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'''आपातकाल''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''The Emergency'') स्वतंत्र [[भारत का इतिहास|भारत के इतिहास]] में सबसे विवादास्पद और अलोकतांत्रिक काल था। [[26 जून]], [[1975]] से [[21 मार्च]], [[1977]] तक 21 महीने की अवधि में [[भारत]] में आपातकाल घोषित था। तत्कालीन [[राष्ट्रपति]] [[फ़ख़रुद्दीन अली अहमद]] ने तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री [[इंदिरा गांधी]] के कहने पर [[भारतीय संविधान]] की धारा 352 के अधीन [[आपातकाल]] की घोषणा कर दी थी। आपातकाल में चुनाव स्थगित हो गए तथा नागरिक अधिकारों को समाप्त कर दिया गया। इंदिरा गांधी के राजनीतिक विरोधियों को कैद कर लिया गया और प्रेस पर प्रतिबंधित लगा दिया गया। [[जयप्रकाश नारायण]] ने आपातकाल के इस समय को "भारतीय इतिहास की सर्वाधिक काली अवधि" कहा था। आपातकाल लागू होने के बाद जयप्रकाश नारायण, [[मोरारजी देसाई]] और अन्य सैकड़ों छोटे-बड़े नेताओं को गिरफ़्तार करके जेल में डाल दिया गया। ऐसा माना जाता है कि आपातकाल के दौरान एक लाख व्यक्तियों को देश की विभिन्न जेलों में बंद किया गया। इनमें मात्र राजनीतिक व्यक्ति ही नहीं, आपराधिक प्रवृत्ति के लोग भी थे जो ऐसे आंदोलनों के समय लूटपाट करते थे। साथ ही भ्रष्ट कालाबाज़ारियों और हिस्ट्रीशीटर अपराधियों को बंद कर दिया गया।
'''आपातकाल''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''The Emergency'') स्वतंत्र [[भारत का इतिहास|भारत के इतिहास]] में सबसे विवादास्पद और अलोकतांत्रिक काल था। [[26 जून]], [[1975]] से [[21 मार्च]], [[1977]] तक 21 महीने की अवधि में [[भारत]] में आपातकाल घोषित था। तत्कालीन [[राष्ट्रपति]] [[फ़ख़रुद्दीन अली अहमद]] ने तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री [[इंदिरा गांधी]] के कहने पर [[भारतीय संविधान]] की धारा 352 के अधीन [[आपातकाल]] की घोषणा कर दी थी। आपातकाल में चुनाव स्थगित हो गए तथा नागरिक अधिकारों को समाप्त कर दिया गया। इंदिरा गांधी के राजनीतिक विरोधियों को कैद कर लिया गया और प्रेस पर प्रतिबंधित लगा दिया गया। [[जयप्रकाश नारायण]] ने आपातकाल के इस समय को "भारतीय इतिहास की सर्वाधिक काली अवधि" कहा था। आपातकाल लागू होने के बाद जयप्रकाश नारायण, [[मोरारजी देसाई]] और अन्य सैकड़ों छोटे-बड़े नेताओं को गिरफ़्तार करके जेल में डाल दिया गया। ऐसा माना जाता है कि आपातकाल के दौरान एक लाख व्यक्तियों को देश की विभिन्न जेलों में बंद किया गया। इनमें मात्र राजनीतिक व्यक्ति ही नहीं, आपराधिक प्रवृत्ति के लोग भी थे जो ऐसे आंदोलनों के समय लूटपाट करते थे। साथ ही भ्रष्ट कालाबाज़ारियों और हिस्ट्रीशीटर अपराधियों को बंद कर दिया गया।
==ऐसे लगा आपातकाल==
==आपातकाल की पृष्ठभूमि==
सन [[1971]] के युद्ध में सोवियत संघ ने [[भारत]] का साथ दिया तथा [[अमरीका]] ने पाकिस्तान का। घरेलू मोर्चे पर इसका असर यह हुआ कि आर्थिक क्षेत्र में भारत की नीतियां अधिकाधिक समाजवादी होती गई तथा अंतरराष्ट्रीय व्यापार में भी भारत कई तरह की संधियों आदि के माध्यम से सोवियत संघ के निकट आता गया । व्यापार- कारोबार पर राज्य का नियंत्रण अधिकाधिक बढ़ता गया। आयकर की दरें अपने 80-90 प्रतिशत तक पहुंच रही थीं। आर्थिक स्वतंत्रता सीमित से सीमित होती जा रही थी। दुर्भाग्य से [[1971]]-[[1972]] और [[1972]]-[[1973]] भारी सूखा के वर्ष भी रहे। इससे एक तरफ अनाज उत्पादन गिरा तो दूसरी तरफ बिजली उत्पादन पर भी नकारात्मक असर हुआ। इन्हीं वर्षो के दौरान कच्चे तेल के दाम तीन गुना तक बढ़े, जिससे 1971 के बाद के वर्षो में महंगाई दर 10 प्रतिशत से भी अधिक रही। समन्वित असर यह हुआ कि गरीबी, बेरोजगारी तथा महंगाई अपने चरम पर पहुंच रहे थे। नतीजा था व्यापक असंतोष। पर एकाधिकारवाद की ओर बढ़ रही [[कांग्रेस]] एक राजनीतिक दल के रूप में इस असंतोष को समायोजित करने के लिए तैयार नहीं थी।<ref name="a">{{cite web |url=http://www.patrika.com/news/today-special/40th-anniversary-of-emergency-what-is-emergency-how-it-imposed-in-india-1058424/ |title= आपातकाल के 40 साल|accessmonthday= 07 अक्टूबर|accessyear=2016 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=patrika.com |language=हिंदी }}</ref>
आपातकाल की पृष्ठभूमि इंदिरा गांधी की सरकार के न्यायपालिका के टकराव के साथ बननी शुरु हो गई थी। [[लालबहादुर शास्त्री]] की मौत के बाद इंदिरा गांधी [[प्रधानमंत्री]] बनी थीं। ऐसे में क्या पार्टी और क्या पार्टी के बाहर न्यायपालिका से टकराव के हालात, किसी ने सोचा नहीं था। लेकिन [[1967]] में हुए [[लोकसभा]] चुनावों के बाद जब इंदिरा गांधी ने [[13 मार्च]] को दोबारा प्रधानमंत्री की कुर्सी संभाली, उसके थोड़े समय पहले ही यानी [[27 फ़रवरी]], [[1967]] को [[उच्चतम न्यायालय]] का एक बड़ा फैसला आया। पहली बार गठित हुई 11 जजों की खंडपीठ ने गोलकनाथ मामले में अपना फैसला सात बनाम छह जजों के बहुमत से सुनाया। चीफ जस्टिस सुब्बाराव की अगुआई वाले बहुमत फैसले के तहत ये तय किया गया कि [[संसद]] में दो तिहाई बहुमत के साथ भी किसी संविधान संशोधन के जरिये मूलभूत अधिकारों के प्रावधान का न तो खात्मा किया जा सकता है और न ही इन्हें सीमित किया जा सकता है। सरकार को ये फैसला काफी नागवार गुजरा, क्योंकि ये संसद के अधिकार पर न्यायपालिका की तरफ से हमला माना गया। कुछ समय बाद जब [[राष्ट्रपति]] के चुनाव हुए, तो विपक्ष ने इंदिरा गांधी के प्रतिनिधि [[जाकिर हुसैन]] के सामने सुब्बाराव को मैदान में उतार दिया। सुब्बाराव ने चीफ जस्टिस के पद से त्यागपत्र देकर राष्ट्रपति चुनाव के लिए नामांकन भरा था, इससे इंदिरा गांधी काफी नाराज हो गई थीं।<ref name="a">{{cite web |url=http://faltutopics.blogspot.in/p/blog-page_25.html |title=आपातकाल की पूरी कहानी |accessmonthday=07 अक्टूबर |accessyear= 2016|last= |first= |authorlink= |format= |publisher=faltutopics.blogspot.in |language= हिंदी}}</ref>
==इंदिरा गाँधी तथा न्यायपालिका==
यही नहीं, सुप्रीम कोर्ट के दो तात्कालिक फैसलों को इंदिरा गाँधी ने [[1971]] के लोकसभा चुनावों को जल्दी कराने का आधार बनाया। पहला फैसला [[5 मई]], [[1970]] का रहा, जो बैंक राष्ट्रीयकरण केस के तौर पर मशहूर है। 11 जजों की बेंच ने सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस जे. सी. शाह की अगुआई में इस मामले की सुनवाई की। चीफ जस्टिस हिदायतुल्ला ने कार्यकारी राष्ट्रपति की भूमिका में खुद उस बिल पर हस्ताक्षर किये थे, जिसकी वैधता को इस केस में चुनौती दी गई थी, इसलिए वे इस मामले की सुनवाई से अलग रहे। ग्यारह जजों की इस बेंच ने जो फैसला सुनाया, उसमें एक जज जस्टिस ए. एन. रे को छोड़कर बाकी सभी जजों ने इंदिरा गांधी सरकार के उस कदम को खारिज कर दिया, जिसके तहत पचास करोड़ रुपये या उससे अधिक के कारोबार वाले चौदह बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया था। ऐसा इस कानून की कई खामियों के मद्देनजर किया गया था, जिसमें से एक पर्याप्त मुआवजा न देना भी था। यही नहीं, अपने साम्यवादी सोच वाले सहयोगियों के दबाव और राजाओं-महाराजाओं की बहुतायत वाली स्वतंत्र पार्टी से मिल रही चुनौती के मद्देनजर जब इंदिरा गांधी ने एक ऑर्डिनेंस के जरिये प्रीवी पर्स को समाप्त करने की कोशिश की, तो उसे भी सुप्रीम कोर्ट ने [[15 दिसंबर]], 1970 के अपने फैसले में खारिज कर दिया। चीफ जस्टिस हिदायतुल्ला की अगुआई वाली ग्यारह जजों की बेंच में ये फैसला नौ बनाम दो जजों के बहुमत से हुआ। जिन दो जजों ने इस फैसले का समर्थन नहीं किया, वो थे- जस्टिस जी. के. मित्तर और जस्टिस ए. एन. रे। इसी फैसले से क्रोधित इंदिरा गांधी ने [[लोकसभा]] भंग कर चुनाव करवाने का फैसला किया और इस मुद्दे पर चुनाव जीतकर आने के साथ ही [[संविधान संशोधन]] के जरिये प्रीवी पर्स खत्म कर दिया।


