"महादेवी वर्मा": अवतरणों में अंतर
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महादेवी का समस्त काव्य वेदनामय है। यह वेदना लौकिक वेदना से भिन्न आध्यात्मिक जगत की है, जो उसी के लिए सहज संवेद्य हो सकती है, जिनसे उस अनुभूति-क्षेत्र में प्रवेश किया हो। वैसे महादेवी इस वेदना को उस दु:ख की भी संज्ञा देती हैं, "जो सारे संसार को एक सूत्र में बाँधे रखने की क्षमता रखता है"<ref>रश्मि भूमिका, पृष्ठ 7</ref> किन्तु विश्व को एक सूत्र में बाँधने वाला दु:ख सामान्यतया लौकिक दु:ख ही होता है, जो भारतीय साहित्य की परम्परा में [[करुण रस]] का स्थायी भाव होता है। महादेवी ने इस दु:ख को नहीं अपनाया है। कहती तो हैं कि "मुझे दु:ख के दोनों ही रूप प्रिय हैं, एक वह, जो मनुष्य के संवेदनशील ह्रदय को सारे संसार से एक अविच्छिन्न बन्धनों में बाँध देता है और दूसरा वह जो काल और सीमा के बन्धन में पड़े हुए असीम चेतन का क्रन्दन है"<ref>रश्मि भूमिका, पृष्ठ 7</ref> किन्तु उनके काव्य में पहले प्रकार का नहीं, दूसरे प्रकार का 'क्रन्दन' ही अभिव्यक्त हुआ है। यह वेदना सामान्य लोक ह्रदय की वस्तु नहीं है। सम्भवत: इसीलिए रामचन्द्र शुक्ल ने उसकी सच्चाई में ही सन्देह व्यक्त करते हुए लिखा है, "इस वेदना को लेकर उन्होंने ह्रदय की ऐसी अनुभूतियाँ सामने रखीं, जो लोकोत्तर हैं। कहाँ तक वे वास्तविक अनुभूतियाँ हैं और कहाँ तक अनुभूतियों की रमणीय कल्पना, यह नहीं कहा जा सकता"<ref>हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृष्ठ 719</ref> | महादेवी का समस्त काव्य वेदनामय है। यह वेदना लौकिक वेदना से भिन्न आध्यात्मिक जगत की है, जो उसी के लिए सहज संवेद्य हो सकती है, जिनसे उस अनुभूति-क्षेत्र में प्रवेश किया हो। वैसे महादेवी इस वेदना को उस दु:ख की भी संज्ञा देती हैं, "जो सारे संसार को एक सूत्र में बाँधे रखने की क्षमता रखता है"<ref>रश्मि भूमिका, पृष्ठ 7</ref> किन्तु विश्व को एक सूत्र में बाँधने वाला दु:ख सामान्यतया लौकिक दु:ख ही होता है, जो भारतीय साहित्य की परम्परा में [[करुण रस]] का स्थायी भाव होता है। महादेवी ने इस दु:ख को नहीं अपनाया है। कहती तो हैं कि "मुझे दु:ख के दोनों ही रूप प्रिय हैं, एक वह, जो मनुष्य के संवेदनशील ह्रदय को सारे संसार से एक अविच्छिन्न बन्धनों में बाँध देता है और दूसरा वह जो काल और सीमा के बन्धन में पड़े हुए असीम चेतन का क्रन्दन है"<ref>रश्मि भूमिका, पृष्ठ 7</ref> किन्तु उनके काव्य में पहले प्रकार का नहीं, दूसरे प्रकार का 'क्रन्दन' ही अभिव्यक्त हुआ है। यह वेदना सामान्य लोक ह्रदय की वस्तु नहीं है। सम्भवत: इसीलिए रामचन्द्र शुक्ल ने उसकी सच्चाई में ही सन्देह व्यक्त करते हुए लिखा है, "इस वेदना को लेकर उन्होंने ह्रदय की ऐसी अनुभूतियाँ सामने रखीं, जो लोकोत्तर हैं। कहाँ तक वे वास्तविक अनुभूतियाँ हैं और कहाँ तक अनुभूतियों की रमणीय कल्पना, यह नहीं कहा जा सकता"<ref>हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृष्ठ 719</ref> | ||
{{highright}}पाठशाला में हिन्दी-अध्यापक से प्रभावित होकर ब्रजभाषा में समस्या पूर्ति भी करने लगीं। फिर तत्कालीन खड़ीबोली की कविता से प्रभावित होकर खड़ीबोली में रोला और हरिगीतिका छन्दों में काव्य लिखना प्रारम्भ किया। उसी समय माँ से सुनी एक करुण कथा को लेकर सौ छन्दों में एक खण्डकाव्य भी लिख डाला।{{highclose}} | |||
