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आलम आरा अर्देशर ईरानी के निर्देशन में बनी भारत की पहली बोलती फिल्म थी। आलम आरा का प्रदर्शन 1931 में हुआ था। आज की तुलना में इस फ़िल्म की आवाज़ और एडिटिंग बहुत ख़राब थी लेकिन फिर भी उस ज़माने में हम लोग इस फ़िल्म को देख कर दंग रह गए थे
==कथावस्तु==
राजकुमार और बंजारिन की प्रेम कहानी पर आधारित यह फिल्म एक पारसी नाटक से प्रेरित थी। फिल्म में मुख्य भूमिका मास्टर विट्ठल और ज़ुबैदा ने निभाई थी। फिल्म में पृथ्वीराज कपूर की भी एक महत्वपूर्ण भूमिका थी। वजीर मोहम्मद खान ने इस फिल्म में फकीर की भूमिका की थी। फिल्म में एक राजा और उसकी दो झगड़ालू पत्नियां दिलबहार और नवबहार है। दोनों के बीच झगड़ा तब और बढ़ जाता है जब एक फकीर भविष्यवाणी करता है कि राजा के उत्तराधिकारी को नवबहार जन्म देगी। गुस्साई दिलबहार बदला लेने के लिए राज्य के प्रमुख मंत्री आदिल से प्यार की गुहार करती है पर आदिल उसके इस प्रस्ताव को ठुकरा देता है। गुस्से में आकर दिलबहार आदिल को कारागार में डलवा देती है और उसकी बेटी आलमआरा को देशनिकाला दे देती है। आलमआरा को बंजारे पालते हैं। युवा होने पर आलमआरा महल में वापस लौटती है और राजकुमार से प्यार करने लगती है। अंत में दिलबहार को उसके किए की सजा मिलती है, राजकुमार और आलमआरा की शादी होती है और आदिल की रिहाई।