[[गुजरात]] के अंसगठित नवनिर्माण आंदोलन से सबक लेते हुए जेपी ने [[बिहार]] के छात्र आंदोलन को एक संगठन, लक्ष्य, नेतृत्व और करिश्मा प्रदान किया। उन्होंने छात्रों से आग्रह किया कि वे एक साल के लिए अपना कॉलेज छोड़कर एक वैकल्पिक राजनीतिक प्रणाली के निर्माण के लिए संघर्ष करें। लगभग सभी राजनीतिक दल अपने मतभेद भुलाकर जेपी के साथ खड़े हो गए। जल्दी ही आंदोलन का लक्ष्य [[इंदिरा गांधी|प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी]] को हटाना और भ्रष्टाचार तथा एकाधिकारवादी शासन का अंत हो गया। बताया जाता है कि जेपी के [[मार्च]], [[1975]] के "संसद मार्च" में 4 लाख से भी अधिक लोग सम्मिलित हुए। [[25 जून]], [[1975]] की रामलीला मैदान की महारैली में जेपी ने पुलिस और सैनिक बलों से असंवैधानिक और अनैतिक आदेशो को नहीं मानने का आग्रह किया। बाद में इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाने के लिए "आंतरिक अशांति" की आशंका को इसी भाषण के आधार पर तर्कसंगत ठहराया।
न्यायपालिका के साथ इंदिरा गांधी का टकराव शीर्ष पर तब पहुंचा, जब केशवानंद भारती केस में सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया। सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में पहली और आखिरी बार तेरह जजों की बेंच ने कोई फैसला सुनाया। हालांकि तेरह जजों की बेंच ने ये फैसला सात बनाम छह के बहुमत से [[24 अप्रैल]], [[1973]] को सुनाया। बहुमत वाले इस फैसले में, जिसमें चीफ जस्टिस सिकरी, जस्टिस शेलत, जस्टिस हेगड़े और जस्टिस ग्रोवर शामिल थे, ये तय किया कि [[संसद]] अपनी संवैधानिक भूमिका में संविधान के सभी प्रावधानों को बदल नहीं सकती। यही नहीं, ये भी साफ किया गया कि संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत संसद [[संविधान]] के मूल ढांचे के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं कर सकती।
====न्यायपालिका की भूमिका====
 
