"मोरारजी देसाई": अवतरणों में अंतर

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मोरारजी का पूरा नाम मोरारजी रणछोड़जी देसाई था। (जन्म- [[29 फरवरी]] 1896, [[गुजरात]]) उन्हें [[भारत]] के चौथे [[प्रधानमंत्री]] के रूप में जाना जाता है। वह 81 वर्ष की आयु में प्रधानमंत्री बने थे। इसके पूर्व कई बार उन्होंने प्रधानमंत्री बनने की कोशिश की परंतु असफल रहे। लेकिन ऐसा नहीं हैं कि मोरारजी प्रधानमंत्री बनने के क़ाबिल नहीं थे। वस्तुत: वह दुर्भाग्यशाली रहे कि वरिष्ठतम नेता होने के बावज़ूद उन्हें [[जवाहर लाल नेहरु|पंडित नेहरू]] और [[लालबहादुर शास्त्री]] के निधन के बाद भी प्रधानमंत्री नहीं बनाया गया। मोरारजी देसाई देश के प्रधानमंत्री पद के लिए अति महत्वाकांक्षी थे। उनकी यह आकांक्षा मार्च [[1977]] में पूर्ण हुई लेकिन प्रधानमंत्री के रूप में इनका कार्यकाल पूर्ण नहीं हो पाया। [[चौधरी चरण सिंह]] की प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा के कारण उन्हें प्रधानमंत्री पद छोड़ना पड़ा।
मोरारजी का पूरा नाम मोरारजी रणछोड़जी देसाई था। (जन्म- [[29 फरवरी]] 1896, [[गुजरात]]) उन्हें [[भारत]] के चौथे [[प्रधानमंत्री]] के रूप में जाना जाता है। वह 81 वर्ष की आयु में प्रधानमंत्री बने थे। इसके पूर्व कई बार उन्होंने प्रधानमंत्री बनने की कोशिश की परंतु असफल रहे। लेकिन ऐसा नहीं हैं कि मोरारजी प्रधानमंत्री बनने के क़ाबिल नहीं थे। वस्तुत: वह दुर्भाग्यशाली रहे कि वरिष्ठतम नेता होने के बावज़ूद उन्हें [[जवाहर लाल नेहरु|पंडित नेहरू]] और [[लालबहादुर शास्त्री]] के निधन के बाद भी प्रधानमंत्री नहीं बनाया गया। मोरारजी देसाई मार्च [[1977]] में देश के प्रधानमंत्री बने लेकिन प्रधानमंत्री के रूप में इनका कार्यकाल पूर्ण नहीं हो पाया। [[चौधरी चरण सिंह]] से मतभेदों के चलते उन्हें प्रधानमंत्री पद छोड़ना पड़ा।
==जन्म एवं==
==जन्म एवं==
श्री मोरारजी देसाई का जन्म 29 फरवरी 1896 को गुजरात के [[भदेली]] नामक स्थान पर हुआ था। उनका संबंध एक ब्राह्मण परिवार से था। उनके पिता रणछोड़जी देसाई [[भावनगर]] ([[सौराष्ट्र]]) में एक स्कूल अध्यापक थे। वह अवसाद (निराशा एवं खिन्नता) से ग्रस्त रहते थे, अत: उन्होंने कुएं में कूद कर अपनी इहलीला समाप्त कर ली। पिता की मृत्यु के तीसरे दिन मोरारजी देसाई की शादी हुई थी। पिता को लेकर उनके ह्रदय में काफी सम्मान था। इस विषय में मोरारजी देसाई ने कहा था-  
मोरारजी देसाई का जन्म 29 फरवरी 1896 को गुजरात के [[भदेली]] नामक स्थान पर हुआ था। उनका संबंध एक ब्राह्मण परिवार से था। उनके पिता रणछोड़जी देसाई [[भावनगर]] ([[सौराष्ट्र]]) में एक स्कूल अध्यापक थे। वह अवसाद (निराशा एवं खिन्नता) से ग्रस्त रहते थे, अत: उन्होंने कुएं में कूद कर अपनी इहलीला समाप्त कर ली। पिता की मृत्यु के तीसरे दिन मोरारजी देसाई की शादी हुई थी। पिता को लेकर उनके ह्रदय में काफ़ी सम्मान था। इस विषय में मोरारजी देसाई ने कहा था-  
<blockquote>"मेरे पिता ने मुझे जीवन के मूल्यवान पाठ पढ़ाए थे। मु्झे उनसे कर्तव्यों का पालन करने की प्रेरणा प्राप्त हुई थी। उन्होंने धर्म पर विश्वास रखने और सभी स्थितियों में समान बने रहने की शिक्षा भी मुझे दी थी।"</blockquote>  
<blockquote>"मेरे पिता ने मुझे जीवन के मूल्यवान पाठ पढ़ाए थे। मु्झे उनसे कर्तव्यों का पालन करने की प्रेरणा प्राप्त हुई थी। उन्होंने धर्म पर विश्वास रखने और सभी स्थितियों में समान बने रहने की शिक्षा भी मुझे दी थी।"</blockquote>  
मोरारजी देसाई की माता मणिबेन क्रोधी स्वभाव की महिला थीं। वह अपने घर की समर्पित मुखिया थीं। रणछोड़जी की मृत्यु के बाद वह अपने नाना के घर अपना परिवार ले गईं। लेकिन इनकी नानी ने इन्हें वहाँ नहीं रहने दिया। वह पुन: अपने पिता के घर पहुँच गईं।  
मोरारजी देसाई की माता मणिबेन क्रोधी स्वभाव की महिला थीं। वह अपने घर की समर्पित मुखिया थीं। रणछोड़जी की मृत्यु के बाद वह अपने नाना के घर अपना परिवार ले गईं। लेकिन इनकी नानी ने इन्हें वहाँ नहीं रहने दिया। वह पुन: अपने पिता के घर पहुँच गईं।  
==विद्यार्थी जीवन==
==विद्यार्थी जीवन==
मोरारजी देसाई की शिक्षा-दीक्षा [[मुंबई]] के एलफिंस्टन कॉलेज में हुई जो उस समय काफी महंगा और खर्चीला माना जाता था। मुंबई में मोरारजी देसाई नि:शुल्क आवास गृह में रहे जो गोकुलदास तेजपाल के नाम से प्रसिद्ध था। एक समय में वहाँ 40 शिक्षार्थी रह सकते थे। विद्यार्थी जीवन में मोरारजी देसाई औसत बुद्धि के विवेकशील छात्र थे। इन्हें कॉलेज की वाद-विवाद टीम का सचिव भी बनाया गया था लेकिन स्वयं मोरारजी ने मुश्किल से ही किसी वाद-विवाद प्रतियोगिता में हिस्सा लिया होगा। मोरारजी देसाई ने अपने कॉलेज जीवन में ही [[महात्मा गाँधी]], [[बाल गंगाधर तिलक]] और अन्य कांग्रेसी नेताओं के संभाषणों को सुना था। कॉलेज जीवन के पाँच वर्षों में इन्होंने बहुत सी फ़िल्में देखीं लेकिन स्वयं के पैसों से नहीं। इनका कहना था- "मैं अपने पैसों से फ़िल्म देखना या मनोरंजन करना पसंद नहीं करता। मुझमें कभी ऐसी ख़्वाहिश ही नहीं उठती थी।" मोरारजी देसाई को क्रिकेट देखने का भी शौक था लेकिन क्रिकेट खेलने का नहीं। क्रिकेट मैचों को देखने के लिए वह सही वक्त का इंतजार करते थे और सुरक्षा प्रहरी की नज़र बचाकर दर्शक दीर्घा में प्रविष्ट हो जाते थे।
मोरारजी देसाई की शिक्षा-दीक्षा [[मुंबई]] के एलफिंस्टन कॉलेज में हुई जो उस समय काफ़ी महंगा और खर्चीला माना जाता था। मुंबई में मोरारजी देसाई नि:शुल्क आवास गृह में रहे जो गोकुलदास तेजपाल के नाम से प्रसिद्ध था। एक समय में वहाँ 40 शिक्षार्थी रह सकते थे। विद्यार्थी जीवन में मोरारजी देसाई औसत बुद्धि के विवेकशील छात्र थे। इन्हें कॉलेज की वाद-विवाद टीम का सचिव भी बनाया गया था लेकिन स्वयं मोरारजी ने मुश्किल से ही किसी वाद-विवाद प्रतियोगिता में हिस्सा लिया होगा। मोरारजी देसाई ने अपने कॉलेज जीवन में ही [[महात्मा गाँधी]], [[बाल गंगाधर तिलक]] और अन्य कांग्रेसी नेताओं के संभाषणों को सुना था। कॉलेज जीवन के पाँच वर्षों में इन्होंने बहुत सी फ़िल्में देखीं लेकिन स्वयं के पैसों से नहीं। इनका कहना था- "मैं अपने पैसों से फ़िल्म देखना या मनोरंजन करना पसंद नहीं करता। मुझमें कभी ऐसी ख़्वाहिश ही नहीं उठती थी।" बचपन में मोरारजी देसाई को क्रिकेट देखने का भी शौक था लेकिन क्रिकेट खेलने का नहीं। क्रिकेट मैचों को देखने के लिए वह सही वक्त का इंतजार करते थे और सुरक्षा प्रहरी की नज़र बचाकर दर्शक दीर्घा में प्रविष्ट हो जाते थे।
==व्यावसायिक जीवन==
==व्यावसायिक जीवन==
जब मोरारजी देसाई को लगा कि उनकी प्रतिभा आई.सी.एस. (ईंडियन सिविल सर्विस) में चयन होने लायक नहीं है तो उन्होंने मुंबई प्रोविंशल सिविल सर्विस हेतु आवेदन करने का मन बनाया जहाँ सरकार द्वारा सीधी भर्ती की जाती थी। जुलाई [[1917]] में उन्होंने यूनिवर्सिटी ट्रेनिंग कोर्स में प्रविष्टि पाई। यहाँ इन्हें ब्रिटिश व्यक्तियों की भाँति समान अधिकार एवं सुविधाएं प्राप्त होती रहीं। यहाँ रहते हुए मोरारजी अफसर बन गए। मई [[1918]] में वह परिवीक्षा पर बतौर उप ज़िलाधीश [[अहमदाबाद]] पहुंचे। उन्होंने चेटफ़ील्ड नामक ब्रिटिश कलेक्टर (ज़िलाधीश) के अंतर्गत कार्य किया।
मोरारजी देसाई ने मुंबई प्रोविंशल सिविल सर्विस हेतु आवेदन करने का मन बनाया जहाँ सरकार द्वारा सीधी भर्ती की जाती थी। जुलाई [[1917]] में उन्होंने यूनिवर्सिटी ट्रेनिंग कोर्स में प्रविष्टि पाई। यहाँ इन्हें ब्रिटिश व्यक्तियों की भाँति समान अधिकार एवं सुविधाएं प्राप्त होती रहीं। यहाँ रहते हुए मोरारजी अफसर बन गए। मई [[1918]] में वह परिवीक्षा पर बतौर उप ज़िलाधीश [[अहमदाबाद]] पहुंचे। उन्होंने चेटफ़ील्ड नामक ब्रिटिश कलेक्टर (ज़िलाधीश) के अंतर्गत कार्य किया। मोरारजी 11 वर्षों तक अपने रूखे स्वभाव के कारण विशेष उन्नति नहीं प्राप्त कर सके और कलेक्टर के निजी सहायक पद तह ही पहुँचे।
 