वेदना की इस एकान्त साधना के फलस्वरूप महादेवी की कविता में विषयों का वैविध्य बहुत कम है। उनकी कुछ ही कविताएं ऐसी हैं, जिनमें राष्ट्रीय और सांस्कृतिक उद्बोधन अथवा प्रकृति का स्वतन्त्र चित्रण हुआ है। शेष सभी कविताओं में विषयवस्तु और दृष्टिकोण एक ही होने के कारण उनकी काव्यभूमि विस्तृत नहीं हो सकी है। इससे उनके काव्य को हानि और लाभ दोनों हुआ है। हानि यह हुई है कि विषय-परिवर्तन न होने से उनके समस्त काव्य में एकरसता और भावावृत्ति बहुत अधिक है। लाभ यह हुआ है कि सीमित क्षेत्र के भीतर ही कवयित्री ने अनुभूतियों के अनेकानेक आयामों को अनेक दृष्टिकोण से देख-परखकर उनके सूक्ष्मातिसूक्ष्म भेद-प्रभेदों को बिम्बरूप में सामने रखते हुए चित्रित किया है। इस तरह उनके काव्य में विस्तारगत विशालता और दर्शानगत गुरुत्व भले ही न मिले, पर उनकी भावनाओं की गम्भीरता, अनुभूतियों की सूक्ष्मता, बिम्बों की स्पष्टता और कल्पना की कमनीयता के फलस्वरूप गाम्भीर्य और महत्ता अवश्य है। इस तरह उनके काव्य विस्तार का नहीं गहराई का काव्य है। | |||
==प्रकृति निरुपण== | ==प्रकृति निरुपण== | ||
प्रकृति के सौन्दर्य के प्रति कवयित्री की संवेदनशीलता में कोई कमी नहीं है, किन्तु प्रकृति को आलम्बन के रुप में कम ही कविता का विषय बनाया गया है। यह स्वल्प शब्द चित्र भी बड़े मौलिक और मनोहारी हैं। प्रकृति को उद्दीपन विभाव के रूप में महादेवी ने बड़े कलात्मक और मर्मस्पर्शी रूप में प्रस्तुत किया है। वे भावों को प्रखरता तथा अनुभूतियों को तरल गम्भीरता प्रदान करके, कथ्य को अत्यन्त हृदयग्राही बना देती है। महादेवी जी का काव्य छायावादी काव्यशैली की सभी विशेषताओं से विभूषित है। वैयक्तिकता, प्रकृति का मानवीकरण, श्रृंगार की साध्वी अभिव्यक्ति, सौन्दर्य निरुपण, लाक्षणिक अभिव्यक्ति तथा मानवतावादी दृष्टि आदि आपकी रचनाओं में मौलिक भाव-भंगिमा में प्रस्तुत है। कबीर और जायसी के पश्चात काव्यपरक रहस्यवाद के दर्शन हिन्दी में महादेवी जी के ही काव्य में होते हैं। महादेवी अज्ञात प्रियतम के प्रति प्रणय निवेदन के क्षणों में आध्यात्मिक छोरों का स्पर्श करने लगती हैं। महादेवीजी ने लोक चेतना से भी स्वयं को पूर्णतया विच्छिन्न नहीं किया है। उनके पास भी सन्देश हैं, प्रेरणा मार्ग-दर्शन है। | प्रकृति के सौन्दर्य के प्रति कवयित्री की संवेदनशीलता में कोई कमी नहीं है, किन्तु प्रकृति को आलम्बन के रुप में कम ही कविता का विषय बनाया गया है। यह स्वल्प शब्द चित्र भी बड़े मौलिक और मनोहारी हैं। प्रकृति को उद्दीपन विभाव के रूप में महादेवी ने बड़े कलात्मक और मर्मस्पर्शी रूप में प्रस्तुत किया है। वे भावों को प्रखरता तथा अनुभूतियों को तरल गम्भीरता प्रदान करके, कथ्य को अत्यन्त हृदयग्राही बना देती है। महादेवी जी का काव्य छायावादी काव्यशैली की सभी विशेषताओं से विभूषित है। वैयक्तिकता, प्रकृति का मानवीकरण, श्रृंगार की साध्वी अभिव्यक्ति, सौन्दर्य निरुपण, लाक्षणिक अभिव्यक्ति तथा मानवतावादी दृष्टि आदि आपकी रचनाओं में मौलिक भाव-भंगिमा में प्रस्तुत है। कबीर और जायसी के पश्चात काव्यपरक रहस्यवाद के दर्शन हिन्दी में महादेवी जी के ही काव्य में होते हैं। महादेवी अज्ञात प्रियतम के प्रति प्रणय निवेदन के क्षणों में आध्यात्मिक छोरों का स्पर्श करने लगती हैं। महादेवीजी ने लोक चेतना से भी स्वयं को पूर्णतया विच्छिन्न नहीं किया है। उनके पास भी सन्देश हैं, प्रेरणा मार्ग-दर्शन है। |