इस पूरी स्थिति में इलाहाबाद हाईकोर्ट के निर्णय ने आग में घी डालने के लिए काम किया। [[12 जून]], 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी का चुनाव निरस्त कर छह साल तक चुनाव न लड़ने का प्रतिबंध लगाया। उन पर चुनाव में सरकारी मशीनरी का दुरूपयोग, अधिक खर्च करने का आरोप राजनारायण ने लगाया था। [[उच्च न्यायालय]] ने आरोपों को आंशिक रूप से सही ठहराया। इंदिरा गांधी ने इस्तीफा देने से इनकार करते हुए फैसले को [[उच्चतम न्यायालय]] में चुनौती दी। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस कृष्ण अय्यर ने [[24 जून]], 1975 के अपने अंतरिम आदेश में इंदिरा गांधी को बिना शर्त राहत नहीं दी। पूर्व दृष्टांतों के आधार पर इंदिरा गांधी को [[प्रधानमंत्री]] बने रहने, संसदीय कार्रवाई में भाग लेने की अनुमति दी पर [[संसद]] में वोट करने की अनुमति नहीं दी। विपक्ष की प्रधानमंत्री से इस्तीफे की मांग तेज हो गई।<ref name="a"/>
भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में बेसिक स्ट्रक्चर जजमेंट के तौर पर मशहूर इस फैसले के अगले दिन ही सरकार ने अपने इरादे जाहिर कर दिये। सरकार ने चीफ जस्टिस सिकरी की सिफारिश को दरकिनार कर दिया, जिसमें जस्टिस शेलत को अगला चीफ जस्टिस बनाने के लिए कहा गया था। यही नहीं, जस्टिस हेगड़े और जस्टिस ग्रोवर को भी सुपरसीड कर अगले चीफ जस्टिस के तौर पर जस्टिस ए. एन. रे के नाम का ऐलान कर दिया गया। ये वही जस्टिस ए. एन. रे थे, जिन्होंने बैंक नेशनलाइजेशन, प्रीवी पर्स या फिर केशवानंद भारती मामले में सरकार के रुख का समर्थन अपने जजमेंट में किया था। सुपरसीड किये गये तीनों जजों ने तत्काल इस्तीफा दे दिया, लेकिन ये तो शुरुआत थी, इंदिरा सरकार के उस इरादे की, जिसमें सरकारी रुख का विरोध करने वाले जजों को परेशान किया जाना अघोषित नियम बना दिया गया।<ref name="a"/>
==गुजरात तथा बिहार में आंदोलन==
हालांकि एक तरफ जहां [[इंदिरा गांधी]] कानूनी और अदालती मोर्चे पर लड़ाई लड़ रही थीं, वहीं सियासी मोर्चे पर भी विपक्षी पार्टियों के साथ उनकी लड़ाई तेज होती गई। [[1973]] आते-आते महंगाई और भ्रष्टाचार के आरोपों ने इंदिरा और उनकी सरकार को घेरना शुरु कर दिया। मुद्रास्फीती रिकॉर्ड बीस फीसदी तक जा पहुंची। विपक्ष के तेवर उग्र होते चले गये। इसकी शुरुआत हुई [[गुजरात]] से। राज्य के कुछ इंजीनियरिंग कॉलेजों में मेस बिल में हुई बढ़ोतरी से जो आंदोलन शुरु हुआ, वो ‘संपूर्ण क्रांति’ के जेपी के आह्वान का आधार बना। हालत इस हद तक बिगड़े कि आखिरकार जनभावनाओं को ध्यान में रखते हुए इंदिरा गांधी को गुजरात विधानसभा भंग करवा नये सिरे से चुनाव तक कराने को मजबूर होना पड़ा। गुजरात के बाद ये आंदोलन [[बिहार]] में भी उग्र होना शुरु हुआ। छात्रों ने शैक्षणिक सुधार की मांग करते हुए आंदोलन तेज किया। तत्कालीन [[मुख्यमंत्री]] अब्दुल गफूर ने छात्रों के संघर्ष को दबाने के लिए गोलियां तक चलवा दीं, जिससे मामला और बिगड़ा। तीन हफ्ते तक हिंसा का दौर चला, हालत इस हद तक बिगड़े कि सेना और अर्धसैनिक बलों को बिहार की सड़कों पर उतरना पड़ा। इसी दौरान [[जयप्रकाश नारायण]] ने छात्रों के आंदोलन की अगुआई ली, [[8 अप्रैल]], [[1974]] को [[पटना]] की सड़कों पर मूक रैली निकाली और औपचारिक तौर पर आह्वान कर डाला ‘संपूर्ण क्रांति’ का।
 