मोरारजी 11 वर्षों तक अपने अहंकारी स्वभाव के कारण विशेष उन्नति नहीं प्राप्त कर सके और कलेक्टर के निजी सहायक पद तह ही पहुँचे। अंग्रेज़ों के साथ इनके जो विवाद होते थे, वह प्राय: व्यक्तिगत स्तर के होते थे। वह राजनीति अथवा देशभक्ति के कारण नहीं होते थे। उन्होंने स्वीकार किया कि जब वह मार्च [[1930]] में कस्टम कलेक्टर से मिलने के लिए गए तो एक नागरिक ने कहा था कि वह गाँधीजी को मार डालना चाहता है। इस पर मोरारजी ने कुछ नहीं कहा लेकिन सुनकर उन्हें काफी दु:ख पहुँचा। गोधरा के सांप्रदायिक दंगों में मोरारजी देसाई हिंदुओं की ओर से लिप्त पाए गए। इसके लिए इन्हें वरिष्ठता क्रम में चार सीढ़ियाँ नीचे पदावनत कर दिया गया।
==राजनीतिक जीवन==
==राजनीतिक जीवन==
इसके बाद आत्ममंथन का दौर चला। मोरारजी देसाई ने [[1930]] में ब्रिटिश सरकार की नौकरी छोड़ दी और स्वतंत्रता संग्राम के सिपाही बन गए। [[1931]] में वह [[गुजरात]] प्रदेश की कांग्रेस कमेटी के सचिव बन गए। उन्होंने अखिल भारतीय युवा कांग्रेस की शाखा स्थापित की और [[सरदार पटेल]] के निर्देश पर उसके अध्यक्ष बन गए। [[1932]] में मोरारजी को 2 वर्ष की जेल भुगतनी पड़ी। मोरारजी [[1937]] तक गुजरात प्रदेश कांग्रेस कमेटी के सचिव रहे। इसके बाद वह [[बंबई]] राज्य के कांग्रेस मंत्रिमंडल में सम्मिलित हुए। इस दौरान यह माना जाता रहा कि मोरारजी देसाई के व्यक्तितत्व में जटिलताएं हैं। वह स्वयं अपनी बात को ऊपर रखते हैं और सही मानते हैं। इस कारण लोग इन्हें व्यंग्य से 'सर्वोच्च नेता' कहा करते थे। मोरारजी को ऐसा कहा जाना पसंद भी आता था। गुजरात के समाचार पत्रों में प्राय: उनके इस व्यक्तित्व को लेकर व्यंग्य भी प्रकाशित होते थे। कार्टूनों में इनके चित्र एक लंबी छड़ी के साथ होते थे जिसमें इन्हें गाँधी टोपी भी पहने हुए दिखाया जाता था। इसमें व्यंग्य यह होता था कि गाँधीजी के व्यक्तित्व से प्रभावित लेकिन अपनी बात पर अड़ा रहने वाला एक ज़िद्दी व्यक्ति।
इसके बाद आत्ममंथन का दौर चला। मोरारजी देसाई ने [[1930]] में ब्रिटिश सरकार की नौकरी छोड़ दी और स्वतंत्रता संग्राम के सिपाही बन गए। [[1931]] में वह [[गुजरात]] प्रदेश की कांग्रेस कमेटी के सचिव बन गए। उन्होंने अखिल भारतीय युवा कांग्रेस की शाखा स्थापित की और [[सरदार पटेल]] के निर्देश पर उसके अध्यक्ष बन गए। [[1932]] में मोरारजी को 2 वर्ष की जेल भुगतनी पड़ी। मोरारजी [[1937]] तक गुजरात प्रदेश कांग्रेस कमेटी के सचिव रहे। इसके बाद वह [[बंबई]] राज्य के कांग्रेस मंत्रिमंडल में सम्मिलित हुए। इस दौरान यह माना जाता रहा कि मोरारजी देसाई के व्यक्तितत्व में जटिलताएं हैं। वह स्वयं अपनी बात को ऊपर रखते हैं और सही मानते हैं। इस कारण लोग इन्हें व्यंग्य से 'सर्वोच्च नेता' कहा करते थे। मोरारजी को ऐसा कहा जाना पसंद भी आता था। गुजरात के समाचार पत्रों में प्राय: उनके इस व्यक्तित्व को लेकर व्यंग्य भी प्रकाशित होते थे। कार्टूनों में इनके चित्र एक लंबी छड़ी के साथ होते थे जिसमें इन्हें गाँधी टोपी भी पहने हुए दिखाया जाता था। इसमें व्यंग्य यह होता था कि गाँधीजी के व्यक्तित्व से प्रभावित लेकिन अपनी बात पर अड़े रहने वाले एक ज़िद्दी व्यक्ति।