07:57, 14 अक्टूबर 2010 का अवतरण
महादेवी वर्मा हिंदी कविता के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभ सुमित्रानन्दन पन्त, जयशंकर प्रसाद और सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला के साथ महादेवी जी की गिनती की जाती है। आधुनिक हिन्दी कविता में महादेवी वर्मा एक महत्वपूर्ण शक्ति के रुप में उभरीं। उन्होंने खड़ी बोली हिन्दी को कोमलता और मधुरता से संसिक्त कर सहज मानवीय संवेदनाओं की अभिव्यक्ति का द्वार खोला। महादेवी वर्मा हिंदी भाषा की प्रख्यात कवयित्री है। विरह को दीपशिखा का गौरव दिया। व्यष्टि मूलक मानवतावादी काव्य के चिंतन को प्रतिष्ठापित किया। उनके गीतों का नाद-सौंदर्य, पैनी उक्तियों की व्यंजना शैली अन्यत्र दुर्लभ है। [1]
जन्म
महादेवी वर्मा का जन्म होली के दिन 26 मार्च, 1907 को फ़र्रुख़ाबाद, उत्तर प्रदेश में हुआ। उनके पिता श्री गोविन्द प्रसाद वर्मा जो एक वकील थे और माता श्रीमती हेमरानी देवी दोनो ही शिक्षा के अनन्य प्रेमी थे।[2]उन्हें आधुनिक काल की मीराबाई कहा जाता है। महादेवी जी छायावाद रहस्यवाद के प्रमुख कवियों में से एक हैं। हिन्दुस्तानी स्त्री की उदारता, करुणा, सात्विकता, आधुनिक बौद्धिकता, गंभीरता और सरलता उनके व्यक्तित्व में समाविष्ट थी। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व की विलक्षणता से अभिभूत रचनाकारों ने उन्हें 'साहित्य साम्राज्ञी, हिन्दी के विशाल मंदिर की वीणापाणि', 'शारदा की प्रतिमा' आदि विशेषणों से अभिहित करके उनकी असाधारणता को लक्षित किया। महादेवी जी ने एक निश्चित दायित्व के साथ भाषा, साहित्य, समाज, शिक्षा और संस्कृति को संस्कारित किया। कविता में रहस्यवाद, छायावाद की भूमि ग्रहण करने के बावजूद सामयिक समस्याओं के निवारण में उन्होंने सक्रिय भागीदारी निभाई।
शिक्षा
महादेवी वर्मा की प्रारम्भिक शिक्षा इन्दौर में हुयी। इन्होंने बी-ए जबलपुर से की वो अपने घर मे सबसे बड़ी थी उनके दो भाई और एक बहन थी। 1919 में इलाहाबाद में क्रास्थवेट कॉलेज से शिक्षा का प्रारंभ करते हुए उन्होंने 1932 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम.ए. की उपाधि प्राप्त की। तब तक उनके दो काव्य संकलन 'नीहार' और 'रश्मि' प्रकाशित होकर चर्चा में आ चुके थे।[3] महादेवी जी में काव्य प्रतिभा सात वर्ष की उम्र में ही मुखर हो उठी थी। विद्यार्थी जीवन में ही उनकी कविताएं देश की प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओं में स्थान पाने लगीं थीं।
विवाह
उन दिनों के प्रचलन के अनुसार उनका विवाह छोटी उम्र में ही हो गया था परन्तु महादेवी जी को सांसारिकता से कोई लगाव नहीं था अपितु वे तो बौद्ध धर्म से बहुत प्रभवित थीं और स्वयं भी एक बौद्ध भिक्षुणी बनना चाहतीं थीं। विवाह के बाद भी उन्होंने अपनी शिक्षा जारी रखी। इनकी शादी 1914 मे डॉ स्वरुप नरेन वर्मा के साथ इंदौर मे 9 साल की उम्र मे हुई, वो अपने माँ पिताजी के साथ रहती थी क्योंकि उनके पति लखनऊ मे पढ़ रहे थे।
विरासत
शिक्षा और साहित्य प्रेम महादेवी जी को एक तरह से विरासत में मिला था। महादेवी जी में काव्य रचना के बीज बचपन से ही विद्यमान थे। छ: सात वर्ष की अवस्था में भगवान की पूजा करती हुयी माँ पर उनकी तुक्बन्दी:
