"श्रीकांत उपन्यास भाग-8": अवतरणों में अंतर

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अभया बोली, "इसके मानी यह कि राजलक्ष्मी जानती है कि उसे आपके खोए जाने का डर ही नहीं है?"
अभया बोली, "इसके मानी यह कि राजलक्ष्मी जानती है कि उसे आपके खोए जाने का डर ही नहीं है?"


मैंने कहा, "केवल डर ही नहीं, राजलक्ष्मी जानती है कि मैं खोया जा ही नहीं सकता। इसकी सम्भावना ही नहीं है। पाने और खोने की सीमा से बाहर जो एक सम्बन्ध है, मुझे विश्वास है कि उसने उसे ही प्राप्त कर लिया है और इसीलिए मेरी भी इस समय उसे जरूरत नहीं है। देखो, मैंने स्वयं भी इस जीवन में कुछ कम दु:ख नहीं उठाया है। उससे मैंने यही समझा है कि 'दु:ख' जिसे कहते हैं वह न तो अभावरूप ही है और न शून्य रूप। भयहीन जो दु:ख है, उसका उपभोग सुख की तरह ही किया जा सकता है।"
मैंने कहा, "केवल डर ही नहीं, राजलक्ष्मी जानती है कि मैं खोया जा ही नहीं सकता। इसकी सम्भावना ही नहीं है। पाने और खोने की सीमा से बाहर जो एक सम्बन्ध है, मुझे विश्वास है कि उसने उसे ही प्राप्त कर लिया है और इसीलिए मेरी भी इस समय उसे ज़रूरत नहीं है। देखो, मैंने स्वयं भी इस जीवन में कुछ कम दु:ख नहीं उठाया है। उससे मैंने यही समझा है कि 'दु:ख' जिसे कहते हैं वह न तो अभावरूप ही है और न शून्य रूप। भयहीन जो दु:ख है, उसका उपभोग सुख की तरह ही किया जा सकता है।"


अभया देर तक स्थिर रहकर धीरे से बोली, "आपकी बात समझती हूँ श्रीकान्त बाबू! अन्नदा जीजी, राजलक्ष्मी- इन दोनों ने जीवन में दु:ख को ही सम्बल रूप से प्राप्त किया है। किन्तु, मेरे हाथ तो वह भी नहीं। पति के समीप मैंने पाया है केवल अपमान। केवल लांछना और ग्लानि लेकर ही मैं लौट आई हूँ। इस मूल-धन को लेकर ही क्या आप मुझे जीवित रहने के लिए कहते हैं?"
अभया देर तक स्थिर रहकर धीरे से बोली, "आपकी बात समझती हूँ श्रीकान्त बाबू! अन्नदा जीजी, राजलक्ष्मी- इन दोनों ने जीवन में दु:ख को ही सम्बल रूप से प्राप्त किया है। किन्तु, मेरे हाथ तो वह भी नहीं। पति के समीप मैंने पाया है केवल अपमान। केवल लांछना और ग्लानि लेकर ही मैं लौट आई हूँ। इस मूल-धन को लेकर ही क्या आप मुझे जीवित रहने के लिए कहते हैं?"
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उसकी बात से कुछ आहत होकर बोला, "क्या हर हालत में आश्रय देना ही भला काम है, यह मान लेना चाहिए?"
उसकी बात से कुछ आहत होकर बोला, "क्या हर हालत में आश्रय देना ही भला काम है, यह मान लेना चाहिए?"


अभया बोली, "इसका प्रमाण तो हाथों-हाथ मिल रहा है श्रीकान्त बाबू। पृथ्वी में कोई अन्याय-कार्य अधिक दिन तक नहीं फल-फूल सकता, यह बात यदि सत्य है तो क्या यह कहना पड़ेगा कि इसीलिए वे अन्याय को आश्रय देते हुए दिनों दिन ऊँचे बढ़ रहे हैं, और हम लोग न्याय-धर्म को आश्रय देकर प्रतिदिन क्षुद्र और तुच्छ होते जा रहे हैं? हम लोग तो यहाँ कुछ ही दिन हुए आए हैं, परन्तु, इतने दिनों में ही देखती हूँ कि मुसलमानों से यह सारा देश छाया जा रहा है। सुनती हूँ, ऐसा एक भी गाँव नहीं है जहाँ कम-से-कम एक घर मुसलमान का न हो और जहाँ पर एकाध मस्जिद तैयार न हो गयी हो। हम लोग शायद अपनी ऑंखों न देख जा सकें; किन्तु, ऐसा दिन शीघ्र ही आवेगा जिस दिन हमारे देश की तरह यह बर्मा देश मुसलमान-प्रधान देश बन जाएगा। आज सुबह ही जहाज-घाट पर एक अन्याय देखकर आपका मन ख़राब हो गया है। आप ही कहिए, किस मुसलमान बड़े भाई को धर्म और समाज के भय से ऐसे षडयन्त्र का- ऐसी नीचता का आसरा लेकर सुख-चैन की ऐसी गिरस्ती राख में मिलाकर भाग जाने की जरूरत पड़ती? बल्कि इससे उलटा, वह तो सभी को अपने दल में खींच लेकर आशीर्वाद देता और बड़े भाई के योग्य सम्मान और मर्यादा ग्रहण कर लौट जाता। इन दोनों में से किससे सच्चा धर्म बना रहता है श्रीकान्त बाबू?"
अभया बोली, "इसका प्रमाण तो हाथों-हाथ मिल रहा है श्रीकान्त बाबू। पृथ्वी में कोई अन्याय-कार्य अधिक दिन तक नहीं फल-फूल सकता, यह बात यदि सत्य है तो क्या यह कहना पड़ेगा कि इसीलिए वे अन्याय को आश्रय देते हुए दिनों दिन ऊँचे बढ़ रहे हैं, और हम लोग न्याय-धर्म को आश्रय देकर प्रतिदिन क्षुद्र और तुच्छ होते जा रहे हैं? हम लोग तो यहाँ कुछ ही दिन हुए आए हैं, परन्तु, इतने दिनों में ही देखती हूँ कि मुसलमानों से यह सारा देश छाया जा रहा है। सुनती हूँ, ऐसा एक भी गाँव नहीं है जहाँ कम-से-कम एक घर मुसलमान का न हो और जहाँ पर एकाध मस्जिद तैयार न हो गयी हो। हम लोग शायद अपनी ऑंखों न देख जा सकें; किन्तु, ऐसा दिन शीघ्र ही आवेगा जिस दिन हमारे देश की तरह यह बर्मा देश मुसलमान-प्रधान देश बन जाएगा। आज सुबह ही जहाज-घाट पर एक अन्याय देखकर आपका मन ख़राब हो गया है। आप ही कहिए, किस मुसलमान बड़े भाई को धर्म और समाज के भय से ऐसे षडयन्त्र का- ऐसी नीचता का आसरा लेकर सुख-चैन की ऐसी गिरस्ती राख में मिलाकर भाग जाने की ज़रूरत पड़ती? बल्कि इससे उलटा, वह तो सभी को अपने दल में खींच लेकर आशीर्वाद देता और बड़े भाई के योग्य सम्मान और मर्यादा ग्रहण कर लौट जाता। इन दोनों में से किससे सच्चा धर्म बना रहता है श्रीकान्त बाबू?"


मैंने गहरी श्रद्धा से भरकर पूछा, "अच्छा, आप तो गँवई-गाँव की कन्या हैं, आपने ये सब बातें किस तरह जानीं? मैं तो नहीं समझता कि इतने प्रशस्त-हृदय हम पुरुषों में भी अधिक हैं। आप जिनकी माता होंगी वह अभागी हो सकती है, इसकी कम-से-कम मैं तो किसी तरह कल्पना नहीं कर सकता।"
मैंने गहरी श्रद्धा से भरकर पूछा, "अच्छा, आप तो गँवई-गाँव की कन्या हैं, आपने ये सब बातें किस तरह जानीं? मैं तो नहीं समझता कि इतने प्रशस्त-हृदय हम पुरुषों में भी अधिक हैं। आप जिनकी माता होंगी वह अभागी हो सकती है, इसकी कम-से-कम मैं तो किसी तरह कल्पना नहीं कर सकता।"
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इस सौभाग्य के लिए भीतर ही भीतर मैं इस क़दर लालायित हो उठा हूँ, यह तथ्य न मालूम उन्होंने किस तरह पा लिया- किन्तु, यह तो खुद ही प्रकट कर चुके थे कि वे भीतर ही भीतर पता लगाए बिना किसी की भी किसी बात में नहीं पड़ते।
इस सौभाग्य के लिए भीतर ही भीतर मैं इस क़दर लालायित हो उठा हूँ, यह तथ्य न मालूम उन्होंने किस तरह पा लिया- किन्तु, यह तो खुद ही प्रकट कर चुके थे कि वे भीतर ही भीतर पता लगाए बिना किसी की भी किसी बात में नहीं पड़ते।


जो हो, उनके उन्नति के बीच-मन्त्र-रूप सत्परामर्श के लिए मैं लुब्ध हो उठा। वे बोले, "देखो, दान-वान करने की बात छोड़ दो-चोटी का पसीना एड़ी तक बहाकर रोजी कमानी होती है, कमर-भर मिट्टी खोदने पर भी पैसा नहीं मिलता। अपने ख़ून को जलाकर पैदा की हुई कौड़ी गैरों को बख्श दे, आजकल की दुनिया में ऐसा पागल और भी कोई है? अपने स्त्री-बच्चों और परिवार के लिए रख छोड़ा जाय, तब न दूसरों को दान किया जाय? इस बात को बिल्कु्ल ही छोड़ दो, यह मैं नहीं कहता- किन्तु देखो, जिसके घर में पैसे की खींचतान हो उस आदमी को कभी प्रश्रय न देना। अधिक नहीं दो-चार दिन की आमद-रफ्त के बाद ही वह अपनी गिरस्ती की कष्ट-कहानी सुनाकर दो-चार रुपये माँग बैठेगा। जो दिये सो तो दिये ही, और बाहर का झगड़ा घर में खींच लाये सो अलग। रुपयों की ममता वैसे कोई सचमुच में तो छोड़ सकता नहीं-तकाजा करना ही पड़ता है, और तब दौड़-धूप झगड़ा-बखेड़ा। भला हमें इसकी जरूरत ही क्या पड़ी है?" मैंने गर्दन हिलाकर कहा, "जी हाँ, आप बिल्कुील सही कहते हैं।"
जो हो, उनके उन्नति के बीच-मन्त्र-रूप सत्परामर्श के लिए मैं लुब्ध हो उठा। वे बोले, "देखो, दान-वान करने की बात छोड़ दो-चोटी का पसीना एड़ी तक बहाकर रोजी कमानी होती है, कमर-भर मिट्टी खोदने पर भी पैसा नहीं मिलता। अपने ख़ून को जलाकर पैदा की हुई कौड़ी गैरों को बख्श दे, आजकल की दुनिया में ऐसा पागल और भी कोई है? अपने स्त्री-बच्चों और परिवार के लिए रख छोड़ा जाय, तब न दूसरों को दान किया जाय? इस बात को बिल्कु्ल ही छोड़ दो, यह मैं नहीं कहता- किन्तु देखो, जिसके घर में पैसे की खींचतान हो उस आदमी को कभी प्रश्रय न देना। अधिक नहीं दो-चार दिन की आमद-रफ्त के बाद ही वह अपनी गिरस्ती की कष्ट-कहानी सुनाकर दो-चार रुपये माँग बैठेगा। जो दिये सो तो दिये ही, और बाहर का झगड़ा घर में खींच लाये सो अलग। रुपयों की ममता वैसे कोई सचमुच में तो छोड़ सकता नहीं-तकाजा करना ही पड़ता है, और तब दौड़-धूप झगड़ा-बखेड़ा। भला हमें इसकी ज़रूरत ही क्या पड़ी है?" मैंने गर्दन हिलाकर कहा, "जी हाँ, आप बिल्कुील सही कहते हैं।"


वे उत्तेजित होकर बोले, "तुम अच्छे घर के लड़के हो, इसलिए चट से बात समझ गये; किन्तु इन छोटी जात के लोहा पीटनेवाले सालों की तो समझाओ देखूँ! हरामजादे सात जन्म में भी नहीं समझेंगे। सालों के पास खुद का एक पैसा नहीं, फिर भी, पराए घर से कर्ज़ लाकर दूसरों को दे आयँगे। ये छोटे लोग ऐसे ही अहमक होते हैं!"
वे उत्तेजित होकर बोले, "तुम अच्छे घर के लड़के हो, इसलिए चट से बात समझ गये; किन्तु इन छोटी जात के लोहा पीटनेवाले सालों की तो समझाओ देखूँ! हरामजादे सात जन्म में भी नहीं समझेंगे। सालों के पास खुद का एक पैसा नहीं, फिर भी, पराए घर से कर्ज़ लाकर दूसरों को दे आयँगे। ये छोटे लोग ऐसे ही अहमक होते हैं!"
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वे बोले, "बहुत ठीक किया, यह कैसे कहूँ महाशय, मेरा, "कम्बाइण्ड हैण्ड' बहुत ही बदजात है। बोलता है 'नहीं रहूँ, चला आऊँगा।" जरा साले को अच्छी तरह धमका तो दीजिए।"
वे बोले, "बहुत ठीक किया, यह कैसे कहूँ महाशय, मेरा, "कम्बाइण्ड हैण्ड' बहुत ही बदजात है। बोलता है 'नहीं रहूँ, चला आऊँगा।" जरा साले को अच्छी तरह धमका तो दीजिए।"


