पृष्ठ 150-51</ref>
;कुमारसम्भव
==कुमारसम्भव में==
*इसी प्रकार [[कुमारसम्भव]] में [[शिव]] - [[पार्वती]] के विवाह के वर्णन में महाकवि ने उस समय की वैवाहिक प्रथाओं का सूक्ष्म अंकन किया है। सिद्धार्थ पुष्प और दूर्वा के अंकुर के साथ कौशेय वस्त्र से नववधू पार्वती को अलंकृत किया गया था और उसे हाथ में एक 'बाण' दिया गया था। नववधू के हाथ में बाण देने की प्रथा उस समय की वैवाहिक प्रथाओं में विशिष्ट ही कही जा सकती है।<ref> कुमारसम्भव 7।7,8</ref> *नववधू के स्थान, कौतुकवेदी तक उसे ले जाया जाना, गोरोचनापत्र से उसका श्रृंगार, कपोल पर यवप्ररोह, चरणों में महावर तथा नेत्रों में कला अंजन, आर्द्र हरिताल तथा मन:शिला से विवाहदीक्षातिलक की रचना तथा ऊर्णा से बने कौतुकसूत्र का बाँधा जाना - ये सारे वैवाहिक आचार [[कालिदास]] की लेखनी से इस प्रसंग में सजीव हो उठे हैं।<ref> कुमारसम्भव, 7।10-25</ref> प्र
*इसी प्रकार [[कुमारसम्भव]] में [[शिव]] - [[पार्वती]] के विवाह के वर्णन में महाकवि ने उस समय की वैवाहिक प्रथाओं का सूक्ष्म अंकन किया है। सिद्धार्थ पुष्प और दूर्वा के अंकुर के साथ कौशेय वस्त्र से नववधू पार्वती को अलंकृत किया गया था और उसे हाथ में एक 'बाण' दिया गया था। नववधू के हाथ में बाण देने की प्रथा उस समय की वैवाहिक प्रथाओं में विशिष्ट ही कही जा सकती है।<ref> कुमारसम्भव 7।7,8</ref> *नववधू के स्थान, कौतुकवेदी तक उसे ले जाया जाना, गोरोचनापत्र से उसका श्रृंगार, कपोल पर यवप्ररोह, चरणों में महावर तथा नेत्रों में कला अंजन, आर्द्र हरिताल तथा मन:शिला से विवाहदीक्षातिलक की रचना तथा ऊर्णा से बने कौतुकसूत्र का बाँधा जाना - ये सारे वैवाहिक आचार [[कालिदास]] की लेखनी से इस प्रसंग में सजीव हो उठे हैं।<ref> कुमारसम्भव, 7।10-25</ref> प्र
*दक्षिणात्रय, लाजामोक्ष, ध्रुवदर्शन आदि परिणय विधि में आने वाले आचारों का भी चित्रण कवि ने किया है।<ref>कुमारसम्भव, 7।79-85</ref>  
*दक्षिणात्रय, लाजामोक्ष, ध्रुवदर्शन आदि परिणय विधि में आने वाले आचारों का भी चित्रण कवि ने किया है।<ref>कुमारसम्भव, 7।79-85</ref>  
;रघुवंश महाकाव्य में
==रघुवंश महाकाव्य में==
[[रघुवंश महाकाव्य|रघुवंश]] में 'दिलीप' और 'सुदक्षिणा' की वसिष्ठाश्रम के प्रति यात्रा में यूपचिह्न वाले ग्राम तथा हैयङ्गवीन<ref> ताजा घी</ref> लेकर उपस्थित हुए घोषवृद्ध<ref> रघुवंश, 1।44,45</ref> लोकजीवन की छवि साकार करते हैं। इसके आगे [[वसिष्ठ]] के आश्रम का वर्णन तो आश्रम के सम्पूर्ण पर्यावरण का यथार्थ अनुभव कराने वाला है।<ref> रघुवंश, 1।49-53</ref> इसी [[महाकाव्य]] के सत्रहवें सर्ग में अतिथि के राज्याभिषेक के समय दूर्वा, यवाङ्कुर, प्लक्ष की खाल आदि से उसकी नीराजनाविधि तथा अभिषेक के अनन्तर विशेष नेपथ्यविधि के चित्रण में भी उस समय के लोकाचार प्रतिबिम्बित हैं।<ref> रघुवंश,17।12-26</ref>
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07:03, 25 जून 2013 का अवतरण