ठंडे पानी से नहलाती
ठंडा चन्दन उन्हे लगाती
उनका भोग हमें दे जाती
तब भी कभी न बोले हैं
मां के ठाकुर जी भोले हैं।
वे हिन्दी के भक्त कवियों की रचनाओं और भगवान बौद्ध के चरित्र से अत्यन्त प्रभावित थी। उनके गीतों में प्रवाहित करुणा के अनन्त स्त्रोत को इसी कोण से समझा जा सकता है। वेदना और करुणा उनके गीतों की मुख्य प्रवत्ति है। असीम दु:ख के भाव में से ही उनके गीतों का उदय और अन्त दोनों होता है।
महिला विद्यापीठ की स्थापना
महादेवी वर्मा ने अपने प्रयत्नों से उन्होंने इलाहाबाद में प्रयाग महिला विद्यापीठ की स्थापना की। इसकी वे प्रधानाचार्य एवं कुलपति भी रहीं। पाठशाला में हिन्दी-अध्यापक से प्रभावित होकर ब्रजभाषा में समस्या पूर्ति भी करने लगीं। फिर तत्कालीन खड़ीबोली की कविता से प्रभावित होकर खड़ीबोली में रोला और हरिगीतिका छन्दों में काव्य लिखना प्रारम्भ किया। उसी समय माँ से सुनी एक करुण कथा को लेकर सौ छन्दों में एक खण्डकाव्य भी लिख डाला। 1932 में उन्होंने महिलाओं की प्रमुख पत्रिका 'चाँद' का कार्यभार सँभाला। प्रयाग में अध्यापन कार्य से जुड़ने के बाद हिन्दी के प्रति गहरा अनुराग रखने के कारण वे दिनों-दिन साहित्यिक क्रियाकलापों से जुड़ती चली गई। उन्होंने न केवल 'चांद' का सम्पादन किया वरन् हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए प्रयाग में 'साहित्यकार संसद' की स्थापना की। उन्होंने 'साहित्यकार' मासिक का संपादन किया और 'रंगवाणी' नाट्य संस्था की भी स्थापना की।
काव्य संग्रह
1934 में नीरजा, तथा 1936 में सांध्यगीत नामक संग्रह प्रकाशित हुए। 1939 में इन चारों काव्य संग्रहों को उनकी कलाकृतियों के साथ वृहदाकार में 'यामा' शीर्षक से प्रकाशित किया गया। उन्होंने गद्य, काव्य, शिक्षा और चित्रकला सभी क्षेत्रों में नए आयाम स्थापित किए। इसके अतिरिक्त उनके 18 काव्य और गद्य कृतियाँ हैं जिनमें 'मेरा परिवार', 'स्मृति की रेखाएँ', 'पथ के साथी', 'शृंखला की कड़ियाँ' और 'अतीत के चलचित्र' प्रमुख हैं।
कृतियाँ
महादेवी जी कवयित्री होने के साथ-साथ एक विशिष्ट गद्यकार थीं। 'यामा' में उनके प्रथम चार काव्य-संग्रहों की कविताओं का एक साथ संकलन हुआ है। 'आधुनिक कवि-महादेवी' में उनके समस्त काव्य से उन्हीं द्वारा चुनी हुई कविताऐं संकलित हैं। कवि के अतिरिक्त वे गद्य लेखिका के रूप में भी पर्याप्त ख्याति अर्जित कर चुकी हैं। 'स्मृति की रेखाऐं' (1943 ई॰) और 'अतीत के चलचित्र' (1941 ई॰) उनकी संस्मरणात्मक गद्य रचनाओं के संग्रह हैं। 'श्रृंखला की कड़ियाँ' (1942 ई॰) में सामाजिक समस्याओं, विशेषकर अभिशप्त नारी जीवन के जलते प्रश्नों के सम्बन्ध में लिखे उनके विचारात्मक निबन्ध संकलित हैं। रचनात्मक गद्य के अतिरिक्त 'महादेवी का विवेचनात्मक गद्य' में तथा 'दीपशिखा', 'यामा' और 'आधुनिक कवि-महादेवी' की भूमिकाओं में उनकी आलोचनात्मक प्रतिभा का भी पूर्ण प्रस्फुटन हुआ है। उनकी कृतियाँ इस प्रकार हैं -
काव्य
- नीहार (1930) : यह कवयित्री का प्रथम काव्य-संग्रह है,
- रश्मि (1932) : इसकी रचनाएँ आध्यात्मिकता से प्रभावित हैं,
- नीरजा (1935) : कवयित्री की जीवन दृष्टि का विकसित रूप इसके गीतों में व्यक्त हुआ है,
- सांध्यगीत (1936) : इसके गीत मिलनोत्कंठा से ओत-प्रोत हैं,
- दीपशिखा (1942) : इसके गीतों में रहस्य भावना का मधुर संस्पर्श है,
