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*यह संस्कार गर्भ के चौथे, छ्ठे या आठवें मास में किया जाता है। वैसे आठवां मास ही उपयुक्त है। इसका उद्देश्य गर्भ की शुद्धि और माता को श्रेष्ठचिंतन करने की प्रेरणा प्रदान करना होता है। उल्लेखनीय है की गर्भ में चौथे माह के बाद शिशु के अंग-प्रत्यंग, [[हृदय]] आदि बन जाते है और उनमें चेतना आने लगती है, जिससे बच्चे में जाग्रत इच्छाएं माता के हदय में प्रकट होने लगती हैं। इस समय गर्भस्थशिशु शिक्षणयोग्य बनने लगता है। उसके मन और बुद्धि में नई चेतना-शाक्ति जाग्रत होने लगती है। ऐसे में जो प्रभावशाली अच्छे संस्कार डाले जाते हैं, उनका शिशु के मन पर बहुत गहरा प्रभाव पडता है।<ref name="pjv"></ref>
*यह संस्कार गर्भ के चौथे, छ्ठे या आठवें मास में किया जाता है। वैसे आठवां मास ही उपयुक्त है। इसका उद्देश्य गर्भ की शुद्धि और माता को श्रेष्ठचिंतन करने की प्रेरणा प्रदान करना होता है। उल्लेखनीय है की गर्भ में चौथे माह के बाद शिशु के अंग-प्रत्यंग, [[हृदय]] आदि बन जाते है और उनमें चेतना आने लगती है, जिससे बच्चे में जाग्रत इच्छाएं माता के हदय में प्रकट होने लगती हैं। इस समय गर्भस्थशिशु शिक्षणयोग्य बनने लगता है। उसके मन और बुद्धि में नई चेतना-शाक्ति जाग्रत होने लगती है। ऐसे में जो प्रभावशाली अच्छे संस्कार डाले जाते हैं, उनका शिशु के मन पर बहुत गहरा प्रभाव पडता है।<ref name="pjv"></ref>
*इसमें कोई संदेह नहीं की गर्भस्थशिशु बहुत ही संवेदनशील होता है। सती मदालसा के बारे में कहा जाता है की वह अपने बच्चे के गुण, कर्म और स्वभाव की पूर्व घोषणा कर देती थी, फिर उसी प्रकार निरंतर चिंतन, क्रिया-कलाप, रहन-सहन, आहार-विहार और बर्ताव अपनाती थी, जिससे बच्चा उसी मनोभूमि ढल जाता है, जैसा कि वह चाहती थी।
*इसमें कोई संदेह नहीं की गर्भस्थशिशु बहुत ही संवेदनशील होता है। सती मदालसा के बारे में कहा जाता है की वह अपने बच्चे के गुण, कर्म और स्वभाव की पूर्व घोषणा कर देती थी, फिर उसी प्रकार निरंतर चिंतन, क्रिया-कलाप, रहन-सहन, आहार-विहार और बर्ताव अपनाती थी, जिससे बच्चा उसी मनोभूमि ढल जाता है, जैसा कि वह चाहती थी।
*भक्त [[प्रह्लाद]] की माता कयाधू को देवर्षि [[नारद]] भगवदभक्ति के उपदेश दिया करते थे, जो प्रहलाद ने गर्भ में ही सुने थे। व्यासपुत्र [[शुकदेव]] ने अपनी माँ के गर्भ में सारा ज्ञान प्राप्त कर लिया था।  
*भक्त [[प्रह्लाद]] की माता [[कयाधु]] को [[नारद|देवर्षि नारद]] भगवदभक्ति के उपदेश दिया करते थे, जो प्रहलाद ने गर्भ में ही सुने थे। व्यासपुत्र [[शुकदेव]] ने अपनी माँ के गर्भ में सारा ज्ञान प्राप्त कर लिया था।  
*[[अर्जुन]] ने अपनी गर्भवती पत्नी [[सुभद्रा]] को चक्रव्यूहभेदन की जो शिक्षा दी थी, वह सब गर्भस्थशिशु अभिमन्यु सीख ली थी। उसी शिक्षा के आधार पर 16 वर्ष की आयु में ही [[अभिमन्यु]] ने अकेले 7 महारथियों से युद्ध कर चक्रव्यूह-भेदन किया।<ref name="pjv"></ref>
*[[अर्जुन]] ने अपनी गर्भवती पत्नी [[सुभद्रा]] को चक्रव्यूहभेदन की जो शिक्षा दी थी, वह सब गर्भस्थशिशु अभिमन्यु सीख ली थी। उसी शिक्षा के आधार पर 16 वर्ष की आयु में ही [[अभिमन्यु]] ने अकेले 7 महारथियों से युद्ध कर चक्रव्यूह-भेदन किया।<ref name="pjv"></ref>
*इस संस्कार को करते समय शास्त्रवर्णित गूलर वनस्पति द्धारा गार्भिणी पत्नी के सीमंत (मांग) का ॐ भूर्विनयामि, [[ॐ]] भूर्विनयामि, ॐ भूर्विनयामि, पढते हुए और पृथक करणादि क्रियाएं करते हुए पति को निम्नलिखित मंत्रोच्चारण करना चाहिए -
*इस संस्कार को करते समय शास्त्रवर्णित गूलर वनस्पति द्धारा गार्भिणी पत्नी के सीमंत (मांग) का ॐ भूर्विनयामि, [[ॐ]] भूर्विनयामि, ॐ भूर्विनयामि, पढते हुए और पृथक करणादि क्रियाएं करते हुए पति को निम्नलिखित मंत्रोच्चारण करना चाहिए -