कालिदास लोकाचार और लोकतत्त्व
पूरा नाम महाकवि कालिदास
जन्म 150 वर्ष ईसा पूर्व से 450 ईसवी के मध्य
जन्म भूमि उत्तर प्रदेश
पति/पत्नी विद्योत्तमा
कर्म भूमि भारत
कर्म-क्षेत्र संस्कृत कवि
मुख्य रचनाएँ नाटक- अभिज्ञान शाकुन्तलम्, विक्रमोर्वशीयम् और मालविकाग्निमित्रम्; महाकाव्य- रघुवंशम् और कुमारसंभवम्, खण्डकाव्य- मेघदूतम् और ऋतुसंहार
भाषा संस्कृत
पुरस्कार-उपाधि महाकवि
संबंधित लेख कालिदास के काव्य में प्रकृति चित्रण, कालिदास के चरित्र-चित्रण, कालिदास की अलंकार-योजना, कालिदास का छन्द विधान, कालिदास की रस संयोजना, कालिदास का सौन्दर्य और प्रेम
अन्य जानकारी कालिदास शक्लो-सूरत से सुंदर थे और विक्रमादित्य के दरबार के नवरत्नों में एक थे। लेकिन कहा जाता है कि प्रारंभिक जीवन में कालिदास अनपढ़ और मूर्ख थे।
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची

कालिदास लौकिक जीवन और ऐहलौकिक आस्था के कवि हैं। अपने समय में प्रचलित लोकाचारों, रीति-रिवाजों और लोकविश्वासों का उन्होंने प्रामाणिक उल्लेख किया है। मेघदूत जैसे लघु कलेवर काव्य में भी उन्होंने कई स्थलों पर लोकजीवन और लोकाचारों की छवियाँ उकेरी हैं। यक्ष ने अपने घर का अभिज्ञान बताते हुए कहा है - द्वारोपांते लिखितवपुषौ शङ्खपदमौ च दृष्टवा उसके घर के द्वार के निकट शंख और पद्म बनाये हुए थे। पूर्ण सरस्वती ने इसकी व्याख्या में कहा है कि शंख से लाँछित देवता शंखनिधि तथा पद्म से लाँछित पद्ममनिथि हैं, जिनकी आकृतियाँ उस काल में द्वार के निकट अंकित की जाती थीं।[1]

विष्णुधर्मोत्तर पुराण में

'भरतमल्लिक' ने द्वार पर शंख और पद्म बनाने के लोकाचार को पौराणिक विधान से जोड़ते हुए विष्णुधर्मोत्तर पुराण से चित्रसूत्र से शंख और पद्म का लक्षण उद्धत करते हुए इनका स्वरूप विशद रूप में प्रतिपादित किया है। वे यह भी बताते हैं कि शंख और पद्म की आकृतियों के साथ-साथ गृहस्वामी के नाम की सूचना देने वाले विशेष संकेत भी साथ में अंकित किये जाते थे।[2]

मेघदूत में

  • इस प्रकार यक्ष का यह कथन बड़ा सुसंगत लगता है कि मेरे गृहद्वार पर शंख और पद्म को देखकर तुम पहचान लोगे कि वह मेरा ही घर है।

यक्षिणी के वर्णन में विन्यस्यती भुवि गणनया देहलीदत्तपुष्पै: इस कथन में भी उस समय के लोकाचार का बड़ा मार्मिक रूप सामने आता है।

