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'''सण्डीला''' [[उत्तर प्रदेश]] के [[हरदोई]] जनपद का एक ख़ूबसूरत नगर है। यह नगर हरदोई के दक्षिण से लगभग 50 किलोमीटर और [[लखनऊ]] के उत्तर-पश्चिम से 55 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस जगह की स्थापना [[शाण्डिल्य|ऋषि शाण्डिल्य]] ने की थी। उन्हीं के नाम पर इस जगह का नाम रखा गया है। यह काफी समय पूर्व [[नैमिषारण्य]] तीर्थ का हिस्सा थी। कई प्राचीन इमारतें, [[मस्जिद]] और बाराखम्भा आदि इस शहर का प्रमुख आकर्षण है। इसके अलावा, हत्याहरण यहां का प्रमुख धार्मिक स्थल है।
'''सण्डीला''' [[उत्तर प्रदेश]] के [[हरदोई]] जनपद का एक ख़ूबसूरत नगर है। यह नगर हरदोई के दक्षिण से लगभग 50 किलोमीटर और [[लखनऊ]] के उत्तर-पश्चिम से 55 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस जगह की स्थापना [[शाण्डिल्य|ऋषि शाण्डिल्य]] ने की थी। उन्हीं के नाम पर इस जगह का नाम रखा गया है। यह काफ़ी समय पूर्व [[नैमिषारण्य]] तीर्थ का हिस्सा थी। कई प्राचीन इमारतें, [[मस्जिद]] और बाराखम्भा आदि इस शहर का प्रमुख आकर्षण है। इसके अलावा, हत्याहरण यहां का प्रमुख धार्मिक स्थल है।
==मां शीतला देवी का मन्दिर==
==मां शीतला देवी का मन्दिर==
सण्डीला कस्बे पश्चिम सिरे पर एक विशाल सरोवर के किनारे लगभग 1000 वर्ष पुराना मां शीतला देवी का भव्य मन्दिर है। सिद्ध पीठ रूप में विख्यात यह मन्दिर विगत कई वर्षों से मां की महिमा के कारण क्षेत्र में चर्चित है। यही कारण है कि [[नवरात्रि]] के दिनों में आस-पास के जनपदों से भारी मात्रा में श्रद्धालु आते हैं और गदर्भ सवार माँ शीतला के मन्दिर में माथा टेकते हैं। माता सभी की मनोकामना पूर्ण करती है एवं उनकी खाली झोली भर जाती है। इस मन्दिर की ऐतिहासिकता के बारे में बताया जाता है कि जबसे यहां [[शाण्डिल्य|शाण्डिल्य ऋषि]] ने तपस्या की थी तभी से यहां मां का वास है। [[ब्रिटिश शासन]] काल में एक [[अंग्रेज़]] गर्वनर यहां शिकार खेलने आया था, उसने जंगल के बीच छोटी मठिया में देवी की मूर्ति को देखा और उस मूर्ति पर पूजन सामग्री [[पुष्प]] आदि चढ़े दिखाई दिये। यह मूर्ति मां शीतला की थी जो आज भी मौजूद है। इस मूर्ति के अवतरण के बारे में कोई जानकारी नहीं है। मठिया के पास एक छोटा सा तालाब था जो आज विशाल सरोवर (तीर्थ) के रूप में विद्यमान है। माता के दर्शन के बाद उस गर्वनर पर मां का इतना प्रभाव पड़ा कि उसने जंगल में शिकार करने पर पाबन्दी लगा दी। उन्हीं दिनों चिनहट निवासी दो भाई सण्डीला में व्यापार के सिलसिले में आये थे। उनको व्यापार में लगातार घाटा हो रहा था इससे वह बेहद परेशान थे। इस परेशानी में दोनों भाई टहलते हुए जंगल की ओर निकल गये, वहां पर स्थापित मूर्ति के दर्शन कर प्रार्थना की। यदि उनका