07:48, 3 मार्च 2015 का अवतरण

सीमन्तोन्नयन संस्कार
Simantonayan Sanskara

सीमन्तोन्नयन संस्कार हिन्दू धर्म संस्कारों में तृतीय संस्कार है। यह संस्कार पुंसवन का ही विस्तार है। इसका शाब्दिक अर्थ है- "सीमन्त" अर्थात् 'केश और उन्नयन' अर्थात् 'ऊपर उठाना'। संस्कार विधि के समय पति अपनी पत्नी के केशों को संवारते हुए ऊपर की ओर उठाता था, इसलिए इस संस्कार का नाम 'सीमंतोन्नयन' पड़ गया। इस संस्कार का उद्देश्य गर्भवती स्त्री को मानसिक बल प्रदान करते हुए सकारात्मक विचारों से पूर्ण रखना था। शिशु के विकास के साथ माता के हृदय में नई-नई इच्छाएँ पैदा होती हैं। शिशु के मानसिक विकास में इन इच्छाओं की पूर्ति महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। अब वह सब कुछ सुनता और समझता है तथा माता के प्रत्येक सुख-दु:ख का सहभागी होता है। अतः छठे या आठवें मास में इस संस्कार को अवश्य कर लेना चाहिये।

  • यह संस्कार गर्भपात रोकने के लिए किया जाता है। चौथे, छ्ठे व आठवें माह में गिरा हुआ गर्भ जीवित नहीं रहता। माता की मृत्यु कभी-कभी हो जाती है, क्योंकि इस समय शरीर में स्थित इंद्र विधुत प्रबल होता है। हालांकि सातवें माह में गिरा हुआ गर्भ जीवित रह सकता है। इन तीनों महीनों में यह संस्कार कर देने से यह इंद्र विधुत शांत हो जाता है, जिससे गर्भपात की आशंका समाप्त हो जाती है।[1]
  • यह संस्कार गर्भ के चौथे, छ्ठे या आठवें मास में किया जाता है। वैसे आठवां मास ही उपयुक्त है। इसका उद्देश्य गर्भ की शुद्धि और माता को श्रेष्ठचिंतन करने की प्रेरणा प्रदान करना होता है। उल्लेखनीय है की गर्भ में चौथे माह के बाद शिशु के अंग-प्रत्यंग, हृदय आदि बन जाते है और उनमें चेतना आने लगती है, जिससे बच्चे में जाग्रत इच्छाएं माता के हदय में प्रकट होने लगती हैं। इस समय गर्भस्थशिशु शिक्षणयोग्य बनने लगता है। उसके मन और बुद्धि में नई चेतना-शाक्ति जाग्रत होने लगती है। ऐसे में जो प्रभावशाली अच्छे संस्कार डाले जाते हैं, उनका शिशु के मन पर बहुत गहरा प्रभाव पडता है।[1]
