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'''बाबा बुल्ले शाह''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Bulleh Shah'', जन्म- 1680, गिलानियाँ उच्च, [[पाकिस्तान]]; मृत्यु- 1758) पंजाबी सूफ़ी काव्य के आसमान पर एक चमकते सितारे की तरह थे। उनकी काव्य रचना उस समय की हर किस्म की धार्मिक कट्टरता और गिरते सामाजिक किरदार पर एक तीखा व्यंग्य है। बाबा बुल्ले शाह ने बहुत बहादुरी के साथ अपने समय के हाकिमों के ज़ुल्मों और धार्मिक कट्टरता विरुद्ध आवाज़ उठाई। बाबा बुल्ले शाह जी की कविताओं में काफ़ियां, दोहड़े, बारांमाह, अठवारा, गंढां और सीहरफ़ियां शामिल हैं । उनका मूल नाम अब्दुल्ला शाह था। आगे चलकर उनका नाम बुल्ला शाह या बुल्ले शाह हो गया। प्यार से लोग उन्हें साईं बुल्ले शाह या बाबा बुल्ला भी कहते हैं। वह इस्लाम के अंतिम नबी मुहम्मद की पुत्री फ़ातिमा के वंशजों में से थे।<ref>{{cite web |url=http://www.hindi-kavita.com/HindiBaba-Bullhe-Bulleh-Shah.php |title= | {{सूचना बक्सा साहित्यकार | ||
|चित्र=Bulleh-Shah.jpg | |||
|चित्र का नाम=बुल्ले शाह | |||
|पूरा नाम= अब्दुल्ला शाह | |||
|अन्य नाम=साईं बुल्ले शाह, बुल्ला | |||
|जन्म=1680 | |||
|जन्म भूमि=गिलानियाँ उच्च | |||
|मृत्यु=1758 | |||
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|कर्म भूमि= | |||
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|मुख्य रचनाएँ=बुल्ले नूँ समझावन आँईयाँ, अब हम गुम हुए, किससे अब तू छिपता है | |||
|विषय= | |||
|भाषा=[[पंजाबी भाषा|पंजाबी]], [[उर्दू]], [[हिंदी]] | |||
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|संबंधित लेख=[[हज़रत मुहम्मद]] | |||
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|अन्य जानकारी=बुल्ले शाह जी ने पंजाबी मुहावरे में अपने आपको अभिव्यक्त किया। जबकि अन्य [[हिन्दी |हिन्दी]] और सधुक्कड़ी भाषा में अपना संदेश देते थे। पंजाबी सूफियों ने न केवल ठेठ पंजाबी भाषा की छवि को बनाए रखा बल्कि उन्होंने पंजाबियत व लोक संस्कृति को सुरक्षित रखा। | |||
|बाहरी कड़ियाँ= | |||
|अद्यतन= | |||
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'''बाबा बुल्ले शाह''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Bulleh Shah'', जन्म- 1680, गिलानियाँ उच्च, [[पाकिस्तान]]; मृत्यु- 1758) पंजाबी सूफ़ी काव्य के आसमान पर एक चमकते सितारे की तरह थे। उनकी काव्य रचना उस समय की हर किस्म की धार्मिक कट्टरता और गिरते सामाजिक किरदार पर एक तीखा व्यंग्य है। बाबा बुल्ले शाह ने बहुत बहादुरी के साथ अपने समय के हाकिमों के ज़ुल्मों और धार्मिक कट्टरता विरुद्ध आवाज़ उठाई। बाबा बुल्ले शाह जी की कविताओं में काफ़ियां, दोहड़े, बारांमाह, अठवारा, गंढां और सीहरफ़ियां शामिल हैं । उनका मूल नाम अब्दुल्ला शाह था। आगे चलकर उनका नाम बुल्ला शाह या बुल्ले शाह हो गया। प्यार से लोग उन्हें साईं बुल्ले शाह या बाबा बुल्ला भी कहते हैं। वह इस्लाम के अंतिम नबी मुहम्मद की पुत्री फ़ातिमा के वंशजों में से थे।<ref name="a">{{cite web |url=http://www.hindi-kavita.com/HindiBaba-Bullhe-Bulleh-Shah.php |title= | |||