जल्दी ही जेपी के साथ न सिर्फ छात्र, बल्कि विपक्ष के ज्यादातर दल जुड़ते चले गये। इस गठजोड़ के एक तरफ जनसंघ था, तो दूसरी तरफ सीपीएम। सिर्फ सीपीआई ही एक मात्र ऐसी बड़ी पार्टी रही, जो इस गैर-कांग्रेसी गठबंधन में शामिल नहीं हुई। जेपी की अगुआई में इकट्ठा हुए इन दलों ने राष्ट्रीय स्तर की अपनी समन्वय समिति भी बना डाली और इंदिरा गांधी की सरकार के सामने धरने, प्रदर्शन और आक्रमण का सिलसिला तेज होता गया। जॉर्ज फर्नांडीस ने तो [[अप्रैल]], 1974 में रेलवे स्ट्राइक की तरफ कदम बढ़ा दिये। इंदिरा गांधी के लिए इस चौतरफा हमले से निबटना आसान नहीं रहा। ‘डिफेंस ऑफ इंडिया एक्ट’ का सहारा लेकर भले ही काफी कठोरता के साथ इंदिरा ने रेल कर्मचारियों की हड़ताल को तीन हफ्ते में ही तोड़ डाला, लेकिन मामला शांत नहीं हुआ। आम आदमी, श्रमिक वर्ग, सरकारी कर्मचारी, सबका असंतोष बढ़ता चला गया और इंदिरा के लिए ये खतरे की घंटी थी। इसके साथ ही देश में इंदिरा गांधी और उनके सहयोगियों को आपातकाल लगाने का बहाना मिलने लगा था।<ref name="a"/>
==राजनारायण की याचिका==
हालांकि इंदिरा गांधी ने [[आपातकाल]] लगाने का जो विवादित फैसला किया, उसके तात्कालिक और सबसे प्रमुख कारण वो दो अदालती फैसले भी थे, जो आपातकाल लगाये जाने के ठीक पहले के चौदह दिनों के अंदर आए थे। पहला फैसला इलाहाबाद हाईकोर्ट से आया था, तो दूसरा फैसला [[उच्चतम न्यायालय]] (सुप्रीम कोर्ट) से। दोनों ही फैसले सिंगल जज बेंच के थे और दोनों ही [[इंदिरा गांधी|प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी]] के लोकसभा चुनाव से संबंधित थे। हालांकि ये फैसले कोई अचानक नहीं आए थे, इनकी पृष्ठभूमि में थे [[1971]] के लोकसभा चुनाव, वो चुनाव जिनमें इंदिरा गांधी ने अपनी पार्टी को जबरदस्त कामयाबी दिलाई थी। हालांकि खुद इंदिरा गांधी की जीत पर सवाल उठाते हुए उनके चुनावी प्रतिद्वंद्वी राजनारायण ने अदालत का दरवाजा खटखटा 1971 में ही खटखटा दिया था। संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर इंदिरा गांधी के सामने [[रायबरेली]] लोकसभा सीट पर चुनाव लड़ने वाले राजनारायण ने अपनी याचिका में आरोप लगाया था कि इंदिरा गांधी ने चुनाव जीतने के लिए गलत तरीकों का इस्तेमाल किया है। राजनारायण 1971 के लोकसभा चुनावों में इंदिरा गांधी से 1, 11, 810 वोटों के अंतर से हारे थे। अपनी जीत को लेकर वो इतने सुनिश्चित थे कि नतीजे घोषित होने के पहले ही विजय जुलूस निकाल डाला था। लेकिन परिणाम घोषित हुए तो राजनारायण के होश उड़ गये। हालांकि इतनी बड़ी मार्जिन से हारने के बाद भी राजनारायण चुप नहीं बैठे। उन्होने अदालत से ये गुहार लगाई कि चूंकि इंदिरा गांधी ने चुनाव जीतने के लिए न सिर्फ सरकारी मशीनरी और संसाधनों का इस्तेमाल किया है, बल्कि वोट खरीदने के लिए पैसे भी बांटे हैं, ऐसे में उनका चुनाव निरस्त कर दिया जाए।
 