  • इसमें कोई संदेह नहीं की गर्भस्थशिशु बहुत ही संवेदनशील होता है। सती मदालसा के बारे में कहा जाता है की वह अपने बच्चे के गुण, कर्म और स्वभाव की पूर्व घोषणा कर देती थी, फिर उसी प्रकार निरंतर चिंतन, क्रिया-कलाप, रहन-सहन, आहार-विहार और बर्ताव अपनाती थी, जिससे बच्चा उसी मनोभूमि ढल जाता है, जैसा कि वह चाहती थी।
  • भक्त प्रह्लाद की माता कयाधु को देवर्षि नारद भगवदभक्ति के उपदेश दिया करते थे, जो प्रहलाद ने गर्भ में ही सुने थे। व्यासपुत्र शुकदेव ने अपनी माँ के गर्भ में सारा ज्ञान प्राप्त कर लिया था।
  • अर्जुन ने अपनी गर्भवती पत्नी सुभद्रा को चक्रव्यूहभेदन की जो शिक्षा दी थी, वह सब गर्भस्थशिशु अभिमन्यु सीख ली थी। उसी शिक्षा के आधार पर 16 वर्ष की आयु में ही अभिमन्यु ने अकेले 7 महारथियों से युद्ध कर चक्रव्यूह-भेदन किया।[1]
  • इस संस्कार को करते समय शास्त्रवर्णित गूलर वनस्पति द्धारा गार्भिणी पत्नी के सीमंत (मांग) का ॐ भूर्विनयामि, भूर्विनयामि, ॐ भूर्विनयामि, पढते हुए और पृथक करणादि क्रियाएं करते हुए पति को निम्नलिखित मंत्रोच्चारण करना चाहिए -

येनादितेः सीमानं नयाति प्रजापतिर्महते सौभगाय।
तेनाहमस्यौ सीमानं नयामि प्रजामस्यै जरदष्टिं कृणोमि।।[1]

अर्थात जिस प्रकार देवमाता अदिति का सीमंतोन्नयन प्रजापति ने किया था, उसी प्रकार मैं इस गार्भिणी का सीमंतोन्नयन करके इसके पुत्र को जरावस्थापर्यंत दीर्घजीवी करता हूं।

  • संस्कार के अंत में वृद्धा ब्राह्मणियों द्धारा पत्नी को आशीर्वाद दिलवाएं। सीमंतोन्नयन-संस्कार में पर्याप्त घी मिली खिचड़ी खिलाने का विधान है। इसका उल्लेख गोभिल गृहयसूत्र में इस प्रकार किया गया है -

किं पश्यास्सीत्युक्त्वा प्रजामिति वाचयेत् तं सा स्वयं
भुज्जीत वीरसूर्जीवपत्नीति ब्राह्मण्यों मंगलाभिर्वाग्भि पासीरन्।[1]

अर्थात यह पूछने पर कि क्या देखती हो, तो स्त्री कहे मैं तो संतान देखती हूं। उस खिचडी का गार्भिणी सेवन करे। इस संस्कार के समय उपस्थित स्त्रियां उसे आशीर्वाद देते हुए कहें की तुम जीवित संतान उत्पन्न करने वाली हो। तुम चिरकाल तक सौभाग्यवती बनी रहो।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 1.4 सीमंतोन्नयन-संस्कार (हिन्दी) (ए.एस.पी) पूजा विधि। अभिगमन तिथि: 17 फ़रवरी, 2011।

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