- यामा : यह भावसाम्य से युक्त गीतों तथा चित्रों का अभिनव संग्रह है,
- सप्तपर्णा : यह ॠग्वेद के मंत्रों का हिन्दी में काव्यानुवाद है।
गद्य
- रेखाचित्रः अतीत के चलचित्र,
- स्मृति की रेखाएं,
- पथ के साथी,
- मेरा परिवार।
निबंध
- आलोचनाः श्रृंखला की कड़ियाँ,
- विवेचनात्मक गद्य,
- क्षणदा साहित्यकार की आस्था तथा अन्य निबंध,
- संकल्पिता ।
विविध संकलन
- स्मारिका,
- स्मृति चित्र,
- संभाषण,
- संचयन,
- दृष्टिबोध।
इसके अतिरिक्त उन्होंने बंगाल के अकाल के समय 'बंग दर्शन' तथा चीन के आक्रमण के समय 'हिमालय' का संपादन भी किया।
विशेषताएँ
महादेवी के काव्य में भाव समृद्धि तथा शैल्पिक सौन्दर्य का आकर्षक समन्वय है। आपके काव्य की उभयपक्षीय विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
भाव पक्ष
महादेवी जी के काव्य में आत्मनिवेदन का स्वर प्रधान है। अपने हृदय की विविध अनुभूतियों को ही कवयित्री ने काव्य का विषय बनाया है। अज्ञात प्रियतम के प्रति विरह व्यथा का निवेदन, मिलन का संकल्प, रहस्यमयी संवेदनाएँ और प्रकृति का कोमलकान्त दृश्यांकन आपके गीतों के प्रधान विषय हैं। आध्यात्मिकता और दार्शनिकता के झीने अंचल से आवृत्त आपके मृदुल उदगार एक मोहक भाव जगत की सृष्टि करते हैं।
रस योजना
महादेवीजी के काव्य का प्रधान रस श्रृंगार है। यद्यपि श्रृंगार के संयोग तथा वियोग दोनो ही पक्षों को कवयित्री ने काव्य का विषय बनाया है, तथापि वियोग की अभिव्यक्ति ही अधिक तल्लीनता से हुई है। यह वियोग लौकिक धरातल पर स्थित होते हुए भी अपनी भव्यता से अलौकिकता के अम्बर का स्पर्श करता चलता है। वह कबीर की भाँति वियोगिनी आत्मा का प्रियतम परमात्मा के प्रति प्रेम निवेदन बनकर सहृदयों के हृदयों को भाव तरंगों में झुलाने लगता है।
रेखाचित्रकार
महादेवी वर्मा एक सफल रेखाचित्रकार, कवयित्री, और विचारक है। उन्होंने कई रेखाचित्र लिखें हैं जिनमें नीलकंठ मोर, घीसा, सोना, गौरा आदि काफी प्रसिद्ध है। मानव एक श्रेष्ठ प्राणी होने पर भी पशुओं के प्रति उसका व्यवहार सराहनीय नहीं हैं। उनके द्वारा रचित सोना और गौरा नामक रेखाचित्र में मानव के निष्ठुर व्यवहार पर उन्होंने प्रकाश डाला हैं। पशु-पक्षी भी प्रेम के लिए ललायित रहते हैं और प्रेम दिखाने पर आनंदविभोर हो उठते हैं। बेजुबान होने पर भी स्नेह के कई मूक प्रर्दशन होते है। अपने असीम आनंद की अभिव्यक्ति सुंदर आँखों के भाव से प्रकट करते हैं। परन्तु मानव अपने स्वार्थ के कारण इन बेजुबान जानवरों पर इतना अत्याचार और निर्दय व्यवहार करता है और उनपर कितना जुल्म करता है इसका कोई अंत नहीं। मानव द्वारा इतनी यातना सह कर भी पशु मानव के स्वभाव से अब तक अनजाना है। मानव का यह स्वार्थ अंत में वेदना का कार्य और कारण बन जाता है, इसी बात पर प्रकाश डालना ही महादेवी वर्मी का मुख्य ध्येय है।[4]
वेदना
महादेवी का समस्त काव्य वेदनामय है। यह वेदना लौकिक वेदना से भिन्न आध्यात्मिक जगत की है, जो उसी के लिए सहज संवेद्य हो सकती है, जिनसे उस अनुभूति-क्षेत्र में प्रवेश किया हो। वैसे महादेवी इस वेदना को उस दु:ख की भी संज्ञा देती हैं, "जो सारे संसार को एक सूत्र में बाँधे रखने की क्षमता रखता है"[5] किन्तु विश्व को एक सूत्र में बाँधने वाला दु:ख सामान्यतया लौकिक दु:ख ही होता है, जो भारतीय साहित्य की परम्परा में करुण रस का स्थायी भाव होता है। महादेवी ने