मुझे जरा अचरज हुआ। किन्तु, इसके पहले इस 'कम्बाइण्ड हैण्ड' नामक चीज़ की व्याख्या कर देना जरूरी है। क्योंकि जो लोग यह नहीं जानते कि 'हिन्दुस्तानी लोग' पैसे के लिए जो न कर सके दुनिया में ऐसा कोई काम ही नहीं है, वे लोग यह सुनकर विस्मित होंगे कि इस अंगरेजी शब्द का मतलब है दुबे, चौबे, तिवारी आदि हिन्दुस्तानी ब्राह्मण, जो यहाँ पर तो किसी के पास फटकते ही उछल पड़ते हैं, परन्तु, वहाँ जाकर रसोई बनाते हैं, जूठे बर्तन माँजते हैं, तम्बाकू भरते हैं और बाबू साहबों के ऑफिस जाते समय उनके बूट झाड़-पोंछकर साफ़ कर देते हैं- फिर वे बाबू चाहे किसी भी जाति के क्यों न हों। हाँ, यह बात अवश्य है कि दो-चार रुपये महीना अधिक देने पर ही ये त्रिवेदी, चतुर्वेदी आदि पूज्य लोग ब्राह्मण और शूद्र-दोनों का काम 'कम्बाइण्ड' तौर पर करते है। बेवकूफ उड़िया और बंगाली ब्राह्मण आज तक भी यह कार्य करने को राजी नहीं किये जा सके, किये जा सके तो सिर्फ ये ही। इसका कारण पहले ही कह चुका हूँ कि पैसा पाने पर सारे कुसंस्कारों को छोड़ने में 'हिन्दुस्तानी लोगों' को मुहूर्त-भर की भी देर नहीं लगती। मुर्गी पकाने के लिए चार-आठ आने महीने और अधिक देने पड़ते हैं; क्योंकि 'मूल्य के द्वारा सब कुछ शुद्ध हो जाता है-शास्त्र के इस वचनार्ध का यथार्थ तात्पर्य हृदयंगम करने तथा शास्त्रवाक्य में अविचलित श्रद्धा रखने में आज तक यदि कोई समर्थ हुए हैं तो यही हिन्दुस्तानी लोग- यह बात स्वीकार करनी ही होगी।
मुझे जरा अचरज हुआ। किन्तु, इसके पहले इस 'कम्बाइण्ड हैण्ड' नामक चीज़ की व्याख्या कर देना ज़रूरी है। क्योंकि जो लोग यह नहीं जानते कि 'हिन्दुस्तानी लोग' पैसे के लिए जो न कर सके दुनिया में ऐसा कोई काम ही नहीं है, वे लोग यह सुनकर विस्मित होंगे कि इस अंगरेजी शब्द का मतलब है दुबे, चौबे, तिवारी आदि हिन्दुस्तानी ब्राह्मण, जो यहाँ पर तो किसी के पास फटकते ही उछल पड़ते हैं, परन्तु, वहाँ जाकर रसोई बनाते हैं, जूठे बर्तन माँजते हैं, तम्बाकू भरते हैं और बाबू साहबों के ऑफिस जाते समय उनके बूट झाड़-पोंछकर साफ़ कर देते हैं- फिर वे बाबू चाहे किसी भी जाति के क्यों न हों। हाँ, यह बात अवश्य है कि दो-चार रुपये महीना अधिक देने पर ही ये त्रिवेदी, चतुर्वेदी आदि पूज्य लोग ब्राह्मण और शूद्र-दोनों का काम 'कम्बाइण्ड' तौर पर करते है। बेवकूफ उड़िया और बंगाली ब्राह्मण आज तक भी यह कार्य करने को राजी नहीं किये जा सके, किये जा सके तो सिर्फ ये ही। इसका कारण पहले ही कह चुका हूँ कि पैसा पाने पर सारे कुसंस्कारों को छोड़ने में 'हिन्दुस्तानी लोगों' को मुहूर्त-भर की भी देर नहीं लगती। मुर्गी पकाने के लिए चार-आठ आने महीने और अधिक देने पड़ते हैं; क्योंकि 'मूल्य के द्वारा सब कुछ शुद्ध हो जाता है-शास्त्र के इस वचनार्ध का यथार्थ तात्पर्य हृदयंगम करने तथा शास्त्रवाक्य में अविचलित श्रद्धा रखने में आज तक यदि कोई समर्थ हुए हैं तो यही हिन्दुस्तानी लोग- यह बात स्वीकार करनी ही होगी।


किन्तु, मनोहर बाबू के इस 'कम्बाइण्ड हैण्ड' को मैं किसलिए धमकी दूँ और वह भी क्यों मेरी धमकी सुनेगा, यह मैं नहीं समझ सका। और यह 'हैण्ड' भी मनोहर बाबू ने हाल ही रक्खा था। इतने दिन वे अपने कम्बाइण्ड 'हैण्ड' खुद ही थे, केवल 'डिसेण्ट्री' के खातिर कुछ दिनों के लिए इसे रख लिया था। मनोहर बाबू कहने लगे, "महाशय, आप क्या कोई साधारण आदमी हैं; शहर भर के लोग आपकी बात पर मरते जीते हैं- सो क्या आप समझते हैं मैं नहीं जानता? अधिक नहीं, एक सतर ही यदि आप लाट साहब को लिख दें तो उसे चौदह साल की जेल हो जाय, सो क्या मैंने नहीं सुना? लगा तो दीजिए बच्चू को अच्छी तरह डाँट।"
किन्तु, मनोहर बाबू के इस 'कम्बाइण्ड हैण्ड' को मैं किसलिए धमकी दूँ और वह भी क्यों मेरी धमकी सुनेगा, यह मैं नहीं समझ सका। और यह 'हैण्ड' भी मनोहर बाबू ने हाल ही रक्खा था। इतने दिन वे अपने कम्बाइण्ड 'हैण्ड' खुद ही थे, केवल 'डिसेण्ट्री' के खातिर कुछ दिनों के लिए इसे रख लिया था। मनोहर बाबू कहने लगे, "महाशय, आप क्या कोई साधारण आदमी हैं; शहर भर के लोग आपकी बात पर मरते जीते हैं- सो क्या आप समझते हैं मैं नहीं जानता? अधिक नहीं, एक सतर ही यदि आप लाट साहब को लिख दें तो उसे चौदह साल की जेल हो जाय, सो क्या मैंने नहीं सुना? लगा तो दीजिए बच्चू को अच्छी तरह डाँट।"
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मैंने कहा, "सो मुझे नहीं मालूम। शायद कोई नहीं है।"
मैंने कहा, "सो मुझे नहीं मालूम। शायद कोई नहीं है।"


डॉक्टर क्षण-भर मौन रहकर बोले, "मैं एक दवा लिखकर दिए जाता हूँ। सिर पर बरफ रखने की भी जरूरत है; किन्तु सबसे बड़ी जरूरत इस बात की है कि इन्हें प्लेग-हॉस्पिटल में पहुँचा दिया जाय। आप खुद भी इस मकान में न ठहरिए। और देखिए, मुझे फीस देने की जरूरत नहीं है।"
डॉक्टर क्षण-भर मौन रहकर बोले, "मैं एक दवा लिखकर दिए जाता हूँ। सिर पर बरफ रखने की भी ज़रूरत है; किन्तु सबसे बड़ी ज़रूरत इस बात की है कि इन्हें प्लेग-हॉस्पिटल में पहुँचा दिया जाय। आप खुद भी इस मकान में न ठहरिए। और देखिए, मुझे फीस देने की ज़रूरत नहीं है।"


डॉक्टर चले गये। बड़े संकोच के साथ मैंने अस्पताल का प्रस्ताव किया। सुनते ही मनोहर रोने लगे और 'वहाँ पर ज़हर देकर रोगी मार डाले जाते हैं, और वहाँ जाकर कोई लौटकर नहीं आता!" इस तरह बहुत कुछ बक गये।
डॉक्टर चले गये। बड़े संकोच के साथ मैंने अस्पताल का प्रस्ताव किया। सुनते ही मनोहर रोने लगे और 'वहाँ पर ज़हर देकर रोगी मार डाले जाते हैं, और वहाँ जाकर कोई लौटकर नहीं आता!" इस तरह बहुत कुछ बक गये।
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किन्तु, मजा यह कि जिन्होंने मुझे उस दिन बहुत-सा उपदेश दिया था कि जान-पहिचान के किसी भी आदमी की बीमारी की खबर पाकर उस मुहल्ले में पैर भी न रखना चाहिए, उन्हीं के मुदकी और गिन्नियों के बॉक्स की रखवाली करने के लिए भगवान ने मुझे नियुक्त कर दिया! नियुक्त तो कर दिया, किन्तु बाकी रात मेरी जिस तरह कटी, सो लिखकर बतलाना न तो सम्भव है और न बतलाने की प्रवृत्ति ही होती है। फिर भी, इस पर कोई पाठक अविश्वास न करेगा कि वह, मोटे तौर पर, भली तरह नहीं कटी।
किन्तु, मजा यह कि जिन्होंने मुझे उस दिन बहुत-सा उपदेश दिया था कि जान-पहिचान के किसी भी आदमी की बीमारी की खबर पाकर उस मुहल्ले में पैर भी न रखना चाहिए, उन्हीं के मुदकी और गिन्नियों के बॉक्स की रखवाली करने के लिए भगवान ने मुझे नियुक्त कर दिया! नियुक्त तो कर दिया, किन्तु बाकी रात मेरी जिस तरह कटी, सो लिखकर बतलाना न तो सम्भव है और न बतलाने की प्रवृत्ति ही होती है। फिर भी, इस पर कोई पाठक अविश्वास न करेगा कि वह, मोटे तौर पर, भली तरह नहीं कटी।


दूसरे दिन 'डेथ सर्टिफिकेट' लेने, पुलिस को बुलाने, तार देने, गिन्नियों का इन्तज़ाम करने और मुर्दे को बिदा करने में तीन बज गये। खैर, मनोहर तो ठेलागाड़ी पर चढ़कर शायद स्वर्ग की ओर रवाना हो गये- रहा मैं, सो मैं अपने डेरे पर लौट आया। पिछले दिन तो एकादशी की ही थी- आज भी शाम हो गयी। डेरे पर लौटने पर जान पड़ा कि जैसे दाहिने कान की जड़ में सूजन आ गयी है और दर्द हो रहा है। क्या जाने, सारी रात हाथ से छेड़-छेड़कर मैंने खुद ही दर्द पैदा कर लिया है अथवा सचमुच ही गिन्नियों का हिसाब देने मुझे भी स्वर्ग जाना पड़ेगा! एकाएक कुछ नहीं समझ सका। किन्तु यह समझने में देर नहीं लगी कि बाद में चाहे जो हो, फिलहाल तो होश-हवास दुरुस्त रहने की हालत में अपनी सब व्यवस्था खुद ही कर रखनी होगी। क्योंकि मनोहर की तरह आईस बैग लेकर उठा-धरी करना न तो ठीक ही मालूम देता है और न सुन्दर। निश्चय करते मुझे देर न लगी। क्योंकि, पल-भर में ही मैंने देख लिया कि इतने बड़े बुरे रोग का भार यदि मैं किसी पुण्यात्मा साधु पुरुष के ऊपर डालने जाऊँगा तो निश्चय ही बड़ा भारी पाप होगा। किसी भले आदमी को हैरान करना कर्त्तव्य भी नहीं है-अशास्त्रीय है! इसलिए उसकी जरूरत नहीं। बल्कि, इस रंगून के एक कोने में अभया नाम की जो एक महापापिष्ठा पतिता नारी रहती है- एक दिन जिसे घृणा करके छोड़ आया हूँ, उसी के कन्धों पर अपनी इस संघातिक बीमारी का गन्दा बोझ घृणा के साथ डाल देना चाहिए- मरना ही है तो वहीं मरूँ। शायद, इससे कुछ पुण्य-संचय भी हो जाय, यही सोचकर मैंने नौकर को गाड़ी लाने का हुक्म दे दिया।
दूसरे दिन 'डेथ सर्टिफिकेट' लेने, पुलिस को बुलाने, तार देने, गिन्नियों का इन्तज़ाम करने और मुर्दे को बिदा करने में तीन बज गये। खैर, मनोहर तो ठेलागाड़ी पर चढ़कर शायद स्वर्ग की ओर रवाना हो गये- रहा मैं, सो मैं अपने डेरे पर लौट आया। पिछले दिन तो एकादशी की ही थी- आज भी शाम हो गयी। डेरे पर लौटने पर जान पड़ा कि जैसे दाहिने कान की जड़ में सूजन आ गयी है और दर्द हो रहा है। क्या जाने, सारी रात हाथ से छेड़-छेड़कर मैंने खुद ही दर्द पैदा कर लिया है अथवा सचमुच ही गिन्नियों का हिसाब देने मुझे भी स्वर्ग जाना पड़ेगा! एकाएक कुछ नहीं समझ सका। किन्तु यह समझने में देर नहीं लगी कि बाद में चाहे जो हो, फिलहाल तो होश-हवास दुरुस्त रहने की हालत में अपनी सब व्यवस्था खुद ही कर रखनी होगी। क्योंकि मनोहर की तरह आईस बैग लेकर उठा-धरी करना न तो ठीक ही मालूम देता है और न सुन्दर। निश्चय करते मुझे देर न लगी। क्योंकि, पल-भर में ही मैंने देख लिया कि इतने बड़े बुरे रोग का भार यदि मैं किसी पुण्यात्मा साधु पुरुष के ऊपर डालने जाऊँगा तो निश्चय ही बड़ा भारी पाप होगा। किसी भले आदमी को हैरान करना कर्त्तव्य भी नहीं है-अशास्त्रीय है! इसलिए उसकी ज़रूरत नहीं। बल्कि, इस रंगून के एक कोने में अभया नाम की जो एक महापापिष्ठा पतिता नारी रहती है- एक दिन जिसे घृणा करके छोड़ आया हूँ, उसी के कन्धों पर अपनी इस संघातिक बीमारी का गन्दा बोझ घृणा के साथ डाल देना चाहिए- मरना ही है तो वहीं मरूँ। शायद, इससे कुछ पुण्य-संचय भी हो जाय, यही सोचकर मैंने नौकर को गाड़ी लाने का हुक्म दे दिया।