==निर्माण==
पहली सवाक फिल्म होने के कारण सामने आने वाली तमाम समस्याओं के बावजूद आर्देशर ने साढ़े दस हजार फीट लंबी इस फिल्म का निर्माण चार महीने में ही पूरा किया। इस पर कुल मिलाकर चालीस हजार रुपए की लागत आई थी। आखिरकार 14 मार्च 1931 को इसे मैजेस्टिक सिनेमा में रिलीज किया गया, तो वह दिन सिने इतिहास का एक सुनहरा पन्ना बन गया।
आलम आरा मुंबई के मैजेस्टिक सिनेमा हॉल में रिलीज़ हुई थी. यह भारत की पहली बोलती फ़िल्म थी जिसने मूक फ़िल्मों के दौर की समाप्ति का एलान किया था. दादा साहेब फ़ाल्के की फ़िल्म 'राजा हरिश्चंद्र' के 18 वर्ष बाद आने वाली फ़िल्म 'आलम आरा' ने हिट फ़िल्मों के लिए एक मापदंड स्थापित किया, क्योंकि यह भारतीय सिनेमा में इस संदर्भ में पहला क़दम था.
==गीत-संगीत==
इसका संगीत फिरोज़ मिस्त्री ने दिया था। इसमें आवाज देने के लिए उस समय तरन ध्वनि तकनीक का इस्तेमाल किया गया था।
इस फ़िल्म के गीतों के बारे में  कहा जाता है कि उनकी धुनों का चुनाव ईरानी ने किया था। गीतों के चुनाव के बाद समस्या रही होगी उनके फिल्मांकन की। उसका कोई आदर्श ईरानी के सामने नहीं था और ना ही बूम जैसा कोई ध्वनि उपकरण था। सारे गाने टैनार सिंगल सिस्टम कैमरे की मदद से सीधे फिल्म पर ही रिकॉर्ड होने थे और यह काम काफी मुश्किल था। जरा सी खांसी आ जाए या उच्चारण में कोई कमी आ जाए तो पूरा गाना नए सिरे से करो।
यह बात हैरत की है कि पहली सवाक फिल्म में संगीतकार, गीतकार या गायकों के नामों का उल्लेख नहीं है। इस बात के साक्ष्य मौजूद हैं कि आलम आरा पूरे एशिया में मशहूर हुई। अकेले मुंबई के मैजेस्टिक सिनेमा में यह लगातार आठ हफ्ते तक चली थी। लोगों ने सिर्फ गाने सुनने के लिए इस फिल्म को देखा। दुर्भाग्य से इस फिल्म के गाने रिकॉर्ड नहीं किए जा सके। बताते हैं कि फिल्म में कुल सात गाने थे। जिनमें से एक फकीर की भूमिका करने वाले अभिनेता वजीर मुहम्मद खान ने गाया था। उसके बोल थे- 'दे दे खुदा के नाम पर प्यारे, ताकत है गर देने की।' एक और गाने के बारे में एल वी प्रसाद ने अपने संस्मरण में लिखा है- वह गीत सितारा की बहन अलकनंदा ने गाया था- बलमा कहीं होंगे...। बाकी पांच गानों के बोल क्या थे और किसने गाया, पता नहीं। फिल्म के संगीत में केवल तीन साजों का इस्तेमाल किया गया था- तबला, हारमोनियम और वायलिन।
'आलम आरा' के लिए अमेरिका से टैनार साउंड सिस्टम आयात किया गया। उसके साथ उपकरण का प्रशिक्षण देने के लिए विलफोर्ड डेमिंग नाम के साउंड इंजीनियर आए थे। आर्देशर और उनके सहयोगी रुस्तम भड़ूचा ने उनसे एक महीने में ही बारीकियां सीखीं और पूरी फिल्म की रिकॉर्डिंग खुद की।
====प्लेबैक संगीत====
हिंदी-उर्दू भाषा में बनी इस फ़िल्म के प्रदर्शन के साथ ही शुरू हुआ भारतीय फ़िल्म जगत में प्लेबैक गायिकी और प्लेबैक संगीत का एक ऐसा दौर जो आज तक भारतीय फ़िल्म की जान और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसकी पहचान बना हुआ है.
====प्रसिद्ध गीत====
इसका गीत दे दे खुदा के नाम पे प्यारे, ताक़त हो अगर देने की, कुछ चाहे अगर तो मांग ले मुझसे हिम्मत हो अगर लेने की, भारतीय फिल्म जगत का पहला गीत था और आज भी देश भर में गाँवों, शहरों से लेकर मंदिरों और रेल गाड़ियों में भीख मांगने वाले भिखारियों का यह पसंदीदा गीत है। इस गीत को हारमोनियम और तबले पर तैयार किया गया था।
==पटकथा और संवाद==
यह जोसफ डेविड द्वारा लिखित एक पारसी नाटक पर आधारित है। जोसफ डेविड ने बाद में ईरानी की फिल्म कम्पनी में लेखक का काम किया। फिल्म की कहानी एक काल्पनिक, ऐतिहासिक कुमारपुर नगर के शाही परिवार पर आधारित है।
==कठिनाईयाँ==
फ़िल्म आलम आरा के निर्माता और निर्देशक अर्देशर ईरानी ने इस फ़िल्म के बनाने में आई कठिनाईंयों का उल्लेख करते हुए एक बार कहा था कि उस ज़माने में कोई साउंड-प्रूफ़ स्टेज नहीं था. उन्होंने कहा हमारा स्टूडियो एक रेलवे लाईन के पास था इस लिए अधिकतर शूटिंग रात में करनी पड़ी थी, जब रेल की आवा-जाही कम होती थी। तब उनके पास एक ही रिकार्डिंग उपकरण 'तमर रिकॉर्डिंग सिस्टम' था जिससे इस फ़िल्म की  रिकार्डिंग की गई थी. उनके पास कोइ बूम माइक भी नहीं था इस लिए माइक्रोफ़ोन को कैमरे के रेंज से अलग अजीब-अजीब जगह छुपा कर रखा गया था.
