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| {{सूचना बक्सा साहित्यकार
| | '''सखाराम गणेश देउसकर''' (अंग्रेज़ी: Sakharam Ganesh Deuskar, जन्म: [[17 दिसंबर]], [[1869]], [[बिहार|बिहार प्रदेश]]; मृत्यु: [[23 नवंबर]], [[1912]]) क्रांतिकारी लेखक, इतिहासकार तथा पत्रकार थे। वे भारतीय जन-जागरण के ऐसे विचारक थे जिनके चिंतन और लेखन में स्थानीयता और अखिल बांग्ला तथा चिंतन-मनन का क्षेत्र इतिहास, अर्थशास्त्र, समाज एवं साहित्य था। |
| |चित्र=R-G-Bhandarkar.jpeg
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| |चित्र का नाम=रामकृष्ण गोपाल भंडारकर
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| |पूरा नाम=रामकृष्ण गोपाल भंडारकर
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| |अन्य नाम=
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| |जन्म=[[6 जुलाई]], 1837
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| |जन्म भूमि=[[रत्नागिरि]], [[महाराष्ट्र]]
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| |मृत्यु=[[24 अगस्त]], [[1925]]
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| |मृत्यु स्थान=
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| |अभिभावक=
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| |पालक माता-पिता=
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| |पति/पत्नी=
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| |संतान=
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| |कर्म भूमि=
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| |कर्म-क्षेत्र=
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| |मुख्य रचनाएँ=
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| |विषय=
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| |भाषा=[[संस्कृत]], [[पालि]]
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| |विद्यालय=एल्फ़िंस्टन कॉलेज, [[मुम्बई]]
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| |शिक्षा=एम. ए.
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| |पुरस्कार-उपाधि='डॉक्टरेट' [[1885]], 'नाइट' [[1911]]
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| |प्रसिद्धि=समाजसुधारक तथा सार्वजनिक नेता
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| |विशेष योगदान=
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| |नागरिकता=
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| |संबंधित लेख=
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| |शीर्षक 1=विशेष
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| |पाठ 1=रामकृष्ण गोपाल भंडारकर ने अपने समय के सामाजिक आंदोलनों में अहम भूमिका निभाते हुए विधवा विवाह का समर्थन किया। साथ ही इन्होंने जाति-प्रथा एवं [[बाल विवाह]] की कुप्रथा का खण्डन भी किया।
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| |शीर्षक 2=
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| |पाठ 2=
