"महाराणा प्रताप द्वारा दुर्गों पर अधिकार": अवतरणों में अंतर
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पृथ्वीराज का पत्र पढ़ने के बाद [[राणा प्रताप]] ने अपने स्वाभिमान की रक्षा करने का निर्णय कर लिया, परन्तु मौजूदा परिस्थितियों में पर्वतीय स्थानों में रहते हुए [[मुग़ल|मुग़लों]] का प्रतिरोध करना सम्भव न था। अतः उन्होंने रक्तरंजित [[चित्तौड़]] और [[मेवाड़]] को छोड़कर किसी दूरवर्ती स्थान पर जाने का विचार किया। उन्होंने तैयारियाँ शुरू कीं। सभी सरदार भी प्रताप के साथ चलने को तैयार हो गए। चित्तौड़ के उद्धार की आशा अब उनके हृदय से जाती रही थी। अतः प्रताप ने [[सिंध नदी]] के किनारे पर स्थित सोगदी राज्य की तरफ़ बढ़ने की योजना बनाई, ताकि बीच का [[मरुस्थल]] उनके शत्रु को उनसे दूर रखे। | |||
==भामाशाह का सम्पत्ति दान== | ==भामाशाह का सम्पत्ति दान== | ||
[[अरावली]] को पार कर जब राणा प्रताप [[मरुस्थल]] के किनारे पहुँचे ही थे कि एक आश्चर्यजनक घटना ने उन्हें पुनः वापस लौटने के लिए विवश कर दिया। [[मेवाड़]] के वृद्ध मंत्री [[भामाशाह]] ने अपने जीवन में काफ़ी सम्पत्ति अर्जित की थी। वह अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति के साथ प्रताप की सेवा में आ उपस्थित हुआ और उसने राणा प्रताप से मेवाड़ के उद्धार की याचना की। यह सम्पत्ति इतनी अधिक थी कि उससे वर्षों तक 25,000 सैनिकों का खर्चा पूरा किया जा सकता था।<ref> | [[अरावली]] को पार कर जब राणा प्रताप [[मरुस्थल]] के किनारे पहुँचे ही थे कि एक आश्चर्यजनक घटना ने उन्हें पुनः वापस लौटने के लिए विवश कर दिया। [[मेवाड़]] के वृद्ध मंत्री [[भामाशाह]] ने अपने जीवन में काफ़ी सम्पत्ति अर्जित की थी। वह अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति के साथ प्रताप की सेवा में आ उपस्थित हुआ और उसने राणा प्रताप से मेवाड़ के उद्धार की याचना की। यह सम्पत्ति इतनी अधिक थी कि उससे वर्षों तक 25,000 सैनिकों का खर्चा पूरा किया जा सकता था।<ref>[[गौरीशंकर हीराचंद ओझा|डॉ. ओझा]] और [[डॉ. गोपीनाथ शर्मा|डॉ. गोपीनाथ शर्मा]], ये दोनों ही इस कथन को भी कल्पित मानते हैं कि [[भामाशाह]] ने अपनी निजी सम्पत्ति प्रताप को दी थी। उनके मतानुसार यह राजकीय द्रव्य था अथवा [[मालवा]] से लूटकर लाया हुआ धन था।</ref> भामाशाह का नाम मेवाड़ के उद्धारकर्ताओं के रूप में आज भी सुरक्षित है। भामाशाह के इस अपूर्व त्याग से प्रताप की शक्तियाँ फिर से जागृत हो उठी थीं। | ||
====दुर्गों पर अधिकार==== | ====दुर्गों पर अधिकार==== | ||
[[चित्र:Battlefield-Death-Of-Pratap-Singh-Chetak.jpg|thumb|300px|युद्धभूमि पर महाराणा प्रताप के चेतक (घोड़े) की मौत]] | [[चित्र:Battlefield-Death-Of-Pratap-Singh-Chetak.jpg|thumb|300px|युद्धभूमि पर महाराणा प्रताप के चेतक (घोड़े) की मौत]] | ||