इस मामले की सुनवाई [[15 जुलाई]], 1971 को इलाहाबाद हाईकोर्ट में शुरु हुई। जस्टिस बीएन लोकुर इस मामले की सुनवाई करने वाले पहले जज थे; लेकिन जस्टिस लोकुर से जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा के पास ये केस आते-आते एक बार राजनारायण तो दूसरी बार इंदिरा गांधी ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया अपने हक में राहत हासिल करने के लिए। आखिरकार [[मार्च]], [[1975]] का महीना आया। जस्टिस सिन्हा की कोर्ट में दोनों तरफ से दलीलें पेश होती रहीं। दोनों पक्षों को सुनने के बाद जस्टिस सिन्हा ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को उनका बयान दर्ज कराने के लिए अदालत में पेश होने का फरमान जारी किया। इंदिरा गांधी अदालत में पेश भी हुईं, लेकिन [[प्रधानमंत्री]] होते हुए भी उनके सम्मान में उनके वकील सिर्फ आधा ही उठे, बाकी सभी बैठे रहे, क्योंकि अदालत का आदेश साफ था, इंदिरा गांधी आरोपी के तौर पर अदालत में थीं।<ref name="a"/>
==आपातकाल की घोषणा==
==आपातकाल की घोषणा==
[[25 जून]], [[1975]] की मध्यरात्रि को मंत्रिमंडल की अनुशंसा पर [[राष्ट्रपति]] [[फ़ख़रुद्दीन अली अहमद]] ने देश में [[आपातकाल]] की घोषणा कर दी। यद्यपि हकीकत यह है कि आपातकाल की घोषणा रेडियो पर पहले कर दी गई तथा बाद में सुबह मंत्रिमंडल की बैठक के बाद उस पर राष्ट्रपति ने हस्ताक्षर किए। यद्यपि संवैधानिक प्रावधान यह है कि मंत्रिमंडल की बैठक के बाद उसकी अनुशंसा पर जब राष्ट्रपति हस्ताक्षर कर देते हैं, तब आपातकाल की घोषणा की जा सकती है।
दोनों पक्षों की दलीलों को सुनने के बाद जस्टिस सिन्हा ने [[12 जून]], 1975 को अपना फैसला सुनाया और इंदिरा गांधी के चुनाव को निरस्त कर दिया। हालांकि जस्टिस सिन्हा ने उन्हें सुप्रीम कोर्ट में अपील करने की मोहलत दी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट से भी इंदिरा गांधी को पूर्ण राहत नहीं मिली। वैकेशन जज की भूमिका में जस्टिस वी. आर. कृष्ण अय्यर ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले पर स्टे तो लगाया, लेकिन आंशिक तौर पर। [[ 24 जून]], 1975 के अपने फैसले में जस्टिस अय्यर ने इंदिरा गांधी को बतौर [[प्रधानमंत्री]] [[संसद]] में आने की इजाजत तो दी, लेकिन बतौर लोकसभा सदस्य वोट करने पर प्रतिबंध लगा दिया। इस फैसले से इंदिरा गांधी इतना क्रोधित हो गईं कि अगले दिन ही उन्होने बिना कैबिनेट की औपचारिक बैठक के [[आपातकाल]] लगाने की अनुशंसा [[राष्ट्रपति]] से कर डाली, जिस पर [[राष्ट्रपति]] [[फ़ख़रुद्दीन अली अहमद]] ने [[25 जून]] और [[26 जून]] की मध्य रात्रि में ही अपने हस्ताक्षर कर डाले और इस तरह देश में लग गई पहली और आखिरी इंटरनल आपातकाल।
 
 


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08:14, 7 अक्टूबर 2016 का अवतरण

आपातकाल (अंग्रेज़ी: The Emergency) स्वतंत्र भारत के इतिहास में सबसे विवादास्पद और अलोकतांत्रिक काल था। 26 जून, 1975 से 21 मार्च, 1977 तक 21 महीने की अवधि में भारत में आपातकाल घोषित था। तत्कालीन राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद ने तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कहने पर भारतीय संविधान की धारा 352 के अधीन आपातकाल की घोषणा कर दी थी। आपातकाल में चुनाव स्थगित हो गए तथा नागरिक अधिकारों को समाप्त कर दिया गया। इंदिरा गांधी के राजनीतिक विरोधियों को कैद कर लिया गया और प्रेस पर प्रतिबंधित लगा दिया गया। जयप्रकाश नारायण ने आपातकाल के इस समय को "भारतीय इतिहास की सर्वाधिक काली अवधि" कहा था। आपातकाल लागू होने के बाद जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई और अन्य सैकड़ों छोटे-बड़े नेताओं को गिरफ़्तार करके जेल में डाल दिया गया। ऐसा माना जाता है कि आपातकाल के दौरान एक लाख व्यक्तियों को देश की विभिन्न जेलों में बंद किया गया। इनमें मात्र राजनीतिक व्यक्ति ही नहीं, आपराधिक प्रवृत्ति के लोग भी थे जो ऐसे आंदोलनों के समय लूटपाट करते थे। साथ ही भ्रष्ट कालाबाज़ारियों और हिस्ट्रीशीटर अपराधियों को बंद कर दिया गया।

