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12:00, 29 जुलाई 2014 का अवतरण

भारतीय जनजीवन

दसवीं शताब्दी के बाद भारतीय समाज में कई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए। इनमें से एक यह था कि विशिष्ट वर्ग के लोगों की शक्ति बहुत बढ़ी जिन्हें सामंत, रानक अथवा रौत्त (राजपूत) आदि पुकारा जाता था। इन वर्गों की उत्पत्ति विभिन्न तरीकों से हुई थी। इनमें से कुछ ऐसे सरकारी अधिकारी थे जिनको वेतन मुद्रा की जगह ग्रामों में दिया जाता था, जिससे ये कर प्राप्त करते थे। कुछ और ऐसे पराजित राजा थे जिनके समर्थक सीमित क्षेत्रों के कर के अभी भी अधिकारी बने बैठे थे। कुछ और वंशागत स्थानीय सरदार या बहादुर सैनिक थे, जिन्होंने अपने कुछ हथियारबन्द समर्थकों की सहायता से अधिकार क्षेत्र स्थापित कर लिया था। इन लोगों की हैसियत भी अलग-अलग थी। इनमें से कुछ केवल ग्रामों के प्रमुख थे और कुछ का अधिकार कुछ ग्रामों पर था और कुछ ऐसे भी थे जो एक सारे क्षेत्र पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने में सफल हो सके थे। इस प्रकार इन सरदारों की निश्चित श्रेणियाँ थी। ये अपने अधिकार क्षेत्र को बढ़ाने के लिए आपस में लगातार संघर्ष किया करते थे। ऐसे 'लगान' वाले क्षेत्र[1] जो राजा अपने अधिकारियों या समर्थकों को देता था, वे अस्थायी थे और जिन्हें राजा अपनी मर्जी से जब चाहे, वापस ले सकता था। लेकिन बड़े विद्रोह अथवा विश्वासघात के मामलों में छोड़कर राजा द्वारा ज़मीन शायद ही वापस ली जाती थी। समसामयिक विचारधारा के अनुसार पराजित नरेश की भूमि को भी लेना पाप माना जाता था।

सामंतवादी व्यवस्था

परिणामस्वरूप इस काल के राज्यों में कई ऐसे क्षेत्र शामिल थे जिन पर पराजित अथवा अधीन राजाओं का प्रभुत्व था और वे अपनी स्वाधीनता की घोषणा करने की ताक में लगे रहते थे। इसके अलावा राज्यों के कई क्षेत्रों में ऐसे अधिकारी थे, जो अधीन भूमि को पुश्तैनी जायदाद मानते थे। कालान्तर में इन अधिकारियों का पद भी वंशागत हो गया। बंगाल के एक परिवार से चार पुश्तों के सदस्य महामंत्री थे। इसी प्रकार सरकार के कई पद कुछ ही अधिकारियों के लिए सुरक्षित हो गए। इन वंशागत अधिकारियों ने धीरे-धीरे प्रशासने के कई कार्य अपने हाथों में ले लिए। यह न केवल लगान निर्धारित तथा वसूल करने का कार्य करते थे, बल्कि इन्होंने अधिक से अधिक प्रशासनिक अधिकारियों को भी अपने हाथों में लिया और ये न्यायाधीश भी बन बैठे और अपने ही बल पर ऐसे मामलों में ज़ुर्माना तक करने लगे, जो पहले राजा की ओर से विशेषाधिकार के रूप में दिए गए थे। ये अपने क्षेत्र में पाए गए ख़ज़ानों पर भी अपने अधिकार का दावा करते थे, जबकि क़ायदे से इन पर राजा का अधिकार होना चाहिए था। इन्होंने अपनी भूमि को राजा की अनुमति के बिना अपने समर्थकों के बीच बांट देने के अधिकार को भी स्वयं ही ग्रहण कर लिया। इस प्रकार ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती गई जो ज़मीन पर बिना काम किए ही इससे कमाते थे। ऐसी समाज व्यवस्था को 'सामंतवादी व्यवस्था' कहा जा सकता है। सामंतवादी समाज की प्रमुख विशेषता यह है कि इसमें ऐसे लोग अधिक शक्तिशाली होते हैं जो ज़मीन पर बिना काम किए उस पर अधिकार रखते हैं।

