"रघुवंश (साहित्यकार)": अवतरणों में अंतर
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रघुवंश | एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- रघुवंश (बहुविकल्पी) |
रघुवंश (साहित्यकार)
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पूरा नाम | डॉ. रघुवंश सहाय वर्मा |
जन्म | 30 जून, 1921 |
जन्म भूमि | गोपामऊ, हरदोई ज़िला, उत्तर प्रदेश |
मृत्यु | 23 अगस्त, 2013 |
कर्म भूमि | भारत |
मुख्य रचनाएँ | तंतुजाल, अर्थहीन, छायालय, हरिघाटी, मानस पुत्र ईसा, साहित्य का नया परिप्रेक्ष्य आदि। |
पुरस्कार-उपाधि | 'साहित्य भूषण सम्मान' (1992) 'भारत भारती सम्मान' (1994) |
प्रसिद्धि | साहित्यकार एवं आलोचक |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | संस्कृति एवं मानव मूल्यों को आधार बनाकर लिखने वाले प्रो. रघुवंश का हिन्दी में नई आलोचना के सूत्रपात में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। |
इन्हें भी देखें | कवि सूची, साहित्यकार सूची |
डॉ. रघुवंश सहाय वर्मा (अंग्रेज़ी: Dr. Raghuvansh, 30 जून, 1921; मृत्यु- 23 अगस्त, 2013) हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार एवं आलोचक थे। वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष तथा 'इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडीज', शिमला के फेलो रहे। डॉ. रघुवंश दोनों हाथों से अपंग थे, लेकिन फिर भी इस अपंगता को उन्होंने अपनी कमज़ोरी नहीं बनने दिया। वह पैरों से लिखते थे। वे निरंतर पैरों से लिखते रहे और इतना लिख दिया कि उन्हें कई सम्मान और पुरस्कारों से सम्मानित किया गया।
परिचय
डॉ. रघुवंश सहाय वर्मा का जन्म 30 जून, 1921 को उत्तर प्रदेश में हरदोई ज़िला के गोपामऊ कस्बे में हुआ था। उनके दोनों हाथ जन्म से अपंग थे। इस कारण वह 8 वर्ष तक सिर्फ पढ़ना ही सीख पाये थे। अपंगता को व्यक्ति प्राय: जीवन का अभिशाप मान लेता है। जब वह किसी नेत्रहीन या हाथ-पैर से अपंग इंसान को देखता है तो मन में दया आ जाती है। लेकिन रघुवंश सहाय जी ने अपने मन में ये संकल्प कर लिया था कि वे अपनी अपंगता को अपनी कमजोरी नहीं बनने देंगे और उन्होंने अपने पैर से लिखना शुरू कर दिया। उनके जीवन में अनेक विपरीत परिस्थितिया आयीं लेकिन वह निरंतर आगे बढ़ते ही रहे। उन्होंने पैर से लिखने में महारथ हासिल कर लिया। वह जिस तेजी से पैर से लिखते थे, वह उन विद्वानों से भी संभव न हो सका जिनका मजबूत हाथ लेकर जन्म हुआ। उनका हाथ अपंग था लेकिन उनका मन मजबूत था और उन्होंने ये प्रमाणित कर दिया कि कोई व्यक्ति मन से कुछ करने का ठान ले तो वह क्या नहीं कर सकता।
नई आलोचना का सूत्रपात
डॉ. रघुवंश की पुस्तक ‘यूरोप के इतिहास की प्रभाव शक्तियां’ प्रकाशित हुई थी। संस्कृति एवं मानव मूल्यों को आधार बनाकर लिखने वाले प्रो.रघुवंश का हिन्दी में नई आलोचना के सूत्रपात में महत्वपूर्ण योगदान रहा। कई उपन्यासों की रचना करके भी उन्होंने अपनी सर्जनात्मक प्रतिभा का परिचय दिया था।
प्रमुख कृतियाँ
इलाहाबाद विश्वविद्यालय से उन्होंने हिंदी भाषा में एम.ए और हिंदी साहित्य के 'भक्ति और रीतिकाल में प्रकृति और काव्य' विषय पर डी.फील किया था। "मैं किसी से काम नहीं हूँ" यह भाव प्रारंभ से ही उनके अंदर रहा। इस संकल्प शक्ति के कारण ही डॉ. रघुवंश निरंतर लिखते रहे। उनकी कुछ प्रमुख कृतियाँ जो प्रकशित हुई, वह निम्नलिखित हैं-
- तंतुजाल
- अर्थहीन
- छायालय (कथा साहित्य)
- हरिघाटी (यात्रा संस्मरण)
- मानस पुत्र ईसा (जीवन)
पुरस्कार व सम्मान
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के आचार्य एवं अध्यक्ष के पद पर रहकर डॉ. रघुवंश ने हिन्दी की विशिष्ट सेवा की। सेवानिवृत्ति के बाद भी वे सक्रिय रहे। प्रोफेसर रघुवंश को वर्ष 2008 का ‘मूर्ति देवी पुरस्कार’ मिला। उनकी कृति ‘पश्चिमी भौतिक संस्कृति का उत्थान और पतन’ के लिए भारतीय ज्ञानपीठ के प्रतिष्ठित सम्मान से उपराष्ट्रपति मोहम्मद हामिद अंसारी ने नई दिल्ली में नवाजा था।
- उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान की ओर से वर्ष 1992 में 'साहित्य भूषण सम्मान'
- वर्ष 1994 में 'भारत भारती सम्मान'
- वर्ष 1993 में के.के. बिड़ला फाउंडेशन की ओर से 'शंकर सम्मान'
- बिहार सरकार का 'जननायक कर्पूरी ठाकुर सम्मान'
- भारतीय ज्ञानपीठ का प्रतिष्ठित 'मूर्ति देवी पुरस्कार' (2008)
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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