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==चापेकर बंधुओं का बलिदान==
==चापेकर बंधुओं का बलिदान==
अदालत में चापेकर बंधुओं पर एक और साथी के साथ अभियोग चलाया गया और सारा भेद खुल गया। एक दिन जब अदालत में चापेकर बंधुओं की पेशी हो रही थी तो उनके तीसरे भाई वासुदेव चापेकर ने वहीं पर उस सरकारी गवाह को मार दिया, जिसने दामोदर और बालकृष्ण को पकड़वाया था। अंत में तीनों चापेकर बन्धु भाइयों को एक और साथी के साथ फांसी की सजा सुनाई गई। दामोदर हरि चापेकर को [[18 अप्रैल]], [[1898]] को यरवदा जेल में फांसी दी गई। उसके बाद बालकृष्ण को [[9 फ़रवरी]], [[1899]] को और वासुदेव को [[8 मई]], [[1899]] को फांसी दी गई। इस तरह तीनों '[[चापेकर बन्धु]]' शहीद हो गए।
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07:27, 6 अप्रैल 2018 का अवतरण

वासुदेव चापेकर
वासुदेव चापेकर
वासुदेव चापेकर
पूरा नाम वासुदेव चापेकर
जन्म 1880
जन्म भूमि कोंकण,
मृत्यु 8 मई, 1899
अभिभावक पिता- हरिपंत चापेकर
नागरिकता भारतीय
प्रसिद्धि स्वतंत्रता सेनानी
संबंधित लेख चापेकर बन्धु, दामोदर हरी चापेकर, बालकृष्ण चापेकर
अन्य जानकारी वासुदेव चापेकर के भाई दामोदर हरी चापेकर और बालकृष्ण चापेकर भी अपनी शहादत देकर भारतीय इतिहास में अपनी अमिट छाप छोड़ गए हैं। ये तीनों भाई 'चापेकर बन्धु' नाम से प्रसिद्ध हैं।

वासुदेव चापेकर (अंग्रेज़ी: Vasudeo Chapekar, जन्म- 1880; शहादत- 8 मई, 1899) भारतीय क्रांतिकारी थे। उनके भाई दामोदर हरी चापेकर और बालकृष्ण चापेकर भी अपनी शहादत देकर भारतीय इतिहास में अपनी अमिट छाप छोड़ गए हैं। ये तीनों भाई 'चापेकर बन्धु' नाम से प्रसिद्ध हैं।

परिचय

वासुदेव चापेकर का जन्म 1880 में कोंकण में चित्पावन ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उन्होंने मराठी भाषा के माध्यम से शिक्षा ली। समय के साथ वह पुणे में चिंचवड में बस गए। पिता हरिपंत चापेकर ने हरिनाथ को पुणे और मुंबई में बताया। बचपन में तीनों भाइयों ने पिता की मदद करने के लिए हरि कीर्तन की मदद की। इसने चापकेकर भाइयों की शिक्षाओं में विभाजन किया।

क्रांतिकारी शुरुआत

वासुदेव चापकर ने अपने भाइयों, दामोदर चापेकर और बालकृष्ण चापकर के साथ राजनीति और क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लिया। उन्होंने हथियारों के साथ भारतीय युवाओं को प्रशिक्षण दिया। पुणे में राजनीतिक विकास से प्रेरित होकर ये भाई क्रांतिकारी आंदोलन में आ गए। अंग्रेज़ों के ब्रिटिश क़ानून की पुरानी सहमति के लिए अंग्रेज़ों का एक मजबूत विरोध था। बाल गंगाधर तिलक ने अंग्रेज़ों के खिलाफ केसरी पर हमला किया, जिन्होंने भारतीय संस्कृति में हस्तक्षेप किया।

'चापेकर बंधु' (दामोदर हरी चापेकर, बालकृष्ण चापेकर तथा वासुदेव चापेकर) तिलक जी को गुरुवत सम्मान देते थे। सन 1897 का साल था, पुणे नगर प्लेग जैसी भयंकर बीमारी से पीड़ित था। अभी अन्य पाश्चात्य वस्तुओं की भांति भारत के गाँव में प्लेग का प्रचार नहीं हुआ था। पुणे में प्लेग फैलने पर सरकार की और से जब लोगों को घर छोड़ कर बाहर चले जाने की आज्ञा हुई तो उनमें बड़ी अशांति पैदा हो गई। उधर शिवाजी जयंती तथा गणेश पूजा आदि उत्सवों के कारण सरकार की वहां के हिन्दुओं पर अच्छी निगाह थी। वे दिन आजकल के समान नहीं थे। उस समय तो स्वराज्य तथा सुधार का नाम लेना भी अपराध समझा जाता था। लोगों के मकान न खाली करने पर सरकार को उन्हें दबाने का अच्छा अवसर हाथ आ गया। प्लेग कमिश्नर मि. रेन्ड की ओट लेकर कार्यकर्ताओं द्वारा खूब अत्याचार होने लगे। चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गई और सारे महाराष्ट्र में असंतोष के बादल छा गए। इसकी बाल गंगाधर तिलक व आगरकर जी ने बहुत कड़ी आलोचना की, जिससे उन्हें जेल में डाल दिया गया।

गवर्नमेन्ट हाउस, पूना में महारानी विक्टोरिया का 60वाँ राजदरबार बड़े समारोह के साथ मनाया गया। जिस समय मि. रेन्ड अपने एक मित्र के साथ उत्सव से वापस आ रहा था, इसी मौके का फायदा उठाकर दामोदर हरी चापेकर और बालकृष्ण चापेकर ने देखते-देखते रेन्ड को गोली मार दी, जिससे रेन्ड ज़मीन पर आ गिरा। उसका मित्र अभी बच निकलने का मार्ग ही तलाश रहा था कि एक और गोली ने उसका भी काम तमाम कर दिया। चारों ओर हल्ला मच गया और चापेकर बंधु उसी स्थान पर गिरफ्तार कर लिए गए। यह घटना 22 जून, 1897 को घटी।

चापेकर बंधुओं का बलिदान

अदालत में चापेकर बंधुओं पर एक और साथी के साथ अभियोग चलाया गया और सारा भेद खुल गया। एक दिन जब अदालत में चापेकर बंधुओं की पेशी हो रही थी तो उनके तीसरे भाई वासुदेव चापेकर ने वहीं पर उस सरकारी गवाह को मार दिया, जिसने दामोदर और बालकृष्ण को पकड़वाया था। अंत में तीनों चापेकर बन्धु भाइयों को एक और साथी के साथ फांसी की सजा सुनाई गई। दामोदर हरि चापेकर को 18 अप्रैल, 1898 को यरवदा जेल में फांसी दी गई। उसके बाद बालकृष्ण को 9 फ़रवरी, 1899 को और वासुदेव को 8 मई, 1899 को फांसी दी गई। इस तरह तीनों 'चापेकर बन्धु' शहीद हो गए।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

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