इन सारी कठिनाईयों के बीच बनी आलम आरा ने आने वाले ज़माने के लिए एक नए युग का द्वार खोल दिया और फिर भारतीय सिनेमा ने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा.
==क़ामयाबी==
'आलम आरा' की क़ामयाबी को देखते हुए तीसरे ही सप्ताह में उर्दू फ़िल्म 'शीरी-फ़रहाद' आई. इस फ़िल्म में आलम आरा के मुक़ाबले तीन गुना गीत थे जो जहाँआरा कज्जन और मास्टर निसार की आवाजों में गाए गए थे. इसके बाद और भी भाषाओं में बोलती फ़िल्में आईं. 1931 में ही बंगाली फ़िल्म जमाई षष्ठी, तमिल में कालीदास और तेलुगू में भक्त प्रह्लाद रिलीज़ हुई. पूना स्थित राष्ट्रीय फ़िल्म संग्रहालय के एक अधिकारी के अनुसार आलम आरा के बाद से अभी तक 30 से 35 हज़ार बोलती फ़िल्में बन चुकी हैं.
==आलम आरा की दास्तां==
यह बात तकरीबन अस्सी साल पहले की है। तब पारसी थिएटर के मशहूर लेखक जोसेफ डेविड का नाटक आलम आरा रंगमंच पर काफी लोकप्रिय हो चुका था। इसलिए अमेरिकी निर्माता यूनिवर्सल की फिल्म 'शो बोट' देखने के बाद जब आर्देशर इरानी के सिर पर पूरी तरह सवाक फिल्म बनाने की धुन सवार हुई तो बरबस उनका ध्यान इस नाटक की ओर गया। उन्हे लगा कि इस रचना को एक संपूर्ण बोलती फिल्म में रुपांतरित करने की संभावना है। हालांकि उस समय मंच प्रस्तुतियों के अंश फिल्मांकित करने की शुरूआत हो चुकी थी। इसलिए यह स्वाभाविक होता कि आर्देशर भी आलम आरा की नाट्य प्रस्तुति का फिल्मांकन कर देते। लेकिन उन्होने ऐसा नहीं किया।
==कलात्मकता और तकनीकी गुणवत्ता==
'आलम आरा' में कलात्मकता और तकनीकी गुणवत्ता अधिक नहीं थी, लेकिन पहली सवाक फिल्म होने के कारण उसके महत्व को किसी तरह कम करके नहीं आंका जा सकता। 'द बांबे क्रोनिकल' के दो अप्रैल 1931 के अंक में 'आलम आरा' को लेकर कुछ ऐसे ही विचार व्यक्त किए गए थे। ' किसी खास व्यक्तिगत भारतीय फिल्म के दोषों पर बात करने का मतलब ज्यादातर मामलों में ऐसे दोषों पर बात करना है जो सभी फिल्म में समान रुप से पाए जाते हैं। इन दोषों से आलम आरा भी पूरी तरह मुक्त नहीं है। लेकिन एक सांगोपांग कहानी पर फिल्म बनाने में ध्वनि का अपेक्षित उतार-चढ़ाव और वैविध्य मौजूद है इसने दिखा दिया कि यथोचित संयम और गंभीर निर्देशन हो तो विट्ठल, पृथ्वीराज और ज़ुबेदा सरीखे कलाकार अपनी प्रभावशाली अभिनय क्षमता और वाणी से ऐसे नाटकीय प्रभाव पैदा कर सकते हैं, जनकी मूक चित्रपट पर कल्पना भी नहीं की जा सकती है।'
==पुनर्निर्माण==
आर्देशर ईरानी के साझीदार अब्दुल अली यूसुफ अली ने फिल्म के प्रीमियर की चर्चा करते हुए लिखा था- 'जरा अंदाजा लगाइए, हमें कितनी हैरत हुई होगी यह देखकर कि फिल्म रिलीज होने के दिन सुबह सवेरे से ही मैजेस्टिक सिनेमा के पास बेशुमार भीड़ जुटना शुरू हो गई थी और हालात यहां तक पहुंचे कि हमें खुद को भी थिएटर मे दाखिल होने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी...उस जमाने के दर्शक कतार में लगना नहीं जानते थे और धक्कमधक्का करती बेलगाम भीड़ ने टिकट खिड़की पर सही मायनों में धावा बोल दिया था-हर कोई चाह रहा था कि जिस जबान को वे समझते हैं उसमें बोलने वाली फिल्म देखने का टिकट किसी तरह हथिया लिया जाए। चारों तरफ यातायात ठप हो गया था और भीड़ को काबू करने के लिए पुलिस की मदद लेनी पड़ी थी।' बाद में नानू भाई वकील ने 1956 और 1973 में, दो बार इस फिल्म का पुनर्निर्माण किया।
==मुख्य कलाकार==
*मास्टर विट्ठल- राजकुमार
*ज़ुबेदा- आलम आरा
*वज़ीर मोहम्मद ख़ान- फक़ीर
*पृथ्वीराज कपूर-
==आलम आरा इतिहास में दफ़न==
भारत में बनी पहली बोलती फिल्म 'आलम आरा' की आवाज अब कहीं सुनाई नहीं देगी। चेन्नई में क्षेत्रीय सिनेमा पर आयोजित एक सेमिनार में सूचना व प्रसारण मंत्रालय के संयुक्त सचिव वी. बी. प्यारेलाल ने कहा कि 1931 में बनी आलम आरा के सभी प्रिंट नष्ट हो चुके हैं। इंपिरियल मूवी कपनी द्वारा बनाई गई यह फिल्म देश भर के सिनेमा घरो में 14 मार्च 1931 को प्रदर्शित की गई थी। इसकी लंबाई 2 घंटे 4 मिनट की थी। देश में कहीं भी अब इस फिल्म का कोई प्रिंट नहीं बचा है। आलम आरा के प्रिंट राष्ट्रीय अभिलेखागार सहित कहीं भी मौजूद नहीं हैं। राष्ट्रीय अभिलेखागार में अब केवल इस फिल्म से जुड़े फोटोग्राफ और कुछ मीडिया चित्र ही मौजूद हैं।