हिन्दी कविता, बाबा बुल्ले शाह |accessmonthday= 16 फ़रवरी|accessyear= 2017|last= |first= |authorlink= |format= |publisher=www.hindi-kavita.com |language=हिंदी }}</ref> | हिन्दी कविता, बाबा बुल्ले शाह |accessmonthday= 16 फ़रवरी|accessyear= 2017|last= |first= |authorlink= |format= |publisher=www.hindi-kavita.com |language=हिंदी }}</ref> | ||
==परिचय== | ==परिचय== | ||
बुल्ले शाह का जन्म | बुल्ले शाह का जन्म 1680 गिलानियाँ उच्च, [[पाकिस्तान]] में हुआ था। उनके जीवन से सम्बन्धित विद्वानों में मतभेद हैं। बुल्ले शाह के माता-पिता पुश्तैनी रूप से वर्तमान पाकिस्तान में स्थित बहावलपुर राज्य के "गिलानियाँ उच्च" नामक [[गाँव]] से थे, जहाँ से वे किसी कारण से मलकवाल गाँव (ज़िला मुलतान) गए। मालकवल में पंडोक नामक गाँव के मालिक अपने गाँव की मस्जिद के लिये मौलवी ढूँढते आए। इस कार्य के लिये उन्होंने बुल्ले शाह के पिता शाह मुहम्मद दरवेश को चुना और बुल्ले शाह के माता-पिता पाँडोके (वर्तमान नाम पाँडोके भट्टीयाँ) चले गए। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि बुल्ले शाह का जन्म पाँडोके में हुआ था और कुछ का मानना है कि उनका जन्म उच्च गिलानियाँ में हुआ था और उन्होंने अपने जीवन के पहले छः [[महीना|महीने]] वहीं बिताए थे। बुल्ले शाह के दादा सय्यद अब्दुर रज्ज़ाक़ थे और वे सय्यद जलाल-उद-दीन बुख़ारी के वंशज थे। सय्यद जलाल-उद-दीन बुख़ारी बुल्ले शाह के जन्म से तीन सौ साल पहले सु़र्ख़ बुख़ारा नामक जगह से आकर मुलतान में बसे थे। बुल्ले शाह [[मुहम्मद|हज़रत मुहम्मद]] साहिब की पुत्री फ़ातिमा के वंशजों में से थे। उनके पिता शाह मुहम्मद थे जिन्हें [[अरबी भाषा|अरबी]], [[फारसी भाषा|फारसी]] और [[क़ुरआन|क़ुरआन शरीफ]] का अच्छा ज्ञान था। उनके पिता के नेक जीवन का प्रभाव बुल्ले शाह पर भी पड़ा। उनकी उच्च शिक्षा कसूर में ही हुई। उनके उस्ताद हज़रत ख़्वाजा ग़ुलाम मुर्तज़ा सरीखे ख्यातनामा थे। पंजाबी कवि वारिस शाह ने भी ख़्वाजा ग़ुलाम मुर्तज़ा से ही शिक्षा ली थी। अरबी, फारसी के विद्वान होने के साथ-साथ आपने इस्लामी और सूफी धर्म ग्रंथो का भी गहरा अध्ययन किया। | ||
==धार्मिक प्रवत्ति== | ==धार्मिक प्रवत्ति== | ||