[[महाराणा प्रताप]] ने वापस आकर [[राजपूत|राजपूतों]] की एक अच्छी सेना बना ली, जबकि उनके शत्रुओं को इसकी भनक भी नहीं मिल पाई। ऐसे में प्रताप ने [[मुग़ल]] सेनापति शाहबाज़ ख़ाँ को देवीर नामक स्थान पर अचानक आ घेरा। मुग़लों ने जमकर सामना किया, परन्तु वे परास्त हुए। बहुत से [[मुग़ल]] मारे गए और बाक़ी पास की छावनी की ओर भागे। राजपूतों ने [[आमेर]] तक उनका पीछा किया और उस मुग़ल छावनी के अधिकांश सैनिकों को भी मौत के घाट उतार दिया गया। इसी समय [[कमलमीर]] पर आक्रमण किया गया और वहाँ का सेनानायक अब्दुल्ला मारा गया और दुर्ग पर प्रताप का अधिकार हो गया। थोड़े ही दिनों में एक के बाद एक करके बत्तीस [[दुर्ग|दुर्गों]] पर अधिकार कर लिया गया और दुर्गों में नियुक्त मुग़ल सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया गया। [[संवत]] 1586 (1530 ई.) में [[चित्तौड़]], [[अजमेर]] और मांडलगढ़ को छोड़कर सम्पूर्ण मेवाड़ पर प्रताप ने अपना पुनः अधिकार जमा लिया।<ref>[[कर्नल टॉड]] ने जो [[तिथि]] दी है, वह ग़लत है। 1576 ई. में तो [[हल्दीघाटी का युद्ध]] ही लड़ा गया था। अतः यह 1580 ई. के बाद का समय होना चाहिए।</ref> [[राजा मानसिंह]] को उसके देशद्रोह का बदला देने के लिए प्रताप ने [[आमेर]] राज्य के समृद्ध नगर मालपुरा को लूटकर नष्ट कर दिया। उसके बाद प्रताप [[उदयपुर]] की तरफ़ बढ़े। मुग़ल सेना बिना युद्ध लड़े ही वहाँ से चली गई और उदयपुर पर प्रताप का अधिकार हो गया। अकबर ने थोड़े समय के लिए युद्ध बन्द कर दिया। | [[महाराणा प्रताप]] ने वापस आकर [[राजपूत|राजपूतों]] की एक अच्छी सेना बना ली, जबकि उनके शत्रुओं को इसकी भनक भी नहीं मिल पाई। ऐसे में प्रताप ने [[मुग़ल]] सेनापति शाहबाज़ ख़ाँ को देवीर नामक स्थान पर अचानक आ घेरा। मुग़लों ने जमकर सामना किया, परन्तु वे परास्त हुए। बहुत से [[मुग़ल]] मारे गए और बाक़ी पास की छावनी की ओर भागे। राजपूतों ने [[आमेर]] तक उनका पीछा किया और उस मुग़ल छावनी के अधिकांश सैनिकों को भी मौत के घाट उतार दिया गया। इसी समय [[कमलमीर]] पर आक्रमण किया गया और वहाँ का सेनानायक अब्दुल्ला मारा गया और [[दुर्ग]] पर प्रताप का अधिकार हो गया। थोड़े ही दिनों में एक के बाद एक करके बत्तीस [[दुर्ग|दुर्गों]] पर अधिकार कर लिया गया और दुर्गों में नियुक्त मुग़ल सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया गया। [[संवत]] 1586 (1530 ई.) में [[चित्तौड़]], [[अजमेर]] और [[मांडलगढ़ क़िला|मांडलगढ़]] को छोड़कर सम्पूर्ण मेवाड़ पर प्रताप ने अपना पुनः अधिकार जमा लिया।<ref>[[कर्नल टॉड]] ने जो [[तिथि]] दी है, वह ग़लत है। 