बहरहाल [[स्वतंत्रता संग्राम]] में भागीदारी के कारण मोरारजी देसाई के कई वर्ष ज़ेलों में ही गुज़रे। देश की आज़ादी के समय राष्ट्रीय राजनीति में इनका नाम वज़नदार हो चुका था। लेकिन मोरारजी की प्राथमिक रुचि राज्य की राजनीति में ही थी। यही कारण है कि [[1952]] में इन्हें बंबई का मुख्यमंत्री बानाया गया। इस समय तक गुजरात तथा [[महाराष्ट्र]] बंबई प्रोविंस के नाम से जाने जाते थे और दोनों राज्यों का पृथक गठन नहीं हुआ था। [[1967]] में इंदिरा गाँधी के प्रधानमंत्री बनने पर मोरारजी को [[उप प्रधानमंत्री]] और [[गृह मंत्री]] बनाया गया। लेकिन वह इस बात को लेकर कुंठित थे कि वरिष्ठ कांग्रेस नेता होने पर भी उनके बजाय [[इंदिरा गाँधी]] को प्रधानमंत्री बनाया गया। यही कारण है कि इंदिरा गाँधी द्वारा किए जाने वाले क्रांतिकारी उपायों में मोरारजी निरंतर बाधा डालते रहे। दरअसल जिस समय श्री कामराज ने सिंडीकेट की सलाह पर इंदिरा गाँधी को प्रधानमंत्री बनाए जाने की घोषणा की थी तब मोरारजी भी प्रधानमंत्री की दौड़ में शामिल थे। जब वह किसी भी तरह नहीं माने तो पार्टी ने इस मुद्दे पर चुनाव कराया और इंदिरा गाँधी ने भारी मतांतर से बाजी मार ली। यह इंदिरा गाँधी का ही बड़प्पन था कि उन्होंने मोरारजी के अहं की तुष्टि के लिए इन्हें उप प्रधानमंत्री का पद दिया।
[[स्वतंत्रता संग्राम]] में भागीदारी के कारण मोरारजी देसाई के कई वर्ष ज़ेलों में ही गुज़रे। देश की आज़ादी के समय राष्ट्रीय राजनीति में इनका नाम वज़नदार हो चुका था। लेकिन मोरारजी की प्राथमिक रुचि राज्य की राजनीति में ही थी। यही कारण है कि [[1952]] में इन्हें बंबई का मुख्यमंत्री बनाया गया। इस समय तक गुजरात तथा [[महाराष्ट्र]] बंबई प्रोविंस के नाम से जाने जाते थे और दोनों राज्यों का पृथक गठन नहीं हुआ था। [[1967]] में इंदिरा गाँधी के प्रधानमंत्री बनने पर मोरारजी को [[उप प्रधानमंत्री]] और [[गृह मंत्री]] बनाया गया। लेकिन वह इस बात को लेकर कुंठित थे कि वरिष्ठ कांग्रेस नेता होने पर भी उनके बजाय [[इंदिरा गाँधी]] को प्रधानमंत्री बनाया गया। यही कारण है कि इंदिरा गाँधी द्वारा किए जाने वाले क्रांतिकारी उपायों में मोरारजी निरंतर बाधा डालते रहे। दरअसल जिस समय श्री कामराज ने सिंडीकेट की सलाह पर इंदिरा गाँधी को प्रधानमंत्री बनाए जाने की घोषणा की थी तब मोरारजी भी प्रधानमंत्री की दौड़ में शामिल थे। जब वह किसी भी तरह नहीं माने तो पार्टी ने इस मुद्दे पर चुनाव कराया और इंदिरा गाँधी ने भारी मतांतर से बाजी मार ली। इंदिरा गाँधी ने मोरारजी के अहं की तुष्टि के लिए इन्हें उप प्रधानमंत्री का पद दिया।
(पुस्तक "भारत के प्रधानमंत्री") पृष्ठ संख्या-157 पर से
 
मोरारजी देसाई
 
 
==प्रधानमंत्री पद पर==
==प्रधानमंत्री पद पर==
पण्डित जवाहर लाल नेहरू के समय कांग्रेस में जो अनुशासन था, वह उनकी मृत्यु के बाद बिखरने लगा। कई सदस्य स्वयं को पार्टी से बड़ा समझते थे। मोरारजी देसाई भी उनमें से एक थे। श्री [[लालबहादुर शास्त्री]] ने कांग्रेस पार्टी के वफ़ादार सिपाही की भाँति कार्य किया था। उन्होंने पार्टी से कभी भी किसी पद की मांग नहीं की थी। लेकिन इस मामले में मोरारजी देसाई अपवाद में रहे। कांग्रेस संगठन के साथ उनके मतभेद जगज़ाहिर थे और देश का प्रधानमंत्री बनना इनकी प्राथमिकताओं में शामिल था। इंदिरा गांधी ने जब यह समझ लिया कि मोरारजी देसाई उनके लिए कठिनाइयाँ पैदा कर रहे हैं तो उन्होंने मोरारजी के पर कतरना आरम्भ कर दिया। इस कारण उनका क्षुब्ध होना स्वाभाविक था। नवम्बर [[1969]] में जब कांग्रेस का विभाजन कांग्रेस-आर और कांग्रेस-ओ के रूप में हुआ तो मोरारजी देसाई इंदिरा गांधी की कांग्रेस-आर के बजाए सिंडीकेट के कांग्रेस-ओ में चले गए। फिर [[1975]] में वह जनता पार्टी में शामिल हो गए। मार्च [[1977]] में जब [[लोकसभा]] के चुनाव हुए तो जनता पार्टी को स्पष्ट बहुमत प्राप्त हो गया। परन्तु यहाँ पर भी प्रधानमंत्री पद के दो अन्य दावेदार उपस्थित थे-चौधरी चरण सिंह और जगजीवन राम। लेकिन जयप्रकाश नारायण जो स्वयं कभी कांग्रेसी हुआ करते थे, उन्होंने किंग मेकर की अपनी स्थिति का लाभ उठाते हुए मोरारजी देसाई का समर्थन किया।
पण्डित जवाहर लाल नेहरू के समय कांग्रेस में जो अनुशासन था, वह उनकी मृत्यु के बाद बिखरने लगा। कई सदस्य स्वयं को पार्टी से बड़ा समझते थे। मोरारजी देसाई भी उनमें से एक थे। श्री [[लालबहादुर शास्त्री]] ने कांग्रेस पार्टी के वफ़ादार सिपाही की भाँति कार्य किया था। उन्होंने पार्टी से कभी भी किसी पद की मांग नहीं की थी। लेकिन इस मामले में मोरारजी देसाई अपवाद में रहे। कांग्रेस संगठन के साथ उनके मतभेद जगज़ाहिर थे और देश का प्रधानमंत्री बनना इनकी प्राथमिकताओं में शामिल था। इंदिरा गांधी ने जब यह समझ लिया कि मोरारजी देसाई उनके लिए कठिनाइयाँ पैदा कर रहे हैं तो उन्होंने मोरारजी के पर कतरना आरम्भ कर दिया। इस कारण उनका क्षुब्ध होना स्वाभाविक था। नवम्बर [[1969]] में जब कांग्रेस का विभाजन कांग्रेस-आर और कांग्रेस-ओ के रूप में हुआ तो मोरारजी देसाई इंदिरा गांधी की कांग्रेस-आई के बजाए सिंडीकेट के कांग्रेस-ओ में चले गए। फिर [[1975]] में वह जनता पार्टी में शामिल हो गए। मार्च [[1977]] में जब [[लोकसभा]] के चुनाव हुए तो जनता पार्टी को स्पष्ट बहुमत प्राप्त हो गया। परन्तु यहाँ पर भी प्रधानमंत्री पद के दो अन्य दावेदार उपस्थित थे-चौधरी चरण सिंह और जगजीवन राम। लेकिन जयप्रकाश नारायण जो स्वयं कभी कांग्रेसी हुआ करते थे, उन्होंने किंग मेकर की अपनी स्थिति का लाभ उठाते हुए मोरारजी देसाई का समर्थन किया।