इस दु:ख को नहीं अपनाया है। कहती तो हैं कि "मुझे दु:ख के दोनों ही रूप प्रिय हैं, एक वह, जो मनुष्य के संवेदनशील ह्रदय को सारे संसार से एक अविच्छिन्न बन्धनों में बाँध देता है और दूसरा वह जो काल और सीमा के बन्धन में पड़े हुए असीम चेतन का क्रन्दन है"[6] किन्तु उनके काव्य में पहले प्रकार का नहीं, दूसरे प्रकार का 'क्रन्दन' ही अभिव्यक्त हुआ है। यह वेदना सामान्य लोक ह्रदय की वस्तु नहीं है। सम्भवत: इसीलिए रामचन्द्र शुक्ल ने उसकी सच्चाई में ही सन्देह व्यक्त करते हुए लिखा है, "इस वेदना को लेकर उन्होंने ह्रदय की ऐसी अनुभूतियाँ सामने रखीं, जो लोकोत्तर हैं। कहाँ तक वे वास्तविक अनुभूतियाँ हैं और कहाँ तक अनुभूतियों की रमणीय कल्पना, यह नहीं कहा जा सकता"[7]
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पाठशाला में हिन्दी-अध्यापक से प्रभावित होकर ब्रजभाषा में समस्या पूर्ति भी करने लगीं। फिर तत्कालीन खड़ीबोली की कविता से प्रभावित होकर खड़ीबोली में रोला और हरिगीतिका छन्दों में काव्य लिखना प्रारम्भ किया। उसी समय माँ से सुनी एक करुण कथा को लेकर सौ छन्दों में एक खण्डकाव्य भी लिख डाला। |} वेदना की इस एकान्त साधना के फलस्वरूप महादेवी की कविता में विषयों का वैविध्य बहुत कम है। उनकी कुछ ही कविताएं ऐसी हैं, जिनमें राष्ट्रीय और सांस्कृतिक उद्बोधन अथवा प्रकृति का स्वतन्त्र चित्रण हुआ है। शेष सभी कविताओं में विषयवस्तु और दृष्टिकोण एक ही होने के कारण उनकी काव्यभूमि विस्तृत नहीं हो सकी है। इससे उनके काव्य को हानि और लाभ दोनों हुआ है। हानि यह हुई है कि विषय-परिवर्तन न होने से उनके समस्त काव्य में एकरसता और भावावृत्ति बहुत अधिक है। लाभ यह हुआ है कि सीमित क्षेत्र के भीतर ही कवयित्री ने अनुभूतियों के अनेकानेक आयामों को अनेक दृष्टिकोण से देख-परखकर उनके सूक्ष्मातिसूक्ष्म भेद-प्रभेदों को बिम्बरूप में सामने रखते हुए चित्रित किया है। इस तरह उनके काव्य में विस्तारगत विशालता और दर्शानगत गुरुत्व भले ही न मिले, पर उनकी भावनाओं की गम्भीरता, अनुभूतियों की सूक्ष्मता, बिम्बों की स्पष्टता और कल्पना की कमनीयता के फलस्वरूप गाम्भीर्य और महत्ता अवश्य है। इस तरह उनके काव्य विस्तार का नहीं गहराई का काव्य है।
प्रकृति निरुपण
प्रकृति के सौन्दर्य के प्रति कवयित्री की संवेदनशीलता में कोई कमी नहीं है, किन्तु प्रकृति को आलम्बन के रुप में कम ही कविता का विषय बनाया गया है। यह स्वल्प शब्द चित्र भी बड़े मौलिक और मनोहारी हैं। प्रकृति को उद्दीपन विभाव के रूप में महादेवी ने बड़े कलात्मक और मर्मस्पर्शी रूप में प्रस्तुत किया है। वे भावों को प्रखरता तथा अनुभूतियों को तरल गम्भीरता प्रदान करके, कथ्य को अत्यन्त हृदयग्राही बना देती है। महादेवी जी का काव्य छायावादी काव्यशैली की सभी विशेषताओं से विभूषित है। वैयक्तिकता, प्रकृति का मानवीकरण, श्रृंगार की साध्वी अभिव्यक्ति, सौन्दर्य निरुपण, लाक्षणिक अभिव्यक्ति तथा मानवतावादी दृष्टि आदि आपकी रचनाओं में मौलिक भाव-भंगिमा में प्रस्तुत है। कबीर और जायसी के पश्चात काव्यपरक रहस्यवाद के दर्शन हिन्दी में महादेवी जी के ही काव्य में होते हैं। महादेवी अज्ञात प्रियतम के प्रति प्रणय निवेदन के क्षणों में आध्यात्मिक छोरों का स्पर्श करने लगती हैं। महादेवीजी ने लोक चेतना से भी स्वयं को पूर्णतया विच्छिन्न नहीं किया है। उनके पास भी सन्देश हैं, प्रेरणा मार्ग-दर्शन है।