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| |अन्य जानकारी=रामकृष्ण गोपाल भंडारकर ने [[ब्राह्मी |ब्राह्मी]], [[खरोष्ठी]] आदि [[प्राकृत]] भाषाओं का अध्ययन करके शोध के रूप में जो पांच विशाल खंड प्रकाशित किए वे पुरातत्व के इतिहासकारों के लिए आज भी मार्गदर्शक हैं।
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| |बाहरी कड़ियाँ=
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| '''रामकृष्ण गोपाल भंडारकर''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''R. G. Bhandarkar'', जन्म: [[6 जुलाई]], 1837, [[रत्नागिरि]], [[महाराष्ट्र]]; मृत्यु: [[24 अगस्त]], [[1925]]) [[भारत]] के प्रसिद्ध इतिहासविद, समाज सुधारक और शिक्षाशास्त्री थे। 'ऑल इण्डिया सोशल कांफ़्रेंस' (अखिल भारतीय सामाजिक सम्मलेन) के सक्रिय सदस्य रहे रामकृष्ण गोपाल भंडारकर ने अपने समय के सामाजिक आंदोलनों में अहम भूमिका निभाते हुए अपने शोध आधारित निष्कर्षों के आधार पर [[विधवा विवाह]] का समर्थन किया। साथ ही उन्होंने जाति-प्रथा एवं [[बाल विवाह]] की कुप्रथा का खण्डन भी किया। प्राचीन [[संस्कृत साहित्य]] के विद्वान की हैसियत से इन्होंने [[संस्कृत]] की प्रथम पुस्तक और संस्कृत की द्वितीय पुस्तक की रचना भी की, जो [[अंग्रेज़ी]] माध्यम से संस्कृत सीखने की सबसे आरम्भिक पुस्तकों में से एक हैं। | |
| ==परिचय== | | ==परिचय== |
| रामकृष्ण गोपाल भण्डारकर का जन्म 6 जुलाई, 1837 ई. को [[महाराष्ट्र]] के रत्नागिरी ज़िले के मालवण नामक स्थान में एक साधारण [[परिवार]] में हुआ था। इनके [[पिता]] मालवण के मामलेदार के अधीनस्थ मुंशी (क्लर्क) थे। शुरुआती शिक्षा में आयी कठिनाई के बाद जब इनके पिता का स्थानांतरण रत्नागिरी ज़िले के राजस्व विभाग में हुआ तो इन्हें [[अंग्रेज़ी]] स्कूल में पढ़ने का मौका मिला।<ref>{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=भारतीय चरित कोश|लेखक=लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय'|अनुवादक=|आलोचक=|प्रकाशक=शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली|संकलन= |संपादन=|पृष्ठ संख्या=725|url=}}</ref>
| | सखाराम गणेश देउस्कर का जन्म 17 दिसम्बर 1869 को देवघर के पास 'करौं' नामक गांव में हुआ था, जो अब झारखंड राज्य में है। मराठी मूल के देउस्कर के पूर्वज महाराष्ट्र के रत्नागिरि ज़िले में शिवाजी के आलबान नामक किले के निकट देउस गाँव के निवासी थे। 18वीं सदी में मराठा शक्ति के विस्तार के समय इनके पूर्वज महाराष्ट्र के देउस गांव से आकर करौं में बस गए थे। पाँच साल की अवस्था में माँ का देहांत हो जाने के बाद बालक सखाराम का पालन-पोषण उनकी विद्यानुरागिनी बुआ के पास हुआ जो मराठी साहित्य से भली भाँति परिचित थीं। उनके जतन, उपदेश और परिश्रम ने सखाराम में मराठी साहित्य के प्रति प्रेम उत्पन्न किया। बचपन में वेदों के अध्ययन के साथ ही सखाराम ने बंगाली भाषा भी सीखी। इतिहास उनका प्रिय विषय था। सखाराम गणेश देउस्कर बाल गंगाधर तिलक को अपना राजनीतिक गुरु मानते थे। |
| ====शिक्षा====
| | ==आंदोलन== |