बुल्ले शाह धार्मिक प्रवत्ति के थे। उन्होंने सूफी धर्म ग्रंथों का भी गहरा अध्ययन किया था। | बुल्ले शाह धार्मिक प्रवत्ति के थे। उन्होंने सूफी धर्म ग्रंथों का भी गहरा अध्ययन किया था। साधना से बुल्ले ने इतनी ताकत हासिल कर ली कि अधपके फलों को पेड़ से बिना छुए गिरा दे। पर बुल्ले को तलाश थी इक ऐसे मुरशद की जो उसे खुदा से मिला दे। उस दिन शाह इनायत अराईं (छोटी मुसलिम जात) के बाग के पास से गुज़रते हुए, बुल्ले की नज़र उन पर पड़ी। उसे लगा शायद मुरशद की तलाश पूरी हुई। मुरशद को आज़माने के लिए बुल्ले ने अपनी गैबी ताकत से आम गिरा दिए। शाह इनायत ने कहा, नौजवान तुमने चोरी की है। बुल्ले ने चतुराई दिखाई, ना छुआ ना पत्थर मारा कैसी चोरी? शाह इनायत ने इनायत भरी नजऱों से देखा, हर सवाल लाजवाब हो गया। बुल्ला पैरों पर नतमस्तक हो गया। झोली फैला खैर मांगी मुरशद मुझे खुदा से मिला दे। मुरशद ने कहा, मुश्किल नहीं है, बस खुद को भुला दे। फिर क्या था बुल्ला मुरशद का मुरीद हो गया, लेकिन अभी इम्तिहान बाकी थे। पहला इम्तिहान तो घर से ही शुरू हुआ। सैय्यदों का बेटा अराईं का मुरीद हो, तो तथाकथित समाज में मौलाना की इज्ज़त खाक में मिल जाएगी। पर बुल्ला कहां जाति को जानता है। कहां पहनचानता है समाज के मजहबों वाले मुखौटे। परीवारीजनों द्वारा उन्हें समझाने का बहुत यत्न किया परन्तु बुल्ले शाह जी अपने निर्णय से टस से मस न हुए। परिवारीजनों के साथ हुई तकरार का ज़िक्र उन्होंने अपनी कविताओं में भी किया है। उनकी बहनें-भाभीयां जब समझाती हैं- | ||
<blockquote><poem>बुल्ले नू समझावण आइयां भैणां ते भरजाइयां | |||
बुल्ले तूं की लीकां लाइयां छड्ड दे पल्ला अराइयां</poem> | |||
तो बुल्ला गाता है- | |||
<poem>अलफ अल्हा नाल रत्ता दिल मेरा, | |||
मैंनू 'बे' दी खबर न काई | |||
'बे' पड़देयां मैंनू समझ न आवे, | |||
लज्जत अलफ दी आई | |||
ऐन ते गैन नू समझ न जाणां | |||
गल्ल अलफ समझाई | |||
बुल्लेया कौल अलफ दे पूरे | |||
जेहड़े दिल दी करन सफाई</poem></blockquote> | |||
(जिसकी अल्फ यानि उस एक की समझ लग गई उसे आगे पढऩे की जरुरत ही नहीं। अल्फ उर्दू का पहला अक्षर है बुल्ले ने कहा है, जिसने अल्फ से दिल लगा लिया, फिर उसे बाकी अक्षर ऐन-गेन नहीं भाते)<ref>{{cite web |url=http://podcast.hindyugm.com/2009/02/bulle-shah-legandary-punjabi-poet-and.html |title= | |||
बुल्ला की जाणां मैं कौन? - बुल्ले शाह पर विशेष प्रस्तुति |accessmonthday= 17 फ़रवरी|accessyear= 2017|last= |first= |authorlink= |format= |publisher=podcast.hindyugm.com |language=हिंदी }}</ref> | |||
==दंत कथाएं== | ==दंत कथाएं== | ||
जैसे सभी धार्मिक लोगों के साथ दंत-कथाएँ जुड़ जाती हैं, वैसे ही बुल्ले शाह जी के साथ भी कई ऐसी कथाएं जुड़ी हुई हैं। इन कथाओं का वैज्ञानिक आधार चाहे कुछ भी न हो परन्तु जन-मानस में उनका विशेष स्थान अवश्य रहता है। | जैसे सभी धार्मिक लोगों के साथ दंत-कथाएँ जुड़ जाती हैं, वैसे ही बुल्ले शाह जी के साथ भी कई ऐसी कथाएं जुड़ी हुई हैं। इन कथाओं का वैज्ञानिक आधार चाहे कुछ भी न हो परन्तु जन-मानस में उनका विशेष स्थान अवश्य रहता है। | ||
====बुल्ले शाह गुरु | ====बुल्ले शाह और उनके गुरु==== | ||
