"मनियार सिंह": अवतरणों में अंतर
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मनियार सिंह [[काशी]] के रहने वाले क्षत्रिय थे। इन्होंने देवपक्ष में ही कविता की है और अच्छी की है। इनके निम्नलिखित ग्रंथों का पता है - | '''मनियार सिंह''' [[काशी]] (वर्तमान [[बनारस]]) के रहने वाले [[क्षत्रिय]] थे। ये कविवर कृष्णलाल के शिष्य थे। [[संवत्]] 1849 से 1873 वि. मनियार सिंह का कार्यकाल था। इन्होंने पुष्पदत्त के 'शिव महिमा स्तोत्र’ का 35 [[कवित्त|कवित्तों]] में [[संवत]] 1849 में अनुवाद किया। 'हनुमान छब्बीसी', 'सुन्दरकाण्ड' (63 [[छंद]]), 'हनुमान विजय', 'सौन्दर्य लहरी' (103 [[कवित्त]]) की रचना इन्होंने की है।<ref>{{cite web |url=http://www.kashikatha.com/%E0%A4%B5%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B5/%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B0/ |title=काशी कथा, साहित्यकार|accessmonthday= 10 जनवरी|accessyear=2014 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref> | ||
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'भाषा महिम्न' इन्होंने संवत् 1841 में लिखा। इनकी [[भाषा]] सानुप्रास, शिष्ट और परिमार्जित है और उसमें ओज भी पूरा है। ये अच्छे कवि हो गए हैं- | |||
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06:51, 10 जनवरी 2014 के समय का अवतरण
मनियार सिंह काशी (वर्तमान बनारस) के रहने वाले क्षत्रिय थे। ये कविवर कृष्णलाल के शिष्य थे। संवत् 1849 से 1873 वि. मनियार सिंह का कार्यकाल था। इन्होंने पुष्पदत्त के 'शिव महिमा स्तोत्र’ का 35 कवित्तों में संवत 1849 में अनुवाद किया। 'हनुमान छब्बीसी', 'सुन्दरकाण्ड' (63 छंद), 'हनुमान विजय', 'सौन्दर्य लहरी' (103 कवित्त) की रचना इन्होंने की है।[1]
- मनियार सिंह ने देवपक्ष में ही कविता की है और अच्छी की है। इनके निम्नलिखित ग्रंथों का पता है-
- भाषा महिम्न,
- सौंदर्यलहरी[2],
- हनुमतछबीसी,
- सुंदरकांड।
'भाषा महिम्न' इन्होंने संवत् 1841 में लिखा। इनकी भाषा सानुप्रास, शिष्ट और परिमार्जित है और उसमें ओज भी पूरा है। ये अच्छे कवि हो गए हैं-
मेरो चित्त कहाँ दीनता में अति दूबरो है,
अधरम धूमरो न सुधि के सँभारे पै।
कहाँ तेरी ऋद्धि कवि बुद्धि धारा ध्वनि तें,
त्रिगुण तें परे ह्वै दरसात निरधारे पै
मनियार यातें मति थकित जकित ह्वै कै,
भक्तिबस धारि उर धीरज बिचारे पै।
बिरची कृपाल वाक्यमाला या पुहुपदंत,
पूजन करन काज करन तिहारे पै
तेरे पद पंकज पराग राजै राजेश्वरी!
वेद बंदनीय बिरुदावली बढ़ी रहै।
जाकी किनुकाई पाय धाता ने धारित्री रची,
जापे लोक लोकन की रचना कढ़ी रहै।
मनियार जाहि विष्णु सेवैं सर्व पोषत में,
सेस ह्नै के सदा सीस सहस मढ़ी रहै।
सोई सुरासुर के सिरोमनि सदाशिव के,
भसम के रूप ह्वै सरीर पै चढ़ी रहै
अभय कठोर बानी सुनि लछमन जू की,
मारिबे को चाहि जो सुधारी खल तरवारि।
वीर हनुमंत तेहि गरजि सुहास करि,
उपटि पकरि ग्रीव भूमि लै परे पछारि।
पुच्छ तें लपेटि फेरि दंतन दरदराइ,
नखन बकोटि चोंथि देत महि डारि टारि।
उदर बिदारि मारि लुत्थन को टारि बीर,
जैसे मृगराज गजराज डारे फारि-फारि
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ काशी कथा, साहित्यकार (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 10 जनवरी, 2014।
- ↑ पार्वती या देवी की स्तुति
आचार्य, रामचंद्र शुक्ल “प्रकरण 3”, हिन्दी साहित्य का इतिहास (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: कमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ सं. 258-59।
बाहरी कड़ियाँ
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