"भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-80": अवतरणों में अंतर

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इसके लिए हमें क्या करना होगा, तो कहते हैं : तत्- इसलिए।  
इसके लिए हमें क्या करना होगा, तो कहते हैं : तत्- इसलिए।  
कर्म-संकल्प-विकल्पकं मनः- जिसके संकल्प-विकल्प के कारण कर्म होते हैं, उस मन का। बुधो निरुंध्यात्- बुधजन निरोध करें। मन में अनेक प्रकार के संकल्प और विकल्प आते हैं। उन भले-बुरे संकल्प-विकल्पों के वश होकर मनुष्य भले-बुरे काम कर बैठता है। तो, जिस मन में ये सारी चीजें आती हैं, उसी का निरोध करें। यह मन ही अनेक प्रकार के भेद पैदा करता है। इसलिए मन को ही काबू में रख लें। प्रायः लोग कहते हैं कि हम अपने मन के मुताबिक काम करेंगे। एक मित्र दूसरे मित्र से कहा करता है कि ‘मैं तेरी नहीं मानूँगा, अपने मन के अनुसार चलूँगा।’ यानी अपने मित्र की नहीं, अपने गुलाम मन की बात मानने को राजी है। मन तो आपका गुलाम है और आप हैं उसके मालिक। यह तो यही हुआ कि एक मालिक कहे कि ‘मैं अपने नौकर की मानूँगा।’ वास्तव में नौकर को तो अपने हाथ में रखना चाहिए, पर लोग नौकर के ही गुलाम बनते हैं। इसलिए जो कहते हैं कि हम स्वातंत्र्यवादी हैं, वे असल में स्वातंत्र्यवादी नहीं, मन के गुलाम हैं। जब वे मन से अलग होकर सोचेंगे, तभी स्वतंत्र होंगे। ये सारे भेद कौन पैदा करता है? मन ही न? अतः बुद्धिमान् मनुष्य का काम है कि वह अपने मन पर काबू रखे, मन का निग्रह करे। अभयं ततः स्यात्- फिर वह निर्भय हो जाएगा। यह बात तो आरंभ में ही बता दी है :
कर्म-संकल्प-विकल्पकं मनः- जिसके संकल्प-विकल्प के कारण कर्म होते हैं, उस मन का। बुधो निरुंध्यात्- बुधजन निरोध करें। मन में अनेक प्रकार के संकल्प और विकल्प आते हैं। उन भले-बुरे संकल्प-विकल्पों के वश होकर मनुष्य भले-बुरे काम कर बैठता है। तो, जिस मन में ये सारी चीजें आती हैं, उसी का निरोध करें। यह मन ही अनेक प्रकार के भेद पैदा करता है। इसलिए मन को ही काबू में रख लें। प्रायः लोग कहते हैं कि हम अपने मन के मुताबिक़ काम करेंगे। एक मित्र दूसरे मित्र से कहा करता है कि ‘मैं तेरी नहीं मानूँगा, अपने मन के अनुसार चलूँगा।’ यानी अपने मित्र की नहीं, अपने गुलाम मन की बात मानने को राजी है। मन तो आपका गुलाम है और आप हैं उसके मालिक। यह तो यही हुआ कि एक मालिक कहे कि ‘मैं अपने नौकर की मानूँगा।’ वास्तव में नौकर को तो अपने हाथ में रखना चाहिए, पर लोग नौकर के ही गुलाम बनते हैं। इसलिए जो कहते हैं कि हम स्वातंत्र्यवादी हैं, वे असल में स्वातंत्र्यवादी नहीं, मन के गुलाम हैं। जब वे मन से अलग होकर सोचेंगे, तभी स्वतंत्र होंगे। ये सारे भेद कौन पैदा करता है? मन ही न? अतः बुद्धिमान् मनुष्य का काम है कि वह अपने मन पर काबू रखे, मन का निग्रह करे। अभयं ततः स्यात्- फिर वह निर्भय हो जाएगा। यह बात तो आरंभ में ही बता दी है :
<poem style="text-align:center">'''मन्येऽकुतश्चित् भयमच्युतस्य पादांबुजोपासनमत्र नित्यम्।'''</poem>