आपातकाल की पृष्ठभूमि

आपातकाल की पृष्ठभूमि इंदिरा गांधी की सरकार के न्यायपालिका के टकराव के साथ बननी शुरु हो गई थी। लालबहादुर शास्त्री की मौत के बाद इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनी थीं। ऐसे में क्या पार्टी और क्या पार्टी के बाहर न्यायपालिका से टकराव के हालात, किसी ने सोचा नहीं था। लेकिन 1967 में हुए लोकसभा चुनावों के बाद जब इंदिरा गांधी ने 13 मार्च को दोबारा प्रधानमंत्री की कुर्सी संभाली, उसके थोड़े समय पहले ही यानी 27 फ़रवरी, 1967 को उच्चतम न्यायालय का एक बड़ा फैसला आया। पहली बार गठित हुई 11 जजों की खंडपीठ ने गोलकनाथ मामले में अपना फैसला सात बनाम छह जजों के बहुमत से सुनाया। चीफ जस्टिस सुब्बाराव की अगुआई वाले बहुमत फैसले के तहत ये तय किया गया कि संसद में दो तिहाई बहुमत के साथ भी किसी संविधान संशोधन के जरिये मूलभूत अधिकारों के प्रावधान का न तो खात्मा किया जा सकता है और न ही इन्हें सीमित किया जा सकता है। सरकार को ये फैसला काफी नागवार गुजरा, क्योंकि ये संसद के अधिकार पर न्यायपालिका की तरफ से हमला माना गया। कुछ समय बाद जब राष्ट्रपति के चुनाव हुए, तो विपक्ष ने इंदिरा गांधी के प्रतिनिधि जाकिर हुसैन के सामने सुब्बाराव को मैदान में उतार दिया। सुब्बाराव ने चीफ जस्टिस के पद से त्यागपत्र देकर राष्ट्रपति चुनाव के लिए नामांकन भरा था, इससे इंदिरा गांधी काफी नाराज हो गई थीं।[1]

इंदिरा गाँधी तथा न्यायपालिका

यही नहीं, सुप्रीम कोर्ट के दो तात्कालिक फैसलों को इंदिरा गाँधी ने 1971 के लोकसभा चुनावों को जल्दी कराने का आधार बनाया। पहला फैसला 5 मई, 1970 का रहा, जो बैंक राष्ट्रीयकरण केस के तौर पर मशहूर है। 11 जजों की बेंच ने सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस जे. सी. शाह की अगुआई में इस मामले की सुनवाई की। चीफ जस्टिस हिदायतुल्ला ने कार्यकारी राष्ट्रपति की भूमिका में खुद उस बिल पर हस्ताक्षर किये थे, जिसकी वैधता को इस केस में चुनौती दी गई थी, इसलिए वे इस मामले की सुनवाई से अलग रहे। ग्यारह जजों की इस बेंच ने जो फैसला सुनाया, उसमें एक जज जस्टिस ए. एन. रे को छोड़कर बाकी सभी जजों ने इंदिरा गांधी सरकार के उस कदम को खारिज कर दिया, जिसके तहत पचास करोड़ रुपये या उससे अधिक के कारोबार वाले चौदह बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया था। ऐसा इस कानून की कई खामियों के मद्देनजर किया गया था, जिसमें से एक पर्याप्त मुआवजा न देना भी था। यही नहीं, अपने साम्यवादी सोच वाले सहयोगियों के दबाव और राजाओं-महाराजाओं की बहुतायत वाली स्वतंत्र पार्टी से मिल रही चुनौती के मद्देनजर जब इंदिरा गांधी ने एक ऑर्डिनेंस के जरिये प्रीवी पर्स को समाप्त करने की कोशिश की, तो उसे भी सुप्रीम कोर्ट ने 15 दिसंबर, 1970 के अपने फैसले में खारिज कर दिया। चीफ जस्टिस हिदायतुल्ला की अगुआई वाली ग्यारह जजों की बेंच में ये फैसला नौ बनाम दो जजों के बहुमत से हुआ। जिन दो जजों ने इस फैसले का समर्थन नहीं किया, वो थे- जस्टिस जी. के. मित्तर और जस्टिस ए. एन. रे। इसी फैसले से क्रोधित इंदिरा गांधी ने लोकसभा भंग कर चुनाव करवाने का फैसला किया और इस मुद्दे पर चुनाव जीतकर आने के साथ ही संविधान संशोधन के जरिये प्रीवी पर्स खत्म कर दिया।