व्यापार फला-फूला तो यहां पर वह भव्य मन्दिर बनवायेंगे। माता के आर्शीवाद से दोनों भाई क्रमशः लाल्ता शाह व शीतला प्रसाद शाह ने वहां पर भव्य मन्दिर व सरोवर का निर्माण कराया। अंग्रेज गर्वनर ने भी लाल्ता शाह के नाम पर 18 बीघा ज़मीन को पट्टा कर दिया। इन भाईयों का व्यापार [[कलकत्ता]] से चलता रहा। इसी बीच कलकत्ता के व्यापारी मनमोहन लाल जैन वसूली करने सण्डीला आये। मां शीतला के दर्शन कर वह भी मन्त्र मुग्ध हो गये। उन्होंने मन्दिर के नाम 50 हज़ार रुपये जमा कर दिये। इनके नाम का पत्थर आज भी सरोवर के किनारे लगा हुआ है। सरोवर के उत्तर की ओर गऊ घाट, पश्चिम की ओर जनाना घाट और पूरब व दक्षिण की ओर मर्दाना घाट है। इसके बाद शाह भाइयों ने मन्दिर की देख रेख के लिए एक पुजारी नियुक्ति किया, और वसीहत लिख दी कि भविष्य में उनके खानदान के लोग मन्दिर का प्रबन्धन कार्य देखेंगे।  
सण्डीला कस्बे पश्चिम सिरे पर एक विशाल सरोवर के किनारे लगभग 1000 वर्ष पुराना मां शीतला देवी का भव्य मन्दिर है। सिद्ध पीठ रूप में विख्यात यह मन्दिर विगत कई वर्षों से मां की महिमा के कारण क्षेत्र में चर्चित है। यही कारण है कि [[नवरात्रि]] के दिनों में आस-पास के जनपदों से भारी मात्रा में श्रद्धालु आते हैं और गदर्भ सवार माँ शीतला के मन्दिर में माथा टेकते हैं। माता सभी की मनोकामना पूर्ण करती है एवं उनकी खाली झोली भर जाती है। इस मन्दिर की ऐतिहासिकता के बारे में बताया जाता है कि जबसे यहां [[शाण्डिल्य|शाण्डिल्य ऋषि]] ने तपस्या की थी तभी से यहां मां का वास है। [[ब्रिटिश शासन]] काल में एक [[अंग्रेज़]] गर्वनर यहां शिकार खेलने आया था, उसने जंगल के बीच छोटी मठिया में देवी की मूर्ति को देखा और उस मूर्ति पर पूजन सामग्री [[पुष्प]] आदि चढ़े दिखाई दिये। यह मूर्ति मां शीतला की थी जो आज भी मौजूद है। इस मूर्ति के अवतरण के बारे में कोई जानकारी नहीं है। मठिया के पास एक छोटा सा तालाब था जो आज विशाल सरोवर (तीर्थ) के रूप में विद्यमान है। माता के दर्शन के बाद उस गर्वनर पर मां का इतना प्रभाव पड़ा कि उसने जंगल में शिकार करने पर पाबन्दी लगा दी। उन्हीं दिनों चिनहट निवासी दो भाई सण्डीला में व्यापार के सिलसिले में आये थे। उनको व्यापार में लगातार घाटा हो रहा था इससे वह बेहद परेशान थे। इस परेशानी में दोनों भाई टहलते हुए जंगल की ओर निकल गये, वहां पर स्थापित मूर्ति के दर्शन कर प्रार्थना की। यदि उनका व्यापार फला-फूला तो यहां पर वह भव्य मन्दिर बनवायेंगे। माता के आर्शीवाद से दोनों भाई क्रमशः लाल्ता शाह व शीतला प्रसाद शाह ने वहां पर भव्य मन्दिर व सरोवर का निर्माण कराया। अंग्रेज गर्वनर ने भी लाल्ता शाह के नाम पर 18 बीघा ज़मीन को पट्टा कर दिया। इन भाईयों का व्यापार [[कलकत्ता]] से चलता रहा। इसी बीच कलकत्ता के व्यापारी