इसके बाद [[23 मार्च]], [[1977]] को 81 वर्ष की पकी अवस्था में मोरारजी देसाई ने भारतीय प्रधानमंत्री का दायित्व ग्रहण किया। इनके प्रधानमंत्रित्व के आरम्भिक काल में एक गलत कार्य यह हुआ कि देश के जिन नौ राज्यों में कांग्रेस का शासन था, वहाँ की सरकारों को भंग कर दिया गया और राज्यों में नए चुनाव कराये जाने की घोषणा भी करा दी गई। यह अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक कार्य था। जनता पार्टी, इंदिरा गांधी और उनकी समर्थित कांग्रेस का देश से सफ़ाया करने को कृतसंकल्प नज़र आई। लेकिन उनके इस अशोभनीय कृत्य को बुद्धिजीवियों द्वारा सराहना प्राप्त नहीं हुई।
इसके बाद [[23 मार्च]], [[1977]] को 81 वर्ष की अवस्था में मोरारजी देसाई ने भारतीय प्रधानमंत्री का दायित्व ग्रहण किया। इनके प्रधानमंत्रित्व के आरम्भिक काल में, देश के जिन नौ राज्यों में कांग्रेस का शासन था, वहाँ की सरकारों को भंग कर दिया गया और राज्यों में नए चुनाव कराये जाने की घोषणा भी करा दी गई। यह अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक कार्य था। जनता पार्टी, इंदिरा गांधी और उनकी समर्थित कांग्रेस का देश से सफ़ाया करने को कृतसंकल्प नज़र आई। लेकिन इस कृत्य को बुद्धिजीवियों द्वारा सराहना प्राप्त नहीं हुई।
====सहयोगी दल सरकार====
====सहयोगी दल सरकार====
[[विधानसभा]] चुनावों में [[तमिलनाडु]] को छोड़कर अन्य राज्यों में जनता पार्टी और सहयोगी दल सरकार बनाने में सफल रहे। इस दौरान जनता पार्टी ने एक अन्य काम भी किया, वह यह कि संविधान के 44वें संशोधन द्वारा 42वें संशोधन (इसे इंदिरा गांधी ने आपातकाल के दौरान संशोधित किया था) में ऐसा प्रावधान किया, जिससे संविधान को कमज़ोर न करते हुए पुन: आपातकाल न लगाया जा सके। साथ ही साथ जनता पार्टी ने सर्वोच्च न्यायालय का यह अधिकार भी बहाल किया जिसके अनुसार केन्द्र अथवा राज्य सरकार द्वारा बनाए गए क़ानूनों की वैधानिकता के बारे में सर्वोच्च न्यायालय निर्णय कर सकती थी। आपातकाल में सर्वोच्च न्यायालय से केन्द्र तथा राज्यों की क़ानून की समीक्षा करने का अधिकार भी छीन लिया गया था।
[[विधानसभा]] चुनावों में [[तमिलनाडु]] को छोड़कर अन्य राज्यों में जनता पार्टी और सहयोगी दल सरकार बनाने में सफल रहे। इस दौरान जनता पार्टी ने एक अन्य काम भी किया, वह यह कि संविधान के 44वें संशोधन द्वारा 42वें संशोधन (इसे इंदिरा गांधी ने आपातकाल के दौरान संशोधित किया था) में ऐसा प्रावधान किया, जिससे संविधान को कमज़ोर न करते हुए पुन: आपातकाल न लगाया जा सके। साथ ही साथ जनता पार्टी ने सर्वोच्च न्यायालय का यह अधिकार भी बहाल किया जिसके अनुसार केन्द्र अथवा राज्य सरकार द्वारा बनाए गए क़ानूनों की वैधानिकता के बारे में सर्वोच्च न्यायालय निर्णय कर सकती थी। आपातकाल में सर्वोच्च न्यायालय से केन्द्र तथा राज्यों की क़ानून की समीक्षा करने का अधिकार भी छीन लिया गया था।