1576 ई. में तो [[हल्दीघाटी का युद्ध]] ही लड़ा गया था। अतः यह 1580 ई. के बाद का समय होना चाहिए।</ref> [[राजा मानसिंह]] को उसके देशद्रोह का बदला देने के लिए प्रताप ने [[आमेर]] राज्य के समृद्ध नगर मालपुरा को लूटकर नष्ट कर दिया। उसके बाद प्रताप [[उदयपुर]] की तरफ़ बढ़े। मुग़ल सेना बिना युद्ध लड़े ही वहाँ से चली गई और उदयपुर पर प्रताप का अधिकार हो गया। अकबर ने थोड़े समय के लिए युद्ध बन्द कर दिया। | ||
सम्पूर्ण जीवन युद्ध करके और भयानक कठिनाइयों का सामना करके [[राणा प्रताप]] ने जिस तरह से अपना जीवन व्यतीत किया, उसकी प्रशंसा इस संसार से मिट न | सम्पूर्ण जीवन युद्ध करके और भयानक कठिनाइयों का सामना करके [[राणा प्रताप]] ने जिस तरह से अपना जीवन व्यतीत किया, उसकी प्रशंसा इस संसार से मिट न सकेगी, परन्तु इन सबके परिणामस्वरूप प्रताप में समय से पहले ही बुढ़ापा आ गया। उन्होंने जो प्रतिज्ञा की थी, उसे अन्त तक निभाया। राजमहलों को छोड़कर प्रताप ने [[पिछोला झील|पिछोला तालाब]] के निकट अपने लिए कुछ झोपड़ियाँ बनवाई थीं ताकि [[वर्षा]] में आश्रय लिया जा सके। इन्हीं झोपड़ियों में प्रताप ने सपरिवार अपना जीवन व्यतीत किया। अब जीवन का अन्तिम समय आ पहुँचा था। प्रताप ने [[चित्तौड़]] के उद्धार की प्रतिज्ञा की थी, परन्तु उसमें सफलता न मिली। फिर भी, उन्होंने अपनी थोड़ी-सी सेना की सहायता से मुग़लों की विशाल सेना को इतना अधिक परेशान किया कि अन्त में [[अकबर]] को युद्ध बन्द कर देना पड़ा। | ||
13:18, 29 दिसम्बर 2016 का अवतरण
पृथ्वीराज का पत्र पढ़ने के बाद राणा प्रताप ने अपने स्वाभिमान की रक्षा करने का निर्णय कर लिया, परन्तु मौजूदा परिस्थितियों में पर्वतीय स्थानों में रहते हुए मुग़लों का प्रतिरोध करना सम्भव न था। अतः उन्होंने रक्तरंजित चित्तौड़ और मेवाड़ को छोड़कर किसी दूरवर्ती स्थान पर जाने का विचार किया। उन्होंने तैयारियाँ शुरू कीं। सभी सरदार भी प्रताप के साथ चलने को तैयार हो गए। चित्तौड़ के उद्धार की आशा अब उनके हृदय से जाती रही थी। अतः प्रताप ने सिंध नदी के किनारे पर स्थित सोगदी राज्य की तरफ़ बढ़ने की योजना बनाई, ताकि बीच का मरुस्थल उनके शत्रु को उनसे दूर रखे।
भामाशाह का सम्पत्ति दान
अरावली को पार कर जब राणा प्रताप मरुस्थल के किनारे पहुँचे ही थे कि एक आश्चर्यजनक घटना ने उन्हें पुनः वापस लौटने के लिए विवश कर दिया। मेवाड़ के वृद्ध मंत्री भामाशाह ने अपने जीवन में काफ़ी सम्पत्ति अर्जित की थी। वह अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति के साथ प्रताप की सेवा में आ उपस्थित हुआ और उसने राणा प्रताप से मेवाड़ के उद्धार की याचना की। यह सम्पत्ति इतनी अधिक थी कि उससे वर्षों तक 25,000 सैनिकों का खर्चा पूरा किया जा सकता था।[1] भामाशाह का नाम मेवाड़ के उद्धारकर्ताओं के रूप में आज भी सुरक्षित है। भामाशाह के इस अपूर्व त्याग से प्रताप की शक्तियाँ फिर से जागृत हो उठी थीं।