बुल्ले शाह व उनके गुरु के सम्बन्धों को लेकर बहुत सी बातें प्रचलित हैं, बुल्ले शाह जब गुरु की तलाश में थे; वह इनायत जी के पास बगीचे में पहुँचे, वे अपने कार्य में व्यस्त थे; जिसके कारण उन्हें बुल्ले शाह जी के आने का पता न लगा; बुल्ले शाह ने अपने आध्यात्मिक अभ्यास की शक्ति से परमात्मा का नाम लेकर [[आम|आमों]] की ओर देखा तो पेड़ों से आम गिरने लगे; गुरु जी ने पूछा, "क्या यह आम अपने तोड़े हैं?" बुल्ले शाह ने कहा “न तो मैं पेड़ पर चढ़ा और न ही पत्थर फैंके, भला मैं कैसे आम तोड़ सकता हूँ;” बुल्ले शाह को गुरु जी ने ऊपर से नीचे तक देखा और कहा, "अरे तू चोर भी है और चतुर भी;" बुल्ला गुरु जी के | 1. बुल्ले शाह व उनके गुरु के सम्बन्धों को लेकर बहुत सी बातें प्रचलित हैं, बुल्ले शाह जब गुरु की तलाश में थे; वह इनायत जी के पास बगीचे में पहुँचे, वे अपने कार्य में व्यस्त थे; जिसके कारण उन्हें बुल्ले शाह जी के आने का पता न लगा; बुल्ले शाह ने अपने आध्यात्मिक अभ्यास की शक्ति से परमात्मा का नाम लेकर [[आम|आमों]] की ओर देखा तो पेड़ों से आम गिरने लगे; गुरु जी ने पूछा, "क्या यह आम अपने तोड़े हैं?" बुल्ले शाह ने कहा “न तो मैं पेड़ पर चढ़ा और न ही पत्थर फैंके, भला मैं कैसे आम तोड़ सकता हूँ;” बुल्ले शाह को गुरु जी ने ऊपर से नीचे तक देखा और कहा, "अरे तू चोर भी है और चतुर भी;" बुल्ला गुरु जी के | ||
चरणों में पड़ गया; बुल्ले ने अपना नाम बताया और कहा मैं रब को पाना चाहता हूँ। साईं जी उस समय पनीरी क्यारी से उखाड़ कर खेत | चरणों में पड़ गया; बुल्ले ने अपना नाम बताया और कहा मैं रब को पाना चाहता हूँ। साईं जी उस समय पनीरी क्यारी से उखाड़ कर खेत में लगा रहे थे। उन्होंने कहा, "बुल्लिहआ रब दा की पौणा। एधरों पुटणा ते ओधर लाउणा" इन सीधे-सादे शब्दों में गुरु ने रूहानियत का सार समझा दिया कि मन को संसार की तरफ से हटाकर परमात्मा की ओर मोड़ देने से रब मिल जाता है। बुल्ले शाह ने यह प्रथम दीक्षा गांठ बांध ली। | ||
में लगा रहे | |||
ते ओधर लाउणा" इन सीधे-सादे शब्दों में गुरु ने रूहानियत का सार | 2. कहते हैं कि एक बार बुल्ले शाह जी की इच्छा हुई कि मदीना शरीफ की जियारत को जाएँ। उन्होंने अपनी इच्छा गुरु जी को बताई। इनायत शाह जी ने वहाँ जाने का कारण पूछा। बुल्ले शाह ने कहा कि "वहाँ हज़रत मुहम्मद का रोजा शरीफ है और स्वयं रसूल अल्ला ने फ़रमाया है कि जिसने मेरी कब्र की जियारत की, गोया उसने मुझे जीवित देख लिया।" गुरु जी ने कहा कि इसका जवाब मैं तीन दिन बाद दूँगा। बुल्ले शाह ने अपने [[मदीना|मदीने]] की रवानगी स्थगित कर दी। तीसरे दिन बुल्ले शाह ने | ||
समझा दिया कि मन को संसार की तरफ से हटाकर परमात्मा की ओर | सपने में हज़रत रसूल के दर्शन किए। रसूल अल्ला ने बुल्ले शाह से कहा, "तेरा मुरशद कहाँ है? उसे बुला लाओ।" रसूल ने इनायत शाह को अपनी दाईं ओर बिठा लिया। बुल्ला नज़र झुकाकर खड़ा रहा। जब नज़र उठी तो बुल्ले को लगा कि रसूल और मुरशद की सूरत बिल्कुल एक जैसी है। वह पहचान ही नहीं पाया कि दोनों में से रसूल कौन है और मुरशद कौन है।<ref name="a"/> | ||