मनमोहन लाल जैन वसूली करने सण्डीला आये। मां शीतला के दर्शन कर वह भी मन्त्र मुग्ध हो गये। उन्होंने मन्दिर के नाम 50 हज़ार रुपये जमा कर दिये। इनके नाम का पत्थर आज भी सरोवर के किनारे लगा हुआ है। सरोवर के उत्तर की ओर गऊ घाट, पश्चिम की ओर जनाना घाट और पूरब व दक्षिण की ओर मर्दाना घाट है। इसके बाद शाह भाइयों ने मन्दिर की देख रेख के लिए एक पुजारी नियुक्ति किया, और वसीहत लिख दी कि भविष्य में उनके खानदान के लोग मन्दिर का प्रबन्धन कार्य देखेंगे।  
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शीतला मन्दिर के चारों ओर राम जानकी मन्दिर, ठाकुर जी मन्दिर, हनुमान मन्दिर, शिव जी मन्दिर, के अतिरिक्त लगभग आधा दर्जन मन्दिर बने हुए हैं। कुछ वर्षों पूर्व इस उपेक्षित पड़े मन्दिर को शासन प्रशासन एवं युवाओं ने जीर्णोद्धार करने का प्रण किया, और निर्माण कार्य प्रारम्भ करा दिया। परिसर की नई बाउन्ड्रीवाल बनवाई गई। अन्दर से लेकर बाहर तक मर्बल्स लगाये गये एवं समस्त निकासी द्वारा नये बनवाये गये।
शीतला मन्दिर के चारों ओर राम जानकी मन्दिर, ठाकुर जी मन्दिर, हनुमान मन्दिर, शिव जी मन्दिर, के अतिरिक्त लगभग आधा दर्जन मन्दिर बने हुए हैं। कुछ वर्षों पूर्व इस उपेक्षित पड़े मन्दिर को शासन प्रशासन एवं युवाओं ने जीर्णोद्धार करने का प्रण किया, और निर्माण कार्य प्रारम्भ करा दिया। परिसर की नई बाउन्ड्रीवाल बनवाई गई। अन्दर से लेकर बाहर तक मर्बल्स लगाये गये एवं समस्त निकासी द्वारा नये बनवाये गये।
==गहावर देवी का मन्दिर==
==गहावर देवी का मन्दिर==
मां गहावर देवी जी के मंदिर का ऐतिहासिक महत्व है। मां गहावर देवी जी की दुर्लभ मूर्ति क़रीब 200 वर्ष पहले मांडर कस्बे के उत्तर पश्चिम में एक कुएं की खुदाई में मिली थी। इस सिद्धपीठ के संबंध में प्रचलित है कि इस पवित्र स्थान पर मां का स्मरण करने से उपासक के महापातक कट जाते हैं। करीब दो सौ वर्ष पूर्व मांडर में लोगों को पानी की समस्या थी। गांव के उत्तर-पश्चिम में लाला चंद्रिका प्रसाद का घना जंगल था। जंगल में एक [[कुआं]] था, जो बंद पड़ा था। ग्रामीणों ने उस कुएं की खुदाई की। जब कुआं काफी गहराई में खोदा जा रहा था, तब उसमें एक मूर्ति निकली थी। जिसकी लंबाई चार फिट और चौड़ाई तीन फिट थी। मूर्ति में शेर पर सवार माता रानी की मूर्ति थी। ग्रामीणों ने कुएं के पास ही मूर्ति की स्थापना रखी। बाबा रामशरण पाठक ने सारे ग्रामीणों को कुएं के पास एकत्र किया और बताया कि रात में स्वप्न में मैंने देखा कि मुझसे एक देवी कह रही है कि आप लोग मेरी पूजा अर्चना गहावर देवी नाम से की जाए। तब ग्रामीणों के बुलंद सहयोग से एक मंदिर का निर्माण कराया गया तथा करीब 15 बिस्वा में बाउंड्रीवाल बनाई गई। मंदिर के नाम पर 30 बिस्वा भूमि भी कर दी गई। मंदिर के पुजारी