दुर्गों पर अधिकार
महाराणा प्रताप ने वापस आकर राजपूतों की एक अच्छी सेना बना ली, जबकि उनके शत्रुओं को इसकी भनक भी नहीं मिल पाई। ऐसे में प्रताप ने मुग़ल सेनापति शाहबाज़ ख़ाँ को देवीर नामक स्थान पर अचानक आ घेरा। मुग़लों ने जमकर सामना किया, परन्तु वे परास्त हुए। बहुत से मुग़ल मारे गए और बाक़ी पास की छावनी की ओर भागे। राजपूतों ने आमेर तक उनका पीछा किया और उस मुग़ल छावनी के अधिकांश सैनिकों को भी मौत के घाट उतार दिया गया। इसी समय कमलमीर पर आक्रमण किया गया और वहाँ का सेनानायक अब्दुल्ला मारा गया और दुर्ग पर प्रताप का अधिकार हो गया। थोड़े ही दिनों में एक के बाद एक करके बत्तीस दुर्गों पर अधिकार कर लिया गया और दुर्गों में नियुक्त मुग़ल सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया गया। संवत 1586 (1530 ई.) में चित्तौड़, अजमेर और मांडलगढ़ को छोड़कर सम्पूर्ण मेवाड़ पर प्रताप ने अपना पुनः अधिकार जमा लिया।[2] राजा मानसिंह को उसके देशद्रोह का बदला देने के लिए प्रताप ने आमेर राज्य के समृद्ध नगर मालपुरा को लूटकर नष्ट कर दिया। उसके बाद प्रताप उदयपुर की तरफ़ बढ़े। मुग़ल सेना बिना युद्ध लड़े ही वहाँ से चली गई और उदयपुर पर प्रताप का अधिकार हो गया। अकबर ने थोड़े समय के लिए युद्ध बन्द कर दिया।
सम्पूर्ण जीवन युद्ध करके और भयानक कठिनाइयों का सामना करके राणा प्रताप ने जिस तरह से अपना जीवन व्यतीत किया, उसकी प्रशंसा इस संसार से मिट न सकेगी, परन्तु इन सबके परिणामस्वरूप प्रताप में समय से पहले ही बुढ़ापा आ गया। उन्होंने जो प्रतिज्ञा की थी, उसे अन्त तक निभाया। राजमहलों को छोड़कर प्रताप ने पिछोला तालाब के निकट अपने लिए कुछ झोपड़ियाँ बनवाई थीं ताकि वर्षा में आश्रय लिया जा सके। इन्हीं झोपड़ियों में प्रताप ने सपरिवार अपना जीवन व्यतीत किया। अब जीवन का अन्तिम समय आ पहुँचा था। प्रताप ने चित्तौड़ के उद्धार की प्रतिज्ञा की थी, परन्तु उसमें सफलता न मिली। फिर भी, उन्होंने अपनी थोड़ी-सी सेना की सहायता से मुग़लों की विशाल सेना को इतना अधिक परेशान किया कि अन्त में अकबर को युद्ध बन्द कर देना पड़ा।
महाराणा प्रताप द्वारा दुर्गों पर अधिकार |
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ डॉ. ओझा और डॉ. गोपीनाथ शर्मा, ये दोनों ही इस कथन को भी कल्पित मानते हैं कि भामाशाह ने अपनी निजी सम्पत्ति प्रताप को दी थी। उनके मतानुसार यह राजकीय द्रव्य था अथवा मालवा से लूटकर लाया हुआ धन था।
- ↑ कर्नल टॉड ने जो तिथि दी है, वह ग़लत है। 1576 ई. में तो हल्दीघाटी का युद्ध ही लड़ा गया था। अतः यह 1580 ई. के बाद का समय होना चाहिए।