न्यायपालिका के साथ इंदिरा गांधी का टकराव शीर्ष पर तब पहुंचा, जब केशवानंद भारती केस में सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया। सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में पहली और आखिरी बार तेरह जजों की बेंच ने कोई फैसला सुनाया। हालांकि तेरह जजों की बेंच ने ये फैसला सात बनाम छह के बहुमत से 24 अप्रैल, 1973 को सुनाया। बहुमत वाले इस फैसले में, जिसमें चीफ जस्टिस सिकरी, जस्टिस शेलत, जस्टिस हेगड़े और जस्टिस ग्रोवर शामिल थे, ये तय किया कि संसद अपनी संवैधानिक भूमिका में संविधान के सभी प्रावधानों को बदल नहीं सकती। यही नहीं, ये भी साफ किया गया कि संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत संसद संविधान के मूल ढांचे के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं कर सकती।

भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में बेसिक स्ट्रक्चर जजमेंट के तौर पर मशहूर इस फैसले के अगले दिन ही सरकार ने अपने इरादे जाहिर कर दिये। सरकार ने चीफ जस्टिस सिकरी की सिफारिश को दरकिनार कर दिया, जिसमें जस्टिस शेलत को अगला चीफ जस्टिस बनाने के लिए कहा गया था। यही नहीं, जस्टिस हेगड़े और जस्टिस ग्रोवर को भी सुपरसीड कर अगले चीफ जस्टिस के तौर पर जस्टिस ए. एन. रे के नाम का ऐलान कर दिया गया। ये वही जस्टिस ए. एन. रे थे, जिन्होंने बैंक नेशनलाइजेशन, प्रीवी पर्स या फिर केशवानंद भारती मामले में सरकार के रुख का समर्थन अपने जजमेंट में किया था। सुपरसीड किये गये तीनों जजों ने तत्काल इस्तीफा दे दिया, लेकिन ये तो शुरुआत थी, इंदिरा सरकार के उस इरादे की, जिसमें सरकारी रुख का विरोध करने वाले जजों को परेशान किया जाना अघोषित नियम बना दिया गया।[1]

गुजरात तथा बिहार में आंदोलन

हालांकि एक तरफ जहां इंदिरा गांधी कानूनी और अदालती मोर्चे पर लड़ाई लड़ रही थीं, वहीं सियासी मोर्चे पर भी विपक्षी पार्टियों के साथ उनकी लड़ाई तेज होती गई। 1973 आते-आते महंगाई और भ्रष्टाचार के आरोपों ने इंदिरा और उनकी सरकार को घेरना शुरु कर दिया। मुद्रास्फीती रिकॉर्ड बीस फीसदी तक जा पहुंची। विपक्ष के तेवर उग्र होते चले गये। इसकी शुरुआत हुई गुजरात से। राज्य के कुछ इंजीनियरिंग कॉलेजों में मेस बिल में हुई बढ़ोतरी से जो आंदोलन शुरु हुआ, वो ‘संपूर्ण क्रांति’ के जेपी के आह्वान का आधार बना। हालत इस हद तक बिगड़े कि आखिरकार जनभावनाओं को ध्यान में रखते हुए इंदिरा गांधी को गुजरात विधानसभा भंग करवा नये सिरे से चुनाव तक कराने को मजबूर होना पड़ा। गुजरात के बाद ये आंदोलन बिहार में भी उग्र होना शुरु हुआ। छात्रों ने शैक्षणिक सुधार की मांग करते हुए आंदोलन तेज किया। तत्कालीन मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर ने छात्रों के संघर्ष को दबाने के लिए गोलियां तक चलवा दीं, जिससे मामला और बिगड़ा। तीन हफ्ते तक हिंसा का दौर चला, हालत इस हद तक बिगड़े कि सेना और अर्धसैनिक बलों को बिहार की सड़कों पर उतरना पड़ा। इसी दौरान जयप्रकाश नारायण ने छात्रों के आंदोलन की अगुआई ली, 8 अप्रैल, 1974 को पटना की सड़कों पर मूक रैली निकाली और औपचारिक तौर पर आह्वान कर डाला ‘संपूर्ण क्रांति’ का।

जल्दी ही जेपी के साथ न सिर्फ छात्र, बल्कि विपक्ष के ज्यादातर दल जुड़ते चले गये। इस गठजोड़ के एक तरफ जनसंघ था, तो दूसरी तरफ सीपीएम। सिर्फ सीपीआई ही एक मात्र ऐसी बड़ी पार्टी रही, जो इस गैर-कांग्रेसी गठबंधन में शामिल नहीं हुई। जेपी की अगुआई में इकट्ठा हुए इन दलों ने राष्ट्रीय स्तर की अपनी समन्वय समिति भी बना डाली और इंदिरा गांधी की सरकार के सामने धरने, प्रदर्शन और आक्रमण का सिलसिला तेज होता गया। जॉर्ज फर्नांडीस ने तो अप्रैल, 1974 में रेलवे स्ट्राइक की तरफ कदम बढ़ा दिये। इंदिरा गांधी के लिए इस चौतरफा हमले से निबटना आसान नहीं रहा। ‘डिफेंस ऑफ इंडिया एक्ट’ का सहारा लेकर भले ही काफी कठोरता के साथ इंदिरा ने रेल कर्मचारियों की हड़ताल को तीन हफ्ते में ही तोड़ डाला, लेकिन मामला शांत नहीं हुआ। आम आदमी, श्रमिक वर्ग, सरकारी कर्मचारी, सबका असंतोष बढ़ता चला गया और इंदिरा के लिए ये खतरे की घंटी थी। इसके साथ ही देश में इंदिरा गांधी और उनके सहयोगियों को आपातकाल लगाने का बहाना मिलने लगा था।[1]