मोड़ देने से रब मिल जाता | ==साहित्यिक देन== | ||
बांध ली। | बुल्ले शाह जी ने पंजाबी [[मुहावरा|मुहावरे]] में अपने आपको अभिव्यक्त किया। जबकि अन्य हिन्दी और सधुक्कड़ी भाषा में अपना संदेश देते थे। पंजाबी सूफियों ने न केवल ठेठ पंजाबी भाषा की छवि को बनाए रखा बल्कि उन्होंने पंजाबियत व लोक संस्कृति को सुरक्षित रखा। बुल्ले शाह ने अपने विचारों व भावों को काफियों के रूप में व्यक्त किया है। काफी भक्तों के पदों से मिलता जुलता काव्य रूप है। काफिया भक्तों के भावों को गेय रूप में प्रस्तुत करती हैं इसलिए इनमे बहुत-से रागों की बंदिश मिलती है। जन साधारण भी सूफी दरवेशों के तकियों पर जमा होते थे और मिल कर भक्ति में विभोर होकर काफियां गाते थे। काफियों की भाषा बहुत सादी व आम लोगों के समझने योग्य हैं। बुल्ले शाह लोक दिल पर इस तरह राज कर रहे थे कि उन्होंने बुल्ले शाह की रचनाओं को अपना ही समझ लिया। वह बुल्ले शाह की काफियों को इस तरह गाते थे जैसे वह स्वयं ही इसके रचयिता हों। इनकी काफियों में [[अरबी भाषा|अरबी]], [[फारसी भाषा|फारसी]] के शब्द और इस्लामी धर्म ग्रंथो के मुहावरे भी मिलते हैं। लेकिन कुल मिलाकर उसमे स्थानीय भाषा, मुहावरे और सदाचार का रंग ही प्रधान है।<ref>{{cite web |url=http://superzindagi.in/bulle-shah-%E0%A4%AC%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2%E0%A5%87-%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%B9/|title= बुल्ले शाह |accessmonthday= 17 फ़रवरी|accessyear= 2017|last= |first= |authorlink= |format= |publisher=superzindagi.in |language=हिंदी }}</ref> | ||
==निधन== | |||
विद्वानों के द्वारा बुल्ले शाह का निधन 1758 में माना जाता हैं परंतु कुछ विद्वान इनकी मृत्यु 1759 भी मानते हैं। | |||
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | |||
<references/> | |||
==संबंधित लेख== | |||
{{भारत के कवि}} | |||
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13:11, 17 फ़रवरी 2017 का अवतरण
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पूरा नाम | अब्दुल्ला शाह |
अन्य नाम | साईं बुल्ले शाह, बुल्ला |
जन्म | 1680 |
जन्म भूमि | गिलानियाँ उच्च |
मृत्यु | 1758 |
अभिभावक | शाह मुहम्मद दरवेश |
कर्म-क्षेत्र | साहित्यकार |
मुख्य रचनाएँ | बुल्ले नूँ समझावन आँईयाँ, अब हम गुम हुए, किससे अब तू छिपता है |
भाषा | पंजाबी, उर्दू, हिंदी |
संबंधित लेख | हज़रत मुहम्मद |
अन्य जानकारी | बुल्ले शाह जी ने पंजाबी मुहावरे में अपने आपको अभिव्यक्त किया। जबकि अन्य हिन्दी और सधुक्कड़ी भाषा में अपना संदेश देते थे। पंजाबी सूफियों ने न केवल ठेठ पंजाबी भाषा की छवि को बनाए रखा बल्कि उन्होंने पंजाबियत व लोक संस्कृति को सुरक्षित रखा। |