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पंक्ति 230: पंक्ति 230:
पत्र के पिछले हिस्से में अभया की बात थी। अभया ने जब लौट आकर कहा था कि जिसे मैं चाहती हूँ- प्रेम करती हूँ, उसकी गिरस्ती बसाने के लिए मैं एक पशु का त्याग करके चली आई हूँ, और इसी विषय को लेकर सामाजिक रीति-नीति के सम्बन्ध में स्पर्धा के साथ उसने बहस की थी तब उससे मैं इतना विचलित हो उठा था कि प्यारी को बहुत-सी बातें लिख डाली थीं। आज उन्हीं का प्रत्युत्तर उसने दिया है-
पत्र के पिछले हिस्से में अभया की बात थी। अभया ने जब लौट आकर कहा था कि जिसे मैं चाहती हूँ- प्रेम करती हूँ, उसकी गिरस्ती बसाने के लिए मैं एक पशु का त्याग करके चली आई हूँ, और इसी विषय को लेकर सामाजिक रीति-नीति के सम्बन्ध में स्पर्धा के साथ उसने बहस की थी तब उससे मैं इतना विचलित हो उठा था कि प्यारी को बहुत-सी बातें लिख डाली थीं। आज उन्हीं का प्रत्युत्तर उसने दिया है-


"तुम्हारे मुँह से यदि वे मेरा नाम सुन चुकी हो तो अनुरोध है कि तुम उनसे एक बार मिलना और कहना कि राजलक्ष्मी ने तुम्हें सहस्र-कोटि नमस्कार लिखे हैं। उम्र में वे मुझसे छोटी हैं या बड़ी सो मैं नहीं जानती, जानना जरूरी भी नहीं है, वे केवल अपनी तेजस्विता के कारण ही मेरे समान स्त्री के द्वारा वन्दनीय हैं। आज मुझे अपने गुरुदेव के श्रीमुख की कुछ बातें बार-बार याद आती हैं। मेरे काशी के मकान में दीक्षा की सब तैयारियाँ हो गयी हैं, गुरुदेव आसन ग्रहण करके स्तब्ध भाव से कुछ सोच रहे हैं। मैं आड़ में खड़ी बहुत देर तक उनके प्रसन्न मुख की ओर एकटक देख रही हूँ। एकाएक भय के मारे मेरी छाती के भीतर उथल-पुथल मच गयी। उनके पैरों के पास औंधे पड़कर मैंने रोते हुए, 'बाबा, मैं मन्त्र नहीं लूँगी।" वे विस्मित होकर मेरे सिर पर अपना दाहिना हाथ रखकर बोले, "क्यों न लोगी?'
"तुम्हारे मुँह से यदि वे मेरा नाम सुन चुकी हो तो अनुरोध है कि तुम उनसे एक बार मिलना और कहना कि राजलक्ष्मी ने तुम्हें सहस्र-कोटि नमस्कार लिखे हैं। उम्र में वे मुझसे छोटी हैं या बड़ी सो मैं नहीं जानती, जानना ज़रूरी भी नहीं है, वे केवल अपनी तेजस्विता के कारण ही मेरे समान स्त्री के द्वारा वन्दनीय हैं। आज मुझे अपने गुरुदेव के श्रीमुख की कुछ बातें बार-बार याद आती हैं। मेरे काशी के मकान में दीक्षा की सब तैयारियाँ हो गयी हैं, गुरुदेव आसन ग्रहण करके स्तब्ध भाव से कुछ सोच रहे हैं। मैं आड़ में खड़ी बहुत देर तक उनके प्रसन्न मुख की ओर एकटक देख रही हूँ। एकाएक भय के मारे मेरी छाती के भीतर उथल-पुथल मच गयी। उनके पैरों के पास औंधे पड़कर मैंने रोते हुए, 'बाबा, मैं मन्त्र नहीं लूँगी।" वे विस्मित होकर मेरे सिर पर अपना दाहिना हाथ रखकर बोले, "क्यों न लोगी?'


"मैंने कहा, 'मैं महापापिष्ठा हूँ।'
"मैंने कहा, 'मैं महापापिष्ठा हूँ।'


"उन्होंने बीच में ही रोककर कहा; 'ऐसा है, तब तो मन्त्र लेने की और भी अधिक जरूरत है बेटी।'
"उन्होंने बीच में ही रोककर कहा; 'ऐसा है, तब तो मन्त्र लेने की और भी अधिक ज़रूरत है बेटी।'


"रोते-रोते मैंने कहा, 'लाज के मारे मैंने अपना सच्चा परिचय नहीं दिया है, देती तो आप इस मकान की चौखट भी लाँघना पसन्द नहीं करते।'
"रोते-रोते मैंने कहा, 'लाज के मारे मैंने अपना सच्चा परिचय नहीं दिया है, देती तो आप इस मकान की चौखट भी लाँघना पसन्द नहीं करते।'
पंक्ति 278: पंक्ति 278:
मैंने गर्दन हिलाकर कहा, "आश्चर्य नहीं कि वह आ जाती।"
मैंने गर्दन हिलाकर कहा, "आश्चर्य नहीं कि वह आ जाती।"


अभया क्षण-भर स्थिर रहकर बोली, "तुम एकाध महीने की छुट्टी लेकर एक बार चले जाओ, श्रीकान्त भइया। मुझे जान पड़ता है, तुम्हारी उन्हें बड़ी जरूरत हो रही है।"
अभया क्षण-भर स्थिर रहकर बोली, "तुम एकाध महीने की छुट्टी लेकर एक बार चले जाओ, श्रीकान्त भइया। मुझे जान पड़ता है, तुम्हारी उन्हें बड़ी ज़रूरत हो रही है।"


न जाने कैसे खुद भी मैं इस बात को समझ रहा था कि मेरी उसे बड़ी जरूरत है। दूसरे ही दिन ऑफिस को चिट्ठी लिखकर मैंने और एक महीने की छुट्ठी ले ली और आगामी मेल से यात्रा करने के विचार से टिकट ख़रीदने के लिए आदमी भेज दिया।
न जाने कैसे खुद भी मैं इस बात को समझ रहा था कि मेरी उसे बड़ी ज़रूरत है। दूसरे ही दिन ऑफिस को चिट्ठी लिखकर मैंने और एक महीने की छुट्ठी ले ली और आगामी मेल से यात्रा करने के विचार से टिकट ख़रीदने के लिए आदमी भेज दिया।


जाते समय अभया ने नमस्कार करके कहा, "श्रीकान्त भइया, एक वचन दो।"
जाते समय अभया ने नमस्कार करके कहा, "श्रीकान्त भइया, एक वचन दो।"

10:47, 2 जनवरी 2018 का अवतरण

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एकाएक अभया दरवाज़ा खोलकर आ खड़ी हुई; बोली, "जन्म-जन्मान्तर के अन्ध संस्कार के धक्के से पहले पहल अपने आपको सँम्हाल न सकी, इसीलिए मैं भाग खड़ी हुई थी श्रीकान्त बाबू, उसे आप मेरी सचमुच की लज्जा मत समझना।"

उसके साहस को देखकर मैं अवाक् हो गया। वह बोली, "आपको अपने डेरे को लौटने में आज कुछ देरी हो जायेगी, क्योंकि रोहिणी बाबू आते ही होंगे। आज हम दोनों ही आपके आसामी हैं। आपके विचार में यदि हम लोग अपराधी सुबूत हों, तो जो दण्ड आप देंगे उसे हम मंजूर करेंगे।"

रोहिणी को 'बाबू' कहते यह पहली बार ही सुना। मैंने पूछा, "आप वापस कब लौट आईं?"

अभया बोली, "परसों। वहाँ क्या हुआ, यह जानने का आपको निश्चय ही कुतूहल हो रहा है।" यह कहकर उसने अपना दाहिना हाथ उघाड़कर दिखाया। बेंत के निशान चमड़े पर जगह-जगह उभड़ रहे थे। बोली, और बहुत-से ऐसे निशान भी हैं जिन्हें आपको दिखा नहीं सकती।"

जिन दृश्यों को देखकर मनुष्य का पुरुषत्व हिताहित का ज्ञान खो बैठता है, यह भी उन्हीं में से एक था। अभया ने मेरे स्तब्ध कठोर मुख की ओर देखकर पल-भर में ही सब कुछ समझ लिया और कुछ हँसकर कहा, "किन्तु मेरे वापस लौट आने का यही एक कारण नहीं है श्रीकान्त बाबू, यह तो मेरे सतीधर्म का एक छोटा-सा पुरस्कार है। वे मेरे पति हैं और मैं उनकी विवाहिता स्त्री- यह इसी की जरा-सी बानगी है।"

क्षण-भर चुप रहकर उसने फिर कहना शुरू किया, "मैंने स्त्री होकर पति की अनुमति के बगैर ही इतनी दूर आकर उनकी शान्ति भंग कर दी- स्त्री-जाति की इतनी बड़ी हिमाकत पुरुष-जाति बरदाश्त नहीं कर सकती। यह उसी का दण्ड है। अनेक तरह से भुलावा देकर वे मुझे अपने घर ले गये और वहाँ मुझसे कैफियत तलब की कि क्यों मैं रोहिणी के साथ यहाँ तक आई? मैंने कहा कि पति का घर होता है सो तो मैंने आज तक जाना नहीं। मेरे बाप है नहीं, माँ भी मर गयी- ऐसा कोई नहीं है जो मुझे वहाँ खाने-पीने को दे। तुम्हें बार-बार चिट्ठी लिखने पर भी जवाब नहीं पाया। उन्होंने एक बेंत उठाकर कहा, "आज उसका जवाब देता हूँ।" इतना कहकर अभया ने अपने उस चोट खाए हुए दाहिने हाथ को एक बार सहला लिया।

उस अत्यन्त हीन, अमानुष, बर्ब्बर के विरोध में मेरे सारे अन्त:करण में फिर हलचल मच गयी, किन्तु, जिस अन्ध-संस्कार के फलस्वरूप अभया मुझे देखते ही भागकर छिप गयी थी, वह संस्कार मेरे भी तो था! मैं भी तो उसकी सीमा के बाहर नहीं था! इसलिए मैं यह भी नहीं कह सका कि 'तुमने अच्छा किया।' साथ ही यह भी मुँह से न निकला कि 'अपराध किया है।' दूसरे के अत्यन्त संकट के समय जब अपने निज के विवेक और संस्कार के- स्वाधीन विचार और पराधीन ज्ञान के बीच संघर्ष छिड़ता है तब दूसरे को उपदेश देने जाने जैसी विडम्‍बना संसार में शायद ही कोई हो। कुछ देर चुप रहकर बोला, "तुम्हारा वहाँ से चला आना अन्याय हुआ सो तो मैं नहीं कह सकता, किन्तु..."

अभया बोली, "इस 'किन्तु' का विचार ही तो मैं आपके समीप चाहती हूँ, श्रीकान्त बाबू। वे अपनी बर्मी स्त्री को लेकर सुख से रहें, मुझे इसकी कोई शिकायत नहीं; किन्तु, मैं आपसे यह बात जानना चाहती हूँ कि पति जब एकमात्र बेंत के ज़ोर से स्त्री के समस्त अधिकारों को छीन लेता है और उसे अंधेरी रात में अकेली घर के बाहर निकाल देता है, तब इसके बाद भी विवाह के वैदिक मन्त्रों के ज़ोर से उस पर पत्नी के कर्तव्यों की ज़िम्मेदारी बनी रहती है या नहीं?"

किन्तु मैं चुपकी लगाए रहा। उसने मेरे मुँह पर दृष्टि ठहरा कर फिर कहा, "यह तो खूब मोटी बात है कि जहाँ अधिकार नहीं वहाँ कर्तव्य भी नहीं। उन्होंने भी तो मेरे ही साथ उन्हीं मन्त्रों का उच्चारण किया था, किन्तु, वह एक निरर्थक बकवाद ही रहा जो उनकी प्रवृत्ति पर- उनकी इच्छा पर तो जरा-सी भी रोक नहीं लगा सका। मन्त्रों की वह अर्थहीन आवृत्ति मुँह से बाहर निकलने के साथ ही मिथ्या में मिल गयी- किन्तु, क्या वह सारा बन्धन-सारा उत्तरदायित्तव मैं स्त्री हूँ इसीलिए केवल मेरे ही ऊपर रह गया? श्रीकान्त बाबू, आप तो 'किन्तु' तक कह के ही रुक गये। अर्थात् मेरा वहाँ से चला आना अन्याय नहीं हुआ, किन्तु- इस 'किन्तु' का अर्थ क्या केवल यही है कि जिसके पति ने इतना बड़ा अपराध किया है उसकी स्त्री के नारी-जन्म की यही चरम सार्थकता है कि वह उसका प्रायश्चित करती हुई जीवन-भर जीती हुई भी मृतक के समान बनी रहे? एक दिन मेरे द्वारा जो विवाह के मन्त्र बुलवा लिये गये थे- उन्हीं का बुलवा लिया जाना ही क्या मेरे जीवन का एकमात्र सत्य है, बाकी सब-बिल्कु्ल ही मिथ्या है? इतना बड़ा अन्याय, इतना बड़ा निष्ठुर अत्याचार, मेरे पक्ष में कुछ भी- कुछ भी नहीं है और क्या मेरे पतित्व का कुछ भी अधिकार नहीं है, माता होने का अधिकार नहीं है; समाज, संसार, आनन्द, किसी पर भी मेरा कुछ अधिकार नहीं हैं? यदि कोई निर्दय, मिथ्यावादी बदचलन पति बिना अपराध के अपनी स्त्री को घर से निकाल दे, तो क्या इसीलिए उसका समस्त नारीत्व व्यर्थ, लँगड़ा, पंगु हो जाना चाहिए? क्या इसीलिए भगवान ने स्त्रियों को बनाकर पृथ्वी पर भेजा था? सभी जातियों में- सभी धर्मों में इस तरह के अन्याय का प्रति‍कार है- पर मैं हिन्दू के घर पैदा हुई हूँ, क्या इसीलिए मेरे लिए सब द्वार बन्द हो गये हैं श्रीकान्त बाबू?"

