"श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 29 श्लोक 7-14": अवतरणों में अंतर
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राजा परीक्षित् ने पूछा—भगवन्! गोपियाँ तो भगवान श्रीकृष्ण को केवल अपना परम प्रियतम ही मानती थीं। उनका उसमें ब्रम्हभाव नहीं था। इस प्रकार उनकी दृष्टि प्राकृत गुणों में ही आसक्त देखती है। ऐसी स्थिति में उनके लिये गुणों के प्रवाह रूप इस संसार की निवृति कैसे संभव हुई । | राजा परीक्षित् ने पूछा—भगवन्! गोपियाँ तो भगवान श्रीकृष्ण को केवल अपना परम प्रियतम ही मानती थीं। उनका उसमें ब्रम्हभाव नहीं था। इस प्रकार उनकी दृष्टि प्राकृत गुणों में ही आसक्त देखती है। ऐसी स्थिति में उनके लिये गुणों के प्रवाह रूप इस संसार की निवृति कैसे संभव हुई । | ||
श्रीशुकदेवजी ने कहा—परीक्षित्! मैं तुमसे पहले ही कह चुका हूँ कि चेदिराज शिशुपाल भगवान के प्रति द्वेषभाव रखने पर भी अपने प्राकृत शरीर को छोडकर अप्राकृत शरीर से उनका पार्षद हो गया। ऐसी स्थिति में जो समस्त प्रकृति और उसके गुणों से अतीत भगवान श्रीकृष्ण की प्यारी हैं और उनसे अन्यन्य प्रेम करती हैं, वे गोपियों उन्हें प्राप्त हो जायँ—इसमें कौन-सी आश्चर्य की बात है । परीक्षित्! वास्तव में भगवान प्रकृति सम्बन्धी वृद्धि-विनाश, प्रमाण-प्रमेय और गुण-गुणी भाव से रहित हैं। वे अचिन्त्य अनन्त अप्राकृत परम | श्रीशुकदेवजी ने कहा—परीक्षित्! मैं तुमसे पहले ही कह चुका हूँ कि चेदिराज शिशुपाल भगवान के प्रति द्वेषभाव रखने पर भी अपने प्राकृत शरीर को छोडकर अप्राकृत शरीर से उनका पार्षद हो गया। ऐसी स्थिति में जो समस्त प्रकृति और उसके गुणों से अतीत भगवान श्रीकृष्ण की प्यारी हैं और उनसे अन्यन्य प्रेम करती हैं, वे गोपियों उन्हें प्राप्त हो जायँ—इसमें कौन-सी आश्चर्य की बात है । परीक्षित्! वास्तव में भगवान प्रकृति सम्बन्धी वृद्धि-विनाश, प्रमाण-प्रमेय और गुण-गुणी भाव से रहित हैं। वे अचिन्त्य अनन्त अप्राकृत परम कल्याणस्वरूप का गुणों के एकमात्र आश्रय हैं। उन्होंने यह जो अपने को तथा अपनी लीला को प्रकट किया है, उसका प्रयोजन केवल इतना ही है कि जीव उसके सहारे अपना परम कल्याण सम्पादन करे । | ||
13:18, 29 अक्टूबर 2017 के समय का अवतरण
दशम स्कन्ध: एकोनत्रिंशोऽध्यायः (29) (पूर्वार्ध)
कोई-कोई गोपी अपने शरीर में अंगराग चन्दन और उबटन लगा रही थी और कुछ आँखों में अंजन लगा रही थीं। वे उन्हें छोड़कर तथा उलटे-पलटे वस्त्र धारणकर श्रीकृष्ण के पास पहुँचने के लिये चल पड़ी । पिता और पतियों ने, भाई और जाति-बंधुओं ने उन्हें रोका, उनकी मंगलमयी प्रेमयात्रा में विघ्न डाला। परन्तु वे इतनी मोहित हो गयी थीं कि रोकने पर भी न रुकीं, न रुक सकीं। रूकती कैसे ? विश्वविमोहन श्रीकृष्ण ने उनके प्राण, मन और आत्मा सब कुछ का अपहरण जो कर लिया था । परीक्षित्! उस समय कुछ गोपियाँ घरों के भीतर थीं। उन्हें बाहर निकलने का मार्ग ही न मिला। तब उन्होंने अपने नेत्र मूँद लिये और बड़ी तन्मयता से श्रीकृष्ण के सौन्दर्य, माधुर्य और लीलाओं का ध्यान करने लगीं । परीक्षित्! अपने परम प्रियतम श्रीकृष्ण के असह्य विरह की तीव्र वेदना से उनके हृदय में इतनी व्यथा—इतनी जलन हुई कि उनमें जो कुछ अशुभ संस्कारों का लेशमात्र अवशेष था, वह भस्म हो गया। इसके बाद तुरंत ही ध्यान लग गया। ध्यान में उनके सामने भगवान श्रीकृष्ण प्रकट हुए। उन्होंने मन-ही-मन बड़े प्रेम से, बड़े आवेग से उनका आलिंगन किया। उस समय उन्हें इतना सुख, इतनी शान्ति मिली कि उनके सब-के-सब पुण्य के संस्कार एक साथ ही क्षीण हो गये । परीक्षित्! यद्यपि उनका उस समय श्रीकृष्ण के प्रति जारभाव भी था; तथापि कहीं सत्य वस्तु भी भाव की अपेक्षा रखती है ? उन्होंने जिनका आलिंगन किया, चाहे किसी भी भाव किया हो, वे स्वयं परमात्मा ही तो थे। इसलिये उन्होंने पाप और पुण्य रूप कर्म के परिणाम से बने हुए गुणमय शरीर का परित्याग कर दिया। (भगवान की लीला में सम्मिलित होने के योग्य दिव्य अप्राकृत शरीर प्राप्त कर लिया।) इस शरीर से भोगे जाने वाले कर्मबन्धन तो ध्यान के समय छिन्न-भिन्न हो चुके थे ।
राजा परीक्षित् ने पूछा—भगवन्! गोपियाँ तो भगवान श्रीकृष्ण को केवल अपना परम प्रियतम ही मानती थीं। उनका उसमें ब्रम्हभाव नहीं था। इस प्रकार उनकी दृष्टि प्राकृत गुणों में ही आसक्त देखती है। ऐसी स्थिति में उनके लिये गुणों के प्रवाह रूप इस संसार की निवृति कैसे संभव हुई ।
श्रीशुकदेवजी ने कहा—परीक्षित्! मैं तुमसे पहले ही कह चुका हूँ कि चेदिराज शिशुपाल भगवान के प्रति द्वेषभाव रखने पर भी अपने प्राकृत शरीर को छोडकर अप्राकृत शरीर से उनका पार्षद हो गया। ऐसी स्थिति में जो समस्त प्रकृति और उसके गुणों से अतीत भगवान श्रीकृष्ण की प्यारी हैं और उनसे अन्यन्य प्रेम करती हैं, वे गोपियों उन्हें प्राप्त हो जायँ—इसमें कौन-सी आश्चर्य की बात है । परीक्षित्! वास्तव में भगवान प्रकृति सम्बन्धी वृद्धि-विनाश, प्रमाण-प्रमेय और गुण-गुणी भाव से रहित हैं। वे अचिन्त्य अनन्त अप्राकृत परम कल्याणस्वरूप का गुणों के एकमात्र आश्रय हैं। उन्होंने यह जो अपने को तथा अपनी लीला को प्रकट किया है, उसका प्रयोजन केवल इतना ही है कि जीव उसके सहारे अपना परम कल्याण सम्पादन करे ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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