इन्हें भी देखें | कवि सूची, साहित्यकार सूची |
बाबा बुल्ले शाह (अंग्रेज़ी: Bulleh Shah, जन्म- 1680, गिलानियाँ उच्च, पाकिस्तान; मृत्यु- 1758) पंजाबी सूफ़ी काव्य के आसमान पर एक चमकते सितारे की तरह थे। उनकी काव्य रचना उस समय की हर किस्म की धार्मिक कट्टरता और गिरते सामाजिक किरदार पर एक तीखा व्यंग्य है। बाबा बुल्ले शाह ने बहुत बहादुरी के साथ अपने समय के हाकिमों के ज़ुल्मों और धार्मिक कट्टरता विरुद्ध आवाज़ उठाई। बाबा बुल्ले शाह जी की कविताओं में काफ़ियां, दोहड़े, बारांमाह, अठवारा, गंढां और सीहरफ़ियां शामिल हैं । उनका मूल नाम अब्दुल्ला शाह था। आगे चलकर उनका नाम बुल्ला शाह या बुल्ले शाह हो गया। प्यार से लोग उन्हें साईं बुल्ले शाह या बाबा बुल्ला भी कहते हैं। वह इस्लाम के अंतिम नबी मुहम्मद की पुत्री फ़ातिमा के वंशजों में से थे।[1]
परिचय
बुल्ले शाह का जन्म 1680 गिलानियाँ उच्च, पाकिस्तान में हुआ था। उनके जीवन से सम्बन्धित विद्वानों में मतभेद हैं। बुल्ले शाह के माता-पिता पुश्तैनी रूप से वर्तमान पाकिस्तान में स्थित बहावलपुर राज्य के "गिलानियाँ उच्च" नामक गाँव से थे, जहाँ से वे किसी कारण से मलकवाल गाँव (ज़िला मुलतान) गए। मालकवल में पंडोक नामक गाँव के मालिक अपने गाँव की मस्जिद के लिये मौलवी ढूँढते आए। इस कार्य के लिये उन्होंने बुल्ले शाह के पिता शाह मुहम्मद दरवेश को चुना और बुल्ले शाह के माता-पिता पाँडोके (वर्तमान नाम पाँडोके भट्टीयाँ) चले गए। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि बुल्ले शाह का जन्म पाँडोके में हुआ था और कुछ का मानना है कि उनका जन्म उच्च गिलानियाँ में हुआ था और उन्होंने अपने जीवन के पहले छः महीने वहीं बिताए थे। बुल्ले शाह के दादा सय्यद अब्दुर रज्ज़ाक़ थे और वे सय्यद जलाल-उद-दीन बुख़ारी के वंशज थे। सय्यद जलाल-उद-दीन बुख़ारी बुल्ले शाह के जन्म से तीन सौ साल पहले सु़र्ख़ बुख़ारा नामक जगह से आकर मुलतान में बसे थे। बुल्ले शाह हज़रत मुहम्मद साहिब की पुत्री फ़ातिमा के वंशजों में से थे। उनके पिता शाह मुहम्मद थे जिन्हें अरबी, फारसी और क़ुरआन शरीफ का अच्छा ज्ञान था। उनके पिता के नेक जीवन का प्रभाव बुल्ले शाह पर भी पड़ा। उनकी उच्च शिक्षा कसूर में ही हुई। उनके उस्ताद हज़रत ख़्वाजा ग़ुलाम मुर्तज़ा सरीखे ख्यातनामा थे। पंजाबी कवि वारिस शाह ने भी ख़्वाजा ग़ुलाम मुर्तज़ा से ही शिक्षा ली थी। अरबी, फारसी के विद्वान होने के साथ-साथ आपने इस्लामी और सूफी धर्म ग्रंथो का भी गहरा अध्ययन किया।
धार्मिक प्रवत्ति