यह तो जगज़ाहिर है कि जनता पार्टी इंदिरा गांधी के विरुद्ध बदले की भावना से कार्यवाही कर रही थी। इस भावना को जारी रखते हुए जनता पार्टी की सरकार ने एक दूसरी ग़लती भी की। गृह मंत्री चौधरी चरण सिंह की अनुशंसा पर श्रीमती इंदिरा गांधी को गिरफ्तार कर लिया गया। गिरफ्तारी से पूर्व क़ानूनी परामर्श भी नहीं किया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि सिर्फ़ एक मजिस्ट्रेट द्वारा इंदिरा गांधी की ज़मानत अर्जी को स्वीकार कर लिया गया। इंदिरा गांधी की गिरफ़्तारी के कारण लोगों में जनाक्रोश उत्पन्न हुआ। उनके लाखों प्रशंसकों और समर्थकों ने विरोध स्वरूप गिरफ्तारियाँ दीं। लेकिन जनता पार्टी अपने शासन सम्बन्धी सर्वोच्च कर्तव्यों की अनदेखी करते हुए केवल 'एक सूत्रीय कार्यक्रम' ही चलाने में लगी हुई थी, जो इंदिरा गांधी को येन-केन प्रकारेण सदैव के लिए राजनीति से पृथक करने से ही सम्बन्धित था।
जनता पार्टी ने इंदिरा गांधी के ख़िलाफ़ 35 जाँच आयोग गठित किए, जिनमें 'शाह आयोग' सबसे प्रमुख था।
====सरकार की प्राथमिकताएँ====
इंदिरा गांधी पर आपातकाल के दौरान राजनीतिज्ञों की हत्या कराने, काला धन जमा करने और विदेशी बैंकों में ग़ैर क़ानूनी रूप से धन जमा करवाने के विभिन्न मुक़दमें दर्ज कराए गए। लेकिन जनता पार्टी द्वारा लगाए गए आरोपों में से एक भी न्यायालय में प्रमाणित नहीं किया जा सका। जनता पार्टी ने इंदिरा गांधी के ख़िलाफ़ 35 जाँच आयोग गठित किए, जिनमें 'शाह आयोग' सबसे प्रमुख था। इंदिरा गांधी में प्रजातंत्र के प्रति गहरी आस्था थी। यही कारण है कि जब मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री निर्वाचित हुए तो इंदिरा गांधी भी उनके निवास पर उन्हें बधाई देने के लिए गईं। लेकिन मोरारजी देसाई का हठी और जिद्दी स्वभाव क़ायम रहा। वह अपनी पिछली पराजयों को नहीं भुला सके थे। यद्यपि मोरारजी देसाई किसी बड़ी कार्यवाही के पक्षधर नहीं थे, लेकिन जनता पार्टी रूपी खिचड़ी सरकार के अन्य सदस्यों की मांग के कारण वह इंदिरा गांधी के विरुद्ध कठोर रुख़ अपनाए रहे। यही कारण था कि देश की जनता में जनता पार्टी को लेकर असंतोष का भाव उपजने लगा। जनता पार्टी समर्थित प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई यह भूल गए कि उनकी सरकार की प्राथमिकताएँ जनता के कल्याण से सम्बन्धित होनी चाहिए। जनता के साथ किए गए चुनावी वादों की पूर्ति की दिशा में जनता पार्टी उदासीन ही बनी रही। नौकरशाह निरंकुश हो गए थे, देश में साम्प्रदायिकता का अजगर अपना फन फैलाने लगा था और भ्रष्टाचार का सर्वत्र बोलबाला था। लगता था कि देश में प्रशासन नाम की कोई चीज़ ही नहीं रह गई है। यहाँ पर मोराराजी के विषय में यह कहना होगा कि वह सबसे मजबूर प्रधानमंत्री थे। विभिन्न दलों की खिचड़ी सरकार अनेक विचारधराओं वाली पार्टी थी। किसी भी मामले में एकमत होना मुश्किल हो रहा था। मोरारजी देसाई एक ऐसे रथ पर बैठे थे, जिसके घोड़ों की लगाम घोड़ों के पास ही थी।
==विभिन्न समस्याएँ==
==विभिन्न समस्याएँ==
जब शासन अक्षम और कमज़ोर होता है तो समस्याएँ थोक के भाव पैदा होती हैं। [[त्रिपुरा]], [[असम]] एवं [[मणिपुर]] समस्याओं का केन्द्र बन गए। [[अलीगढ़]] और [[रांची]] सहित देश के कई अन्य शहरों में साम्प्रदायिक सौहार्द्र बिगड़ने लगा, फिर वहाँ पर दंगे भी हुए। वस्तुत: जनता पार्टी में विभिन्न विचारधाराओं वाले लोग मंत्री थे, जो कि अपने-अपने अनुसार कार्य कर रहे थे, न कि सरकार के अनुसार। जनता पार्टी सरकार में सुशासन प्रदान करने की क्षमता नहीं थी और न ही वे ऐसी संकल्प शक्ति दिखा रहे थे। उस समय जनता पार्टी सरकार में विदेश मंत्री के तौर पर [[अटल बिहारी वाजपेयी]] बेहद स्वच्छ छवि वाले नेता थे। लेकिन बेलगाम घोड़ों के मध्य रहते हुए भी उन्हें मोरारजी का कोप भाजन बनना पड़ा। मोरारजी देसाई ने अटल बिहारी वाजपेयी से कहा था-"विदेश मंत्री होने का आशय यह नहीं कि विदेश में ही रहा जाए। कभी-कभी देश में भी रहिए।"
जब शासन अक्षम और कमज़ोर होता है तो समस्याएँ थोक के भाव पैदा होती हैं। [[त्रिपुरा]], [[असम]] एवं [[मणिपुर]] समस्याओं का केन्द्र बन गए। [[अलीगढ़]] और [[रांची]] सहित देश के कई अन्य शहरों में साम्प्रदायिक सौहार्द्र बिगड़ने लगा, फिर वहाँ पर दंगे भी हुए। वस्तुत: जनता पार्टी में विभिन्न विचारधाराओं वाले लोग मंत्री थे, जो कि अपने-अपने अनुसार कार्य कर रहे थे, न कि सरकार के अनुसार। जनता पार्टी सरकार में सुशासन प्रदान करने की क्षमता नहीं थी और न ही वे ऐसी संकल्प शक्ति दिखा रहे थे। उस समय जनता पार्टी सरकार में विदेश मंत्री के तौर पर [[अटल बिहारी वाजपेयी]] एक स्वच्छ छवि वाले नेता थे।
 
चौधरी चरण सिंह जो किसान नेता थे और कृषि मंत्रालय के योग्य थे, वह देश का गृह मंत्रालय सम्भाल रहे थे। प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में स्वयं गृह मंत्रालय का पदभार सम्भाला था और वह एक कुशल प्रशासक भी थे। सामाजिक न्याय प्राप्ति की दिशा में जनता पार्टी एक क़दम नहीं चली। ग्रामीण परिवेश की अर्थव्यवस्था सुधारने का भी कोई प्रयास नहीं किया गया।


चौधरी चरण सिंह जो किसान नेता थे और कृषि मंत्रालय के योग्य थे, वह देश का गृह मंत्रालय सम्भाल रहे थे। प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में स्वयं गृह मंत्रालय का पदभार सम्भाला था और वह एक कुशल प्रशासक भी थे। इसलिए वह चौधरी चरण सिंह की ढुलमुल नीतियों के कारण उनसे काफ़ी नाराज़ रहते थे। मोरारजी देसाई से भारतीय आवाम को काफ़ी आशाएँ थीं, कि वह स्वच्छ प्रशासन देंगे और सभी को उन्नति प्राप्त होगी। लेकिन जैसे-जैसे समय गुज़र रहा था, वैसे-वैसे लोगों का मोरारजी के प्रति मोहभंग होने लगा। विकास सम्बन्धी नीतियों का अभाव था। भारतीय कृषि की मूलभूत समस्याओं का जो समाधान पूर्व सरकारों द्वारा किया जा रहा था, वह भी बाधित होने लगा था। सामाजिक न्याय प्राप्ति की दिशा में जनता पार्टी एक क़दम नहीं चली। ग्रामीण परिवेश की अर्थव्यवस्था सुधारने का भी कोई प्रयास नहीं किया गया।
देश की जनता में विभिन्न मामलों को लेकर अंसतोष बढ़ रहा था। अगड़ों का व्यवहार पिछड़ों के प्रति अत्याचारी होने लगा। [[बिहार]] में जुल्म-ओ-सितम की उस वक्त इंतेहा हो गई जब सवर्णों द्वारा पिछड़ों को ज़िंदा जलाने की लोमहर्षक घटना घटी। इस प्रकार हरिजनों को जलाया जाना जनता पार्टी सरकार के लिए घातक सिद्ध होने वाला था। इसके अतिरिक्त जनता पार्टी के शासन काल में निम्नलिखित कारणों से भी असंतोष बढ़ा जो मोरारजी देसाई के पतन का कारण बना-