| रामकृष्ण गोपाल भण्डारकर ने रत्नागिरी से स्कूली शिक्षा पूरी करके 1853 में [[मुम्बई]] के एल्फ़िंस्टन कॉलेज में दाखिला लिया, जहाँ इन्होंने जिन जानी मानी हस्तियों से शिक्षा प्राप्त की, उनमें प्रथम राष्ट्रवादी 'चिंतक' और 'ड्रेन थियरी' के प्रतिपादक [[दादाभाई ]] प्रमुख थे। दादाभाई नौरोज़ी के प्रोत्साहन के कारण ही [[अंग्रेज़ी साहित्य]], प्राकृतिक विज्ञान और गणित के प्रति रुचि के बावजूद भण्डारकर ने [[संस्कृत]] और [[पालि]] के ज्ञान के सहारे गौरवशाली अतीत के पुनर्निर्माण हेतु इतिहास-लेखन को अपनाया। [[1862]] में ये एल्फ़िंस्टन कॉलेज के पहले बैच से ग्रेजुअट होने वालों में से एक थे। वहाँ पर बी. ए. तथा एम. ए. की परीक्षाओं में इन्होंने सर्वोत्तम अंक प्राप्त किए। [[1863]] में ही इन्होंने परास्नातक की उपाधि प्राप्त की।
| | महान राष्ट्रवादी और स्वदेशी आंदोलन के प्रमुख समर्थक सखाराम गणेश देउसकर का जन्म 17 दिसंबर,1896 ई. को बिहार प्रदेश में हुआ था। उनके पूर्वज महाराष्ट्र के रहने वाले थे। सखाराम बिहार प्रदेश के संथला परगना के करो गाँव में रहते थे। पर उन्होंने सार्वजनिक सेवा कोलकाता में जाकर की। उन्होंने कोलकाता में शिवाजी महोत्सव आरंभ करके युवकों के अन्दर राष्ट्रीयता की भावना भरी। वे बंग भंग से पहले ही स्वदेशी के प्रवर्तक थे। देश की स्वतंत्रता को अपने जीवन का लक्ष्य मानने वाले सखाराम ने क्रांतिकारी आंदोलन से भी संपर्क रखा और बंगला तथा हिन्दी में साहित्य की रचना करके जन-जागृति में योग दिया। |
| == शिक्षाशास्त्री के रूप में==
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| रामकृष्ण गोपाल भंडारकर कुछ समय तक [[सिंध]] के [[हैदराबाद]] और रत्नागिरी के राजकीय विद्यालयों में प्रधानाध्यपक के तौर पर कार्य करने के बाद ये एल्फ़िंस्टन कॉलेज में व्याख्याता पद पर नियुक्त हुए और आगे चल कर [[पुणे]] के डेक्कन कॉलेज में संस्कृत के प्रथम भारतीय प्रोफ़ेसर हुए। [[1894]] में अपनी सेवानिवृत्ति से पूर्व भण्डारकर [[मुम्बई विश्वविद्यालय]] के उपकुलपति रहे। [[1885]] में [[जर्मनी]] की गोतिन्गे युनिवर्सिटी ने इन्हें 'डॉक्टरेट' की उपाधि प्रदान की। प्राच्यवादियों के अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन मे शामिल होने के लिए ये [[लंदन]] ([[1874]]) और वियना ([[1886]]) भी गये। शिक्षाशास्त्री के तौर पर भण्डारकर [[1903]] में भारतीय परिषद के अनाधिकारिक सदस्य चुने गये। [[गोपाल कृष्ण गोखले]] भी उस परिषद के सदस्य थे। [[1911]] में रामकृष्ण गोपाल भण्डारकर को 'नाइट' की उपाधि से सम्मानित किया गया।
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| ==कार्य== | |
| रामकृष्ण गोपाल भंडारकर की सबसे बड़ी देन लुप्तप्राय [[इतिहास]] के तत्वों को प्रकाश में आना है। उस समय तक [[भारत]] में इस विषय की ओर किसी का ध्यान नहीं गया था। इन्होंने [[ब्राह्मी |ब्राह्मी]], [[खरोष्ठी]] आदि [[प्राकृत]] भाषाओं का अध्ययन करके शोध के इस क्षेत्र में पथ-प्रदर्शक का काम किया। सरकार ने इन्हें हस्तलिखित ग्रंथों की खोज और प्रकाशन का कार्य सौंपा था। शोध के बाद जो पांच विशाल खंड प्रकाशित किए वे पुरातत्व के इतिहासकारों के लिए आज भी मार्गदर्शक हैं। [[1883]] के वियना के प्राच्य भाषा सम्मेलन में इनकी विद्वता से विदेशी विद्वान चकित रह गए थे। इनके सम्मान में [[1917]] में [[पूना]] में 'भंडारकर ओरियंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट' की स्थापना की गई।