अनुभूतियाँ
महादेवी वर्मा का काव्य अनुभूतियों का काव्य है। उसमें देश, समाज या युग का चित्रांकन नहीं है, बल्कि उसमें कवयित्री की निजी अनुभूतियों की अभिव्यक्ति हुई है। उनकी अनुभूतियाँ प्रायः अज्ञात प्रिय के प्रति मौन समर्पण के रुप में हैं। उनका काव्य उनके जीवन काल में आने वाले विविध पड़ावों के समान है। उनमें प्रेम एक प्रमुख तत्व है जिस पर अलौकिकता का आवरण पड़ा हुआ है। इनमें प्रायः सहज मानवीय भावनाओं और आकर्षण के स्थूल संकेत नहीं दिए गए हैं, बल्कि प्रतीकों के द्वारा भावनाओं को व्यक्त किया गया है। कहीं-कहीं स्थूल संकेत दिए गए हैं-
मेरी आहें सोती है इन ओठों की ओटों में,
मेरा सर्वस्व छिपा है इन दीवानी चोटों में।
कवियत्री ने सर्वत्र अपनी प्रणय-भावना का उन्नयन और परिष्कार किया है। इनके प्रेम का आलंबन विराट् एवं विशाल है, जो अलौकिक है-
बीन भी हूं मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ ।
नींद भी मेरी अचल निस्पंद कण-कण में,
प्रथम जागृति थी जगत के प्रथम स्पंदन में,
प्रलय में मेरा पता पद-चिन्ह जीवन में।
इन्होंने अन्य छायावादी कवियों की तरह प्रकृति पर सर्वत्र चेतना का आरोप किया है और उसके साथ विविध मधुर संबंधों की कल्पनाएं की हैं-
रजनी ओढ़े जाती थी !
झिलमिल तारों की जाली,
उसके बिखरे वैभव पर,
जब रोती थी उजियाली।
दुःख-पीड़ा और विषाद इनके काव्य का मूल स्वर है और इन्हें सुख की अपेक्षा दुःख अधिक प्रिय है । परन्तु इनमें विषाद का वह भाव नहीं है जो कर्म शक्ति को कुंठित कर देता हो । इनमें संयम और त्याग है तथा दूसरों का हित करने की प्रबल आकांक्षा है-
मैं नीर भरी दुःख की बदली !
विस्तृत नभ का कोई कोना,
मेरा कभी न अपना होना,
परिचय इतना इतिहास यही,
उमड़ी थी कल मिट आज चली।
विशिष्ट स्थान
महादेवी वर्मा छायावाद के कवियों में औरों से भिन्न अपना एक विशिष्ट और निराला स्थान रखती हैं। इस विशिष्टता के दो कारण हैं: एक तो उनका कोमल ह्रदया नारी होना और दूसरा अंग्रेज़ी और बंग्ला के रोमानी और रहस्यवादी काव्य से प्रभावित होना। इन दोनों कारणों से एक ओर तो उन्हें अपने आध्यात्मिक प्रियतम को पुरुष मानकर स्वाभाविक रूप में अपनी स्त्री-जनोचित प्रणयानुभूतियों को निवेदित करने की सुविधा मिली, दूसरी ओर प्राचीन भारतीय साहित्य और दर्शन तथा सन्त युग के रहस्यवादी काव्य के अध्ययन और अपने पूर्ववर्ती तथा समकालीन छायावादी कवियों के काव्य से निकट का परिचय होने के फलस्वरुप उनकी काव्याभिव्यंजना और बौद्धिक चेतना शत-प्रतिशत भारतीय परम्परा के अनुरूप बनी रही। इस तरह उनके काव्य में जहाँ कृष्ण भक्ति काव्य की विरह-भावना गोपियों के माध्यम से नहीं, सीधे अपनी आध्यात्मिक अनुभूति की अभिव्यक्ति के रूप में प्रकाशित हुई है, वहीं सूफी पुरुष कवियों की भाँति उन्हें परमात्मा को नारी के प्रतीक में प्रतिष्ठित करने की आवश्यकता नहीं पड़ी।
उपाधि