राजेश पाठक बताते हैं कि मूर्ति [[रंग]] भी बदलती है। सुबह दूधिया दोपहर में भूरा व रात में [[काला रंग|काले रंग]] की दिखती है। मूर्ति देखने में अतुल शोभनीय है। मंदिर के अंदर घुसते ही गेट के पूरब में माता काली, माता शारदा देवी का छोटा मंदिर है। उसी से सटा हुआ एक छोटा [[शिवलिंग]] भी है। माता जी के उत्तर में [[सरस्वती देवी|सरस्वती]] माता जी का एक छोटा मंदिर बना है। इसके ठीक सामने बड़ा सा [[हनुमान|हनुमान जी]] का भव्य मंदिर भी बना है। यहां पर एक [[वर्ष]] में चार बार मेला लगता है। पहला मेला [[चैत्र]] की [[नवरात्र]], दूसरा [[बैसाख]] की [[अष्टमी]], तीसरा [[ज्येष्ठ]] की अष्टमी को और चौथा [[आश्विन|क्वार (आश्विन)]] को नवरात्र में लगता है। यहां पर दूर-दूर से श्रद्धालु आते हैं। मेले में [[रामलीला]] भी होती है।
मां गहावर देवी जी के मंदिर का ऐतिहासिक महत्व है। मां गहावर देवी जी की दुर्लभ मूर्ति क़रीब 200 वर्ष पहले मांडर कस्बे के उत्तर पश्चिम में एक कुएं की खुदाई में मिली थी। इस सिद्धपीठ के संबंध में प्रचलित है कि इस पवित्र स्थान पर मां का स्मरण करने से उपासक के महापातक कट जाते हैं। करीब दो सौ वर्ष पूर्व मांडर में लोगों को पानी की समस्या थी। गांव के उत्तर-पश्चिम में लाला चंद्रिका प्रसाद का घना जंगल था। जंगल में एक [[कुआं]] था, जो बंद पड़ा था। ग्रामीणों ने उस कुएं की खुदाई की। जब कुआं काफ़ी गहराई में खोदा जा रहा था, तब उसमें एक मूर्ति निकली थी। जिसकी लंबाई चार फिट और चौड़ाई तीन फिट थी। मूर्ति में शेर पर सवार माता रानी की मूर्ति थी। ग्रामीणों ने कुएं के पास ही मूर्ति की स्थापना रखी। बाबा रामशरण पाठक ने सारे ग्रामीणों को कुएं के पास एकत्र किया और बताया कि रात में स्वप्न में मैंने देखा कि मुझसे एक देवी कह रही है कि आप लोग मेरी पूजा अर्चना गहावर देवी नाम से की जाए। तब ग्रामीणों के बुलंद सहयोग से एक मंदिर का निर्माण कराया गया तथा करीब 15 बिस्वा में बाउंड्रीवाल बनाई गई। मंदिर के नाम पर 30 बिस्वा भूमि भी कर दी गई। मंदिर के पुजारी राजेश पाठक बताते हैं कि मूर्ति [[रंग]] भी बदलती है। सुबह दूधिया दोपहर में भूरा व रात में [[काला रंग|काले रंग]] की दिखती है। मूर्ति देखने में अतुल शोभनीय है। मंदिर के अंदर घुसते ही गेट के पूरब में माता काली, माता शारदा देवी का छोटा मंदिर है। उसी से सटा हुआ एक छोटा [[शिवलिंग]] भी है। माता जी के उत्तर में [[सरस्वती देवी|सरस्वती]] माता जी का एक छोटा मंदिर बना है। इसके ठीक सामने बड़ा सा [[हनुमान|हनुमान जी]] का भव्य मंदिर भी बना है। यहां पर एक [[वर्ष]] में चार बार मेला लगता है। पहला मेला [[चैत्र]] की [[नवरात्र]], दूसरा [[बैसाख]] की [[अष्टमी]], तीसरा [[ज्येष्ठ]] की अष्टमी को और चौथा [[आश्विन|क्वार (आश्विन)]] को नवरात्र में लगता है। यहां पर दूर-दूर से श्रद्धालु आते हैं। मेले में [[रामलीला]] भी होती है।





