"उतरु न आवत प्रेम": अवतरणों में अंतर
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उतरु न आवत प्रेम बस गहे चरन अकुलाइ। | उतरु न आवत प्रेम बस गहे चरन अकुलाइ। | ||
नाथ दासु मैं स्वामि तुम्ह तजहु त काह बसाइ॥71॥/poem> | नाथ दासु मैं स्वामि तुम्ह तजहु त काह बसाइ॥71॥</poem> | ||
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05:25, 10 जून 2016 के समय का अवतरण
उतरु न आवत प्रेम
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कवि | गोस्वामी तुलसीदास |
मूल शीर्षक | रामचरितमानस |
मुख्य पात्र | राम, सीता, लक्ष्मण, हनुमान, रावण आदि |
प्रकाशक | गीता प्रेस गोरखपुर |
शैली | चौपाई, सोरठा, छन्द और दोहा |
संबंधित लेख | दोहावली, कवितावली, गीतावली, विनय पत्रिका, हनुमान चालीसा |
काण्ड | अयोध्या काण्ड |
उतरु न आवत प्रेम बस गहे चरन अकुलाइ। |
- भावार्थ
प्रेमवश लक्ष्मणजी से कुछ उत्तर देते नहीं बनता। उन्होंने व्याकुल होकर श्री रामजी के चरण पकड़ लिए और कहा- हे नाथ! मैं दास हूँ और आप स्वामी हैं, अतः आप मुझे छोड़ ही दें तो मेरा क्या वश है?॥71॥
उतरु न आवत प्रेम |
दोहा - मात्रिक अर्द्धसम छंद है। दोहे के चार चरण होते हैं। इसके विषम चरणों (प्रथम तथा तृतीय) में 13-13 मात्राएँ और सम चरणों (द्वितीय तथा चतुर्थ) में 11-11 मात्राएँ होती हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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