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| ==राजनीतिक जीवन==
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| भंडारकर समाजसुधारक और सार्वजनिक नेता के रूप में भी प्रसिद्ध थे। ये '[[प्रार्थना समाज]]' के सक्रिय सदस्य थे। राजनीति में भी ये [[भारत]] को ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत बनाए रखने के पक्षधर में थे। ऑल इण्डिया सोशल कांफ़्रेंस (अखिल भारतीय सामाजिक सम्मलेन) के सक्रिय सदस्य रहे रामकृष्ण गोपाल भंडारकर ने अपने समय के सामाजिक आंदोलनों में अहम भूमिका निभाते हुए अपने शोध आधारित निष्कर्षों के आधार पर विधवा विवाह का समर्थन किया। साथ ही इन्होंने जाति-प्रथा एवं [[बाल विवाह]] की कुप्रथा का खण्डन भी किया। सामाजिक रूढ़िवादी माहौल के बावजूद भण्डारकर ने अपनी पुत्रियों और पौत्रियों को विश्वविद्यालयी शिक्षा दिलायी और अपनी पसंद का जीवन साथी चुनने की परिपक्वता प्राप्ति तक उनका [[विवाह]] नहीं किया। इन्होंने अपनी विधवा पुत्री के पुनर्विवाह के लिए भी अनुमति दी और इन्होंने अपनी विधवा पुत्री का पुनर्विवाह करके एक उदाहरण प्रस्तुत किया था।
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| ==निधन==
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| रामकृष्ण गोपाल भण्डारकर का [[24 अगस्त]] [[1925]] को निधन हो गया।
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| | सखाराम गणेश देउसकर की अध्यक्षता में कोलकाता में 'बुद्धिवर्धिनी' सभा का गठन हुआ। इस सभा के माध्यम से युवकों के ज्ञान में वृद्धि तो होती ही थी, उन्हें राजनीतिक ज्ञान भी प्राप्त होता था। साथ ही लोगों को स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग की प्ररेणा मिलती थी। 1905 मे बंग-भंग के विरोद्ध में जो आंदोजन चला, उसमें देउसकर का बड़ा योगदान था। |
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| | देउसकर संस्कृत,मराठी और हिन्दी भाषा के अच्छे ज्ञाता थे। बंगला भाषा के प्रसिद्ध पत्र 'हितवादी' का वे संपादन करते थे। उनकी प्रेरणा से इस पत्र का 'हितवार्ता' के नाम से हिन्दी संस्करण निकला जिसका संपादन पं. बाबूराव विष्ण पराड़कर ने किया। हिन्दी में भी बंगला, मराठी आदि की भाँति विभक्ति शब्द से मिला कर लिखी जाए, इसके लिए देउसकर ने एक आंदोलन चलाया था। |
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| | | देउसकर का एक बड़ा योगदान था 'देशेर कथा' नामक ग्रंथ की रचना। इसके प्रथम संस्करण का पं. बाबूराव विष्णु पराड़कर ने 'देश की बात' नाम से हिन्दी में अनुवाद किया था। इस पुस्तक में पराधीन देश की दशा पर प्रकाश डाला गया था। विदेशी सरकार ने इसे प्रकाशित होते ही जब्त कर लिया था, पर गुप्त रूप से देश भर में इसका बहुत प्रचार हुआ। देउसकर का घर अरविन्द घोष और वारीन्द्र घोष जैसे क्रांतिकारियों का मिलन स्थान था जो दिन में पत्रकारिता करते और रात्रि में अपने दल के कार्यों में संलग्न रहते। वे लोकमान्य के पक्के अनुयायी थे और बंगाल में जनजागति लाने के कारण वे 'बंगाल के तिलक' कहलाते थे। हिन्दी के प्रचार के लिए भी वे निरंतर प्रयत्नशील रहे। राष्ट्रभक्त सखाराम गणेश देउसकर का अल्प आयु में ही 23 नवंबर 1912ई. को देहांत हो गया। |
