"भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-33": अवतरणों में अंतर
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11. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु-साधक
17. मदर्थे धर्मकामार्थान् आचरन् मदपाश्रयः।
लभते निश्चलां भक्तिं मय्युद्धव! सनातने।।
अर्थः
हे उद्ध! मेरा आश्रय लेकर, मेरे लिए ही धर्म, अर्थ, काम का आचरण करने वाले को मुझ सनातन में उसे निश्चल भक्ति प्राप्त होती है।
18. कृपालुरकृतद्रोहस् तितिक्षुः सर्वदेहिनाम्।
सत्यसारोऽनवद्यात्मा समः सर्वोपकारकः।।
अर्थः
मेरा भक्त कृपालु होता है। वह किसी का भी द्रोह नहीं करता, सहनशील होता है; सत्य ही उसके जीवन का सार होता है। वह निर्दोष, समदर्शी और सबका भला करने वाला होता है।
19. कामैरहतधीर् दांतो मृदुः शुचिरकिंचनः।
अनीहो मितभुक् शांतः स्थिरो मच्छरणो मुनिः।।
अर्थः
उसकी बुद्धि कामनाओं से हत नहीं होती। वह इंद्रियनिग्रही, मृदु और पवित्र होता है। वह संग्रह नहीं करता; इच्छारहित, मिताहारी, शांत होता है। उसकी बुद्धि स्थिर होती है और वह भगवच्छरण और मननशील रहता है।
20. अप्रमत्तो गभीरात्मा धृतिमान् जित-षड्-गुणः।
अमानी मानदः कल्पो मैत्रः कारुणिकः कविः।।
अर्थः
उसके हाथों प्रमाद नहीं होता। वह गंभीर स्वभाव और धैर्यशाली होता है। भूख-प्यास, शोक-मोह और जन्म-मृत्यु ये छह संसारधर्म वह जीत लेता है। खुद निरभिमानी, दूसरों को मान देनेवाला, कल्पक, मित्रता का व्यवहार करनेवाला, करुणावान्, क्रांतिदर्शी होता है।
21. आज्ञायैवं गुणान् दोषान् मयादिष्ठानपि स्वकान्।
धर्मान् संत्यज्य यः सर्वान् मां भजेत सत्तमः।।
अर्थः
इस तरह गुण-दोष परखकर, और मेरे बताये सारे धर्मों का भी त्याग करके जो मुझे भजता है वह उत्तम संत है।
22. ज्ञात्वाज्ञात्वाथ ये वै मां यावान् यश्चास्मि यादृशः।
भजन्त्यनन्य-भावेन ते मे भक्ततमा मताः।।
अर्थः
मैं कौन हूँ, कितना बड़ा हूँ, कैसा हूँ- यह ठीक से जानकर जो मुझे अन्नयभाव से भजते हैं, मैं मानता हूँ कि वे मेरे सर्वश्रेष्ठ भक्त हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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