07:19, 28 अगस्त 2010 का अवतरण

आलम आरा अर्देशर ईरानी के निर्देशन में बनी भारत की पहली बोलती फिल्म थी। आलम आरा का प्रदर्शन 1931 में हुआ था। आज की तुलना में इस फ़िल्म की आवाज़ और एडिटिंग बहुत ख़राब थी लेकिन फिर भी उस ज़माने में हम लोग इस फ़िल्म को देख कर दंग रह गए थे

==कथावस्तु==

राजकुमार और बंजारिन की प्रेम कहानी पर आधारित यह फिल्म एक पारसी नाटक से प्रेरित थी। फिल्म में मुख्य भूमिका मास्टर विट्ठल और ज़ुबैदा ने निभाई थी। फिल्म में पृथ्वीराज कपूर की भी एक महत्वपूर्ण भूमिका थी। वजीर मोहम्मद खान ने इस फिल्म में फकीर की भूमिका की थी। फिल्म में एक राजा और उसकी दो झगड़ालू पत्नियां दिलबहार और नवबहार है। दोनों के बीच झगड़ा तब और बढ़ जाता है जब एक फकीर भविष्यवाणी करता है कि राजा के उत्तराधिकारी को नवबहार जन्म देगी। गुस्साई दिलबहार बदला लेने के लिए राज्य के प्रमुख मंत्री आदिल से प्यार की गुहार करती है पर आदिल उसके इस प्रस्ताव को ठुकरा देता है। गुस्से में आकर दिलबहार आदिल को कारागार में डलवा देती है और उसकी बेटी आलमआरा को देशनिकाला दे देती है। आलमआरा को बंजारे पालते हैं। युवा होने पर आलमआरा महल में वापस लौटती है और राजकुमार से प्यार करने लगती है। अंत में दिलबहार को उसके किए की सजा मिलती है, राजकुमार और आलमआरा की शादी होती है और आदिल की रिहाई।