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| '''श्वेतकेतु''' एक तत्वज्ञानी आचार्य थे, जिनका उल्लेख [[शतपथ ब्राह्मण]], [[छान्दोग्य उपनिषद|छान्दोग्य]], [[बृहदारण्यक]] आदि [[उपनिषद|उपनिषदों]] में मिलता है। उनकी [[कथा]] उपनिषद में मूलत: आती है। | |
| ==परिचय==
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| कौशीतकि उपनिषद के अनुसार ये [[गौतम ऋषि]] के वंशज और [[आरुणि]] के पुत्र थे। छांदोग्य में इसको उद्दालक आरुणि का पुत्र बताया गया है। ये [[पांचाल|पांचाल देश]] के निवासी थे और [[जनक|विदेहराज जनक]] की सभा में भी गए थे। अद्वैत वेदांत के महावाक्य 'तत्वमसि' का, जिसका उल्लेख छांदोग्य उपनिषद में है, उपदेश इन्हें अपने पिता से मिला था। इसके एक प्रश्न के उत्तर में पिता ने कहा था- "तुम एवं इस सृष्टि की सारी चराचर वस्तुएं एक है एवं इन सारी वस्तुओं का तू ही है (तत्त्वमसि)।" इन्होंने एक बार [[ब्राह्मण|ब्राह्मणों]] के साथ दुर्व्यवहार किया, जिससे इनके पिता ने इनका परित्याग कर दिया था।<ref>{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=भारतीय चरित कोश|लेखक=लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय'|अनुवादक=|आलोचक=|प्रकाशक=शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली|संकलन= |संपादन=|पृष्ठ संख्या=864|url=}}</ref> इनका [[विवाह]] [[देवल|देवल श्रषि]] की कन्या सुवर्चला के साथ हुआ था और [[अष्टावक्र]] इनके मामा थे।
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| ==समाज सुधारक==
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| श्वेतकेतु का समय [[पाणिनी]] से पहले माना जाता है। ये देश के प्रथम समाज सुधारक थे। समाज कल्याण की दृष्टि से इन्होंने अनेक नियमों की स्थापना की। एक [[महाभारत]] में आए उल्लेख के अनुसार एक [[ब्राह्मण]] ने इनकी माता का हरण कर लिया था। इसी पर श्वेतेकेतु ने पुरुषों के लिए एक पत्नी व्रत और महिलाओं के लिए प्रतिव्रत का नियम बनाया और परस्त्री गमन पर रोक लगाई। इन्होंने यह नियम प्रचारित किया कि पति को छोड़कर पर पुरुष के पास जाने वाली स्त्री तथा अपनी पत्नी को छोड़कर दूसरी स्त्री से संबंध कर लेने वाला पुरुष दोनों ही भ्रूणहत्या के अपराधी माने जाएँ।
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| श्वेतकेतु की [[कथा]] महाभारत के [[आदिपर्व महाभारत|आदिपर्व]] में है और उनके द्वारा प्रचारित यह नियम धर्मशास्त्र में अब तक मान्य है। एक बार अतिथि सत्कार में [[उद्दालक]] ने अपनी पत्नी को भी अर्पित कर दिया। इस दूषित प्रथा का विरोध श्वेतकेतु ने किया। वास्तव में कुछ पर्वतीय [[आरण्यक]] लोगों में आदिम जीवन के कुछ अवशेष कहीं-कहीं अब भी चले आ रहे थे, जिनके अनुसार स्त्रियाँ अपने पति के अतिरिक्त अन्य पुरुषों के साथ भी सम्बन्ध कर सकती थीं। इस प्रथा को श्वेतकेतु ने बन्द कराया।
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सखाराम गणेश देउसकर (अंग्रेज़ी: Sakharam Ganesh Deuskar, जन्म: 17 दिसंबर, 1869, बिहार प्रदेश; मृत्यु: 23 नवंबर, 1912) क्रांतिकारी लेखक, इतिहासकार तथा पत्रकार थे। वे भारतीय जन-जागरण के ऐसे विचारक थे जिनके चिंतन और लेखन में स्थानीयता और अखिल बांग्ला तथा चिंतन-मनन का क्षेत्र इतिहास, अर्थशास्त्र, समाज एवं साहित्य था।