मुझे मौन देखकर अभया बोली, "जवाब नहीं दिया श्रीकान्त बाबू?"

मैंने कहा, "मेरे जवाब से क्या बनता-बिगड़ता है, मेरे मतामत के लिए तो आप राह देख नहीं रही थीं?"

अभया बोली, "किन्तु इसके लिए तो समय नहीं था!"

मैंने कहा, "सो हो सकता है। आप जब मुझे देखकर भाग गयीं तब मैं भी चला जा रहा था। किन्तु फिर लौट आया सो क्यों, आप जानती हैं?"

"नहीं।"

"लौट आने का कारण यह है कि आज मेरा मन बहुत ही उद्विग्न हो रहा है। आपसे भी अधिक निष्ठुर अत्याचार मैंने एक स्त्री पर होते हुए आज सुबह देखा है।" यह कहकर जहाज-घाट की उस बर्मी स्त्री की सारी कथा मैंने विस्तार से कह सुनाई और पूछा, "वह स्त्री अब क्या करे, आप बता सकती हैं?"

अभया सिहर उठी, इसके बाद गर्दन हिलाकर बोली, "नहीं, मैं नहीं बता सकती।"

मैंने कहा, "आज आपको और भी दो स्त्रियों का इतिहास सुनाता हूँ। एक तो मेरी अन्नदा जीजी का और दूसरा प्यारी बाई का। दु:ख के इतिहास में इनमें से किसी का भी स्थान आपसे नीचे नहीं है।"

अभया चुप हो रही। शुरू से आखिर तक अन्नदा जीजी की सारी कथा कहकर मैंने ऑंख उठाकर देखा कि अभया काठ की मूर्ति की तरह स्थिर होकर बैठी है, उसकी दोनों ऑंखों से पानी झर रहा है। कुछ देर इसी तरह बैठी रहकर उसने ज़मीन पर सिर लगाकर नमस्कार किया और वह उठकर बैठ गयी। फिर ऑंचल से ऑंखों को पोंछते हुए बोली, "उसके बाद?"

मैंने कहा, "उसके बाद का हाल कुछ मालूम नहीं। अब प्यारी बाई की कथा सुनो। जब उसका नाम राजलक्ष्मी था तब से वह एक आदमी को चाहती थी। वह चाहना किस तरह का था सो आप जानती हैं? रोहिणी बाबू आपको जिस तरह चाहते हैं उसी तरह। यह मैंने अपनी ऑंखों देखा है, इसीलिए तुलना कर सका। इसके उपरान्त बहुत दिनों के बाद दोनों की मुलाकात हुई। तब वह 'राजलक्ष्मी' नहीं रही थी, 'प्यारी बाई' हो गयी थी। किन्तु यह बात उस दिन प्रमाणित हो गया कि राजलक्ष्मी मरी नहीं है, बल्कि प्यारी के ही भीतर चिरकाल के लिए अमर हो गयी है।"

अभया उत्सुक होकर बोली, "उसके बाद?"

बाद की घटनाएँ एक के बाद एक विस्तार के साथ सुनाकर कहा, "इसके बाद एक दिन ऐसा आ पड़ा कि जिस दिन प्यारी ने अपने प्राणाधिक प्रियतम को चुपचाप दूर हटा दिया।"

अभया ने पूछा, "उसके बाद क्या हुआ, जानते हैं?"

"जानता हूँ। पर अब नहीं कहूँगा।"

अभया ने एक नि:श्वास छोड़कर कहा, "आप क्या यह कहना चाहते हैं कि मैं अकेली ही नहीं हूँ- चिरकाल से ही स्त्रियों को ऐसे दुर्भाग्य का भोग करना पड़ रहा है और इस दु:ख को सहन करते रहने में ही उनके जीवन की चरम सफलता है?"

मैंने कहा, "मैं यह कुछ भी नहीं कहना चाहता। आपको मैं केवल इतना ही जतला देना चाहता हूँ कि स्त्रियाँ मर्द नहीं हैं। दोनों के आचार-व्यवहार एक ही तराजू से नहीं तौले जा सकते; और तौले भी जाँय तो कोई लाभ नहीं।"

"क्यों नहीं है, कह सकते हैं?"

"नहीं, सो भी नहीं कह सकता। इसके सिवाय आज मेरा मन कुछ ऐसा उद्भ्रान्त हो रहा है कि इन सब जटिल समस्याओं की मीमांसा करना सम्भव ही नहीं। आपके प्रश्न पर मैं और एक दिन विचार करूँगा। फिर भी, आज मैं आपसे यह कहे जा सकता हूँ कि मैंने अपने जीवन में जो थोड़े से महान् नारी-चरित्र देखे हैं उन सबने दु:ख के भीतर से गुजरकर ही मेरे मन में ऊँचा स्थान पाया है। मैं शपथपूर्वक कह सकता हूँ कि मेरी अन्नदा जीजी अपने दु:ख का सारा भार चुपचाप सहन करने के सिवाय और कुछ न कर सकतीं। यह भार असह्य होने पर भी वे अपने पथ से हटकर कभी आपके पथ पर पैर रख सकतीं, यह बात सोचने से भी शायद दु:ख के मारे मेरी छाती फट जायेगी।"

कुछ देर चुप रहकर कहा, "और वह राजलक्ष्मी? उसके त्याग का दु:ख कितना बड़ा है सो तो मैं स्वयं अपनी नजर से देख आया हूँ। इस दु:ख के ज़ोर से ही उसने आज मेरे समस्त हृदय को परिव्याप्त कर रक्खा है..."

अभया ने चौंककर कहा, "तो फिर क्या आप ही उसके..."

मैंने कहा, "यदि ऐसा न होता तो वह इतनी स्वच्छन्दता से मुझे इतनी दूर न पड़ा रहने देती, खो जाने के डर से प्राणपण से खींचकर अपने पास ही रखना चाहती।"

अभया बोली, "इसके मानी यह कि राजलक्ष्मी जानती है कि उसे आपके खोए जाने का डर ही नहीं है?"

मैंने कहा, "केवल डर ही नहीं, राजलक्ष्मी जानती है कि मैं खोया जा ही नहीं सकता। इसकी सम्भावना ही नहीं है। पाने और खोने की सीमा से बाहर जो एक सम्बन्ध है, मुझे विश्वास है कि उसने उसे ही प्राप्त कर लिया है और इसीलिए मेरी भी इस समय उसे ज़रूरत नहीं है। देखो, मैंने स्वयं भी इस जीवन में कुछ कम दु:ख नहीं उठाया है। उससे मैंने यही समझा है कि 'दु:ख' जिसे कहते हैं वह न तो अभावरूप ही है और न शून्य रूप। भयहीन जो दु:ख है, उसका उपभोग सुख की तरह ही किया जा सकता है।"

अभया देर तक स्थिर रहकर धीरे से बोली, "आपकी बात समझती हूँ श्रीकान्त बाबू! अन्नदा जीजी, राजलक्ष्मी- इन दोनों ने जीवन में दु:ख को ही सम्बल रूप से प्राप्त किया है। किन्तु, मेरे हाथ तो वह भी नहीं। पति के समीप मैंने पाया है केवल अपमान। केवल लांछना और ग्लानि लेकर ही मैं लौट आई हूँ। इस मूल-धन को लेकर ही क्या आप मुझे जीवित रहने के लिए कहते हैं?"

सवाल बड़ा ही कठिन है। मुझे निरुत्तर देखकर अभया फिर बोली, "इनके साथ मेरे जीवन का कहीं भी मेल नहीं है श्रीकान्त बाबू। संसार के सभी स्त्री-पुरुष एक साँचे में ढले नहीं होते, उनके सार्थक होने का रास्ता भी जीवन में केवल एक नहीं होता। उनकी शिक्षा, उनकी प्रवृत्ति और मन की गति एक ही दिशा में चलकर उन्हें सफल नहीं बना सकती। इसीलिए, समाज में उनकी व्यवस्था रहना उचित है। मेरे जीवन पर ही आप एक दफे अच्छी तरह शुरू से आखिर तक नजर डाल जाइए। मेरे साथ जिनका विवाह हुआ था उनके समीप आए बिना कोई उपाय नहीं था और आने पर भी कोई उपाय नहीं हुआ। इस समय उनकी स्त्री, उनके बाल-बच्चे, उनका प्रेम, कुछ भी मेरा खुद का नहीं है। इतने पर भी उन्हीं के समीप उनकी एक रखेल वेश्या की तरह पड़े रहने से ही क्या मेरा जीवन फल-फूलों से लदकर सफल हो उठता श्रीकान्त बाबू? और उस निष्फलता के दु:ख को लादे हुए सारे जीवन भटकते फिरना ही क्या मेरे नारी जीवन की सबसे बड़ी साधना है? रोहिणी बाबू को तो आप देख ही गये हैं। उनका प्यार तो आपकी दृष्टि से ओझल है नहीं। ऐसे मनुष्य के सारे जीवन को लँगड़ा बनाकर मैं 'सती' का खिताब नहीं ख़रीदना चाहती श्रीकान्त बाबू।"

हाथ उठाकर अभया ने ऑंखों के कोने पोंछ डाले और फिर रुँधे हुए कण्ठ से कहा, "न कुछ एक रात्रि के विवाह-अनुष्ठान को, जो कि पति-पत्नी दोनों के ही निकट स्वप्न की तरह मिथ्या हो गया है, जबर्दस्ती जीवन-भर 'सत्य' कहकर खड़ा रखने के लिए इतने बड़े प्रेम को क्या मैं बिल्कुसल ही व्यर्थ कर दूँ? जिन विधाता ने प्रेम की यह देन दी है, वे क्या इसी से खुश होंगे? मेरे विषय में आपकी जो इच्छा हो वही धारणा कर लें; मेरी भावी सन्तान को भी आप जो चाहें सो कहकर पुकारें, किन्तु जीती रहूँगी श्रीकान्त बाबू, तो मैं निश्चयपूर्वक कहे रखती हूँ कि हमारे निष्पाप प्रेम की सन्तान संसार में मनुष्य के लिहाज़ से किसी से भी हीन न होगी और मेरे गर्भ से जन्म ग्रहण करने को वह अपना दुर्भाग्य कभी न समझेगी। उसे दे जाने लायक़ वस्तु उसके माँ-बाप के समीप शायद कुछ न होगी; किन्तु, उसकी माता उसको यह भरोसा अवश्य दे जायेगी कि वह सत्य के बीच पैदा हुई है, सत्य से बढ़कर सहारा उसके लिए संसार में और कुछ नहीं है। इस वस्तु से भ्रष्ट होना उसके लिए कठिन होगा- ऐसा होने पर वह बिल्कुछल ही तुच्छ हो जाँयगी।"

अभया चुप हो रही, किन्तु सारा आकाश मानो मेरी ऑंखों के सामने काँपने लगा, मुहूर्त-भर के लिए मुझे भास हुआ कि इस स्त्री के मुँह की बातें मानो मूर्त्त रूप धारण करके बाहर हम दोनों को घेर कर खड़ी हो गयी हैं। हाँ, ऐसा ही मालूम हुआ। सत्य जब सचमुच ही मनुष्य के हृदय से निकलकर सम्मुख उपस्थित हो जाता है तब मालूम होता है कि वह सजीव है- मानों उसके रक्त-मांसयुक्त शरीर है और मानो उसके भीतर प्राण भी है- 'नहीं' कहकर अस्वीकार करने पर मानो वह चोट करके कहेगा, "चुप रहो, मिथ्या तर्क करके अन्याय की सृष्टि मत करो!"

सहसा अभया एक सीधा प्रश्न कर बैठी; बोली, "आप स्वयं भी क्या हमें अश्रद्धा की नजर से देखेंगे श्रीकान्त बाबू? और अब क्या हमारे घर न आवेंगे?"

उत्तर देते हुए मुझे कुछ देर इधर-उधर करना पड़ा। इसके बाद मैं बोला, अन्तर्यामी के समीप तो शायद आप निष्पाप हैं- वे आपका कल्याण ही करेंगे; किन्तु, मनुष्य तो मनुष्य का अन्तस्तल नहीं देख सकते- उनके लिए तो प्रत्येक के हृदय का अनुभव करके विचार करना सम्भव नहीं है। यदि वे प्रत्येक के लिए अलहदा नियम गढ़ने लगें तो उनके समाज की सबकी सब कार्य-शृंखला ही टूट जाय।"

अभया कातर होकर बोली, "जिस धर्म में- जिस समाज में हम लोगों को उठा लेने योग्य उदारता है-स्थान है- क्या आप हम लोगों से उसी समाज में आश्रय ग्रहण करने के लिए कहते हैं?"

इसका क्या जवाब दूँ, मैं सोच ही न सका।

अभया बोली, "अपने आदमी होकर भी अपने ही आदमी को आप संकट के समय आश्रय नहीं दे सकते? उस आश्रय की भीख माँगनी होगी हमें दूसरों के निकट? उससे क्या गौरव बढ़ता है श्रीकान्त बाबू?"

प्रत्युत्तर में केवल एक दीर्घश्वास के सिवाय और कुछ मुँह से बाहर नहीं निकला।

अभया स्वयं भी कुछ देर मौन रहकर बोली, "जाने दीजिए। आप लोगों ने जगह नहीं दी, न सही, मुझे सान्त्वना यही है कि जगत में आज भी एक बड़ी जाति है जो खुले तौर पर स्वच्छन्दता से स्थान दे सकती है।"

उसकी बात से कुछ आहत होकर बोला, "क्या हर हालत में आश्रय देना ही भला काम है, यह मान लेना चाहिए?"

