"श्रीमद्भागवत माहात्म्य अध्याय 4 श्लोक 1-14": अवतरणों में अंतर
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सूतजी! अब इस समय आप हमें यह बताइये कि श्रीमद्भागवत का स्वरुप क्या है ? उसका प्रमाण—उसकी श्लोक संख्या कितनी है ? किस विधि से उसका श्रवण करना चाहिये ? तथा श्रीमद्भागवत के वक्ता और श्रोता के क्या लक्षण हैं ? अभिप्राय यह है कि उसके वक्ता और श्रोता कैसे होने चाहिये । | सूतजी! अब इस समय आप हमें यह बताइये कि श्रीमद्भागवत का स्वरुप क्या है ? उसका प्रमाण—उसकी श्लोक संख्या कितनी है ? किस विधि से उसका श्रवण करना चाहिये ? तथा श्रीमद्भागवत के वक्ता और श्रोता के क्या लक्षण हैं ? अभिप्राय यह है कि उसके वक्ता और श्रोता कैसे होने चाहिये । | ||
सूतजी कहते हैं—ऋषिगण! श्रीमद्भागवत और श्रीभगवान का स्वरूप सदा एक ही है और वह सच्चिदानन्दमय । | सूतजी कहते हैं—ऋषिगण! श्रीमद्भागवत और श्रीभगवान का स्वरूप सदा एक ही है और वह सच्चिदानन्दमय । | ||
भगवान श्रीकृष्ण में जिनकी लगन लगी हैं उन भावुक भक्तों के | भगवान श्रीकृष्ण में जिनकी लगन लगी हैं उन भावुक भक्तों के हृदय में जो भगवान के माधुर्य भाव को अभिव्यक्त करने वाला, उनके दिव्य माधुर्यरस का आस्वादन कराने वाला सर्वोत्कृष्ट वचन है, उसे श्रीमद्भागवत समझो । | ||
जो वाक्य ज्ञान, विज्ञान, भक्ति एवं इनके अंगभूत साधन चतुष्टय को प्रकाशित करने वाला है तथा जो माया का मर्दन करने में समर्थ है, उसे भी तुम श्रीमद्भागवत समझो । | जो वाक्य ज्ञान, विज्ञान, भक्ति एवं इनके अंगभूत साधन चतुष्टय को प्रकाशित करने वाला है तथा जो माया का मर्दन करने में समर्थ है, उसे भी तुम श्रीमद्भागवत समझो । | ||
श्रीमद्भागवत अनन्त, अक्षरस्वरुप है; इसका नियत प्रमाण भला कौन जान सकता है ? पूर्वकाल में भगवान विष्णु ने ब्रम्हाजी के प्रति चार श्लोकों में इसका दिग्दर्शन मात्र कराया था । | श्रीमद्भागवत अनन्त, अक्षरस्वरुप है; इसका नियत प्रमाण भला कौन जान सकता है ? पूर्वकाल में भगवान विष्णु ने ब्रम्हाजी के प्रति चार श्लोकों में इसका दिग्दर्शन मात्र कराया था । |
09:53, 24 फ़रवरी 2017 का अवतरण
चतुर्थ (4) अध्याय
श्रीमद्भागवत का स्वरुप, प्रमाण, श्रोता-वक्ता के लक्षण, श्रवण विधि और माहात्म्य शौनकादि ऋषियों ने कहा—सूतजी! आपने हम लोगों को बहुत अच्छी बात बतायी। आपकी आयु बढ़े, आप चिरजीवी हों और चिरकाल तक हमें इसी प्रकार उपदेश करते रहें। आज हम लोगों ने आपके मुख से श्रीमद्भागवत का अपूर्व माहात्म्य सुना है । सूतजी! अब इस समय आप हमें यह बताइये कि श्रीमद्भागवत का स्वरुप क्या है ? उसका प्रमाण—उसकी श्लोक संख्या कितनी है ? किस विधि से उसका श्रवण करना चाहिये ? तथा श्रीमद्भागवत के वक्ता और श्रोता