14:11, 1 नवम्बर 2014 का अवतरण

सण्डीला उत्तर प्रदेश के हरदोई जनपद का एक ख़ूबसूरत नगर है। यह नगर हरदोई के दक्षिण से लगभग 50 किलोमीटर और लखनऊ के उत्तर-पश्चिम से 55 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस जगह की स्थापना ऋषि शाण्डिल्य ने की थी। उन्हीं के नाम पर इस जगह का नाम रखा गया है। यह काफ़ी समय पूर्व नैमिषारण्य तीर्थ का हिस्सा थी। कई प्राचीन इमारतें, मस्जिद और बाराखम्भा आदि इस शहर का प्रमुख आकर्षण है। इसके अलावा, हत्याहरण यहां का प्रमुख धार्मिक स्थल है।

मां शीतला देवी का मन्दिर

सण्डीला कस्बे पश्चिम सिरे पर एक विशाल सरोवर के किनारे लगभग 1000 वर्ष पुराना मां शीतला देवी का भव्य मन्दिर है। सिद्ध पीठ रूप में विख्यात यह मन्दिर विगत कई वर्षों से मां की महिमा के कारण क्षेत्र में चर्चित है। यही कारण है कि नवरात्रि के दिनों में आस-पास के जनपदों से भारी मात्रा में श्रद्धालु आते हैं और गदर्भ सवार माँ शीतला के मन्दिर में माथा टेकते हैं। माता सभी की मनोकामना पूर्ण करती है एवं उनकी खाली झोली भर जाती है। इस मन्दिर की ऐतिहासिकता के बारे में बताया जाता है कि जबसे यहां शाण्डिल्य ऋषि ने तपस्या की थी तभी से यहां मां का वास है। ब्रिटिश शासन काल में एक अंग्रेज़ गर्वनर यहां शिकार खेलने आया था, उसने जंगल के बीच छोटी मठिया में देवी की मूर्ति को देखा और उस मूर्ति पर पूजन सामग्री पुष्प आदि चढ़े दिखाई दिये। यह मूर्ति मां शीतला की थी जो आज भी मौजूद है। इस मूर्ति के अवतरण के बारे में कोई जानकारी नहीं है। मठिया के पास एक छोटा सा तालाब था जो आज विशाल सरोवर (तीर्थ) के रूप में विद्यमान है। माता के दर्शन के बाद उस गर्वनर पर मां का इतना प्रभाव पड़ा कि उसने जंगल में शिकार करने पर पाबन्दी लगा दी। उन्हीं दिनों चिनहट निवासी दो भाई सण्डीला में व्यापार के सिलसिले में आये थे। उनको व्यापार में लगातार घाटा हो रहा था इससे वह बेहद परेशान थे। इस परेशानी में दोनों भाई टहलते हुए जंगल की ओर निकल गये, वहां पर स्थापित मूर्ति के दर्शन कर प्रार्थना की। यदि उनका व्यापार फला-फूला तो यहां पर वह भव्य मन्दिर बनवायेंगे। माता के आर्शीवाद से दोनों भाई क्रमशः लाल्ता शाह व शीतला प्रसाद शाह ने वहां पर भव्य मन्दिर व सरोवर का निर्माण कराया। अंग्रेज गर्वनर ने भी लाल्ता शाह के नाम पर 18 बीघा ज़मीन को पट्टा कर दिया। इन भाईयों का व्यापार कलकत्ता से चलता रहा। इसी बीच कलकत्ता के व्यापारी मनमोहन लाल जैन वसूली करने सण्डीला आये। मां शीतला के दर्शन कर वह भी मन्त्र मुग्ध हो गये। उन्होंने मन्दिर के नाम 50 हज़ार रुपये जमा कर दिये। इनके नाम का पत्थर आज भी सरोवर के किनारे लगा हुआ है। सरोवर के उत्तर की ओर गऊ घाट, पश्चिम की ओर जनाना घाट और पूरब व दक्षिण की ओर मर्दाना घाट है। इसके बाद शाह भाइयों ने मन्दिर की देख रेख के लिए एक पुजारी नियुक्ति किया, और वसीहत लिख दी कि भविष्य में उनके खानदान के लोग मन्दिर का प्रबन्धन कार्य देखेंगे।