बुल्ले शाह धार्मिक प्रवत्ति के थे। उन्होंने सूफी धर्म ग्रंथों का भी गहरा अध्ययन किया था। साधना से बुल्ले ने इतनी ताकत हासिल कर ली कि अधपके फलों को पेड़ से बिना छुए गिरा दे। पर बुल्ले को तलाश थी इक ऐसे मुरशद की जो उसे खुदा से मिला दे। उस दिन शाह इनायत अराईं (छोटी मुसलिम जात) के बाग के पास से गुज़रते हुए, बुल्ले की नज़र उन पर पड़ी। उसे लगा शायद मुरशद की तलाश पूरी हुई। मुरशद को आज़माने के लिए बुल्ले ने अपनी गैबी ताकत से आम गिरा दिए। शाह इनायत ने कहा, नौजवान तुमने चोरी की है। बुल्ले ने चतुराई दिखाई, ना छुआ ना पत्थर मारा कैसी चोरी? शाह इनायत ने इनायत भरी नजऱों से देखा, हर सवाल लाजवाब हो गया। बुल्ला पैरों पर नतमस्तक हो गया। झोली फैला खैर मांगी मुरशद मुझे खुदा से मिला दे। मुरशद ने कहा, मुश्किल नहीं है, बस खुद को भुला दे। फिर क्या था बुल्ला मुरशद का मुरीद हो गया, लेकिन अभी इम्तिहान बाकी थे। पहला इम्तिहान तो घर से ही शुरू हुआ। सैय्यदों का बेटा अराईं का मुरीद हो, तो तथाकथित समाज में मौलाना की इज्ज़त खाक में मिल जाएगी। पर बुल्ला कहां जाति को जानता है। कहां पहनचानता है समाज के मजहबों वाले मुखौटे। परीवारीजनों द्वारा उन्हें समझाने का बहुत यत्न किया परन्तु बुल्ले शाह जी अपने निर्णय से टस से मस न हुए। परिवारीजनों के साथ हुई तकरार का ज़िक्र उन्होंने अपनी कविताओं में भी किया है। उनकी बहनें-भाभीयां जब समझाती हैं-
बुल्ले नू समझावण आइयां भैणां ते भरजाइयां
बुल्ले तूं की लीकां लाइयां छड्ड दे पल्ला अराइयांतो बुल्ला गाता है-
अलफ अल्हा नाल रत्ता दिल मेरा,
मैंनू 'बे' दी खबर न काई
'बे' पड़देयां मैंनू समझ न आवे,
लज्जत अलफ दी आई
ऐन ते गैन नू समझ न जाणां
गल्ल अलफ समझाई
बुल्लेया कौल अलफ दे पूरे
जेहड़े दिल दी करन सफाई
(जिसकी अल्फ यानि उस एक की समझ लग गई उसे आगे पढऩे की जरुरत ही नहीं। अल्फ उर्दू का पहला अक्षर है बुल्ले ने कहा है, जिसने अल्फ से दिल लगा लिया, फिर उसे बाकी अक्षर ऐन-गेन नहीं भाते)[2]
दंत कथाएं
जैसे सभी धार्मिक लोगों के साथ दंत-कथाएँ जुड़ जाती हैं, वैसे ही बुल्ले शाह जी के साथ भी कई ऐसी कथाएं जुड़ी हुई हैं। इन कथाओं का वैज्ञानिक आधार चाहे कुछ भी न हो परन्तु जन-मानस में उनका विशेष स्थान अवश्य रहता है।
बुल्ले शाह और उनके गुरु
1. बुल्ले शाह व उनके गुरु के सम्बन्धों को लेकर बहुत सी बातें प्रचलित हैं, बुल्ले शाह जब गुरु की तलाश में थे; वह इनायत जी के पास बगीचे में पहुँचे, वे अपने कार्य में व्यस्त थे; जिसके कारण उन्हें बुल्ले शाह जी के आने का पता न लगा; बुल्ले शाह ने अपने आध्यात्मिक अभ्यास की शक्ति से परमात्मा का नाम लेकर आमों की ओर देखा तो पेड़ों से आम गिरने लगे; गुरु जी ने पूछा, "क्या यह आम अपने तोड़े हैं?" बुल्ले शाह ने कहा “न तो मैं पेड़ पर चढ़ा और न ही पत्थर फैंके, भला मैं कैसे आम तोड़ सकता हूँ;” बुल्ले शाह को गुरु जी ने ऊपर से नीचे तक देखा और कहा, "अरे तू चोर भी है और चतुर भी;" बुल्ला गुरु जी के चरणों में पड़ गया; बुल्ले ने अपना नाम बताया और कहा मैं रब को पाना चाहता हूँ। साईं जी उस समय पनीरी क्यारी से उखाड़ कर खेत में लगा रहे थे। उन्होंने कहा, "बुल्लिहआ रब दा की पौणा। एधरों पुटणा ते ओधर लाउणा" इन सीधे-सादे शब्दों में गुरु ने रूहानियत का सार समझा दिया कि मन को संसार की तरफ से हटाकर परमात्मा की ओर मोड़ देने से रब मिल जाता है। बुल्ले शाह ने यह प्रथम दीक्षा गांठ बांध ली।