सामंती सरदारों द्वारा सुरक्षा

भारत में सामंतवादी समाज के विकास से बड़े दूरगामी प्रभाव पड़े। इससे राजा की शक्ति कम हो गई और वह ऐसे सामंती सरदारों पर अधिक निर्भर रहने लगा, जिनके पास अपनी स्वयं की सेनाएँ थी, जिनसे वे अपने राजाओं का विरोध कर सकते थे। भारतीय राज्यों की आन्तरिक कमज़ोरी और मतभेद, बाद में तुर्कों से उनके संघर्ष में घातक सिद्ध हुए। ये छोटे राज्य व्यापार को निरुत्साहित करते थे तथा ग्रामों में ऐसी अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहित करते थे जिससे वे अधिक से अधिक आत्मनिर्भर बन सकें। इन सामंती सरदारों के प्रभाव से ग्राम का स्वशासन भी कमज़ोर हो गया। इसके बावजूद सामंतवादी व्यवस्था के कुछ लाभ भी थे। हिंसा तथा अशान्ति के युग में अधिक शक्तिशाली सामंती सरदारों ने किसानों तथा अन्य लोगों के जीवन तथा उनकी सम्पत्ति को सुरक्षा प्रदान की। जिसके बिना रोज़मर्रा की जीवन बहुत कठिन हो जाता। कुछ सामंतों ने कृषि के विस्तार और विकास में भी रुचि दिखाई।

जीवन स्तर

इस काल में भी भारतीय दस्तकारी तथा खनन कार्य उच्च स्तर का बना रहा तथा कृषि भी उन्नतिशील रही। भारत आने वाले कई अरब यात्रियों ने यहाँ की ज़मीन की उर्वरता और भारतीय किसानों की कुशलता की चर्चा की है। इस काल की सभी साहित्यिक कृतियों में मंत्रियों, अधिकारियों तथा सामंतों की शान-शौक़त तथा दिखावे का वर्णन मिलता है। उन्होंने राजा के रहने के रंग-ढंग की नक़ल की और रहने के लिए तीन से पाँच मंज़िली इमारतें बनवाई। ये चीनी रेशम तथा आयातित ऊन से बने विदेशी कपड़े पहनते थे तथा बहूमूल्य जवाहरातों और सोने-चाँदी के आभूषण धारण करते थे। इनके घरों में बड़ी संख्या में स्त्रियाँ होती थीं और उनकी देख-रेख के लिए उतनी ही संख्या में घरेलू नौकर होते थे। ये जब भी बाहर जाते थे तो इनके साथ पूरा क़ाफ़िला चलता था। ये 'महासामंतरधिपति' जैसी बड़ी-बड़ी पदवियाँ स्वयं ग्रहण कर लेते थे और व्यक्तिगत प्रतीक के रूप में झण्डे, नक़्क़ाशी की हुई छतरियाँ तथा चंवर रखते थे। उस समय की एक कृति में एक राजकीय अधिकारी के युवा-पुत्र का वर्णन है, जो राजकीय अधिकारियों तथा छोटे सामंतों के वर्ग का प्रतीक माना जा सकता है। इस कृति में उसका वर्णन करते हुए कहा गया है कि वह विशेष प्रकार की अंगूठियाँ तथा कुंडल धारण करता है और गले में सोने की जंजीर पहनता है। वह अपने शरीर पर कस्तूरी लगा कर रखता है। जिससे उसमें पीलापन आ जाता है। उसके जूते भी नक्क़ाशीदार हैं तथा उसके वस्त्र कस्तूरी रंग से रंगे हुए हैं जिनमें सोने का बॉर्डर है। जब भी वह आम जनता के बीच आता है, उसके साथ कई सेवक चलते हैं जिनमें से पाँच छः हथियारबन्द होते हैं तथा एक सेवक के हाथ में पानदान रहता है।

रहन-सहन

राजा के रहन-सहन के ढंग की नक़ल बड़े व्यापारियों ने भी की। चालुक्य सम्राट के एक कोटीश्वर व्यापारी के बारे में कहा गया है कि उसके भवन के ऊपर बड़े-बड़े झण्डे फहराते थे जिनमें घण्टियाँ लगी रहती थी तथा उसके पास बड़ी संख्या में हाथी और घोड़े थे। उसके मुख्य भवन में जाने के लिए स्फटिक की सीढ़ियाँ थीं। उसके मन्दिर में भी स्फटिक का फ़र्श और स्फटिक की दीवारें थीं, जिन पर कई धार्मिक चित्र बने हुए थे। मन्दिर में प्रतिष्ठापित प्रतिमा भी स्फटिक की थी। गुजरात के वस्तुपाल तथा तेजपाल नामक मंत्रियों के बारे में कहा जाता है कि वे अपने समय के सबसे धनी व्यापारी थे। ऐसा नहीं था कि चारों तरफ समृद्धि और खुशहाली छाई थी। अनाज सस्ता अवश्य था लेकिन इसके बावजूद शहरों में ऐसे ग़रीब लोग थे जिनको भरपेट खाना भी नहीं मिल पाता था। राजतरंगिनी[2] के लेखक के मन में इन्हीं लोगों की बात है, जब वह हमें बताता है कि एक ओर दरबारी लोग भुना गोश्त खाते थे और ठण्डी और सुगन्धित शराब पीते थे तो दूसरी ओर आम आदमी को चावल तथा उत्पलसेक[3] से सन्तोष कर लेना पड़ता था।