जनता पार्टी के समस्त मंत्री सामंतवादी प्रकृति के थे। गाँवों की धूल फाँकना उनकी शान के ख़िलाफ़ था। चौधरी चरण सिंह कहने को ही किसानों के नेता थे, लेकिन उनके रहन-सहन में देश की माटी से जुड़े होने की महक नहीं थी। वह राजसी वैभव के साथ जीने में विश्वास करते थे। जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद उनके इस विश्वास में वृद्धि हो गई थी। प्रधानमंत्री बनने की जिस चाहत को लेकर मोरारजी देसाई ने कांग्रेस संगठन के साथ विश्वासघात किया था, वही चाहत अब चौधरी चरण सिंह के सीने में भी जवान हो रही थी। चौधरी चरण सिंह को भी सही समय का इंतज़ार था। उधर देश की जनता में विभिन्न मामलों को लेकर अंसतोष बढ़ रहा था। अगड़ों का व्यवहार पिछड़ों के प्रति अत्याचारी होने लगा। [[बिहार]] में जुल्म-ओ-सितम की उस वक्त इंतेहा हो गई जब सवर्णों द्वारा पिछड़ों को ज़िंदा जलाने की लोमहर्षक घटना घटी। इस प्रकार हरिजनों को जलाया जाना जनता पार्टी सरकार के लिए घातक सिद्ध होने वाला था। इसके अतिरिक्त जनता पार्टी के शासन काल में निम्नलिखित कारणों से भी असंतोष बढ़ा जो मोरारजी देसाई के पतन का कारण बना-
*जनता पार्टी में विलय हुई पार्टियों ने उसे अपना घर नहीं माना था। उनके लिए स्वयं की पार्टी का वजूद बना हुआ था। इस कारण निष्ठा भाव की कमी थी। सभी पार्टियाँ सत्ता सुख भोगने में लगी हुई थीं।  
*जनता पार्टी में विलय हुई पार्टियों ने उसे अपना घर नहीं माना था। उनके लिए स्वयं की पार्टी का वज़ूद बना हुआ था। इस कारण निष्ठा भाव की कमी थी। सभी पार्टियाँ सत्ता सुख भोगने में लगी हुई थीं।  
*छात्रों को अपने आन्दोलनों में साथ रखकर ही जनता पार्टी सत्ता तक पहुँची थी। लेकिन कॉलेजों और विश्वविद्यालयों की समस्याओं का कोई समाधान न होने से शिक्षार्थी वर्ग भी इनके ख़िलाफ़ हो गया।
*छात्रों को अपने आन्दोलनों में साथ रखकर ही जनता पार्टी सत्ता तक पहुँची थी। लेकिन कॉलेजों और विश्वविद्यालयों की समस्याओं का कोई समाधान न होने से शिक्षार्थी वर्ग भी इनके ख़िलाफ़ हो गया।
*[[1979]] में अर्द्धसैनिक बलों ने विद्रोह कर दिया, जिसे कुचलने में काफ़ी समय लगा। लेकिन इस विद्रोह ने यह साबित कर दिया कि जनता पार्टी की सरकार का कहीं पर भी नियंत्रण नहीं है।
*[[1979]] में अर्द्धसैनिक बलों ने विद्रोह कर दिया, जिसे कुचलने में काफ़ी समय लगा। लेकिन इस विद्रोह ने यह साबित कर दिया कि जनता पार्टी की सरकार का कहीं पर भी नियंत्रण नहीं है।
*नेहरू एवं गांधी सरकार ने जो आर्थिक योजनाएँ आरम्भ की थीं, उन्हें बंद कर दिया गया। इस प्रकार सफल योजनाओं का लाभ जनता को मिलना बंद हो गया। इन योजनाओं को प्रतिशोध नीति का शिकार होना पड़ा, न कि अच्छी नीतियों के द्वारा उन्हें स्थानापन्न किया गया था।
*नेहरू जी ने जो औद्यागिक नीति तैयार की थी, उसे कूड़े के ढेर में डालकर कुटीर उद्योग नीति को बल दिया गया। बड़े स्तर के उद्योगों को समाप्त किया गया। इससे अंकुर रूप में प्रस्फुटित नई औद्योगिक व्यवस्था चौपट हो गई। श्रमिक वर्ग के लिए रोज़गार पाना मुश्किल हो गया।
*देश की पंचवर्षीय योजना को पुराने कलैंडर की भाँति लपेटकर रख दिया गया। इस कारण देश की समग्र विकास दर बुरी तरह से प्रभावित हुई।  
*देश की पंचवर्षीय योजना को पुराने कलैंडर की भाँति लपेटकर रख दिया गया। इस कारण देश की समग्र विकास दर बुरी तरह से प्रभावित हुई।  
*जनता पार्टी के नेताओं को भू-माफ़िया का वरद हस्त प्राप्त था। इस कारण कृषि योग्य भूमि पर ज़मींदारों का प्रभाव हो गया। भूमि सुधार सम्बन्धी प्रावधान समाप्त कर दिए गए। छोटे किसान भुखमरी की स्थिति में पहुँच गए।
*'काम के बदले अनाज योजना' आरम्भ की गई, लेकिन इसमें व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण वांछित सफलता प्राप्त नहीं हुई।
*'काम के बदले अनाज योजना' आरम्भ की गई, लेकिन इसमें व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण वांछित सफलता प्राप्त नहीं हुई। इंदिरा गांधी के शासन काल में जहाँ आमजन के रहन-सहन को क्रमोन्नत करने की बात चल रही थी, वहीं जनता पार्टी के शासन में भूख शान्त करने के स्तर पर आ पहुँची।
*1978-79 में कई राज्यों में सूखा पड़ा। जिससे अक़ाल की स्थिति पैदा हो गई। सरकारी खाद्यान्न भण्डार रिक्त हो गए। खाद्यान्नों की क़ीमतों में वृद्धि हुई। केरोसिन तेल भी ग़रीब जनता के लिए दिवास्वप्न हो गया।
*1978-79 में कई राज्यों में सूखा पड़ा। जिससे अक़ाल की स्थिति पैदा हो गई। सरकारी खाद्यान्न भण्डार रिक्त हो गए। खाद्यान्नों की क़ीमतों में वृद्धि हुई। केरोसिन तेल भी ग़रीब जनता के लिए दिवास्वप्न हो गया।
*जनता पार्टी सरकार में शामिल घटक दल अपने स्वार्थ की रोटियाँ सेंक रहे थे। भारतीय जनसंघ पार्टी हिन्दुत्व का कार्ड खेल रही थी। जबकि कांग्रेस-ओ धर्मनिरेपेक्ष का दिखावा कर रही थी।
*जनता पार्टी सरकार में शामिल घटक दल अपने स्वार्थ की रोटियाँ सेंक रहे थे। भारतीय जनसंघ पार्टी हिन्दुत्व का कार्ड खेल रही थी। जबकि कांग्रेस-ओ धर्मनिरेपेक्ष का दिखावा कर रही थी।
*प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई कहने भर को प्रधानमंत्री रह गए। उनका किसी भी मंत्री पर कोई ज़ोर नहीं रह गया था।
*प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई कहने भर को प्रधानमंत्री रह गए। उनका किसी भी मंत्री पर कोई ज़ोर नहीं रह गया था।
*मुद्रा स्फीति की दर 20 प्रतिशत के पार हो गई। इस कारण 1979 तक अनवरत क़ीमतों में वृद्धि जारी थी।  
*मुद्रा स्फीति की दर 20 प्रतिशत के पार हो गई। इस कारण 1979 तक अनवरत क़ीमतों में वृद्धि जारी थी।  
*चौधरी चरण सिंह ताल ठोंककर मैदान में आ गए थे। जनसंघ के सदस्य भी अलग होने लगे। [[15 जुलाई]], [[1979]] को मोरारजी देसाई की सरकार अल्पमत में आ गई और उन्हें त्यागपत्र देने को विवश होना पड़ा।
[[15 जुलाई]], [[1979]] को मोरारजी देसाई की सरकार अल्पमत में आ गई और उन्हें त्यागपत्र देने को विवश होना पड़ा।
इस प्रकार मोरारजी देसाई की चिरप्रतीक्षित अभिलाषा अवश्य पूर्ण हो गई कि वह देश के प्रधानमंत्री बनें। लेकिन वह एक क़ाबिल प्रधानमंत्री नहीं बन पाए और असफलता की ज़िम्मेदारी उनके सिर पर मढ़ी गई।
 