अभया बोली, "इसका प्रमाण तो हाथों-हाथ मिल रहा है श्रीकान्त बाबू। पृथ्वी में कोई अन्याय-कार्य अधिक दिन तक नहीं फल-फूल सकता, यह बात यदि सत्य है तो क्या यह कहना पड़ेगा कि इसीलिए वे अन्याय को आश्रय देते हुए दिनों दिन ऊँचे बढ़ रहे हैं, और हम लोग न्याय-धर्म को आश्रय देकर प्रतिदिन क्षुद्र और तुच्छ होते जा रहे हैं? हम लोग तो यहाँ कुछ ही दिन हुए आए हैं, परन्तु, इतने दिनों में ही देखती हूँ कि मुसलमानों से यह सारा देश छाया जा रहा है। सुनती हूँ, ऐसा एक भी गाँव नहीं है जहाँ कम-से-कम एक घर मुसलमान का न हो और जहाँ पर एकाध मस्जिद तैयार न हो गयी हो। हम लोग शायद अपनी ऑंखों न देख जा सकें; किन्तु, ऐसा दिन शीघ्र ही आवेगा जिस दिन हमारे देश की तरह यह बर्मा देश मुसलमान-प्रधान देश बन जाएगा। आज सुबह ही जहाज-घाट पर एक अन्याय देखकर आपका मन ख़राब हो गया है। आप ही कहिए, किस मुसलमान बड़े भाई को धर्म और समाज के भय से ऐसे षडयन्त्र का- ऐसी नीचता का आसरा लेकर सुख-चैन की ऐसी गिरस्ती राख में मिलाकर भाग जाने की ज़रूरत पड़ती? बल्कि इससे उलटा, वह तो सभी को अपने दल में खींच लेकर आशीर्वाद देता और बड़े भाई के योग्य सम्मान और मर्यादा ग्रहण कर लौट जाता। इन दोनों में से किससे सच्चा धर्म बना रहता है श्रीकान्त बाबू?"

मैंने गहरी श्रद्धा से भरकर पूछा, "अच्छा, आप तो गँवई-गाँव की कन्या हैं, आपने ये सब बातें किस तरह जानीं? मैं तो नहीं समझता कि इतने प्रशस्त-हृदय हम पुरुषों में भी अधिक हैं। आप जिनकी माता होंगी वह अभागी हो सकती है, इसकी कम-से-कम मैं तो किसी तरह कल्पना नहीं कर सकता।"

अभया अपने म्लान मुख पर जरा-सा हँसी का आभास लाकर बोली, "तो फिर श्रीकान्त बाबू, मुझे समाज से बाहर कर देने से ही क्या हिन्दू समाज अधिक पवित्र हो उठेगा? इससे क्या किसी ओर से भी समाज को नुकसान नहीं उठाना पड़ेगा?"

कुछ देर स्थिर रहकर और फिर कुछ जरा-सा हँसकर कहा, "किन्तु मैं किसी तरह भी समाज के बाहर न होऊँगी; सारा अपयश, सारा कलंक, सारा दुर्भाग्य अपने सिर पर लेकर हमेशा आप लोगों की ही होकर रहूँगी। अपनी एक सन्तान को भी यदि किसी दिन मनुष्य की तरह मनुष्य बनाकर खड़ा कर सकूँ, तो मेरा यह सारा दु:ख सार्थक हो जाए- बस यही आशा लेकर मैं जीऊँगी। मुझे परीक्षा करके देखना होगा कि सचमुच का मनुष्य ही मनुष्यों में बड़ा है या उसके जन्म का हिसाब ही संसार में बड़ा है।"

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मनोहर चक्रवर्ती नामक एक प्राज्ञ सज्जन से मेरी मुलाकात हो गयी थी। दादा ठाकुर की होटल में एक हरि-संकीर्तन दल था। पुण्य बटोरने की इच्छा से बीच-बीच में वे उसी निमित्त वहाँ आते थे। किन्तु कहाँ रहते हैं, क्या करते हैं- सो मैं कुछ नहीं जानता था। सिर्फ इतना ही सुना था कि उनके पास बहुत-सा रुपया है, और सब तरफ से वे अत्यन्त हिसाबी हैं।

न जाने क्यों, मुझसे बेहद प्रसन्न होकर वे एक दिन अकेले में बोले, "देखो श्रीकान्त बाबू, तुम्हारी उम्र छोटी है- जीवन में यदि उन्नति प्राप्त करना चाहते हो तो तुम्हें मैं कुछ ऐसे 'गुर' बतला सकता हूँ जिनका मूल्य लाख रुपया है। मैंने खुद जिनके समीप ये गुर प्राप्त किये थे उन्होंने संसार में कितनी उन्नति की थी, सुनोगे तो शायद अवाक् हो जाओगे, किन्तु बात बिल्कुनल सच है। वे केवल पचास रुपया महीना पाते थे, परन्तु मरते समय घर-बार ये बाग-बगीचा, तालाब, ज़मीन-जायदाद आदि के सिवाय दो हज़ार रुपये नकद छोड़ गये। कहो न... यह क्या कोई सहज बात है? अपने माँ-बाप के आशीर्वाद से मैं खुद भी तो..."

परन्तु, वे अपनी बात यहीं पर दबा देकर बोले, "सुनता हूँ, तनखा तो खूब मोटी-सी पाते हो, भाग्य भी तुम्हारा बड़ा अच्छा है- बर्मा में आते ही किसी का ऐसा भाग्य खुलते नहीं सुना गया- किन्तु फिजूलखर्ची भी कितनी करते हो! है न यह बात? भीतर ही भीतर पता लगाने से दु:ख के मारे छाती फट जाती है। देखते ही तो हो कि मैं लोगों की किसी बात में नहीं पड़ता। किन्तु, मेरे माफिक, अधिक नहीं, दो बरस तो चलकर देखो। मैं कहता हूँ तुमसे, कि देश लौटकर अगर चाहोगे तो तुम अपना विवाह तक कर सकोगे।"

इस सौभाग्य के लिए भीतर ही भीतर मैं इस क़दर लालायित हो उठा हूँ, यह तथ्य न मालूम उन्होंने किस तरह पा लिया- किन्तु, यह तो खुद ही प्रकट कर चुके थे कि वे भीतर ही भीतर पता लगाए बिना किसी की भी किसी बात में नहीं पड़ते।

जो हो, उनके उन्नति के बीच-मन्त्र-रूप सत्परामर्श के लिए मैं लुब्ध हो उठा। वे बोले, "देखो, दान-वान करने की बात छोड़ दो-चोटी का पसीना एड़ी तक बहाकर रोजी कमानी होती है, कमर-भर मिट्टी खोदने पर भी पैसा नहीं मिलता। अपने ख़ून को जलाकर पैदा की हुई कौड़ी गैरों को बख्श दे, आजकल की दुनिया में ऐसा पागल और भी कोई है? अपने स्त्री-बच्चों और परिवार के लिए रख छोड़ा जाय, तब न दूसरों को दान किया जाय? इस बात को बिल्कु्ल ही छोड़ दो, यह मैं नहीं कहता- किन्तु देखो, जिसके घर में पैसे की खींचतान हो उस आदमी को कभी प्रश्रय न देना। अधिक नहीं दो-चार दिन की आमद-रफ्त के बाद ही वह अपनी गिरस्ती की कष्ट-कहानी सुनाकर दो-चार रुपये माँग बैठेगा। जो दिये सो तो दिये ही, और बाहर का झगड़ा घर में खींच लाये सो अलग। रुपयों की ममता वैसे कोई सचमुच में तो छोड़ सकता नहीं-तकाजा करना ही पड़ता है, और तब दौड़-धूप झगड़ा-बखेड़ा। भला हमें इसकी ज़रूरत ही क्या पड़ी है?" मैंने गर्दन हिलाकर कहा, "जी हाँ, आप बिल्कुील सही कहते हैं।"

वे उत्तेजित होकर बोले, "तुम अच्छे घर के लड़के हो, इसलिए चट से बात समझ गये; किन्तु इन छोटी जात के लोहा पीटनेवाले सालों की तो समझाओ देखूँ! हरामजादे सात जन्म में भी नहीं समझेंगे। सालों के पास खुद का एक पैसा नहीं, फिर भी, पराए घर से कर्ज़ लाकर दूसरों को दे आयँगे। ये छोटे लोग ऐसे ही अहमक होते हैं!"

कुछ देर चुप रहकर बोले, "तब हों, देखो, कभी किसी को भी रुपये उधर मत देना। कहेंगे, "बड़ा कष्ट है।" तुम्हें कष्ट है भाई, तो हमें क्या? और यदि सचमुच में ही कष्ट है तो दो तोले सोना लाकर रख जाओ न, अभी देता हूँ दस रुपये उधार? क्यों भइए, है न ठीक?"

मैंने कहा, "जी हाँ, ठीक तो है!"

वे बोले, "एक दफे नहीं, सौ दफे ठीक है! और देखो, झगड़े-बखेड़े की जगह कभी मत जाना। किसी का ख़ून हो जाये तो भी नहीं। हमें उससे मतलब? यदि किसी को बचाने जाओगे तो दो-एक चोटें अपने पर भी आ पड़ेंगी। सिवाय इसके कोई एक पक्ष अपना गवाह मान बैठेगा। तब फिर मुफ़्त में करो दौड़ा-दौड़ अदालतों तक। बल्कि, लड़ाई-झगड़ा जब खत्म हो जाय तब, यदि जी चाहे तो घूम आओ- एक दफे वहाँ तक, और दो बातें भली-बुरी सलाह की दे आओ। पाँच आदमियों में तुम्हारा नाम हो जाएगा। है न बात ठीक?"

कुछ देर चुप रहकर फिर उन्होंने कहना शुरू किया, "और फिर इन लोगों के रोग-शोक के समय तो भइया मैं इनके महल्ले में भी पैर नहीं रखता। उसी समय कह बैठते हैं कि "भाई, मैं मर रहा हूँ, इस विपत्ति में दो रुपया देकर जरा सहायता करो!" पर भइया, मनुष्य के मरने-जीने की बात तो कुछ कहीं नहीं जा सकती, इसलिए, उसे रुपया देना और पानी में फेंक देना एक ही बात है- बल्कि पानी में फेंक देना कहीं भला है, परन्तु उस जगह नहीं। और कुछ नहीं तो शायद यही कह बैठते हैं, "जरा रत-जगा करने आ बैठना।" बहुत खूब! मैं जाऊँ उनकी बीमारी में रत-जगा करने, किन्तु इस दूर परदेश में मुझे ही कुछ-न करें माता शीतला, कान पकड़ता हूँ माँ!" यों कहकर उन्होंने जीभ को दाँतों-तले दबा लिया तथा अपने कान अपने ही हाथों ऐंठकर और नमस्कार कर कहा, "हम लोग सभी तो उनके चरणों में पड़े हैं- किन्तु, बताओ भला, ऐसी विपत्ति में मेरी खबर कौन लेगा?"

अबकी मैं हाँ में हाँ न मिला सका। मुझे मौन देखकर वे मन ही मन शायद कुछ दुविधा में पड़कर बोले, "देखो न साहब लोगों को। वे क्या कभी ऐसे स्थानों में जाते हैं? कभी नहीं। अपना एक कार्ड-भर पठा दिया, बस हो गया। इसीलिए देखो न उनकी उन्नति को! उसके बाद अच्छे होने पर फिर वैसा ही मेलजोल-ठीक उसी तरह। सो भइया, किसी के झगड़े-झंझट में कभी न पड़ना चाहिए।"

ऑफिस का समय होते देख मैं उठ खड़ा हुआ। इन प्रज्ञ महाशय की भली सलाह से इतनी उम्र में मेरी अधिक मानसिक उन्नति होना सम्भव हो, सो बात नहीं उससे मन के भीतर, और तो क्या, हलचल भी कुछ अधिक नहीं मची। क्योंकि, इस किस्म के अनुभवी व्यक्तियों का देहात में बिल्कुंल अभाव नहीं देखा। तथा उनकी और चाहे जितनी बदनामी हो किन्तु, सलाह देने में वे कंजूसी करते हों, उनके बारे में यह अपवाद भी कभी नहीं सुना गया। और देश के लोगों ने मान भी लिया है कि यह सलाह भली सलाह है- जीवन-यात्रा के कार्य में निस्संदिग्ध सज्जनोचित उपाय है- फिर भले ही पारिवारिक जीवन में यह उतनी कारगर न हो जितनी कि सामाजिक जीवन में। बंगाली गृहस्थ का कोई लड़का यदि अक्षरश: इसके अनुसार चले, तो उसके माँ-बाप असन्तुष्ट होंगे- बंगाली माता-पिताओं के विरुद्ध इतनी बड़ी झूठी बदनामी फैलाते हुए पुलिस के सी.आई.डी. के आदमियों का विवेक भी बाधा डालेगा। सो चाहे जो हो, किन्तु इस तरह की प्रतिज्ञा के भीतर कितना बड़ा अपराध था, यह दो हफ्ते भी न गुजरने पाए कि भगवान ने इन्हीं के द्वारा मेरे निकट प्रमाणित कर दिया।

तब से मैं अभया के घर की ओर नहीं गया था। यह सत्य है कि मैं उसकी सारी अवस्था के साथ उसकी बातों का मिलान करके शुरू से अन्त तक के इस व्यापार को ज्ञान के द्वारा एक तरह से देख सकता था। यह भी ठीक है कि उसके विचारों की स्वाधीनता, उसके आचरण की निर्भीक सावधानता, उनका परस्पर का सुन्दर और असाधारण स्नेह- यह सब मेरी बुद्धि को उसी ओर निरन्तर आकर्षित करते थे, किन्तु फिर भी, मेरे जीवन-भर के संस्कार किसी तरह भी उस ओर मुझे पैर नहीं बढ़ाने देते थे। मन में केवल यही आता था कि मेरी अन्नदा जीजी यह कार्य न करतीं। वे कहीं भी दासी-वृत्ति करके लांछना, अपमान और दु:ख के भीतर से गुजरते हुए अपना बाकी जीवन काट देतीं, किन्तु, ब्रह्माण्ड के सारे सुखों के बदले में भी जिसके साथ उनका विवाह नहीं हुआ उसके साथ गिरस्ती करने को राजी न होतीं। मैं जानता हूँ, उन्होंने भगवान के चरणों में एकान्त भाव से अपने आपको समर्पित कर दिया था। अपनी उस साधना के भीतर से उन्होंने पवित्रता की जो धारणा और कर्त्तव्य का जो ज्ञान-प्राप्त किया था, सो अभया की सुतीक्ष्ण बुद्धि की मीमांसा के समीप क्या एकबारगी ही बच्चों का खेल था?

