"भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-129": अवतरणों में अंतर
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भागवत धर्म मिमांसा
7. वेद-तात्पर्य
(21.4) शब्द-ब्रह्म सुदुर्बोधं प्राणेंद्रिय-मनो-मयम् ।
अनंतपारं गंभीरं दुर्विगाह्यं समुद्रवत् ।।[1]
शब्द-ब्रह्म यानी वेद। वह अत्यन्त दुर्बोध है – सुदुर्बोधम् क्योंकि उसका अर्थ ढँका हुआ है। संस्कृत में वेद को ‘छन्दस्’ भी कहते हैं, यानी ढँका हुआ। फिर उसका अर्थ कोई पार भी नहीं – अनंतपारम्। वह गंभीरं दुर्विगाह्यम् – गंभीर और दुर्विगाह्य है यानी उसमें अवगाहन कर सकें, ऐसा नहीं है : वह समुद्रवत् है। ये सारे विशेष समुद्र को ही लागू होते हैं। समुद्र जैसा गंभीर, अनन्तपार और दुर्विगाह्य होता है, वैसा ही वेद है। फिर कहा : प्राणेंद्रिय-मनो-मयम् – प्राण, इन्द्रिय, मन, ये तीनों उसमें हैं। यहाँ इन्द्रिय का अर्थ है – प्राण, वाणी और मन, तीनों के संयोग से शब्द बनता है। इसीलिए कहा कि वेद प्राणमय, इन्द्रियमय और मनोमय है। हरएक का अपना-अपना स्थान है। मनुष्य बोलता है। लेकिन आप किसी को चिट्ठी भेजते हैं, तो वह चिट्ठी भी बोलती है, क्योंकि वहाँ शब्द होता है। इसलिए भगवान् ने कहा है कि ये तीनों मिलकर शब्द बनता है। वाणी चार प्रकार की मानी जाती है। इस श्लोक में चौथा प्रकार निर्दिष्ट नहीं है। उसे ‘परा वाणी’ कहते हैं, वह सूक्ष्म है। बाकी तीन – प्राणवाणी, मनोवाणी और बैखरी वाणी स्थूल हैं। जो वाणी केवल संकल्पमय – सूक्ष्म है, उसका उल्लेख यहाँ नहीं किया गया, क्योंकि सारी सृष्टि ही संकल्पमय है। इसलिए भगवान् ने प्राण, मन और वाणी, इन तीन का ही उल्लेख किया है। मतलब यह कि उनमें भगवत्-शक्ति खर्च हुई है। इसका अर्थ क्या? जहाँ गंभीरता से देखें। सामान्यतया माना जाता है, निश्चित नहीं कह सकते, कि दुनिया का पहला ग्रन्थ वेद है। चीन बहुत पुराना देश है। हो सकता है कि वहाँ भी कोई पुराना ग्रन्थ हो। ‘ओल्ड टेस्टामेण्ट’ का कुछ हिस्सा भी बहुत पुराना माना जाता है। इसलिए निश्चित नहीं कह सकते कि वेद ही पुराना है। लेकिन जहाँ तक भारत का प्रश्न है, यह कह सकते हैं कि ऋग्वेद यहाँ का पहला ग्रन्थ है। तो, क्या यह आदि-शब्द माना जायेगा? ऋग्वेद में ऐसे वाक्य आते हैं, जिनमें ऋषि कहते हैं कि ‘हमारे पूर्वज वेदज्ञ थे।’ यानी ऋग्वेद में जो वचन आये हैं, वे उसके पहले भी थे। उसके पूर्व भी ब्रह्मवेत्ता हुए ही होंगे। मतलब यह कि शब्द कैसे बना, इसका निर्णय करना कठिन है। इस पर मैंने काफी चिन्तन किया है। इस श्लोक में जो वर्णन किया है – अनंतपारं गंभीरम्, वह बिलकुल सही है। प्राण, मन, वाणी, इन शक्तियों का उपयोग शब्द के लिए हुआ, यह ठीक है। लेकिन भगवान् के प्राण, मन, वाणी का उपयोग इसमें हुआ है, यह समझ में नहीं आता। लेकिन शब्द बन गया, तब बाद का काम सरल हो गया। शब्द बनने के बाद जो भी पराक्रम किया गया, वह सारा गौण ही है। ‘सत्य’ शब्द हमें प्राप्त हुआ। हमने कोई खोज तो की नहीं थी, प्रयोग तो नहीं किये थे। उस शब्द पर हमने प्रयोग किये, उस पर से हमने नये शब्द बनाये। लेकिन ‘सत्य’ शब्द कैसे बना, वह प्रथम किसे प्राप्त हुआ, यह हम नहीं जानते। ऋग्वेद में ऐसे हजारों शब्द हैं। ऋग्वेद के पहले भी वैसे अनेक शब्द थे। व्युत्पत्ति-शास्त्र कहता है कि पंद्रह सौ साल पहले भाषा बनी।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 11.21.36
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