निर्माण

पहली सवाक फिल्म होने के कारण सामने आने वाली तमाम समस्याओं के बावजूद आर्देशर ने साढ़े दस हजार फीट लंबी इस फिल्म का निर्माण चार महीने में ही पूरा किया। इस पर कुल मिलाकर चालीस हजार रुपए की लागत आई थी। आखिरकार 14 मार्च 1931 को इसे मैजेस्टिक सिनेमा में रिलीज किया गया, तो वह दिन सिने इतिहास का एक सुनहरा पन्ना बन गया।

आलम आरा मुंबई के मैजेस्टिक सिनेमा हॉल में रिलीज़ हुई थी. यह भारत की पहली बोलती फ़िल्म थी जिसने मूक फ़िल्मों के दौर की समाप्ति का एलान किया था. दादा साहेब फ़ाल्के की फ़िल्म 'राजा हरिश्चंद्र' के 18 वर्ष बाद आने वाली फ़िल्म 'आलम आरा' ने हिट फ़िल्मों के लिए एक मापदंड स्थापित किया, क्योंकि यह भारतीय सिनेमा में इस संदर्भ में पहला क़दम था.

गीत-संगीत

इसका संगीत फिरोज़ मिस्त्री ने दिया था। इसमें आवाज देने के लिए उस समय तरन ध्वनि तकनीक का इस्तेमाल किया गया था। इस फ़िल्म के गीतों के बारे में कहा जाता है कि उनकी धुनों का चुनाव ईरानी ने किया था। गीतों के चुनाव के बाद समस्या रही होगी उनके फिल्मांकन की। उसका कोई आदर्श ईरानी के सामने नहीं था और ना ही बूम जैसा कोई ध्वनि उपकरण था। सारे गाने टैनार सिंगल सिस्टम कैमरे की मदद से सीधे फिल्म पर ही रिकॉर्ड होने थे और यह काम काफी मुश्किल था। जरा सी खांसी आ जाए या उच्चारण में कोई कमी आ जाए तो पूरा गाना नए सिरे से करो।

यह बात हैरत की है कि पहली सवाक फिल्म में संगीतकार, गीतकार या गायकों के नामों का उल्लेख नहीं है। इस बात के साक्ष्य मौजूद हैं कि आलम आरा पूरे एशिया में मशहूर हुई। अकेले मुंबई के मैजेस्टिक सिनेमा में यह लगातार आठ हफ्ते तक चली थी। लोगों ने सिर्फ गाने सुनने के लिए इस फिल्म को देखा। दुर्भाग्य से इस फिल्म के गाने रिकॉर्ड नहीं किए जा सके। बताते हैं कि फिल्म में कुल सात गाने थे। जिनमें से एक फकीर की भूमिका करने वाले अभिनेता वजीर मुहम्मद खान ने गाया था। उसके बोल थे- 'दे दे खुदा के नाम पर प्यारे, ताकत है गर देने की।' एक और गाने के बारे में एल वी प्रसाद ने अपने संस्मरण में लिखा है- वह गीत सितारा की बहन अलकनंदा ने गाया था- बलमा कहीं होंगे...। बाकी पांच गानों के बोल क्या थे और किसने गाया, पता नहीं। फिल्म के संगीत में केवल तीन साजों का इस्तेमाल किया गया था- तबला, हारमोनियम और वायलिन। 'आलम आरा' के लिए अमेरिका से टैनार साउंड सिस्टम आयात किया गया। उसके साथ उपकरण का प्रशिक्षण देने के लिए विलफोर्ड डेमिंग नाम के साउंड इंजीनियर आए थे। आर्देशर और उनके सहयोगी रुस्तम भड़ूचा ने उनसे एक महीने में ही बारीकियां सीखीं और पूरी फिल्म की रिकॉर्डिंग खुद की।

प्लेबैक संगीत

हिंदी-उर्दू भाषा में बनी इस फ़िल्म के प्रदर्शन के साथ ही शुरू हुआ भारतीय फ़िल्म जगत में प्लेबैक गायिकी और प्लेबैक संगीत का एक ऐसा दौर जो आज तक भारतीय फ़िल्म की जान और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसकी पहचान बना हुआ है.

