"प्रियप्रवास तृतीय सर्ग": अवतरणों में अंतर
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अटल भूतल में तम-राज्य था। | अटल भूतल में तम-राज्य था। | ||
प्रलय – काल समान प्रसुप्त हो। | प्रलय – काल समान प्रसुप्त हो। | ||
प्रकृति निश्चल, नीरव, शांत | प्रकृति निश्चल, नीरव, शांत थी॥1॥ | ||
परम - धीर समीर - प्रवाह था। | परम - धीर समीर - प्रवाह था। | ||
वह मनों कुछ निद्रित था हुआ। | वह मनों कुछ निद्रित था हुआ। | ||
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तम – निमज्जित आहट थी हुई। | तम – निमज्जित आहट थी हुई। | ||
निपट नीरवता सब ओर थी। | निपट नीरवता सब ओर थी। | ||
गुण – विहीन हुआ जनु व्योम | गुण – विहीन हुआ जनु व्योम था॥1०॥ | ||
इस तमोमय मौन निशीथ की। | इस तमोमय मौन निशीथ की। | ||
सहज – नीरवता क्षिति – व्यापिनी। | सहज – नीरवता क्षिति – व्यापिनी। | ||
कलुपिता ब्रज की महि के लिए। | कलुपिता ब्रज की महि के लिए। | ||
तनिक थी न विराम | तनिक थी न विराम प्रदायिनी॥11॥ | ||
दलन थी करती उसको कभी। | दलन थी करती उसको कभी। | ||
रुदन की ध्वनि दूर समागता। | रुदन की ध्वनि दूर समागता। | ||
वह कभी बहु थी प्रतिघातता। | वह कभी बहु थी प्रतिघातता। | ||
जन – विवोधक – कर्कश – शब्द | जन – विवोधक – कर्कश – शब्द से॥1२॥ | ||
कल प्रयाण निमित्त जहाँ – तहाँ। | कल प्रयाण निमित्त जहाँ – तहाँ। | ||
वहन जो करते बहु वस्तु थे। | वहन जो करते बहु वस्तु थे। | ||
श्रम – सना उनका रव - प्रायश:। | श्रम – सना उनका रव - प्रायश:। | ||
कर रहा निशि – शांति विनाश | कर रहा निशि – शांति विनाश था॥1३॥ | ||
प्रगटती बहु - भीषण मूर्ति थी। | प्रगटती बहु - भीषण मूर्ति थी। | ||
कर रहा भय तांडव नृत्य था। | कर रहा भय तांडव नृत्य था। | ||
बिकट – दंट भयंकर - प्रेत भी। | बिकट – दंट भयंकर - प्रेत भी। | ||
बिचरते तरु – मूल – समीप | बिचरते तरु – मूल – समीप थे॥1४॥ | ||
वदन व्यादन पूर्वक प्रेतिनी। | वदन व्यादन पूर्वक प्रेतिनी। | ||
भय – प्रदर्शन थी करती महा। | भय – प्रदर्शन थी करती महा। | ||
निकलती जिससे अविराम थी। | निकलती जिससे अविराम थी। | ||
अनल की अति - त्रासकरी - | अनल की अति - त्रासकरी - शिखा॥1५॥ | ||
तिमिर – लीन – कलेवर को लिए। | तिमिर – लीन – कलेवर को लिए। | ||
विकट – दानव पादप थे बने। | विकट – दानव पादप थे बने। | ||
भ्रममयी जिसकी विकरालता। | भ्रममयी जिसकी विकरालता। | ||
चलित थी करती पवि – चित्त | चलित थी करती पवि – चित्त को॥1६॥ | ||
अति – सशंकित और सभीत हो। | अति – सशंकित और सभीत हो। | ||
मन कभी यह था अनुमानता। | मन कभी यह था अनुमानता। | ||
ब्रज समूल विनाशन को खड़े। | ब्रज समूल विनाशन को खड़े। | ||
यह निशाचर हैं नृप – कंस | यह निशाचर हैं नृप – कंस के॥1७॥ | ||