सन 1955 में महादेवी जी ने इलाहाबाद में 'साहित्यकार संसद' की स्थापना की और पं. इला चंद्र जोशी के सहयोग से 'साहित्यकार' का संपादन सँभाला। यह इस संस्था का मुखपत्र था। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद 1952 में वे उत्तर प्रदेश विधान परिषद की सदस्या मनोनीत की गईं। 1956 में भारत सरकार ने उनकी साहित्यिक सेवा के लिए 'पद्म भूषण' की उपाधि और 1969 में विक्रम विश्वविद्यालय ने उन्हें डी.लिट. की उपाधि से अलंकृत किया। इससे पूर्व महादेवी वर्मा को 'नीरजा' के लिए 1934 में 'सक्सेरिया पुरस्कार', 1942 में 'स्मृति की रेखाओं' के लिए 'द्विवेदी पदक' प्राप्त हुए। 1943 में उन्हें 'मंगला प्रसाद पुरस्कार' एवं उत्तर प्रदेश सरकार के 'भारत भारती' पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 'यामा' नामक काव्य संकलन के लिए उन्हें भारत का सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान 'ज्ञानपीठ पुरस्कार' प्राप्त हुआ।
संस्मरण
अतीत के चलचित्र, स्मृति की रेखायाई पाठ के साथी, मेरा परिवार, यहाँ महादेवी वर्मा के 'मेरे बचपन के दिन ' लेख के कुछ दृश्य साकार किये जा रहे है। बचपन की यादों में एक विचित्र सा आकर्षण होता है। महादेवी वर्मा अपने परिवार में कई पीड़ियों के बाद उत्पन हुई। उनके परिवार में दौ सो सालों से कोई लड़की पैदा नहीं हुई थी यदि होती तो उसे मार दिया जाता था। दुर्गा पूजा के कारण आपका जन्म हुआ। आपके दादा फ़ारसी और उर्दू तथा पिताजी अंग्रेज़ी जानते थे। माताजी जबलपुर से हिंदी सीख कर आई थी, आपने पंचतंत्र और संस्कृत का अध्ययन किया। महादेवी वर्मा जी को काव्य प्रतियोगिता मे चांदी का कटोरा मिला था। जिसे इन्होंने गाँधीजी को दे दिया था। महादेवी वर्मा कवि सम्मेलन में भी जाने लगी थी, वो सत्याग्रह आंदोलन के दौरान कवि सम्मेलन में अपनी कवितायें सुनाती और आपको हमेशा प्रथम पुरस्कार मिला करता था। महादेवी वर्मा मराठी मिश्रित हिंदी बोलती थी।
पुनर्मुद्रित संकलन
- यामा (1940) ,
- दीपगीत (1983),
- नीलाम्बरा (1983),
- आत्मिका (1983)
कुछ प्रतिनिधि कविताएँ
- अधिकार,
- अलि! मैं कण-कण को जान चली,
- अलि अब सपने की बात,
- अश्रु यह पानी नहीं है उत्तर,
- कहाँ रहेगी चिड़िया ,
- किसी का दीप निष्ठुर हूँ,
- कौन तुम मेरे हृदय में,
- क्या जलने की रीत,
- क्या पूजन क्यों इन तारों को उलझाते?,
- जब यह दीप थके,
- जाग-जाग सुकेशिनी री!,
- जाग तुझको दूर जाना,
- जाने किस जीवन की सुधि ले,
- जीवन दीप,
- जीवन विरह का जलजात ,
- जो तुम आ जाते एक बार,
- जो मुखरित कर जाती थीं,
- तुम मुझमें प्रिय,
- तेरी सुधि बिन,
- दिया क्यों जीवन का वरदान,
- दीपक अब रजनी जाती रे,
- दीपक चितेरा,
- दीपक पर पतंग,
- धीरे-धीरे उतर क्षितिज से,
- धूप सा तन दीप सी मैं,
- नीर भरी दुख की बदली |
पुरस्कारों से सम्मानित किया गया
- 1934 :सक्सेरिया पुरस्कार
- 1942 :द्विवेदी पदक
- 1943 :मंगला प्रसाद पुरस्कार
- 1943 :भारत भारती पुरस्कार
- 1956 :पद्म भूषण
- 1979 :साहित्य अकादेमी फेल्लोव्शिप
- 1982 :ज्ञानपीठ पुरस्कार
- 1988 :पद्म विभूषण
निधन
महादेवी वर्मा का निधन 22 सितम्बर, 1987, को प्रयाग में हुआ था।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 सृजनगाथा (हिन्दी) (एचटीएमएल)। । अभिगमन तिथि: 12 अक्टूबर, 2010।
- ↑ शब्दांजलि (हिन्दी) (एचटीएमएल)। । अभिगमन तिथि: 12 अक्टूबर, 2010।
- ↑ अभिव्यक्ति (हिन्दी) (एचटीएमएल)। । अभिगमन तिथि: 12 अक्टूबर, 2010।
- ↑ साहित्य कुंज (हिन्दी) (एचटीएमएल)। । अभिगमन तिथि: 12 अक्टूबर, 2010।
- ↑ रश्मि भूमिका, पृष्ठ 7
- ↑ रश्मि भूमिका, पृष्ठ 7
- ↑ हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृष्ठ 719
बाहरी कड़ियाँ
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