हठात् अभया की एक बात याद आ गयी। तब भलीभाँति तह तक पहुँचने का मुझे अवकाश नहीं मिला था। उसने कहा था, "श्रीकान्त बाबू, दु:ख का भोग करने में भी एक किस्म का नाशकारी मोह है। मनुष्य ने अपनी युग-युग की जीवन-यात्रा में यह देखा है कि कोई भी बड़ा फल किसी बड़े भारी दु:ख को उठाए बिना नहीं प्राप्त किया जा सकता। उसका जन्म-जन्मान्तर का अनुभव इस भ्रम को सत्य मान बैठा है कि जीवनरूपी तराजू में एक तरफ जितना ही अधिक दु:ख का भार लादा जाय, दूसरी ओर उतना ही अधिक सुख का बोझा ऊपर उठ आता है। इसीलिए तो, मनुष्य जब संसार में अपनी सहज और स्वाभाविक प्रकृति को अपनी इच्छा से वर्जित करके यह समझकर निराहार घूमता फिरता है कि 'मैं तपस्या करता हूँ।' तब, इस सम्बन्ध में कि उसके खाने के लिए कहीं पर उससे चौगुना आहार संचित हो रहा है, न तो उसके ही मन में तिल-भर सन्देह उठता है और न किसी और के ही मन में। इसीलिए, जब कोई संन्यासी निदारुण शीत में गले तक जल-मग्न होकर और भीषण गर्मी की भयंकर धूप में धूनी रमाए ज़मीन पर सिर और ऊपर पैर करके अवस्थित रहता है तब उसके दु:ख-भोग की कठोरता देखकर दर्शकों के दल केवल दु:ख का ही अनुभव नहीं करते, बल्कि उस पर एकबारगी मुग्ध हो जाते हैं। भविष्य में उसे मिलने वाले आराम के भारी और असम्भव हिसाब की खतौनी करके उनका प्रलुब्ध चित्त ईष्या से व्यस्त हो उठता है और वे कहने लगते हैं कि वह नीचे सिर और ऊपर पैर रखने वाला व्यक्ति ही संसार में धन्य है, मनुष्य-देह धारण करके करने योग्य कार्य वास्तव में वही कर रहा है, हम लोग तो कुछ भी नहीं कर रहे हैं- व्यर्थ ही जीवन गवाँ रहे हैं। इस तरह अपने आपको हजारों धिक्कार देते हुए वे मलीन मन से घर लौट आते हैं। श्रीकान्त बाबू, सुख प्राप्त करने के लिए दु:ख स्वीकार करना चाहिए, यह बात सत्य है किन्तु इसीलिए, यह स्वत: सिद्ध नहीं हो जाता कि जिस तरह भी हो बहुत-सा दु:ख भोग लेने से ही सुख हमारे कन्धों पर आ बैठेगा। यह इहलोक में भी सत्य नहीं है और परलोक में भी नहीं।"

मैंने कहना शुरू किया, "किन्तु, विधवा का ब्रह्मचर्य..."

अभया ने मुझे बीच में टोककर कहा, "विधवा का 'आचरण' कहिए- उसके साथ 'ब्रह्म' का बिन्दुमात्र भी सम्बन्ध नहीं है। विधवा का चाल-चलन ही ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय है, यह मैं नहीं मानती। वास्तव में वह तो कुछ भी नहीं है। कुमारी, सधवा, विधवा-सभी अपने-अपने मार्ग से ब्रह्म-लाभ कर सकती हैं। विधवा का आचरण ही इसके लिए रिजर्व नहीं कर रक्खा गया है।"

मैंने हँसकर कहा, "बहुत ठीक, ऐसा ही सही। उसका आचरण ब्रह्मचर्य न सही- नाम से क्या आता-जाता है?"

अभया ने बिगड़कर कहा, "नाम ही तो सब कुछ है श्रीकान्त बाबू, नाम को छोड़कर दुनिया में और है ही क्या? ग़लत नामों के भीतर से मनुष्य की बुद्धि की विचारशीलता की और ज्ञान की धारा कितनी बड़ी भूलों के बीच बहाई जा सकती है, सो क्या आप नहीं जानते? इसी, नाम के भुलावे के कारण ही तो सब देश और सब काल विधवा के आचरण को सबसे श्रेष्ठ मानते आ रहे हैं। यह निरर्थक त्याग की निष्फल महिमा है श्रीकान्त बाबू, बिल्कुयल ही व्यर्थ बिल्कुील ही ग़लत। मनुष्य को इहलोक और परलोक दोनों में पशु बना देने वाली इससे बढ़कर जादूगरी और कोई हो ही नहीं सकती।"

उस समय और बहस न करके मैं चुप हो गया था। दरअसल उसे बहस में हरा देना एक तरह से असम्भव ही था। पहले-पहले जब जहाज़ पर उससे परिचय हुआ, डॉक्टर साहब केवल उसे बाहर से ही देखकर मजाक में बोले, "औरत तो बड़ी ही 'फारवर्ड' है-परन्तु उस समय दोनों में से किसी ने भी यह नहीं सोचा था कि, इस 'फारवर्ड' शब्द का अंत कहाँ तक पहुँच सकता है। यह रमणी अपने समस्त अन्तस्ल तक को किस तरह अकुण्ठित तेज से बाहर खींचकर सारे संसार के सामने खोलकर रख सकती है- लोगों के मतामत की परवाह ही नहीं करती, उस समय इसके सम्बन्ध में हमारी यह धारणा नहीं थी। अभया केवल अपने मत को अच्छा प्रमाणित करने के लिए ही वाग्वितण्डा नहीं करती- वह अपने कार्य को भी बलपूर्वक विजयी करने के लिए बाकायदा युद्ध करती है। उसका मत कुछ हो और काम कुछ और हो ऐसा नहीं है; इसलिए, शायद, बहुत दफे मैं उसके सामने उसकी बात का जवाब खोजे नहीं पाता था, कुछ अप्रतिभ-सा हो जाता था- परन्तु, लौटकर जब अपने डेरे पर पहुँचता था तब खयाल आता था- अरे यह तो उसका खूब करारा उत्तर था! खैर, जो भी हो उसके सम्बन्ध में आज भी मेरी दुविधा नहीं मिटी है। अपने आपसे मैं जितना ही प्रश्न करता कि इसके सिवाय अभया के लिए और गति ही क्या थी, उतना ही मेरा मन मानो उसके विरुद्ध टेढ़ा होकर खड़ा हो जाता। जितना ही मैं अपने आपको समझाता कि उस पर अश्रद्धा करने का मुझे जरा भी हक नहीं है- उतना ही अव्यक्त अरुचि से मानो अन्तर भर उठता।

मुझे खयाल आता है कि मन की ऐसी कुंठित अप्रसन्न अवस्था में ही मेरे दिन बीत रहे थे, इसीलिए, न तो मैं उसके समीप ही जा सकता था और न एकबारगी उसे अपने मन से दूर ही हटा सकता था।

ऐसे ही समय हठात् एक दिन प्लेग ने शहर के बीच आकर अपन घूँघट खोल दिया और अपना काला मुँह बाहर निकाला। हाय रे! उसे समुद्र-पार रोक रखने के लिए किये गये लक्ष कोटि जन्तर-मन्तर और अधिकारियों की अधिक से अधिक निष्ठुर सावधानी, सब मुहूर्त-भर में एकबारगी धूल में मिल गयी! लोगों में बेहद आतंक छा गया। शहर के चौदह आने लोग या तो नौकरपेशा थे या फिर व्यापार-पेशा। इस कारण, उनको एकबारगी दूर भाग जाने का भी सुभीता नहीं था। वही दशा हुई जैसी किसी सब ओर से रुद्ध कमरे के बीच आतिशबाजी की छछूँदर छोड़ देने पर होती है। भय के मारे इस महल्ले के लोग स्त्री-पुत्रों का हाथ पकड़े, छोटी-छोटी गठरियाँ कन्धों पर लादे उस महल्ले को भागते थे और उस महल्ले के लोग ठीक उसी तरह इस महल्ले को भागते आते थे! मुँह से 'चूहा' शब्द निकला नहीं कि फिर खैर नहीं। वह मरा है या जीता, यह सुनने के पहले ही लोग भागना शुरू कर देते! मालूम होता था लोगों के प्राण मानो वृक्ष के फलों की तरह पकड़कर डण्ठलों में झूल रहे हैं, प्लेग की हवा लगते ही रात-भर में उनमें से कौन कब 'टप' से नीचे टपक पड़ेगा, इसका कोई निश्चय ही नहीं।

शनीचर की बात है। एक साधारण से काम के लिए सुबह ही मैं बाहर चला गया था। शहर के बीचोंबीच एक गली के भीतर से बड़े रास्ते पर जाने के लिए जल्दी-जल्दी पैर बढ़ाए चला जा रहा था कि देखा एक अत्यन्त जीर्ण मकान के दो- मंजिले के बरामदे में मनोहर चक्रवर्ती खड़े हुए बुला रहे हैं।

मैंने हाथ हिलाकर कहा, "समय नहीं।"

वे अतिशय अनुनय-सहित बोले, "दो मिनट के लिए एकदम ऊपर आइए, श्रीकान्त बाबू, बड़ी आफत में हूँ।"

आखिर बिल्कुील इच्छा न रहते भी ऊपर जाना पड़ा। मैं यही तो बीच-बीच में सोचा करता हूँ कि क्या मनुष्य की हर एक हरकत पहले से ही निश्चित की हुई होती है! नहीं तो, मेरा कोई ऐसा काम भी न था और न उस गली के भीतर इससे पहले कभी प्रवेश ही किया था, तब, आज सुबह ही मैं इस ओर आकर कैसे हाजिर हो गया?

नजदीक जाकर कहा, "बहुत दिन से तो आप उस तरफ आए नहीं- आप क्या इसी मकान में रहते हैं?"

वे बोले, "नहीं महाशय, मैं बारह-तेरह दिन हुए तभी यहाँ आया हूँ। एक तो महीने-भर से 'डिसेण्ट्री' (दस्त लगने की बीमारी) भुगत रहा हूँ, फिर उस पर हो गयी हमारे महल्ले में प्लेग। क्या करूँ महाशय, उठ तक नहीं सकता हूँ, फिर भी जैसे-तैसे जल्दी से भाग आया।"

मैंने कहा, "बहुत ठीक किया।"

वे बोले, "बहुत ठीक किया, यह कैसे कहूँ महाशय, मेरा, "कम्बाइण्ड हैण्ड' बहुत ही बदजात है। बोलता है 'नहीं रहूँ, चला आऊँगा।" जरा साले को अच्छी तरह धमका तो दीजिए।"

मुझे जरा अचरज हुआ। किन्तु, इसके पहले इस 'कम्बाइण्ड हैण्ड' नामक चीज़ की व्याख्या कर देना ज़रूरी है। क्योंकि जो लोग यह नहीं जानते कि 'हिन्दुस्तानी लोग' पैसे के लिए जो न कर सके दुनिया में ऐसा कोई काम ही नहीं है, वे लोग यह सुनकर विस्मित होंगे कि इस अंगरेजी शब्द का मतलब है दुबे, चौबे, तिवारी आदि हिन्दुस्तानी ब्राह्मण, जो यहाँ पर तो किसी के पास फटकते ही उछल पड़ते हैं, परन्तु, वहाँ जाकर रसोई बनाते हैं, जूठे बर्तन माँजते हैं, तम्बाकू भरते हैं और बाबू साहबों के ऑफिस जाते समय उनके बूट झाड़-पोंछकर साफ़ कर देते हैं- फिर वे बाबू चाहे किसी भी जाति के क्यों न हों। हाँ, यह बात अवश्य है कि दो-चार रुपये महीना अधिक देने पर ही ये त्रिवेदी, चतुर्वेदी आदि पूज्य लोग ब्राह्मण और शूद्र-दोनों का काम 'कम्बाइण्ड' तौर पर करते है। बेवकूफ उड़िया और बंगाली ब्राह्मण आज तक भी यह कार्य करने को राजी नहीं किये जा सके, किये जा सके तो सिर्फ ये ही। इसका कारण पहले ही कह चुका हूँ कि पैसा पाने पर सारे कुसंस्कारों को छोड़ने में 'हिन्दुस्तानी लोगों' को मुहूर्त-भर की भी देर नहीं लगती। मुर्गी पकाने के लिए चार-आठ आने महीने और अधिक देने पड़ते हैं; क्योंकि 'मूल्य के द्वारा सब कुछ शुद्ध हो जाता है-शास्त्र के इस वचनार्ध का यथार्थ तात्पर्य हृदयंगम करने तथा शास्त्रवाक्य में अविचलित श्रद्धा रखने में आज तक यदि कोई समर्थ हुए हैं तो यही हिन्दुस्तानी लोग- यह बात स्वीकार करनी ही होगी।