  • यक्षिणी शाप की अवधि के दिनों की गणना करती रहती होगी - यह यक्ष अनुमान करता है, पर गणना फूलों से ही क्यों, और वह भी देहली पर रखे फूलों से क्यों? सारोद्धारिणी, मेघलता, महिमसंघगणि कृत टीका तथा सुमतिविजय की टीका में गृहद्वारदारु की प्रतिदिन पूजा करने का लोकाचार 'इस पद्य की व्याख्या में सूचित किया गया है।[3]
  • भरतमल्लिक कहते हैं कि प्रिय इस द्वार से गये हैं और इसी द्वार से लौटेंगे-इस भावना के साथ विरहिणियाँ देहली को पूजती हैं।[4]
  • यक्ष के कथन - वामश्चास्या: कररुहपदैर्मुच्यमानों मदीयै: की व्याख्या में भी भरतमल्लिक यह लोकाचार बताते हैं- प्रवासगमनकाले प्रियेण प्रियाया ऊर्वो: स्तनपार्श्वे च स्मरणार्थ तिस्त्रश्चतस्त्रो वा नखरेखा दीयंते।[5]
  • आलोके ते निपतपि पुरा सा बलिव्याकुला वा - यक्षिणी की देवबलि में ऐसे व्यग्रता के चित्रण में दक्षिणावर्तनाथ प्रोषितभर्तृका का प्रिय के आगमन की वार्ता सुनाने वाले कौवे को बलिपिण्ड देने का उद्यम निरूपित करने वाली लोकजीवन से जुड़ी एक प्राकृत गाथा भी वे प्रमाण में यहाँ उद्धत करते हैं।[6]

कुमारसम्भव में

  • इसी प्रकार कुमारसम्भव में शिव - पार्वती के विवाह के वर्णन में महाकवि ने उस समय की वैवाहिक प्रथाओं का सूक्ष्म अंकन किया है। सिद्धार्थ पुष्प और दूर्वा के अंकुर के साथ कौशेय वस्त्र से नववधू पार्वती को अलंकृत किया गया था और उसे हाथ में एक 'बाण' दिया गया था। नववधू के हाथ में बाण देने की प्रथा उस समय की वैवाहिक प्रथाओं में विशिष्ट ही कही जा सकती है।[7] *नववधू के स्थान, कौतुकवेदी तक उसे ले जाया जाना, गोरोचनापत्र से उसका श्रृंगार, कपोल पर यवप्ररोह, चरणों में महावर तथा नेत्रों में कला अंजन, आर्द्र हरिताल तथा मन:शिला से विवाहदीक्षातिलक की रचना तथा ऊर्णा से बने कौतुकसूत्र का बाँधा जाना - ये सारे वैवाहिक आचार कालिदास की लेखनी से इस प्रसंग में सजीव हो उठे हैं।[8] प्र
  • दक्षिणात्रय, लाजामोक्ष, ध्रुवदर्शन आदि परिणय विधि में आने वाले आचारों का भी चित्रण कवि ने किया है।[9]

रघुवंश महाकाव्य में

रघुवंश में 'दिलीप' और 'सुदक्षिणा' की वसिष्ठाश्रम के प्रति यात्रा में यूपचिह्न वाले ग्राम तथा हैयङ्गवीन[10] लेकर उपस्थित हुए घोषवृद्ध[11] लोकजीवन की छवि साकार करते हैं। इसके आगे वसिष्ठ के आश्रम का वर्णन तो आश्रम के सम्पूर्ण पर्यावरण का यथार्थ अनुभव कराने वाला है।[12] इसी महाकाव्य के सत्रहवें सर्ग में अतिथि के राज्याभिषेक के समय दूर्वा, यवाङ्कुर, प्लक्ष की खाल आदि से उसकी नीराजनाविधि तथा अभिषेक के अनन्तर विशेष नेपथ्यविधि के चित्रण में भी उस समय के लोकाचार प्रतिबिम्बित हैं।[13]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. विद्युल्लताटीका, सं, कृष्णमारियर, पृष्ठ 118
  2. विद्युल्लताटीका, सं. कृष्णमाचारिय, पृष्ठ.118
  3. मेघदूत: सं.नन्दगीकर, पृष्ठ 95
  4. सुबोधाटीका, पृष्ठ 66
  5. सुबोधाटीका, पृष्ठ72
  6. मेघदूत: सं. एन. पी. उन्नि,पृष्ठ 150-51
  7. कुमारसम्भव 7।7,8
  8. कुमारसम्भव, 7।10-25
  9. कुमारसम्भव, 7।79-85
  10. ताजा घी
  11. रघुवंश, 1।44,45
  12. रघुवंश, 1।49-53
  13. रघुवंश,17।12-26

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