"श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 8 श्लोक 1-11": अवतरणों में अंतर
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एकादश स्कन्ध: अष्टमोऽध्यायः (8)
अवधूतोपाख्यान—अजगर से पिंगला तक नौ गुरुओं की कथा
अवधूत दत्तात्रेयजी कहते हैं—राजन्! प्राणियों को जैसे बिना इच्छा के, बिना किसी प्रयत्न के, रोकने की चेष्टा करने पर भी पूर्वकर्मानुसार दुःख प्राप्त होते हैं, वैसे ही स्वर्ग में या नरक में—कहीं भी रहें, उन्हें इन्द्रियसम्बन्धी सुख भी प्राप्त होते ही हैं। इसलिए सुख और दुःख का रहस्य जानने वाले बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि इनके लिये इच्छा अथवा किसी प्रकार का प्रयत्न न करे । बिना माँगे, बिना इच्छा किये स्वयं ही अनायास जो कुछ मिल जाय—वह चाहे रुखा-सूखा हो, चाहे बहुत मधुर और स्वादिष्ट, अधिक या थोड़ा—बुद्धिमान पुरुष अजगर के समान उसे ही खाकर जीवन-निर्वाह कर ले और उदासीन रहे । यदि भोजन न मिले तो उसे भी प्रारब्ध-भोग समझकर किसी प्रकार की चेष्टा न करे, बहुत दिनों तक भूखा ही पड़ा रहे। उसे चाहिये कि अजगर के समान केवल प्रारब्ध के अनुसार प्राप्त हुए भोजन में ही सन्तुष्ट रहे । उनके शरीर के मनोबल, इन्द्रियबल और देहबल तीनों हों तब भी वह निश्चेष्ट ही रहे। निद्रारहित होने पर भी सोया हुआ-सा रहे और कर्मेन्द्रियों के होने पर भी उनसे कोई चेष्टा न करे। राजन्! मैंने अजगर से यही शिक्षा ग्रहण की है । समुद्र से मैंने यह सीखा है कि साधक को सर्वदा प्रसन्न और गम्भीर रहना चाहिये, उसका भाव अथाह, अपार और असीम होना चाहिये तथा किसी भी निमित्त से उसे क्षोभ न होना चाहिये। उसे ठीक वैसे ही रहना चाहिये, जैसे ज्वार-भाटे और तरंगों से रहित शान्त समुद्र देखो, समुद्र वर्षा ऋतु में नदियों की बाढ़ के कारण बढ़ता नहीं और न ग्रीष्म-ऋतु में घटता ही है; वैसे ही भगवत्परायण साधक को भी सांसारिक पदर्थों की प्राप्ति से प्रफुल्लित न होना चाहिये और न उनके घटने से उदास ही होना चाहिये । राजन्! मैंने पतिंगे से यह शिक्षा ग्रहण की है कि जैसे वह रूप पर मोहित होकर आग में कूद पड़ता है और जल मरता है, वैसे ही अपनी इन्द्रियों को वश में न रखने वाला पुरुष जब स्त्री को देखता है तो उसके हाव-भाव पर लट्टू हो जाता है और घोर अन्धकार में, नरक में गिरकर अपना सत्यानाश कर लेता है। सचमुच स्त्री देवताओं की वह माया हा, जिससे जीव भगवान या मोक्ष की प्राप्ति से वंचित रह जाता है । जो मूढ़ कामिनी-कंचन, गहने-कपड़े आदि नाशवान् मायिक पदार्थों में फँसा हुआ है और जिसकी सम्पूर्ण चित्तवृत्ति उनके उपभोग के लिये ही लालायित है, वह अपनी विवेक बुद्धि खोकर पतिंगे के समान नष्ट हो जाता है । राजन्! संन्यासी को चाहिये कि गृहस्थों को किसी प्रकार का कष्ट न देकर भौंरे की तरह अपना जीवन-निर्वाह करे। वह अपने शरीर के लिये उपयोगी रोटी के कुछ टुकड़े कई घरों से माँग ले[1]। जिस प्रकार भौर विभिन्न पुष्पों से—चाहे वे छोटे हों या बड़े—उनका सार संग्रह करता है, वैसे ही बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि छोटे-बड़े सभी शास्त्रों से उनका सार—उनका रस निचोड़ ले । राजन्! मैंने मधुमक्खी से यह शिक्षा ग्रहण की है कि संन्यासी को सायंकाल अथवा दूसरे दिन के लिये भिक्षा का संग्रह न करना चाहिये। उसके पास भिक्षा लेने को कोई पात्र हो तो केवल हाथ और रखने के लिये कोई बर्तन हो तो पेट। वह कहीं संग्रह न कर बैठे, नहीं तो मधुमक्खियों के समान उसका जीवन ही दूभर हो जायगा ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ नहीं तो एक ही कमल के गन्ध में आसक्त हुआ भ्रमर जैसे रात्रि के समय उसमें बंद हो जाने से नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार स्वादवासना से एक ही गृहस्थ का अन्न खाने से उसके सांसर्गिक मोह में फँसकर यति भी नष्ट हो जायगा।
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