"श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 7 श्लोक 29-37": अवतरणों में अंतर
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दशम स्कन्ध: सप्तम अध्याय (पूर्वार्ध)
वहाँ जो स्त्रियाँ इकट्ठी होकर रो रही थीं, उन्होंने देखा कि वह विकराल दैत्य आकाश से एक चट्टान पर गिर पड़ा और उसका एक-एक अंग चकनाचूर हो गया - ठीक वैसे ही, जैसे भगवान शंकर के बाणों से आहत हो त्रिपुरासुर गिरकर चूर-चूर हो गया था। भगवान श्रीकृष्ण उसके वक्षःस्थल पर लटक रहे थे। यह देखकर गोपियाँ विस्मित हो गयीं। उन्होंने झटपट वहाँ जाकर श्रीकृष्ण को गोद में ले लिया और लाकर उन्हें माता को दे दिया। बालक मृत्यु के मुख से सकुशल लौट आया। यद्यपि उसे राक्षस आकाश में उठा ले गया था, फिर भी वह बच गया। इस प्रकार बालक श्रीकृष्ण को फिर पाकर यशोदा आदि गोपियों तथा नन्द आदि गोपों को अत्यन्त आनन्द हुआ। वे कहने लगे- ‘अहो! यह तो बड़े आश्चर्य की बात है। देखो तो सही, यह कितनी अद्भुत घटना घट गयी! यह बालक राक्षस के द्वारा मृत्यु के मुख में डाल दिया गया था, परन्तु फिर जीता-जागता आ गया और उस हिंसक दुष्ट को उसके पाप ही खा गये! सच है, साधु पुरुष अपनी समता से ही सम्पूर्ण भयों से बच जाता है। हमने ऐसा कौन-सा, तप, भगवान की पूजा, प्याऊ-पौसला, कुआँ-बावली, बाग-बगीचे आदि पूर्त, यज्ञ, दान अथवा जीवों की भलाई की थी, जिसके फल से हमारा यह बालक मर कर भी अपने स्वजनों को सुखी करने के लिए लौट आया? अवश्य ही यह बड़े सौभाग्य की बात है’।
जब नन्दबाबा ने देखा कि महावन में बहुत-सी अद्भुत घटनाएँ घटित हो रही हैं, तब आशचर्य चकित होकर उन्होंने वासुदेवजी की बात का बार-बार समर्थन किया। एक दिन की बात है, यशोदाजी अपने प्यारे शिशु को अपनी गोद में लेकर बड़े प्रेम से स्तन पान करा रहीं थीं। वे वात्सल्य-स्नेह से इस प्रकार सराबोर हो रहीं थीं कि उनके स्तनों से अपने-आप ही दूध झरता जा रहा था। जब वे प्रायः दूध पी चुके और माता यशोदा उनके रुचिर मुस्कान से युक्त मुख को चूम रहीं थीं उसी समय श्रीकृष्ण को जँभाई आ गयी और माता ने उनके मुख में यह देखा[1] कि उसमें आकश, अन्तरिक्ष, ज्योतिर्मण्डल, दिशाऐं, सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, वायु, समुद्र, द्वीप, पर्वत, नदियाँ, वन और समस्त चराचर प्राणी स्थित हैं। परीक्षित! अपने पुत्र के मुँह में इस प्रकार सहसा सारा जगत देखकर मृगशावक-नयनी यशोदाजी का शरीर काँप उठा। उन्होंने अपनी बड़ी-बड़ी आँखें बन्द कर लीं[2]। वे अत्यन्त आशचर्य चकित हो गयीं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ स्नेहमयी जननी और स्नेह के सदा भूखे भगवान्! उन्हें दूध पीने से तृप्ति ही नहीं होती थी। माँ के मन में शंका हुई—कहीं अधिक पीने से अपच न हो जाय। प्रेम सर्वदा अनिष्ट की आशंका उत्पन्न करता है। श्रीकृष्ण ने अपने मुख में विश्वरूप दिखाकर कहा—‘अरी मैया! तेरा दूध मैं अकेले ही नहीं पीता हूँ। मेरे मुख में बैठकर सम्पूर्ण विश्व ही इसका पान कर रहा है। तू घबराये मत’—स्तन्यं कियत् पिबसि भूर्यलमर्भकेति वर्तिष्यमाणवचनां जननीं विभाव्य ॥ विश्वं विभागि पयसोअस्य न केवलोअहमस्माददर्शि हरिणा किमु विश्वमास्ये ॥
- ↑ वात्सल्यमयी यशोदा माता अपने लाला के मुख में विश्व देखकर डर गयीं, परन्तु वात्सल्य-प्रेम रस-भावित ह्रदय होने से उन्हें विश्वास नहीं हुआ। उन्होंने यह विचार किया कि यह विश्व का बखेड़ा लाला के मुँह के कहाँ से आया ? हो-न-हो यह मेरी इन निगोड़ी आँखों की ही गड़बड़ी है। मानो इसी से उन्होंने अपने नेत्र बंद कर लिये।
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