2. कहते हैं कि एक बार बुल्ले शाह जी की इच्छा हुई कि मदीना शरीफ की जियारत को जाएँ। उन्होंने अपनी इच्छा गुरु जी को बताई। इनायत शाह जी ने वहाँ जाने का कारण पूछा। बुल्ले शाह ने कहा कि "वहाँ हज़रत मुहम्मद का रोजा शरीफ है और स्वयं रसूल अल्ला ने फ़रमाया है कि जिसने मेरी कब्र की जियारत की, गोया उसने मुझे जीवित देख लिया।" गुरु जी ने कहा कि इसका जवाब मैं तीन दिन बाद दूँगा। बुल्ले शाह ने अपने मदीने की रवानगी स्थगित कर दी। तीसरे दिन बुल्ले शाह ने सपने में हज़रत रसूल के दर्शन किए। रसूल अल्ला ने बुल्ले शाह से कहा, "तेरा मुरशद कहाँ है? उसे बुला लाओ।" रसूल ने इनायत शाह को अपनी दाईं ओर बिठा लिया। बुल्ला नज़र झुकाकर खड़ा रहा। जब नज़र उठी तो बुल्ले को लगा कि रसूल और मुरशद की सूरत बिल्कुल एक जैसी है। वह पहचान ही नहीं पाया कि दोनों में से रसूल कौन है और मुरशद कौन है।[1]
साहित्यिक देन
बुल्ले शाह जी ने पंजाबी मुहावरे में अपने आपको अभिव्यक्त किया। जबकि अन्य हिन्दी और सधुक्कड़ी भाषा में अपना संदेश देते थे। पंजाबी सूफियों ने न केवल ठेठ पंजाबी भाषा की छवि को बनाए रखा बल्कि उन्होंने पंजाबियत व लोक संस्कृति को सुरक्षित रखा। बुल्ले शाह ने अपने विचारों व भावों को काफियों के रूप में व्यक्त किया है। काफी भक्तों के पदों से मिलता जुलता काव्य रूप है। काफिया भक्तों के भावों को गेय रूप में प्रस्तुत करती हैं इसलिए इनमे बहुत-से रागों की बंदिश मिलती है। जन साधारण भी सूफी दरवेशों के तकियों पर जमा होते थे और मिल कर भक्ति में विभोर होकर काफियां गाते थे। काफियों की भाषा बहुत सादी व आम लोगों के समझने योग्य हैं। बुल्ले शाह लोक दिल पर इस तरह राज कर रहे थे कि उन्होंने बुल्ले शाह की रचनाओं को अपना ही समझ लिया। वह बुल्ले शाह की काफियों को इस तरह गाते थे जैसे वह स्वयं ही इसके रचयिता हों। इनकी काफियों में अरबी, फारसी के शब्द और इस्लामी धर्म ग्रंथो के मुहावरे भी मिलते हैं। लेकिन कुल मिलाकर उसमे स्थानीय भाषा, मुहावरे और सदाचार का रंग ही प्रधान है।[3]
निधन
विद्वानों के द्वारा बुल्ले शाह का निधन 1758 में माना जाता हैं परंतु कुछ विद्वान इनकी मृत्यु 1759 भी मानते हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 हिन्दी कविता, बाबा बुल्ले शाह (हिंदी) www.hindi-kavita.com। अभिगमन तिथि: 16 फ़रवरी, 2017।
- ↑ बुल्ला की जाणां मैं कौन? - बुल्ले शाह पर विशेष प्रस्तुति (हिंदी) podcast.hindyugm.com। अभिगमन तिथि: 17 फ़रवरी, 2017।
- ↑ बुल्ले शाह (हिंदी) superzindagi.in। अभिगमन तिथि: 17 फ़रवरी, 2017।
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