<poem style="text-align:center">'''मन्येऽकुतश्चित् भयमच्युतस्य पादांबुजोपासनमत्र नित्यम्।'''</poem>
उसे दुनिया में कोई भय ही नहीं रहेगा। दुनिया से सारा विरोध मिट जाएगा। कोई किसी से विरोध नहीं करेगा। हम कई दफा दो मिसालें दिया करते हैं। हमारे अलग-अलग अवयव हैं- मुँह है, हाथ हैं, पेट है। ये सब कितने परोपकारी हैं! मेरे हाथ में लड्डू है। यदि हाथ स्वार्थी बने और कहे कि ‘मैं लड्डू मुँह को नहीं दूँगा’ तो क्या होगा? लेकिन हाथ लड्डू मुँह में डाल देता है। मुँह भी चबा-चबाकर उसे पेट में डाल देता है। वहाँ से उसका खून बनकर सारे अवयवों को पोषण मिलता है। पेट यह नहीं कहता कि ‘मैं लड्डू का खून नहीं होने दूँगा और अपने पास ही रखूँगा।’ वह ऐसा कहेगा, तो उससे उसे तकलीफ ही होगी। इसी तरह सब एक-दूसरे के लिए त्याग करते हैं, तब शरीर चलता है। दूसरी मिसाल है फुटबाल के खेल की। खेल में हम क्या करते हैं? गेंद जैसे ही मेरे पास आयी कि मैं उसे दूसरे के पास भेज देता हूँ। इसीलिए खेल चलता है। यदि मैं गेंद को अपने पास ही रख लूँ तो खेल ही खतम हो जाय। समाज में भी ऐसा ही होना चाहिए। अपन पास कोई चीज आयी, तो तत्काल दूसरे के पास पहुँचा दी जाए। इस तरह समाज में जब संचलन (सरक्युलेशन) जारी रहेगा, तभी समाज सुंदर रहेगा। बजाय इसके यदि हम अपने घर में संग्रह कर लेंगे, तो विरोध खड़ा होगा। तो, निर्भयता के लिए यह मंत्र दिया कि ‘अपने मन का विरोध करो और सबके हित में मेरा हित है, किसी के हित के साथ मेरे हित का विरोध नहीं, यह समझ लो।’  
उसे दुनिया में कोई भय ही नहीं रहेगा। दुनिया से सारा विरोध मिट जाएगा। कोई किसी से विरोध नहीं करेगा। हम कई दफा दो मिसालें दिया करते हैं। हमारे अलग-अलग अवयव हैं- मुँह है, हाथ हैं, पेट है। ये सब कितने परोपकारी हैं! मेरे हाथ में लड्डू है। यदि हाथ स्वार्थी बने और कहे कि ‘मैं लड्डू मुँह को नहीं दूँगा’ तो क्या होगा? लेकिन हाथ लड्डू मुँह में डाल देता है। मुँह भी चबा-चबाकर उसे पेट में डाल देता है। वहाँ से उसका खून बनकर सारे अवयवों को पोषण मिलता है। पेट यह नहीं कहता कि ‘मैं लड्डू का खून नहीं होने दूँगा और अपने पास ही रखूँगा।’ वह ऐसा कहेगा, तो उससे उसे तकलीफ ही होगी। इसी तरह सब एक-दूसरे के लिए त्याग करते हैं, तब शरीर चलता है। दूसरी मिसाल है फुटबाल के खेल की। खेल में हम क्या करते हैं? गेंद जैसे ही मेरे पास आयी कि मैं उसे दूसरे के पास भेज देता हूँ। इसीलिए खेल चलता है। यदि मैं गेंद को अपने पास ही रख लूँ तो खेल ही खतम हो जाय। समाज में भी ऐसा ही होना चाहिए। अपन पास कोई चीज आयी, तो तत्काल दूसरे के पास पहुँचा दी जाए। इस तरह समाज में जब संचलन (सरक्युलेशन) जारी रहेगा, तभी समाज सुंदर रहेगा। बजाय इसके यदि हम अपने घर में संग्रह कर लेंगे, तो विरोध खड़ा होगा। तो, निर्भयता के लिए यह मंत्र दिया कि ‘अपने मन का विरोध करो और सबके हित में मेरा हित है, किसी के हित के साथ मेरे हित का विरोध नहीं, यह समझ लो।’  