किन्तु, मनोहर बाबू के इस 'कम्बाइण्ड हैण्ड' को मैं किसलिए धमकी दूँ और वह भी क्यों मेरी धमकी सुनेगा, यह मैं नहीं समझ सका। और यह 'हैण्ड' भी मनोहर बाबू ने हाल ही रक्खा था। इतने दिन वे अपने कम्बाइण्ड 'हैण्ड' खुद ही थे, केवल 'डिसेण्ट्री' के खातिर कुछ दिनों के लिए इसे रख लिया था। मनोहर बाबू कहने लगे, "महाशय, आप क्या कोई साधारण आदमी हैं; शहर भर के लोग आपकी बात पर मरते जीते हैं- सो क्या आप समझते हैं मैं नहीं जानता? अधिक नहीं, एक सतर ही यदि आप लाट साहब को लिख दें तो उसे चौदह साल की जेल हो जाय, सो क्या मैंने नहीं सुना? लगा तो दीजिए बच्चू को अच्छी तरह डाँट।"

बात सुनकर मैं जैसे दिग्भ्रमित-सा हो गया। जिन लाट साहब का नाम तक मैंने नहीं सुना था उनको अधिक नहीं, एक ही सतर लिख देने से चौदह साल के कारावास की सम्भावना- मेरी इतनी बड़ी अद्भुत शक्ति की बात इतने बड़े सुचतुर व्यक्ति के मुँह से सुनकर मैं क्या कहूँ और क्या करूँ, सोच ही न सका। फिर भी उनके बारबार के आग्रह और जबर्दस्ती के मारे जब और गति नहीं रही तब उस 'कम्बाइण्ड हैण्ड' को डाँट बताने रसोई-घर में घुसा। देखा, वह अन्धकूप की तरह अंधेरा है।

वह आड़ में खड़ा हुआ अपने मालिक के मुँह से मेरी क्षमता की विरदावली सुन चुका था, इसलिए रुँआसा होकर हाथ जोड़कर बोला, "इस घर में 'देवता' हैं, यहाँ पर मैं किसी तरह भी नहीं रह सकता। तरह-तरह की 'छायाएँ' रात-दिन घर में घूमा करती हैं। बाबू यदि किसी और मकान में जाकर रहें तो मैं सहज ही उनकी नौकरी कर सकता हूँ; किन्तु, इस मकान में तो..."

भला ऐसे अंधेरे घर में 'छाया' का क्या अपराध! किन्तु, छाया ही नहीं, वहाँ एक बहुत बुरी सड़ांध भी, जब से मैं आया था तभी से, आ रही थी। पूछा, "यह दुर्गन्ध काहे की है रे?"

"कम्बाइण्ड हैण्ड' बोला, "कोई चूहा-ऊहा सड़ गया होगा।"

मैं चौंक पड़ा। "चूहा कैसा रे? इस घर में चूहे मरते हैं क्या?"

उसने हाथ को उलटाकर अवज्ञा के साथ बतलाया कि रोज सुबह कम-से-कम पाँच-छ: मरे चूहे तो वह खुद ही उठाकर बाहर गली में फेंक दिया करता है।

मिट्टी के तेल की डिब्बी जलाकर खोज की गयी, किन्तु, सड़े हुए चूहों का पता नहीं लगा। फिर भी मेरा शरीर सन्-सन् करने लगा और जी खोलकर उस आदमी को किसी तरह भी यह सदुपदेश न दे सका कि रुग्ण मालिक को अकेला छोड़कर उसे भाग जाना उचित नहीं है।

सोने के कमरे में लौटकर देखता हूँ, मनोहर बाबू खाट पर बैठे मेरी राह देख रहे हैं। मुझे पास में बैठाकर वे इस मकान के गुणों का बखान करने लगे; इतने कम किराए में शहर के बीच इतना अच्छा मकान और कोई नहीं, ऐसा मकान-मालिक भी कोई नहीं और न ऐसे पड़ोसी ही सहज में मिल सकते हैं। पास के मकान में जो चार-पाँच मद्रासी क्रिस्तान 'मेस' चलाते हैं, वे जितने ही शिष्ट और शान्त हैं उतने ही मायालु हैं। उन्होंने अपना यह इरादा भी बतला दिया कि जरा कुछ चंगे होते ही उस साले बाम्हन को निकाल बाहर करेंगे। फिर एकाएक बोले, "अच्छा महाशय, आप स्वप्न पर विश्वास करते हैं?"

मैं बोला, "नहीं।"

वे बोले, "मैं भी नहीं करता; किन्तु, कैसे अचरज की बात है महाशय, कल, रात को मैंने स्वप्न देखा कि मैं सीढ़ी पर से गिर पड़ा हूँ और जागकर देखा तो दाहिने पैर का कूल्हा सूज आया है। सच-झूठ आप मेरे शरीर पर हाथ धरकर देखिए महाशय, तकलीफ से ज्वर तक हो आया है।"

सुनने-मात्र से मेरा मुँह काला पड़ गया। इसके बाद कूल्हा भी देखा और शरीर पर हाथ रखकर ज्वर भी।

मिनट-भर मूढ़ की तरह बैठे रहने के बाद अन्त में बोला, "डॉक्टर को अब तक आपने क्यों नहीं बुला भेजा? अब किसी को जल्दी भेजिए।"

वे बोले, "महाशय, यह देश! यहाँ पर डॉक्टर की फीस भी तो कम नहीं है। उसे लाए नहीं कि चार-पाँच रुपये यों ही चले जाँयगे! सिवाय इसके फिर दवाई के दाम! क़रीब दो रुपये की दच्च इस तरह और लग जायेगी।"

मैंने कहा, सो लगने दीजिए, बुलाने भेजिए।"

"कौन जायेगा महाशय? तिवारी साला तो चीन्हता भी नहीं है। सिवाय इसके वह चला जायेगा तो खाना कौन पकाएगा?"

"अच्छा, मैं ही जाता हूँ," कहकर डॉक्टर को बुलाने बाहर चल दिया।

डॉक्टर ने आकर और परीक्षा करके आड़ में ले जाकर पूछा, "ये आपके कौन होते हैं?"

मैंने कहा, "कोई नहीं," और किस तरह सुबह यहाँ आ पड़ा सो भी मैंने खोलकर कह दिया।

डॉक्टर ने प्रश्न किया, "इनका और भी कोई कुटुम्बी यहाँ पर है क्या?"

मैंने कहा, "सो मुझे नहीं मालूम। शायद कोई नहीं है।"

डॉक्टर क्षण-भर मौन रहकर बोले, "मैं एक दवा लिखकर दिए जाता हूँ। सिर पर बरफ रखने की भी ज़रूरत है; किन्तु सबसे बड़ी ज़रूरत इस बात की है कि इन्हें प्लेग-हॉस्पिटल में पहुँचा दिया जाय। आप खुद भी इस मकान में न ठहरिए। और देखिए, मुझे फीस देने की ज़रूरत नहीं है।"

डॉक्टर चले गये। बड़े संकोच के साथ मैंने अस्पताल का प्रस्ताव किया। सुनते ही मनोहर रोने लगे और 'वहाँ पर ज़हर देकर रोगी मार डाले जाते हैं, और वहाँ जाकर कोई लौटकर नहीं आता!" इस तरह बहुत कुछ बक गये।

दवाई लाने भेजने के लिए तिवारी को खोजता हूँ तो देखा कि "कम्बाइण्ड हैण्ड' अपना लोटा-कम्बल लेकर इस बीच ही न मालूम कब खिसक गया है। जान पड़ता है, उसने डॉक्टर के साथ मेरी बातचीत किवाड़ की सन्धि में से सुन ली थी। हिन्दुस्तानी और चाहे कुछ न समझें किन्तु 'पिलेग' शब्द को खूब समझते हैं!

तब मुझे ही औषधि लेने जाना पड़ा। बरफ, आईसबैग आदि जो कुछ आवश्यक था सब मैंने ही ख़रीद लाकर हाजिर कर दिया। इसके बाद रह गया मैं और वे- वे और मैं। एक दफे मैं उनके सिर पर आइसबैग रखता था और एक दफे वे मेरे सिर पर रखते थे। इसी तरह उठा-धरी करते-करते जब क़रीब दो बज गये तब उन्होंने निस्तेज होकर शय्या ग्रहण कर ली। बीच-बीच में वे खूब होश-हवास की भी बात करते थे। शाम के लगभग क्षण-भर के लिए सचेतन से होकर मेरे मुँह की ओर देखकर बोले, "श्रीकान्त बाबू, अब मैं न बचूँगा।"

मैं चुप हो रहा। इसके बाद बड़ी कोशिश करके कमर में से उन्होंने चाबी निकाली और उसे मेरे हाथ में देकर कहा, "मेरे ट्रंक में तीन सौ गन्नियाँ रक्खी हैं-मेरी स्त्री को भेज देना। पता मेरे बॉक्स में लिखा रक्खा है जो खोजने से मिल जायेगा।"

मुझे एकमात्र हिम्मत थी पास के 'मैस' की। वहाँ की आहट, धीमा कण्ठस्वर, मैं सुन सकता था। संध्याम के बाद एक दफे कुछ अधिक उठा-धरी और गोलमाल सुन पड़ा। कुछ देर बाद ही जान पड़ा कि वे लोग दरवाज़े में ताला लगाकर कहीं जा रहे हैं। बाहर आकर देखा, सचमुच दरवाज़े में ताला लटक रहा है। मैंने समझा, वे लोग घूमने गये हैं, कुछ देर बाद ही लौट आयँगे। किन्तु फिर भी न जाने क्यों मेरा जी और भी ख़राब हो गया।

इधर वह रुग्ण आदमी उत्तरोत्तर जो-जो चेष्टाएँ करने लगा, उनके सम्बन्ध में इतना ही कह सकता हूँ कि वह अकेले बैठकर मजा लेने जैसी वस्तु नहीं थी। उधर रात के बारह बजने को हुए; किन्तु न तो पास के कमरे के खुलने की आहट ही मिली और न कोई शब्द ही सुनाई दिया। बीच-बीच में बाहर आकर देख जाता था- ताला उसी तरह लटक रहा है। एकाएक नजर पड़ी कि लकड़ी की दीवाल की एक सन्धि में से उस कमरे का तीव्र प्रकाश इस कमरे में आ रहा है। कुतूहल के वश होकर छिद्र पर ऑंख लगाकर उस तीव्र प्रकाश के कारण का पता लगाया, तो उससे मेरे सर्वांग का रक्त जमकर बरफ हो गया। सामने खाट पर दो जवान आदमी पास ही पास तकिये पर सिर रक्खे सो रहे हैं और उनके सिराने खाट के बगल में मोमबत्तियों की एक कतार जल-जलकर प्राय: समाप्त होने को आ गयी है। मुझे पहले से ही मालूम था कि रोमन कैथोलिक लोग मुर्दे के सिराने रोशनी जला देते हैं, अतएव, ऐसे हृष्टपुष्ट सबल शरीर लोगों की इस असमय की नींद का जो कारण था वह सब मुहूर्त मात्र में समझ में आ गया और मैं जान गया कि अब उन दोनों की नींद हज़ार चिल्लाने पर भी नहीं टूटेगी। इधर इस कमरे में भी हमारे मनोहर बाबू क़रीब दो घण्टे और छटपटाने के बाद सो गये! चलो, जान बची।

किन्तु, मजा यह कि जिन्होंने मुझे उस दिन बहुत-सा उपदेश दिया था कि जान-पहिचान के किसी भी आदमी की बीमारी की खबर पाकर उस मुहल्ले में पैर भी न रखना चाहिए, उन्हीं के मुदकी और गिन्नियों के बॉक्स की रखवाली करने के लिए भगवान ने मुझे नियुक्त कर दिया! नियुक्त तो कर दिया, किन्तु बाकी रात मेरी जिस तरह कटी, सो लिखकर बतलाना न तो सम्भव है और न बतलाने की प्रवृत्ति ही होती है। फिर भी, इस पर कोई पाठक अविश्वास न करेगा कि वह, मोटे तौर पर, भली तरह नहीं कटी।

दूसरे दिन 'डेथ सर्टिफिकेट' लेने, पुलिस को बुलाने, तार देने, गिन्नियों का इन्तज़ाम करने और मुर्दे को बिदा करने में तीन बज गये। खैर, मनोहर तो ठेलागाड़ी पर चढ़कर शायद स्वर्ग की ओर रवाना हो गये- रहा मैं, सो मैं अपने डेरे पर लौट आया। पिछले दिन तो एकादशी की ही थी- आज भी शाम हो गयी। डेरे पर लौटने पर जान पड़ा कि जैसे दाहिने कान की जड़ में सूजन आ गयी है और दर्द हो रहा है। क्या जाने, सारी रात हाथ से छेड़-छेड़कर मैंने खुद ही दर्द पैदा कर लिया है अथवा सचमुच ही गिन्नियों का हिसाब देने मुझे भी स्वर्ग जाना पड़ेगा! एकाएक कुछ नहीं समझ सका। किन्तु यह समझने में देर नहीं लगी कि बाद में चाहे जो हो, फिलहाल तो होश-हवास दुरुस्त रहने की हालत में अपनी सब व्यवस्था खुद ही कर रखनी होगी। क्योंकि मनोहर की तरह आईस बैग लेकर उठा-धरी करना न तो ठीक ही मालूम देता है और न सुन्दर। निश्चय करते मुझे देर न लगी। क्योंकि, पल-भर में ही मैंने देख लिया कि इतने बड़े बुरे रोग का भार यदि मैं किसी पुण्यात्मा साधु पुरुष के ऊपर डालने जाऊँगा तो निश्चय ही बड़ा भारी पाप होगा। किसी भले आदमी को हैरान करना कर्त्तव्य भी नहीं है-अशास्त्रीय है! इसलिए उसकी ज़रूरत नहीं। बल्कि, इस रंगून के एक कोने में अभया नाम की जो एक महापापिष्ठा पतिता नारी रहती है- एक दिन जिसे घृणा करके छोड़ आया हूँ, उसी के कन्धों पर अपनी इस संघातिक बीमारी का गन्दा बोझ घृणा के साथ डाल देना चाहिए- मरना ही है तो वहीं मरूँ। शायद, इससे कुछ पुण्य-संचय भी हो जाय, यही सोचकर मैंने नौकर को गाड़ी लाने का हुक्म दे दिया।