इस प्रकार मोरारजी देसाई की चिरप्रतीक्षित अभिलाषा अवश्य पूर्ण हो गई कि वह देश के प्रधानमंत्री बनें।  
==समग्र विश्लेषण==
==समग्र विश्लेषण==
प्रत्येक व्यक्ति जो कि इस संसार में आता है, वह अपनी जन्मकुण्डली से प्राप्त स्वभाव द्वारा अधिशासित रहता है। यद्यपि प्रयत्न और कौशल के माध्यम से वह जन्मजात अभिरुचि को भी परिवर्तित कर सकता है तथापि समूल परिवर्तन सम्भव नहीं हो पाता। यदि शेर के शावक को बचपन से ही शाकाहार पर रखा जाए तो वह शाकाहारी हो सकता है, लेकिन हिंसक स्वभाव को छोड़ना उसके लिए कतई सम्भव नहीं होता है। मोरारजी देसाई के स्वभाव में भी जन्मजात विशेषताएँ थीं। उनका स्वभाव काफ़ी अड़ियल और अहंवादी था। वह जो निर्णय कर लेते थे, उस पर क़ायम रहते थे। उन्हें इस बात का अभिमान था कि वह दूसरों से श्रेष्ठ हैं। यदि उनकी इच्छा के विपरीत कोई कार्य होता था, तो वह उसे अपने प्रति अन्याय समझते थे। तात्पर्य यह है कि मोरारजी देसाई कई मनोविकारों से ग्रस्त थे और उनकी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए कुछ भी करने को तत्पर रहते थे। उन्होंने स्व-निर्मित जीवन गुज़ारा था। वह अपनी कमियों को भी जानते थे। लेकिन गांधीवादी होते हुए भी उनमें क्षमा भाव मुखर नहीं हो पाया था। वह जिसे एक बार अपना दुश्मन मान लेते थे, उसे अन्त तक दुश्मन मानते रहना उनकी फ़ितरत में शामिल था। मोरारजी देसाई के समग्र व्यक्तित्व का मूल्यांकन निम्नलिखत प्रकार से किया जा सकता है-
*मोरारजी देसाई को गांधीवादी नीति का परम समर्थक माना जाता है। लेकिन इस नीति में इन्होंने क्षमा भाव को शायद स्वीकार नहीं किया था और ही निजता के अहं का त्याग किया था।
*मोरारजी देसाई को गांधीवादी नीति का परम समर्थक माना जाता है। लेकिन इस नीति में इन्होंने क्षमा भाव को शायद स्वीकार नहीं किया था और ही निजता के अहं का त्याग किया था।
*मोरारजी जो निर्णय कर लेते थे, उस पर क़ायम रहते थे। ब्रिटिश शासन काल में उच्च अधिकारी रहते हुए जब उन्होंने गोधरा के साम्प्रदायिक दंगों में हिन्दुओं का साथ दिया था, तो यह उनकी हृदय की अभिव्यक्ति थी। बाद में ब्रिटिश नौकरी छोड़कर जब वह स्वतंत्रता संग्राम के सिपाही बने तब भी इन्होंने अपनी अंतरात्मा पर ही निर्णय दिया था।
*मोरारजी जो निर्णय कर लेते थे, उस पर क़ायम रहते थे। ब्रिटिश नौकरी छोड़कर जब वह स्वतंत्रता संग्राम के सिपाही बने तब भी इन्होंने अपनी अंतरात्मा पर ही निर्णय दिया था।
*मोरारजी के व्यक्तित्व में सादगी, ईमानदारी तथा कर्तव्यनिष्ठा थी। वह सत्य एवं अहिंसा के उपासक भी थे। इसीलिए राजनीति उनके व्यक्तित्व से मेल नहीं खाती थी। राजनीति में समझौते किये जाते हैं और पार्टी की इच्छा का आदर किया जाता है। लेकिन मोराराजी देसाई इस प्रकार के समझौते नहीं कर पाते थे।  
*मोरारजी के व्यक्तित्व में सादगी, ईमानदारी तथा कर्तव्यनिष्ठा थी। वह सत्य एवं अहिंसा के उपासक भी थे। इसीलिए राजनीति उनके व्यक्तित्व से मेल नहीं खाती थी। राजनीति में समझौते किये जाते हैं और पार्टी की इच्छा का आदर किया जाता है। लेकिन मोराराजी देसाई इस प्रकार के समझौते नहीं कर पाते थे।  
* लाल बहादुर शास्त्री राजनीति में इनसे काफ़ी जूनियर थे, इसीलिए उनका प्रधानमंत्री बनना मोरारजी देसाई पचा नहीं पाए थे, जबकि राजनीति में इस प्रकार की बातें स्वभावत: सहन की जाती हैं।  
* लाल बहादुर शास्त्री राजनीति में इनसे काफ़ी जूनियर थे, इसीलिए उनका प्रधानमंत्री बनना मोरारजी देसाई पचा नहीं पाए थे, जबकि राजनीति में इस प्रकार की बातें स्वभावत: सहन की जाती हैं।  

08:06, 21 अक्टूबर 2010 का अवतरण

मोरारजी का पूरा नाम मोरारजी रणछोड़जी देसाई था। (जन्म- 29 फरवरी 1896, गुजरात) उन्हें भारत के चौथे प्रधानमंत्री के रूप में जाना जाता है। वह 81 वर्ष की आयु में प्रधानमंत्री बने थे। इसके पूर्व कई बार उन्होंने प्रधानमंत्री बनने की कोशिश की परंतु असफल रहे। लेकिन ऐसा नहीं हैं कि मोरारजी प्रधानमंत्री बनने के क़ाबिल नहीं थे। वस्तुत: वह दुर्भाग्यशाली रहे कि वरिष्ठतम नेता होने के बावज़ूद उन्हें पंडित नेहरू और लालबहादुर शास्त्री के निधन के बाद भी प्रधानमंत्री नहीं बनाया गया। मोरारजी देसाई मार्च 1977 में देश के प्रधानमंत्री बने लेकिन प्रधानमंत्री के रूप में इनका कार्यकाल पूर्ण नहीं हो पाया। चौधरी चरण सिंह से मतभेदों के चलते उन्हें प्रधानमंत्री पद छोड़ना पड़ा।

जन्म एवं

मोरारजी देसाई का जन्म 29 फरवरी 1896 को गुजरात के भदेली नामक स्थान पर हुआ था। उनका संबंध एक ब्राह्मण परिवार से था। उनके पिता रणछोड़जी देसाई भावनगर (सौराष्ट्र) में एक स्कूल अध्यापक थे। वह अवसाद (निराशा एवं खिन्नता) से ग्रस्त रहते थे, अत: उन्होंने कुएं में कूद कर अपनी इहलीला समाप्त कर ली। पिता की मृत्यु के तीसरे दिन मोरारजी देसाई की शादी हुई थी। पिता को लेकर उनके ह्रदय में काफ़ी सम्मान था। इस विषय में मोरारजी देसाई ने कहा था-

"मेरे पिता ने मुझे जीवन के मूल्यवान पाठ पढ़ाए थे। मु्झे उनसे कर्तव्यों का पालन करने की प्रेरणा प्राप्त हुई थी। उन्होंने धर्म पर विश्वास रखने और सभी स्थितियों में समान बने रहने की शिक्षा भी मुझे दी थी।"

मोरारजी देसाई की माता मणिबेन क्रोधी स्वभाव की महिला थीं। वह अपने घर की समर्पित मुखिया थीं। रणछोड़जी की मृत्यु के बाद वह अपने नाना के घर अपना परिवार ले गईं। लेकिन इनकी नानी ने इन्हें वहाँ नहीं रहने दिया। वह पुन: अपने पिता के घर पहुँच गईं।

विद्यार्थी जीवन

मोरारजी देसाई की शिक्षा-दीक्षा मुंबई के एलफिंस्टन कॉलेज में हुई जो उस समय काफ़ी महंगा और खर्चीला माना जाता था। मुंबई में मोरारजी देसाई नि:शुल्क आवास गृह में रहे जो गोकुलदास तेजपाल के नाम से प्रसिद्ध था। एक समय में वहाँ 40 शिक्षार्थी रह सकते थे। विद्यार्थी जीवन में मोरारजी देसाई औसत बुद्धि के विवेकशील छात्र थे। इन्हें कॉलेज की वाद-विवाद टीम का सचिव भी बनाया गया था लेकिन स्वयं मोरारजी ने मुश्किल से ही किसी वाद-विवाद प्रतियोगिता में हिस्सा लिया होगा। मोरारजी देसाई ने अपने कॉलेज जीवन में ही महात्मा गाँधी, बाल गंगाधर तिलक और अन्य कांग्रेसी नेताओं के संभाषणों को सुना था। कॉलेज जीवन के पाँच वर्षों में इन्होंने बहुत सी फ़िल्में देखीं लेकिन स्वयं के पैसों से नहीं। इनका कहना था- "मैं अपने पैसों से फ़िल्म देखना या मनोरंजन करना पसंद नहीं करता। मुझमें कभी ऐसी ख़्वाहिश ही नहीं उठती थी।" बचपन में मोरारजी देसाई को क्रिकेट देखने का भी शौक था लेकिन क्रिकेट खेलने का नहीं। क्रिकेट मैचों को देखने के लिए वह सही वक्त का इंतजार करते थे और सुरक्षा प्रहरी की नज़र बचाकर दर्शक दीर्घा में प्रविष्ट हो जाते थे।