के क्या लक्षण हैं ? अभिप्राय यह है कि उसके वक्ता और श्रोता कैसे होने चाहिये । सूतजी कहते हैं—ऋषिगण! श्रीमद्भागवत और श्रीभगवान का स्वरूप सदा एक ही है और वह सच्चिदानन्दमय । भगवान श्रीकृष्ण में जिनकी लगन लगी हैं उन भावुक भक्तों के हृदय में जो भगवान के माधुर्य भाव को अभिव्यक्त करने वाला, उनके दिव्य माधुर्यरस का आस्वादन कराने वाला सर्वोत्कृष्ट वचन है, उसे श्रीमद्भागवत समझो । जो वाक्य ज्ञान, विज्ञान, भक्ति एवं इनके अंगभूत साधन चतुष्टय को प्रकाशित करने वाला है तथा जो माया का मर्दन करने में समर्थ है, उसे भी तुम श्रीमद्भागवत समझो । श्रीमद्भागवत अनन्त, अक्षरस्वरुप है; इसका नियत प्रमाण भला कौन जान सकता है ? पूर्वकाल में भगवान विष्णु ने ब्रम्हाजी के प्रति चार श्लोकों में इसका दिग्दर्शन मात्र कराया था । विप्रगण! इस भागवत की अपार गहराई में डुबकी लगाकर इसमें से अपनी अभीष्ट वस्तु को प्राप्त करने में केवल ब्रम्हा, विष्णु और शिव आदि ही समर्थ हैं; दूसरे नहीं । परन्तु जिनकी बुद्धि आदि वृत्तियाँ परिमित हैं, ऐसे मनुष्यों का हित साधन करने के लिये श्रीव्यास जी ने परीक्षित् और शुकदेवजी के संवाद के रूप में जिसका गान किया है, उसी का नाम श्रीमद्भागवत है। उस ग्रन्थ की श्लोक-संख्या अठारह हजार है। इस भवसागर में जो प्राणी कलिरूपी ग्राह से ग्रस्त हो रहें हैं, उनके लिये वह श्रीमद्भागवत ही सर्वोत्तम सहारा है । अब भगवान श्रीकृष्ण की कथा का आश्रय लेने वाले श्रोताओं का वर्णन करते हैं। श्रोता दो प्रकार के माने गये हैं—प्रवर (उत्तम) तथा अवर (अधम) । प्रवर श्रोताओं के ‘चातक’, हंस’, ‘शुक’ और ‘मीन’ आदि कई भेद हैं। अवर के भी ‘वृक’, ‘भूरुण्ड’, ‘वृष’ और ‘उष्ट्र’ आदि अनेकों भेद बतलाये गये हैं । ‘चातक’ कहते हैं पपीहे हो। वह जैसे बादल से बरसते हुए जल में ही स्पृहा रखता है, दूसरे जल को छूता ही नहीं—उसी प्रकार जो श्रोता सब कुछ छोड़कर केवल श्रीकृष्णसम्बन्धी शास्त्रों के श्रवण का व्रत ले लेता है, वह ‘चातक’ कहा गया है । जैसे हंस दूध के साथ मिलकर एक हुए जल से निर्मल दूध ग्रहण कर लेता और पानी को छोड़ देता है, उसी प्रकार जो श्रोता अनेकों शास्त्रों का श्रवण करके भी उनमें से सार भाग अलग करके ग्रहण करता है, उसे ‘हंस’ कहते हैं । जिस प्रकार भलीभाँति पढ़ाया हुआ तोता अपनी मधुर वाणी से शिक्षक को तथा पास आने वाले दूसरे लोगों को भी प्रसन्न करता है, उसी प्रकार जो श्रोता कथा वाचक व्यास के मुँह से उपदेश सुनकर उसे सुन्दर और परिमित वाणी में पुनः सुना देता और व्यास एवं अन्याय श्रोताओं को अत्यन्त आनन्दित करता है, वह ‘शुक’ कहलाता है ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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