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उस दिन जब मृत्यु का परवाना हाथ में लेकर मैं अभया के द्वार पर जा खड़ा हुआ, तब मुझे मरने की अपेक्षा मरने की लाज ने ही अधिक भय दिखाया। अभया का मुँह फक् सफेद पड़ गया। किन्तु, उसके सफेद होठों से केवल यही शब्द फूटकर बाहर निकले, "तुम्हारा दायित्व मैं न लूँगी तो और कौन लेगा? यहाँ तुम्हारी मुझसे बढ़कर और किसे गरज है?" दोनों ऑंखों में पानी भर आया, फिर भी मैंने कहा, मैं तो बस चल दिया। रास्ते का कष्ट मुझे उठाना ही होगा, उसे निवारण करने की शक्ति किसी में भी नहीं है। किन्तु जाते समय तुम्हारी इस नयी घर-गिरस्ती के बीच इतनी बड़ी विपत्ति डालने का अब किसी तरह भी मन नहीं होता। अभया, अभी गाड़ी खड़ी है, होश-हवास दुरुस्त हैं- अब भी अच्छी तरह प्लेग-हॉस्पिटल तक जा सकता हूँ। तुम केवल मुहूर्त-भर के लिए जी कड़ा करके कह दो, "अच्छा जाओ।" अभया ने कोई उत्तर दिये बिना हाथ पकड़ लिया और मुझे बिछौने में ले जाकर सुला दिया। अब, उसने अपने ऑंसू पोंछे और मेरे उत्तप्त ललाट पर धीरे-धीरे हाथ फेरते हुए कहा, "यदि तुमसे 'जाओ' कह सकती, तो नये सिरे से यह घर-गिरस्ती क़ायम न करती आज से मेरी नयी गिरस्ती सचमुच की गिरस्ती हुई।"

किन्तु, बहुत सम्भव है कि वह प्लेग नहीं था। इसीलिए, मृत्यु केवल जरा-सा परिहास करके ही चली गयी। दसेक दिन में मैं उठ खड़ा हुआ। किन्तु, अभया ने फिर मुझे होटल के डेरे में नहीं लौटने दिया।

ऑफिस जाऊँ या और भी कुछ दिन छुट्टी लेकर विश्राम करूँ, यह सोच ही रहा था कि एक दिन ऑफिस का चपरासी एक चिट्ठी दे गया। खोलकर देखी तो प्यारी की चिट्ठी है। बर्मा आने के बाद उसका यही एक पत्र मिला। जवाब न मिलने पर भी मैं कभी-कभी उसे पत्र लिख दिया करता था- आते समय यही शर्त मुझसे उसने करा ली थी। पत्र के प्रारम्भ में ही इसका उल्लेख करके उसने लिखा था, "मेरे मरने की खबर तो तुम ज़रूर पाओगे। जीते-जी मेरा ऐसा कोई समाचार ही नहीं हो सकता जिसे जाने बिना तुम्हारा काम न चले। लेकिन, मेरे लिए तो ऐसा नहीं है। मेरे सारे प्राण तो मानो विदेश में ही निरन्तर पड़े रहते हैं। यह बात इतनी अधिक सत्य है कि तुम भी इस पर विश्वास किये बगैर नहीं रह सकते। इसीलिए उत्तर न पाने पर भी बीच-बीच में तुम्हें चिट्ठी देकर बतलाना पड़ता है कि तुम वहाँ अच्छी तरह हो।

"मैं इस महीने के भीतर ही बंकू का विवाह कर देना चाहती हूँ। तुम अपनी सम्मति लिखना। तुम्हारी इस बात को मैं अस्वीकार नहीं करती कि कुटुम्ब के भरण-पोषण की शक्ति हुए बगैर विवाह होना उचित नहीं है। बंकू में अभी तक यह क्षमता नहीं आई; फिर भी, क्यों मैं इसके लिए तुम्हारी सम्मति चाहती हूँ सो मुझे और एक बार अपनी ऑंखों देखे वगैर तुम नहीं समझोगे। जैसे भी बने यहाँ आ जाओ। तुम्हें मेरे सर की कसम है।"

पत्र के पिछले हिस्से में अभया की बात थी। अभया ने जब लौट आकर कहा था कि जिसे मैं चाहती हूँ- प्रेम करती हूँ, उसकी गिरस्ती बसाने के लिए मैं एक पशु का त्याग करके चली आई हूँ, और इसी विषय को लेकर सामाजिक रीति-नीति के सम्बन्ध में स्पर्धा के साथ उसने बहस की थी तब उससे मैं इतना विचलित हो उठा था कि प्यारी को बहुत-सी बातें लिख डाली थीं। आज उन्हीं का प्रत्युत्तर उसने दिया है-

"तुम्हारे मुँह से यदि वे मेरा नाम सुन चुकी हो तो अनुरोध है कि तुम उनसे एक बार मिलना और कहना कि राजलक्ष्मी ने तुम्हें सहस्र-कोटि नमस्कार लिखे हैं। उम्र में वे मुझसे छोटी हैं या बड़ी सो मैं नहीं जानती, जानना ज़रूरी भी नहीं है, वे केवल अपनी तेजस्विता के कारण ही मेरे समान स्त्री के द्वारा वन्दनीय हैं। आज मुझे अपने गुरुदेव के श्रीमुख की कुछ बातें बार-बार याद आती हैं। मेरे काशी के मकान में दीक्षा की सब तैयारियाँ हो गयी हैं, गुरुदेव आसन ग्रहण करके स्तब्ध भाव से कुछ सोच रहे हैं। मैं आड़ में खड़ी बहुत देर तक उनके प्रसन्न मुख की ओर एकटक देख रही हूँ। एकाएक भय के मारे मेरी छाती के भीतर उथल-पुथल मच गयी। उनके पैरों के पास औंधे पड़कर मैंने रोते हुए, 'बाबा, मैं मन्त्र नहीं लूँगी।" वे विस्मित होकर मेरे सिर पर अपना दाहिना हाथ रखकर बोले, "क्यों न लोगी?'

"मैंने कहा, 'मैं महापापिष्ठा हूँ।'

"उन्होंने बीच में ही रोककर कहा; 'ऐसा है, तब तो मन्त्र लेने की और भी अधिक ज़रूरत है बेटी।'

"रोते-रोते मैंने कहा, 'लाज के मारे मैंने अपना सच्चा परिचय नहीं दिया है, देती तो आप इस मकान की चौखट भी लाँघना पसन्द नहीं करते।'

"गुरुदेव मुस्कु'राकर बोले, 'नहीं, तो भी मैं लाँघता, और दीक्षा देता। प्यारी के मकान में भले ही न आता; किन्तु अपनी राजलक्ष्मी बेटी के मकान में क्यों न आऊँगा बेटी?'

"मैं चौंककर स्तब्ध हो गयी। कुछ देर चुप रहकर बोली, 'किन्तु, मेरी माँ के गुरु ने तो कहा था कि मुझे दीक्षा देने से पतित होना पड़ेगा- सो बात क्या सच नहीं थी?'

"गुरुदेव हँसे। बोले, 'सच थी इसलिए तो वे दे नहीं सके बेटी। किन्तु, जिसे वह भय नहीं है, वह क्यों नहीं देगा?'

"मैंने कहा, "भय क्यों नहीं हैं?"

"वे फिर हँसकर बोले, 'एक ही मकान में जो रोग के कीटाणु एक आदमी को मार डालते हैं, वे ही कीटाणु दूसरे आदमी को स्पर्श तक नहीं करते- बतला सकती हो क्यों?'

"मैंने कहा, 'शायद स्पर्श तो करते हैं, किन्तु, जो लोग सबल हैं वे बच जाते हैं; जो दुर्बल होते हैं वे मारे जाते हैं।'

"गुरुदेव ने मेरे सिर पर पुन: अपना हाथ रखकर कहा, 'इस बात को किसी दिन भी मत भूलना बेटी। जो अपराध एक आदमी को मिट्टी में मिला देता है, उसी अपराध में से दूसरा आदमी स्वच्छन्दता से पार हो जाता है। इसलिए सारे विधि-निषेध सभी को एक डोरी में नहीं बाँध सकते।"'

"संकोच के साथ मैंने धीरे से पूछा, 'जो अन्याय है, जो अधर्म है, वह क्या सबल और दुर्बल दोनों के निकट समान रूप से अन्याय-अधर्म नहीं है? यदि नहीं है, तो यह क्या अविचार नहीं है?"

"गुरुदेव बोले, "नहीं बेटी, बाहर से चाहे जैसा दीखे, उनका फल समान नहीं है। यदि ऐसा होता तो संसार में सबल-दुर्बल में कोई अधिक भेद ही नहीं रहता। जो विष पाँच वर्ष के बच्चे के लिए घातक है, वही विष यदि इकतीस वर्ष के मनुष्य को न मार सके तो दोष किसे दोगी बेटी? किन्तु, यदि आज तुम मेरी बात पूरी तरह न समझ सको, तो, कम-से-कम इतना ज़रूर याद रखना कि जिन लोगों के भीतर आग जल रही है और जिनमें केवल राख ही इकट्ठी होकर रह गयी है- उनके कर्मों का वजन एक ही बाट से नहीं किया जा सकता। यदि किया जाए, तो ग़लती होगी।"

"श्रीकान्त भइया, तुम्हारी चिट्ठी पढ़कर आज मुझे अपने गुरुदेव की वही भीतर की आग वाली बात याद आ रही है। अभया को नजर से देखा नहीं है, फिर भी ऐसा लगता है कि उनके भीतर जो आग जल रही है उसकी ज्वाला का आभास चिट्ठी के भीतर से भी जैसे मैं पा रही हूँ। उनके कर्मों का विचार जरा सावधानी से करना। मेरे जैसी साधारण स्त्री के बटखरे लेकर उनके पाप-पुण्य का वजन करने न बैठ जाना।"

चिट्ठी को अभया के हाथ में देकर कहा, "राजलक्ष्मी ने तुम्हें शत-सहस्र नमस्कार लिखा है, यह लो।"

अभया, जो कुछ लिखा था उसे दो-तीन बार पढ़कर और किसी तरह पत्र को मेरे बिछौने पर डालकर, तेजी से बाहर चली गयी। दुनिया की नजरों में उसका जो नारीत्व आज लांछित और अपमानित हो रहा है, उसी के ऊपर शत योजना दूर से एक अपरिचिता नारी ने सम्मान की पुष्पांजलि अर्पण की है, उसी की अपरि सीमा आनन्द-वेदना को वह एक पुरुष की दृष्टि से बचाकर चटपट आड़ में ले गयी।

क़रीब आधा घण्टे बाद अभया अच्छी तरह मुँह-ऑंखें धोकर लौट आई और बोली, "श्रीकान्त भइया..."

मैंने रोककर कहा, "अरे यह क्या! 'भइया' कब से हो गया?"

"आज से ही।"

"नहीं नहीं, 'भइया' नहीं। तुम सब लोक मिलकर सभी ओर से मेरा रास्ता बन्द न कर देना!"

अभया ने हँसकर कहा, "मालूम होता है, मन ही मन कोई मतलब गाँठ रहे हो, क्यों?"

"क्यों, क्या मैं आदमी नहीं हूँ?"

अभया बोली, "बेढब आदमी दीखते हो। बेचारे रोहिणी बाबू ने बीमारी के समय आसरा दिया; अब चंगे होकर, जान पड़ता है, उन्हें यही पुरस्कार देना निश्चय किया है। किन्तु, मेरी बड़ी भूल हो गयी। उस समय बीमारी का एक तार दे देती, तो आज उन्हें देख लेती।"

मैंने गर्दन हिलाकर कहा, "आश्चर्य नहीं कि वह आ जाती।"

अभया क्षण-भर स्थिर रहकर बोली, "तुम एकाध महीने की छुट्टी लेकर एक बार चले जाओ, श्रीकान्त भइया। मुझे जान पड़ता है, तुम्हारी उन्हें बड़ी ज़रूरत हो रही है।"

न जाने कैसे खुद भी मैं इस बात को समझ रहा था कि मेरी उसे बड़ी ज़रूरत है। दूसरे ही दिन ऑफिस को चिट्ठी लिखकर मैंने और एक महीने की छुट्ठी ले ली और आगामी मेल से यात्रा करने के विचार से टिकट ख़रीदने के लिए आदमी भेज दिया।

जाते समय अभया ने नमस्कार करके कहा, "श्रीकान्त भइया, एक वचन दो।"

"क्या वचन दूँ बहिन?"

"पुरुष संसार की सभी समस्याओं की मीमांसा नहीं कर सकते। यदि कहीं अटको तो चिट्ठी लिखकर मेरी राय ज़रूर ले लोगे, बोलो?"

मैं स्वीकार करके जहाज-घाट जाने के लिए गाड़ी पर जा बैठा। अभया ने गाड़ी के दरवाज़े के निकट खड़े होकर और एक दफे नमस्कार किया; बोली, "रोहिणी बाबू के द्वारा मैंने कल ही वहाँ टेलीग्राम करा दिया है। किन्तु, जहाज़ पर कुछ दिन अपने शरीर की ओर जरा नजर रखना श्रीकान्त भइया, इसके सिवाय मैं तुमसे और कुछ नहीं चाहती।"

'अच्छा' कहकर मैंने मुँह उठाकर देखा कि अभया की ऑंखों की दोनों पुतलियाँ पानी में तैर रही हैं।

श्रीकांत उपन्यास
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टीका टिप्पणी और संदर्भ

बाहरी कड़ियाँ

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