"ज़िन्दाँ रानी": अवतरणों में अंतर
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==ऐतिहासिक परिचय== | ==ऐतिहासिक परिचय== | ||
1843 ई. में जब दलीप सिंह गद्दी पर बैठा तो वह नाबालिग था, अतएव ज़िन्दाँ रानी उसकी संरक्षिका बनी। परन्तु वह इस पद भार को सम्भाल नहीं सकी और 1845 ई. में प्रथम सिखयुद्ध छिड़ गया। जब 1846 ई. में [[लाहौर]] की संधि के द्वारा प्रथम सिखयुद्ध समाप्त हुआ तो ज़िन्दाँ रानी दलीप सिंह की संरक्षिका बनी रही। परन्तु उसकी गतिविधियों के कारण ब्रिटिश सरकार उसे संदेह की दृष्टि से देखने लगी और 1848 ई. में षड्यंत्र रचने के अभियोग में उसे लाहौर से हटा दिया गया। द्वितीय सिखयुद्ध (1849 ई.) जिन कारणों से छिड़ा, उनमें एक कारण यह भी था। इस युद्ध में भी सिखों की हार हुई। युद्ध की समाप्ति पर दलीप सिंह को गद्दी से उतार दिया गया। [[लाहौर]] का राजप्रबंध अंग्रेज़ी सरकार के हाथ आने पर कुछ ग़लतफहमी के कारण इस महारानी को सरकार ने लाहौर ले जाकर पहले शेखूपुरा में नज़रबंद रखा, फिर [[19 अगस्त]] 1849 को [[चुनार]] ([[उत्तर प्रदेश]], [[मिर्जापुर ज़िला|ज़िला मिर्जापुर]]) के खुंटे में क़ैद किया। यहाँ से यह फ़कीरी वेश में क़ैद से निकल कर [[नेपाल]] चली गई और वहाँ सम्मान सहित रही। 1861 में महारानी जिन्दकौर अपने बेटों के दर्शन के लिए [[इंग्लैंड]] गयीं थीं। वहाँ [[1 अगस्त]] 1863 को [[लंदन]] में इनका देहांत हुआ था तब ये 46 [[वर्ष]] की उम्र की थीं। इनकी शव का दाह हिंदुस्तान के [[बम्बई]] अहाते के [[नासिक]] नगर में किया गया था। | 1843 ई. में जब दलीप सिंह गद्दी पर बैठा तो वह नाबालिग था, अतएव ज़िन्दाँ रानी उसकी संरक्षिका बनी। परन्तु वह इस पद भार को सम्भाल नहीं सकी और 1845 ई. में प्रथम सिखयुद्ध छिड़ गया। जब 1846 ई. में [[लाहौर]] की संधि के द्वारा प्रथम सिखयुद्ध समाप्त हुआ तो ज़िन्दाँ रानी दलीप सिंह की संरक्षिका बनी रही। परन्तु उसकी गतिविधियों के कारण ब्रिटिश सरकार उसे संदेह की दृष्टि से देखने लगी और 1848 ई. में षड्यंत्र रचने के अभियोग में उसे लाहौर से हटा दिया गया। द्वितीय सिखयुद्ध (1849 ई.) जिन कारणों से छिड़ा, उनमें एक कारण यह भी था। इस युद्ध में भी सिखों की हार हुई। युद्ध की समाप्ति पर दलीप सिंह को गद्दी से उतार दिया गया। [[लाहौर]] का राजप्रबंध अंग्रेज़ी सरकार के हाथ आने पर कुछ ग़लतफहमी के कारण इस महारानी को सरकार ने लाहौर ले जाकर पहले शेखूपुरा में नज़रबंद रखा, फिर [[19 अगस्त]] 1849 को [[चुनार]] ([[उत्तर प्रदेश]], [[मिर्जापुर ज़िला|ज़िला मिर्जापुर]]) के खुंटे में क़ैद किया। यहाँ से यह फ़कीरी वेश में क़ैद से निकल कर [[नेपाल]] चली गई और वहाँ सम्मान सहित रही। 1861 में महारानी जिन्दकौर अपने बेटों के दर्शन के लिए [[इंग्लैंड]] गयीं थीं। वहाँ [[1 अगस्त]] 1863 को [[लंदन]] में इनका देहांत हुआ था तब ये 46 [[वर्ष]] की उम्र की थीं। इनकी शव का दाह हिंदुस्तान के [[बम्बई]] अहाते के [[नासिक]] नगर में किया गया था। | ||
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ज़िन्दाँ रानी
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पूरा नाम | महारानी ज़िन्दाँ |
अन्य नाम | ज़िन्द कौर |
जन्म | 1817 ई. |
मृत्यु | 1 अगस्त, 1863 ई. |
मृत्यु स्थान | लंदन |
अभिभावक | पिता- सरदार मन्ना सिंह औलख जाट |
पति/पत्नी | रणजीत सिंह |
संतान | पुत्र- दलीप सिंह |
कर्म भूमि | पंजाब |
नागरिकता | भारतीय |
ज़िन्दाँ रानी पिंड चॉढ (सियालकोट, तसील जफरवाल) निवासी सरदार मन्ना सिंह औलख जाट की पुत्री थी। ज़िन्दाँ रानी पंजाब के महाराज रणजीत सिंह की पाँचवी रानी तथा उनके सबसे छोटे बेटे दलीप सिंह की माँ थीं।
ऐतिहासिक परिचय
1843 ई. में जब दलीप सिंह गद्दी पर बैठा तो वह नाबालिग था, अतएव ज़िन्दाँ रानी उसकी संरक्षिका बनी। परन्तु वह इस पद भार को सम्भाल नहीं सकी और 1845 ई. में प्रथम सिखयुद्ध छिड़ गया। जब 1846 ई. में लाहौर की संधि के द्वारा प्रथम सिखयुद्ध समाप्त हुआ तो ज़िन्दाँ रानी दलीप सिंह की संरक्षिका बनी रही। परन्तु उसकी गतिविधियों के कारण ब्रिटिश सरकार उसे संदेह की दृष्टि से देखने लगी और 1848 ई. में षड्यंत्र रचने के अभियोग में उसे लाहौर से हटा दिया गया। द्वितीय सिखयुद्ध (1849 ई.) जिन कारणों से छिड़ा, उनमें एक कारण यह भी था। इस युद्ध में भी सिखों की हार हुई। युद्ध की समाप्ति पर दलीप सिंह को गद्दी से उतार दिया गया। लाहौर का राजप्रबंध अंग्रेज़ी सरकार के हाथ आने पर कुछ ग़लतफहमी के कारण इस महारानी को सरकार ने लाहौर ले जाकर पहले शेखूपुरा में नज़रबंद रखा, फिर 19 अगस्त 1849 को चुनार (उत्तर प्रदेश, ज़िला मिर्जापुर) के खुंटे में क़ैद किया। यहाँ से यह फ़कीरी वेश में क़ैद से निकल कर नेपाल चली गई और वहाँ सम्मान सहित रही। 1861 में महारानी जिन्दकौर अपने बेटों के दर्शन के लिए इंग्लैंड गयीं थीं। वहाँ 1 अगस्त 1863 को लंदन में इनका देहांत हुआ था तब ये 46 वर्ष की उम्र की थीं। इनकी शव का दाह हिंदुस्तान के बम्बई अहाते के नासिक नगर में किया गया था।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- पुस्तक 'भारतीय इतिहास कोश' पृष्ठ संख्या-170