वर्तमान स्थिति

शीतला मन्दिर के चारों ओर राम जानकी मन्दिर, ठाकुर जी मन्दिर, हनुमान मन्दिर, शिव जी मन्दिर, के अतिरिक्त लगभग आधा दर्जन मन्दिर बने हुए हैं। कुछ वर्षों पूर्व इस उपेक्षित पड़े मन्दिर को शासन प्रशासन एवं युवाओं ने जीर्णोद्धार करने का प्रण किया, और निर्माण कार्य प्रारम्भ करा दिया। परिसर की नई बाउन्ड्रीवाल बनवाई गई। अन्दर से लेकर बाहर तक मर्बल्स लगाये गये एवं समस्त निकासी द्वारा नये बनवाये गये।

गहावर देवी का मन्दिर

मां गहावर देवी जी के मंदिर का ऐतिहासिक महत्व है। मां गहावर देवी जी की दुर्लभ मूर्ति क़रीब 200 वर्ष पहले मांडर कस्बे के उत्तर पश्चिम में एक कुएं की खुदाई में मिली थी। इस सिद्धपीठ के संबंध में प्रचलित है कि इस पवित्र स्थान पर मां का स्मरण करने से उपासक के महापातक कट जाते हैं। करीब दो सौ वर्ष पूर्व मांडर में लोगों को पानी की समस्या थी। गांव के उत्तर-पश्चिम में लाला चंद्रिका प्रसाद का घना जंगल था। जंगल में एक कुआं था, जो बंद पड़ा था। ग्रामीणों ने उस कुएं की खुदाई की। जब कुआं काफ़ी गहराई में खोदा जा रहा था, तब उसमें एक मूर्ति निकली थी। जिसकी लंबाई चार फिट और चौड़ाई तीन फिट थी। मूर्ति में शेर पर सवार माता रानी की मूर्ति थी। ग्रामीणों ने कुएं के पास ही मूर्ति की स्थापना रखी। बाबा रामशरण पाठक ने सारे ग्रामीणों को कुएं के पास एकत्र किया और बताया कि रात में स्वप्न में मैंने देखा कि मुझसे एक देवी कह रही है कि आप लोग मेरी पूजा अर्चना गहावर देवी नाम से की जाए। तब ग्रामीणों के बुलंद सहयोग से एक मंदिर का निर्माण कराया गया तथा करीब 15 बिस्वा में बाउंड्रीवाल बनाई गई। मंदिर के नाम पर 30 बिस्वा भूमि भी कर दी गई। मंदिर के पुजारी राजेश पाठक बताते हैं कि मूर्ति रंग भी बदलती है। सुबह दूधिया दोपहर में भूरा व रात में काले रंग की दिखती है। मूर्ति देखने में अतुल शोभनीय है। मंदिर के अंदर घुसते ही गेट के पूरब में माता काली, माता शारदा देवी का छोटा मंदिर है। उसी से सटा हुआ एक छोटा शिवलिंग भी है। माता जी के उत्तर में सरस्वती माता जी का एक छोटा मंदिर बना है। इसके ठीक सामने बड़ा सा हनुमान जी का भव्य मंदिर भी बना है। यहां पर एक वर्ष में चार बार मेला लगता है। पहला मेला चैत्र की नवरात्र, दूसरा बैसाख की अष्टमी, तीसरा ज्येष्ठ की अष्टमी को और चौथा क्वार (आश्विन) को नवरात्र में लगता है। यहां पर दूर-दूर से श्रद्धालु आते हैं। मेले में रामलीला भी होती है।


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