परिचय
सखाराम गणेश देउस्कर का जन्म 17 दिसम्बर 1869 को देवघर के पास 'करौं' नामक गांव में हुआ था, जो अब झारखंड राज्य में है। मराठी मूल के देउस्कर के पूर्वज महाराष्ट्र के रत्नागिरि ज़िले में शिवाजी के आलबान नामक किले के निकट देउस गाँव के निवासी थे। 18वीं सदी में मराठा शक्ति के विस्तार के समय इनके पूर्वज महाराष्ट्र के देउस गांव से आकर करौं में बस गए थे। पाँच साल की अवस्था में माँ का देहांत हो जाने के बाद बालक सखाराम का पालन-पोषण उनकी विद्यानुरागिनी बुआ के पास हुआ जो मराठी साहित्य से भली भाँति परिचित थीं। उनके जतन, उपदेश और परिश्रम ने सखाराम में मराठी साहित्य के प्रति प्रेम उत्पन्न किया। बचपन में वेदों के अध्ययन के साथ ही सखाराम ने बंगाली भाषा भी सीखी। इतिहास उनका प्रिय विषय था। सखाराम गणेश देउस्कर बाल गंगाधर तिलक को अपना राजनीतिक गुरु मानते थे।
आंदोलन
महान राष्ट्रवादी और स्वदेशी आंदोलन के प्रमुख समर्थक सखाराम गणेश देउसकर का जन्म 17 दिसंबर,1896 ई. को बिहार प्रदेश में हुआ था। उनके पूर्वज महाराष्ट्र के रहने वाले थे। सखाराम बिहार प्रदेश के संथला परगना के करो गाँव में रहते थे। पर उन्होंने सार्वजनिक सेवा कोलकाता में जाकर की। उन्होंने कोलकाता में शिवाजी महोत्सव आरंभ करके युवकों के अन्दर राष्ट्रीयता की भावना भरी। वे बंग भंग से पहले ही स्वदेशी के प्रवर्तक थे। देश की स्वतंत्रता को अपने जीवन का लक्ष्य मानने वाले सखाराम ने क्रांतिकारी आंदोलन से भी संपर्क रखा और बंगला तथा हिन्दी में साहित्य की रचना करके जन-जागृति में योग दिया।
सखाराम गणेश देउसकर की अध्यक्षता में कोलकाता में 'बुद्धिवर्धिनी' सभा का गठन हुआ। इस सभा के माध्यम से युवकों के ज्ञान में वृद्धि तो होती ही थी, उन्हें राजनीतिक ज्ञान भी प्राप्त होता था। साथ ही लोगों को स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग की प्ररेणा मिलती थी। 1905 मे बंग-भंग के विरोद्ध में जो आंदोजन चला, उसमें देउसकर का बड़ा योगदान था।
देउसकर संस्कृत,मराठी और हिन्दी भाषा के अच्छे ज्ञाता थे। बंगला भाषा के प्रसिद्ध पत्र 'हितवादी' का वे संपादन करते थे। उनकी प्रेरणा से इस पत्र का 'हितवार्ता' के नाम से हिन्दी संस्करण निकला जिसका संपादन पं. बाबूराव विष्ण पराड़कर ने किया। हिन्दी में भी बंगला, मराठी आदि की भाँति विभक्ति शब्द से मिला कर लिखी जाए, इसके लिए देउसकर ने एक आंदोलन चलाया था।
देउसकर का एक बड़ा योगदान था 'देशेर कथा' नामक ग्रंथ की रचना। इसके प्रथम संस्करण का पं. बाबूराव विष्णु पराड़कर ने 'देश की बात' नाम से हिन्दी में अनुवाद किया था। इस पुस्तक में पराधीन देश की दशा पर प्रकाश डाला गया था। विदेशी सरकार ने इसे प्रकाशित होते ही जब्त कर लिया था, पर गुप्त रूप से देश भर में इसका बहुत प्रचार हुआ। देउसकर का घर अरविन्द घोष और वारीन्द्र घोष जैसे क्रांतिकारियों का मिलन स्थान था जो दिन में पत्रकारिता करते और रात्रि में अपने दल के कार्यों में संलग्न रहते। वे लोकमान्य के पक्के अनुयायी थे और बंगाल में जनजागति लाने के कारण वे 'बंगाल के तिलक' कहलाते थे। हिन्दी के प्रचार के लिए भी वे निरंतर प्रयत्नशील रहे। राष्ट्रभक्त सखाराम गणेश देउसकर का अल्प आयु में ही 23 नवंबर 1912ई. को देहांत हो गया।