राजनारायण की याचिका

हालांकि इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाने का जो विवादित फैसला किया, उसके तात्कालिक और सबसे प्रमुख कारण वो दो अदालती फैसले भी थे, जो आपातकाल लगाये जाने के ठीक पहले के चौदह दिनों के अंदर आए थे। पहला फैसला इलाहाबाद हाईकोर्ट से आया था, तो दूसरा फैसला उच्चतम न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) से। दोनों ही फैसले सिंगल जज बेंच के थे और दोनों ही प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के लोकसभा चुनाव से संबंधित थे। हालांकि ये फैसले कोई अचानक नहीं आए थे, इनकी पृष्ठभूमि में थे 1971 के लोकसभा चुनाव, वो चुनाव जिनमें इंदिरा गांधी ने अपनी पार्टी को जबरदस्त कामयाबी दिलाई थी। हालांकि खुद इंदिरा गांधी की जीत पर सवाल उठाते हुए उनके चुनावी प्रतिद्वंद्वी राजनारायण ने अदालत का दरवाजा खटखटा 1971 में ही खटखटा दिया था। संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर इंदिरा गांधी के सामने रायबरेली लोकसभा सीट पर चुनाव लड़ने वाले राजनारायण ने अपनी याचिका में आरोप लगाया था कि इंदिरा गांधी ने चुनाव जीतने के लिए गलत तरीकों का इस्तेमाल किया है। राजनारायण 1971 के लोकसभा चुनावों में इंदिरा गांधी से 1, 11, 810 वोटों के अंतर से हारे थे। अपनी जीत को लेकर वो इतने सुनिश्चित थे कि नतीजे घोषित होने के पहले ही विजय जुलूस निकाल डाला था। लेकिन परिणाम घोषित हुए तो राजनारायण के होश उड़ गये। हालांकि इतनी बड़ी मार्जिन से हारने के बाद भी राजनारायण चुप नहीं बैठे। उन्होने अदालत से ये गुहार लगाई कि चूंकि इंदिरा गांधी ने चुनाव जीतने के लिए न सिर्फ सरकारी मशीनरी और संसाधनों का इस्तेमाल किया है, बल्कि वोट खरीदने के लिए पैसे भी बांटे हैं, ऐसे में उनका चुनाव निरस्त कर दिया जाए।

इस मामले की सुनवाई 15 जुलाई, 1971 को इलाहाबाद हाईकोर्ट में शुरु हुई। जस्टिस बीएन लोकुर इस मामले की सुनवाई करने वाले पहले जज थे; लेकिन जस्टिस लोकुर से जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा के पास ये केस आते-आते एक बार राजनारायण तो दूसरी बार इंदिरा गांधी ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया अपने हक में राहत हासिल करने के लिए। आखिरकार मार्च, 1975 का महीना आया। जस्टिस सिन्हा की कोर्ट में दोनों तरफ से दलीलें पेश होती रहीं। दोनों पक्षों को सुनने के बाद जस्टिस सिन्हा ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को उनका बयान दर्ज कराने के लिए अदालत में पेश होने का फरमान जारी किया। इंदिरा गांधी अदालत में पेश भी हुईं, लेकिन प्रधानमंत्री होते हुए भी उनके सम्मान में उनके वकील सिर्फ आधा ही उठे, बाकी सभी बैठे रहे, क्योंकि अदालत का आदेश साफ था, इंदिरा गांधी आरोपी के तौर पर अदालत में थीं।[1]

आपातकाल की घोषणा

दोनों पक्षों की दलीलों को सुनने के बाद जस्टिस सिन्हा ने 12 जून, 1975 को अपना फैसला सुनाया और इंदिरा गांधी के चुनाव को निरस्त कर दिया। हालांकि जस्टिस सिन्हा ने उन्हें सुप्रीम कोर्ट में अपील करने की मोहलत दी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट से भी इंदिरा गांधी को पूर्ण राहत नहीं मिली। वैकेशन जज की भूमिका में जस्टिस वी. आर. कृष्ण अय्यर ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले पर स्टे तो लगाया, लेकिन आंशिक तौर पर। 24 जून, 1975 के अपने फैसले में जस्टिस अय्यर ने इंदिरा गांधी को बतौर प्रधानमंत्री संसद में आने की इजाजत तो दी, लेकिन बतौर लोकसभा सदस्य वोट करने पर प्रतिबंध लगा दिया। इस फैसले से इंदिरा गांधी इतना क्रोधित हो गईं कि अगले दिन ही उन्होने बिना कैबिनेट की औपचारिक बैठक के आपातकाल लगाने की अनुशंसा राष्ट्रपति से कर डाली, जिस पर राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद ने 25 जून और 26 जून की मध्य रात्रि में ही अपने हस्ताक्षर कर डाले और इस तरह देश में लग गई पहली और आखिरी इंटरनल आपातकाल।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 आपातकाल की पूरी कहानी (हिंदी) faltutopics.blogspot.in। अभिगमन तिथि: 07 अक्टूबर, 2016।

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