प्रसिद्ध गीत

इसका गीत दे दे खुदा के नाम पे प्यारे, ताक़त हो अगर देने की, कुछ चाहे अगर तो मांग ले मुझसे हिम्मत हो अगर लेने की, भारतीय फिल्म जगत का पहला गीत था और आज भी देश भर में गाँवों, शहरों से लेकर मंदिरों और रेल गाड़ियों में भीख मांगने वाले भिखारियों का यह पसंदीदा गीत है। इस गीत को हारमोनियम और तबले पर तैयार किया गया था।

पटकथा और संवाद

यह जोसफ डेविड द्वारा लिखित एक पारसी नाटक पर आधारित है। जोसफ डेविड ने बाद में ईरानी की फिल्म कम्पनी में लेखक का काम किया। फिल्म की कहानी एक काल्पनिक, ऐतिहासिक कुमारपुर नगर के शाही परिवार पर आधारित है।

कठिनाईयाँ

फ़िल्म आलम आरा के निर्माता और निर्देशक अर्देशर ईरानी ने इस फ़िल्म के बनाने में आई कठिनाईंयों का उल्लेख करते हुए एक बार कहा था कि उस ज़माने में कोई साउंड-प्रूफ़ स्टेज नहीं था. उन्होंने कहा हमारा स्टूडियो एक रेलवे लाईन के पास था इस लिए अधिकतर शूटिंग रात में करनी पड़ी थी, जब रेल की आवा-जाही कम होती थी। तब उनके पास एक ही रिकार्डिंग उपकरण 'तमर रिकॉर्डिंग सिस्टम' था जिससे इस फ़िल्म की रिकार्डिंग की गई थी. उनके पास कोइ बूम माइक भी नहीं था इस लिए माइक्रोफ़ोन को कैमरे के रेंज से अलग अजीब-अजीब जगह छुपा कर रखा गया था. इन सारी कठिनाईयों के बीच बनी आलम आरा ने आने वाले ज़माने के लिए एक नए युग का द्वार खोल दिया और फिर भारतीय सिनेमा ने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा.

क़ामयाबी

'आलम आरा' की क़ामयाबी को देखते हुए तीसरे ही सप्ताह में उर्दू फ़िल्म 'शीरी-फ़रहाद' आई. इस फ़िल्म में आलम आरा के मुक़ाबले तीन गुना गीत थे जो जहाँआरा कज्जन और मास्टर निसार की आवाजों में गाए गए थे. इसके बाद और भी भाषाओं में बोलती फ़िल्में आईं. 1931 में ही बंगाली फ़िल्म जमाई षष्ठी, तमिल में कालीदास और तेलुगू में भक्त प्रह्लाद रिलीज़ हुई. पूना स्थित राष्ट्रीय फ़िल्म संग्रहालय के एक अधिकारी के अनुसार आलम आरा के बाद से अभी तक 30 से 35 हज़ार बोलती फ़िल्में बन चुकी हैं.

आलम आरा की दास्तां

यह बात तकरीबन अस्सी साल पहले की है। तब पारसी थिएटर के मशहूर लेखक जोसेफ डेविड का नाटक आलम आरा रंगमंच पर काफी लोकप्रिय हो चुका था। इसलिए अमेरिकी निर्माता यूनिवर्सल की फिल्म 'शो बोट' देखने के बाद जब आर्देशर इरानी के सिर पर पूरी तरह सवाक फिल्म बनाने की धुन सवार हुई तो बरबस उनका ध्यान इस नाटक की ओर गया। उन्हे लगा कि इस रचना को एक संपूर्ण बोलती फिल्म में रुपांतरित करने की संभावना है। हालांकि उस समय मंच प्रस्तुतियों के अंश फिल्मांकित करने की शुरूआत हो चुकी थी। इसलिए यह स्वाभाविक होता कि आर्देशर भी आलम आरा की नाट्य प्रस्तुति का फिल्मांकन कर देते। लेकिन उन्होने ऐसा नहीं किया।