सामंतो द्वारा लगान वसूली

इस समय के निर्धन लोगों के विषय में कई कहानियाँ मिलती हैं। कई लोग ग़रीबी से तंग आकर डाकू तथा लुटेरे बन जाते थे। जहाँ तक ग्रामों का सवाल है, जिनमें अधिकतर आबादी बसती थी, हमें किसानों के जीवन के बारे में साहित्यिक कृतियों तथा भूमि अनुदान से सम्बन्धित अभिलेखों से पता चलता है। धर्मशास्त्रों के व्याख्याकारों के अनुसार, पहले की तरह लगान की दर अभी भी कुल उत्पादन का छठा हिस्सा थी। लेकिन कुद अनुदानों से हमें पता चलता है कि इसके अलावा भी कई प्रकार के कर थे। जैसे तालाब-कर और चारागाह-कर। किसानों को निर्धारित लगान के अलावा ये कर भी देने पड़ते थे। कुछ अनुदानों से ज़मीन के मालिक को यह अधिकार मिल जाता था कि वह उस ज़मीन पर उचित अथवा अनुचित अर्थात अपनी इच्छा से कर लगा सकता था जो ग़रीब किसानों को लगान के अलावा चुकाना ही पड़ता था। किसानों को बेगार भी करनी पड़ती थी। मध्य भारत तथा उड़ीसा के कुछ मामलों में तो हम पाते हैं कि मध्ययुगीन यूरोप के कृषि दासों की भाँति यहाँ भी गाँवों के साथ-साथ वहाँ बसे हुए किसान, चरवाहे तथा दस्तकार भी दान में दे दिये जाते थे। साहित्यिक कृतियों में हमें ऐसे सामंतों के बारे में पढ़ने को मिलता है जो पैसा वसूलने का कोई भी मौक़ा चूकते नहीं थे। बताया जाता है कि राजपूत सरदार तो बटेरों, मृत पक्षियों, सूअर की लीद तथा मृत व्यक्तियों के क़फ़न से भी पैसा बनाया करते थे। एक अन्य सामंत की चर्चा है कि जिसके अत्याचारों से त्रस्त होकर गाँव की सारी की सारी आबादी ने गाँव को ही छोड़ दिया था।

सरदारों के ये अत्याचार तो थे ही फिर इसके ऊपर युद्ध और बाढ़ का प्रकोप भी था। युद्ध में नहरों और तालाबों को तोड़ देना, गाँव के गाँव ही जला देना, ज़बर्दस्ती सारे अनाज और सारे पशुओं को क़ब्ज़े में कर लेना आम बात थी। यहाँ तक कि सामंतवादी व्यवस्था के लेखकों ने इस प्रकार के कार्यों को उचित माना है।

वर्ण व्यवस्था

पहले से चली आ रही वर्ण व्यवस्था इस युग में भी क़ायम रही। स्मृतियों के लेखकों ने ब्राह्मणों के विशेषाधिकारों के बारे में बढ़ा-चढ़ा कर तो कहा ही, शूद्रों की सामाजिक और धार्मिक अयोग्यता को उचित ठहराने में तो वे पिछले लेखकों से कहीं आगे निकल गए। एक लेखक, पराशर के अनुसार शूद्र के साथ भोजन, उसके साथ मिलना-जुलना, शूद्र के साथ एक ही आसन पर बैठना तथा शूद्र से शिक्षा ग्रहण करना ऐसे कार्य हैं जो उच्चतम व्यक्ति का नीच बना देते हैं। यहाँ तक की शूद्रों की छाया तक दूषित थी। यह कहना कठिन है कि स्मृतियों के रचनाकारों के विचारों का व्यावहारिक जीवन में कितना पालन किया जाता था, पर इसमें कोई संदेह नहीं कि नीची समझी जाने वाली जातियों की इस काल में स्थिति और भी ख़राब हो गयी। अंतर्जातीय विवाह को भी नीची दृष्टि से देखा जाता था। यदि कोई उच्च जाति पुरुष निम्न जाति की स्त्री से विवाह करता था तो उसके बच्चों की जाति माँ की जाति के अनुसार तय की जाती थी। इसके विपरीत यदि उच्च कुल की स्त्री नीच कुल के पुरुष से विवाह करती थी तो बच्चे की जाति बाप की जाति से तय की जाती थी। समसामयिक लेखकों ने उस समय की कई जातियों की चर्चा की है। जिनमें कुम्हार, बुनकर, सुनार, संगीतज्ञ, नाई, चमार, ब्याध तथा मछेरे शामिल थे। इनमें से कुछ ने तो अपने रोजग़ार के हिसाब से संघ बना लिए थे, पर उनकी गिनती भी एक जाति के रूप में ही होती थी। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि स्मृति लेखकों ने दस्तकारी को नीच जाति को पेशा माना है। इस प्रकार अधिकतर मज़दूर और भोलों जैसे आदिवासी, अछूतों की श्रेणी में गिने जाने लगे थे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जिनको भोग कहा जाता था
  2. जिसकी रचना कश्मीर में बारहवीं शताब्दी में हुई थी
  3. एक प्रकार की खारी सब्जी

बाहरी कड़ियाँ

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