अति – भयानक – भूमि मसान की। | अति – भयानक – भूमि मसान की। | ||
बहन थी करती शव – राशि को। | बहन थी करती शव – राशि को। | ||
बहु – विभीषणता जिनकी कभी। | बहु – विभीषणता जिनकी कभी। | ||
दृग नहीं सकते अवलोक | दृग नहीं सकते अवलोक थे॥1८॥ | ||
बिकट - दंत दिखाकर खोपड़ी। | बिकट - दंत दिखाकर खोपड़ी। | ||
कर रही अति - भैरव - हास थी। | कर रही अति - भैरव - हास थी। | ||
विपुल – अस्थि - समूह विभीषिका। | विपुल – अस्थि - समूह विभीषिका। | ||
भर रही भय थी बन | भर रही भय थी बन भैरवी॥1९॥ | ||
इस भयंकर - घोर - निशीथ में। | इस भयंकर - घोर - निशीथ में। | ||
विकलता अति – कातरता - मयी। | विकलता अति – कातरता - मयी। | ||
पंक्ति 107: | पंक्ति 107: | ||
कर गहे दुखव्यंजक भाव से। | कर गहे दुखव्यंजक भाव से। | ||
विषम – संकट बीच पड़े हुए। | विषम – संकट बीच पड़े हुए। | ||
बिलखते चुपचाप ब्रजेश | बिलखते चुपचाप ब्रजेश थे॥२1॥ | ||
हृदय – निर्गत वाष्प समूह से। | हृदय – निर्गत वाष्प समूह से। | ||
सजल थे युग - लोचन हो रहे। | सजल थे युग - लोचन हो रहे। | ||
पंक्ति 147: | पंक्ति 147: | ||
विचकता जब थीं अवलोकती। | विचकता जब थीं अवलोकती। | ||
विवश सी जब थीं फिर देखती। | विवश सी जब थीं फिर देखती। | ||
सरलता, मृदुता, | सरलता, मृदुता, सुकुमारता॥३1॥ | ||
तदुपरांत नृपाधम - नीति की। | तदुपरांत नृपाधम - नीति की। | ||
अति भयंकरता जब सोचतीं। | अति भयंकरता जब सोचतीं। | ||
पंक्ति 187: | पंक्ति 187: | ||
प्रभु रही भवदीय सुदृष्टि है। | प्रभु रही भवदीय सुदृष्टि है। | ||
यह सुमंगल मूल सुदृष्टि ही। | यह सुमंगल मूल सुदृष्टि ही। | ||
अति अपेक्षित है इस काल | अति अपेक्षित है इस काल भी॥४1॥ | ||
समझ के पद - पंकज - सेविका। | समझ के पद - पंकज - सेविका। | ||
कर सकी अपराध कभी नहीं। | कर सकी अपराध कभी नहीं। | ||
पंक्ति 233: | पंक्ति 233: | ||
सतत संतति संकट - शोच से। | सतत संतति संकट - शोच से। | ||
वह सकंटक ही करती नहीं। | वह सकंटक ही करती नहीं। | ||
वरन जीवन है करती | वरन जीवन है करती वृथा॥५1॥ | ||
बहुत चिंतित थी पद-सेविका। | बहुत चिंतित थी पद-सेविका। | ||
प्रथम भी यक संतति के लिए। | प्रथम भी यक संतति के लिए। | ||
पंक्ति 273: | पंक्ति 273: | ||
सुर गजेन्द्र समान पराक्रमी। | सुर गजेन्द्र समान पराक्रमी। | ||
द्विरद क्या जननी उपयुक्त है। | द्विरद क्या जननी उपयुक्त है। | ||
यक पयो-मुख बालक के | यक पयो-मुख बालक के लिये॥६1॥ | ||
व्यथित हो कर क्यों बिलखूँ नहीं। | व्यथित हो कर क्यों बिलखूँ नहीं। | ||
अहह धीरज क्योंकर मै धरूँ। | अहह धीरज क्योंकर मै धरूँ। |
09:48, 1 नवम्बर 2014 का अवतरण
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