कलात्मकता और तकनीकी गुणवत्ता

'आलम आरा' में कलात्मकता और तकनीकी गुणवत्ता अधिक नहीं थी, लेकिन पहली सवाक फिल्म होने के कारण उसके महत्व को किसी तरह कम करके नहीं आंका जा सकता। 'द बांबे क्रोनिकल' के दो अप्रैल 1931 के अंक में 'आलम आरा' को लेकर कुछ ऐसे ही विचार व्यक्त किए गए थे। ' किसी खास व्यक्तिगत भारतीय फिल्म के दोषों पर बात करने का मतलब ज्यादातर मामलों में ऐसे दोषों पर बात करना है जो सभी फिल्म में समान रुप से पाए जाते हैं। इन दोषों से आलम आरा भी पूरी तरह मुक्त नहीं है। लेकिन एक सांगोपांग कहानी पर फिल्म बनाने में ध्वनि का अपेक्षित उतार-चढ़ाव और वैविध्य मौजूद है इसने दिखा दिया कि यथोचित संयम और गंभीर निर्देशन हो तो विट्ठल, पृथ्वीराज और ज़ुबेदा सरीखे कलाकार अपनी प्रभावशाली अभिनय क्षमता और वाणी से ऐसे नाटकीय प्रभाव पैदा कर सकते हैं, जनकी मूक चित्रपट पर कल्पना भी नहीं की जा सकती है।'

पुनर्निर्माण

आर्देशर ईरानी के साझीदार अब्दुल अली यूसुफ अली ने फिल्म के प्रीमियर की चर्चा करते हुए लिखा था- 'जरा अंदाजा लगाइए, हमें कितनी हैरत हुई होगी यह देखकर कि फिल्म रिलीज होने के दिन सुबह सवेरे से ही मैजेस्टिक सिनेमा के पास बेशुमार भीड़ जुटना शुरू हो गई थी और हालात यहां तक पहुंचे कि हमें खुद को भी थिएटर मे दाखिल होने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी...उस जमाने के दर्शक कतार में लगना नहीं जानते थे और धक्कमधक्का करती बेलगाम भीड़ ने टिकट खिड़की पर सही मायनों में धावा बोल दिया था-हर कोई चाह रहा था कि जिस जबान को वे समझते हैं उसमें बोलने वाली फिल्म देखने का टिकट किसी तरह हथिया लिया जाए। चारों तरफ यातायात ठप हो गया था और भीड़ को काबू करने के लिए पुलिस की मदद लेनी पड़ी थी।' बाद में नानू भाई वकील ने 1956 और 1973 में, दो बार इस फिल्म का पुनर्निर्माण किया।

मुख्य कलाकार

  • मास्टर विट्ठल- राजकुमार
  • ज़ुबेदा- आलम आरा
  • वज़ीर मोहम्मद ख़ान- फक़ीर
  • पृथ्वीराज कपूर-

आलम आरा इतिहास में दफ़न

भारत में बनी पहली बोलती फिल्म 'आलम आरा' की आवाज अब कहीं सुनाई नहीं देगी। चेन्नई में क्षेत्रीय सिनेमा पर आयोजित एक सेमिनार में सूचना व प्रसारण मंत्रालय के संयुक्त सचिव वी. बी. प्यारेलाल ने कहा कि 1931 में बनी आलम आरा के सभी प्रिंट नष्ट हो चुके हैं। इंपिरियल मूवी कपनी द्वारा बनाई गई यह फिल्म देश भर के सिनेमा घरो में 14 मार्च 1931 को प्रदर्शित की गई थी। इसकी लंबाई 2 घंटे 4 मिनट की थी। देश में कहीं भी अब इस फिल्म का कोई प्रिंट नहीं बचा है। आलम आरा के प्रिंट राष्ट्रीय अभिलेखागार सहित कहीं भी मौजूद नहीं हैं। राष्ट्रीय अभिलेखागार में अब केवल इस फिल्म से जुड़े फोटोग्राफ और कुछ मीडिया चित्र ही मौजूद हैं।