"भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-101": अवतरणों में अंतर
नवनीत कुमार (वार्ता | योगदान) ('<h4 style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">भागवत धर्म मिमांसा</h4> <h4 style="text-...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
व्यवस्थापन (वार्ता | योगदान) छो (1 अवतरण) |
(कोई अंतर नहीं)
|
07:03, 13 अगस्त 2015 के समय का अवतरण
भागवत धर्म मिमांसा
4. बुद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक
(11.2) शोकमोहौ सुखं दुःखं देहोत्पत्तिश्च मायया।
स्वप्नो ययाऽऽत्मनः ख्यातिः संसृतिर् न तु वास्तवी।।[1]
शोकमोहौ सुखं दुःखं देहोत्पत्तिश्च मायया – अर्जुन को मोह हुआ था। उसकी बुद्धि पर मोह के पटल छा गये थे और उसी के कारण उसे शोक हुआ था। अन्ततः वह स्वयं भगवान् से कहता है कि ‘अब मेरा मोह दूर हो गया।’ शोक और मोह ही संसार का रूप हैं। दुःख के बाद सुख और सुख के बाद दुःख सतत आते-जाते रहते हैं। वे प्रातिभासिक हैं। अभी हम बाहर खुली हवा में बैठे हैं तो सुख का अनुभव करते हैं। अन्दर जाएँगे तो गर्मी के कारण दुःख होगा। बाहर धूप बढ़ जाए तो यहाँ दुःख होने लगेगा और अन्दर जाएँगेतो सुख होगा। वस्तुतः वह है ही नहीं, हमारी अपेक्षा से हुआ करता है। तरकारी में नमक कम हुआ तो एक को अच्छी नहीं लगती। ज्यादा हुआ तो दूसरे को अच्छी नहीं लगती। मैंने नमक खाना छोड़ दिया तो तरकारी कैसी लगी? तरकारी, तरकारी जैसी लगी। इन्द्रियों की रचना ही ऐसी है कि इधर ज्यादा हुआ तो अच्छा नहीं लगता, उधर कम हुआ तो वह भी नहीं चलता। सुख-दुःख इन्द्रियों के कारण होते हैं। देह की उत्पत्ति माया के कारण है। वह भी प्रातिभासिक है। भगवान् ने स्वप्न की मिसाल दी है :स्वप्नो यथाऽऽत्मनः ख्यातिः संसृतिर् न तु वास्तवो – स्वप्न में आप कश्मीर गये। जागृत होने पर जागृत होने पर कश्मीर तो आपके पास कहीं है नहीं। यानी स्वप्न काल्पनिक है। आत्मनः ख्यातिः –अपनी कल्पनामात्र है। संसार-व्यवहार स्वप्नवत् है, वह वस्तुस्थिति नहीं है। लालबहादुर शास्त्री जी गये। जिस दिन वे गये, उस दिन दिनभर उन्होंने काम किया। परिवारवालों से फोन पर बातें कीं। ‘कल अमुक निश्चित समय पर दिल्ली पहुँचूँगा’ कहा। फिर सो गये, बीच में उठे और चले गये। ताशकन्द से दिल्ली आने में हवाई जहाज से चार घण्टे लगते हैं, लेकिन आठ मिनट के अन्दर वे परलोक चले गये। इसलिए समझना चाहिए कि रहना नहिं देश बिराना है। यह सारा स्वप्न-जैसा ही है। इतना ही अन्तर है कि निद्रा में स्वप्न थोड़ी अवधि के लिए होता है, जब कि यह स्वप्न 60-70 साल लम्बा चलता है। इसीलिए वास्तविक-सा लगता है। जैसे जगने के बाद स्वप्न मिथ्या मालूम होता है, वैसे ही मृत्यु के बाद जीवन का स्वप्न भी मिथ्या मालूम पड़ता है। मृत्यु के बाद और जन्म के पहले अनन्तकाल पड़ा है। बीच में 60-70 साल की थोड़ी-सी अवधि हमें मिली थी। अनन्तकाल में यह यह 60-70 साल की अवधि शून्यवत् है। वेदान्त जो यह बोल रहा है, वही अब गणित भी बोलने लगा है। ‘रेडियो एरट्रानॉमी’ का शास्त्र अभी नया विकसित हुआ है। वह कहता है कि सृष्टि में अनन्त ग्रह हैं। इसलिए तुम्हारा जीवन शून्य है। भगवान् भी कहते हैं कि संसार वास्तविक नहीं, काल्पनिक है। फिर हमें वास्तविक क्यों लगता है? भगवान् इसका कारण बतलाते हैं :
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 11.11.2
संबंधित लेख
-