10:05, 11 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण

भागवत धर्म मिमांसा

1. भागवत-धर्म

इसके लिए हमें क्या करना होगा, तो कहते हैं : तत्- इसलिए। कर्म-संकल्प-विकल्पकं मनः- जिसके संकल्प-विकल्प के कारण कर्म होते हैं, उस मन का। बुधो निरुंध्यात्- बुधजन निरोध करें। मन में अनेक प्रकार के संकल्प और विकल्प आते हैं। उन भले-बुरे संकल्प-विकल्पों के वश होकर मनुष्य भले-बुरे काम कर बैठता है। तो, जिस मन में ये सारी चीजें आती हैं, उसी का निरोध करें। यह मन ही अनेक प्रकार के भेद पैदा करता है। इसलिए मन को ही काबू में रख लें। प्रायः लोग कहते हैं कि हम अपने मन के मुताबिक़ काम करेंगे। एक मित्र दूसरे मित्र से कहा करता है कि ‘मैं तेरी नहीं मानूँगा, अपने मन के अनुसार चलूँगा।’ यानी अपने मित्र की नहीं, अपने गुलाम मन की बात मानने को राजी है। मन तो आपका गुलाम है और आप हैं उसके मालिक। यह तो यही हुआ कि एक मालिक कहे कि ‘मैं अपने नौकर की मानूँगा।’ वास्तव में नौकर को तो अपने हाथ में रखना चाहिए, पर लोग नौकर के ही गुलाम बनते हैं। इसलिए जो कहते हैं कि हम स्वातंत्र्यवादी हैं, वे असल में स्वातंत्र्यवादी नहीं, मन के गुलाम हैं। जब वे मन से अलग होकर सोचेंगे, तभी स्वतंत्र होंगे। ये सारे भेद कौन पैदा करता है? मन ही न? अतः बुद्धिमान् मनुष्य का काम है कि वह अपने मन पर काबू रखे, मन का निग्रह करे। अभयं ततः स्यात्- फिर वह निर्भय हो जाएगा। यह बात तो आरंभ में ही बता दी है :

मन्येऽकुतश्चित् भयमच्युतस्य पादांबुजोपासनमत्र नित्यम्।

उसे दुनिया में कोई भय ही नहीं रहेगा। दुनिया से सारा विरोध मिट जाएगा। कोई किसी से विरोध नहीं करेगा। हम कई दफा दो मिसालें दिया करते हैं। हमारे अलग-अलग अवयव हैं- मुँह है, हाथ हैं, पेट है। ये सब कितने परोपकारी हैं! मेरे हाथ में लड्डू है। यदि हाथ स्वार्थी बने और कहे कि ‘मैं लड्डू मुँह को नहीं दूँगा’ तो क्या होगा? लेकिन हाथ लड्डू मुँह में डाल देता है। मुँह भी चबा-चबाकर उसे पेट में डाल देता है। वहाँ से उसका खून बनकर सारे अवयवों को पोषण मिलता है। पेट यह नहीं कहता कि ‘मैं लड्डू का खून नहीं होने दूँगा और अपने पास ही रखूँगा।’ वह ऐसा कहेगा, तो उससे उसे तकलीफ ही होगी। इसी तरह सब एक-दूसरे के लिए त्याग करते हैं, तब शरीर चलता है। दूसरी मिसाल है फुटबाल के खेल की। खेल में हम क्या करते हैं? गेंद जैसे ही मेरे पास आयी कि मैं उसे दूसरे के पास भेज देता हूँ। इसीलिए खेल चलता है। यदि मैं गेंद को अपने पास ही रख लूँ तो खेल ही खतम हो जाय। समाज में भी ऐसा ही होना चाहिए। अपन पास कोई चीज आयी, तो तत्काल दूसरे के पास पहुँचा दी जाए। इस तरह समाज में जब संचलन (सरक्युलेशन) जारी रहेगा, तभी समाज सुंदर रहेगा। बजाय इसके यदि हम अपने घर में संग्रह कर लेंगे, तो विरोध खड़ा होगा। तो, निर्भयता के लिए यह मंत्र दिया कि ‘अपने मन का विरोध करो और सबके हित में मेरा हित है, किसी के हित के साथ मेरे हित का विरोध नहीं, यह समझ लो।’


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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