व्यावसायिक जीवन

मोरारजी देसाई ने मुंबई प्रोविंशल सिविल सर्विस हेतु आवेदन करने का मन बनाया जहाँ सरकार द्वारा सीधी भर्ती की जाती थी। जुलाई 1917 में उन्होंने यूनिवर्सिटी ट्रेनिंग कोर्स में प्रविष्टि पाई। यहाँ इन्हें ब्रिटिश व्यक्तियों की भाँति समान अधिकार एवं सुविधाएं प्राप्त होती रहीं। यहाँ रहते हुए मोरारजी अफसर बन गए। मई 1918 में वह परिवीक्षा पर बतौर उप ज़िलाधीश अहमदाबाद पहुंचे। उन्होंने चेटफ़ील्ड नामक ब्रिटिश कलेक्टर (ज़िलाधीश) के अंतर्गत कार्य किया। मोरारजी 11 वर्षों तक अपने रूखे स्वभाव के कारण विशेष उन्नति नहीं प्राप्त कर सके और कलेक्टर के निजी सहायक पद तह ही पहुँचे।

राजनीतिक जीवन

इसके बाद आत्ममंथन का दौर चला। मोरारजी देसाई ने 1930 में ब्रिटिश सरकार की नौकरी छोड़ दी और स्वतंत्रता संग्राम के सिपाही बन गए। 1931 में वह गुजरात प्रदेश की कांग्रेस कमेटी के सचिव बन गए। उन्होंने अखिल भारतीय युवा कांग्रेस की शाखा स्थापित की और सरदार पटेल के निर्देश पर उसके अध्यक्ष बन गए। 1932 में मोरारजी को 2 वर्ष की जेल भुगतनी पड़ी। मोरारजी 1937 तक गुजरात प्रदेश कांग्रेस कमेटी के सचिव रहे। इसके बाद वह बंबई राज्य के कांग्रेस मंत्रिमंडल में सम्मिलित हुए। इस दौरान यह माना जाता रहा कि मोरारजी देसाई के व्यक्तितत्व में जटिलताएं हैं। वह स्वयं अपनी बात को ऊपर रखते हैं और सही मानते हैं। इस कारण लोग इन्हें व्यंग्य से 'सर्वोच्च नेता' कहा करते थे। मोरारजी को ऐसा कहा जाना पसंद भी आता था। गुजरात के समाचार पत्रों में प्राय: उनके इस व्यक्तित्व को लेकर व्यंग्य भी प्रकाशित होते थे। कार्टूनों में इनके चित्र एक लंबी छड़ी के साथ होते थे जिसमें इन्हें गाँधी टोपी भी पहने हुए दिखाया जाता था। इसमें व्यंग्य यह होता था कि गाँधीजी के व्यक्तित्व से प्रभावित लेकिन अपनी बात पर अड़े रहने वाले एक ज़िद्दी व्यक्ति।

स्वतंत्रता संग्राम में भागीदारी के कारण मोरारजी देसाई के कई वर्ष ज़ेलों में ही गुज़रे। देश की आज़ादी के समय राष्ट्रीय राजनीति में इनका नाम वज़नदार हो चुका था। लेकिन मोरारजी की प्राथमिक रुचि राज्य की राजनीति में ही थी। यही कारण है कि 1952 में इन्हें बंबई का मुख्यमंत्री बनाया गया। इस समय तक गुजरात तथा महाराष्ट्र बंबई प्रोविंस के नाम से जाने जाते थे और दोनों राज्यों का पृथक गठन नहीं हुआ था। 1967 में इंदिरा गाँधी के प्रधानमंत्री बनने पर मोरारजी को उप प्रधानमंत्री और गृह मंत्री बनाया गया। लेकिन वह इस बात को लेकर कुंठित थे कि वरिष्ठ कांग्रेस नेता होने पर भी उनके बजाय इंदिरा गाँधी को प्रधानमंत्री बनाया गया। यही कारण है कि इंदिरा गाँधी द्वारा किए जाने वाले क्रांतिकारी उपायों में मोरारजी निरंतर बाधा डालते रहे। दरअसल जिस समय श्री कामराज ने सिंडीकेट की सलाह पर इंदिरा गाँधी को प्रधानमंत्री बनाए जाने की घोषणा की थी तब मोरारजी भी प्रधानमंत्री की दौड़ में शामिल थे। जब वह किसी भी तरह नहीं माने तो पार्टी ने इस मुद्दे पर चुनाव कराया और इंदिरा गाँधी ने भारी मतांतर से बाजी मार ली। इंदिरा गाँधी ने मोरारजी के अहं की तुष्टि के लिए इन्हें उप प्रधानमंत्री का पद दिया।  

प्रधानमंत्री पद पर

पण्डित जवाहर लाल नेहरू के समय कांग्रेस में जो अनुशासन था, वह उनकी मृत्यु के बाद बिखरने लगा। कई सदस्य स्वयं को पार्टी से बड़ा समझते थे। मोरारजी देसाई भी उनमें से एक थे। श्री लालबहादुर शास्त्री ने कांग्रेस पार्टी के वफ़ादार सिपाही की भाँति कार्य किया था। उन्होंने पार्टी से कभी भी किसी पद की मांग नहीं की थी। लेकिन इस मामले में मोरारजी देसाई अपवाद में रहे। कांग्रेस संगठन के साथ उनके मतभेद जगज़ाहिर थे और देश का प्रधानमंत्री बनना इनकी प्राथमिकताओं में शामिल था। इंदिरा गांधी ने जब यह समझ लिया कि मोरारजी देसाई उनके लिए कठिनाइयाँ पैदा कर रहे हैं तो उन्होंने मोरारजी के पर कतरना आरम्भ कर दिया। इस कारण उनका क्षुब्ध होना स्वाभाविक था। नवम्बर 1969 में जब कांग्रेस का विभाजन कांग्रेस-आर और कांग्रेस-ओ के रूप में हुआ तो मोरारजी देसाई इंदिरा गांधी की कांग्रेस-आई के बजाए सिंडीकेट के कांग्रेस-ओ में चले गए। फिर 1975 में वह जनता पार्टी में शामिल हो गए। मार्च 1977 में जब लोकसभा के चुनाव हुए तो जनता पार्टी को स्पष्ट बहुमत प्राप्त हो गया। परन्तु यहाँ पर भी प्रधानमंत्री पद के दो अन्य दावेदार उपस्थित थे-चौधरी चरण सिंह और जगजीवन राम। लेकिन जयप्रकाश नारायण जो स्वयं कभी कांग्रेसी हुआ करते थे, उन्होंने किंग मेकर की अपनी स्थिति का लाभ उठाते हुए मोरारजी देसाई का समर्थन किया।

इसके बाद 23 मार्च, 1977 को 81 वर्ष की अवस्था में मोरारजी देसाई ने भारतीय प्रधानमंत्री का दायित्व ग्रहण किया। इनके प्रधानमंत्रित्व के आरम्भिक काल में, देश के जिन नौ राज्यों में कांग्रेस का शासन था, वहाँ की सरकारों को भंग कर दिया गया और राज्यों में नए चुनाव कराये जाने की घोषणा भी करा दी गई। यह अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक कार्य था। जनता पार्टी, इंदिरा गांधी और उनकी समर्थित कांग्रेस का देश से सफ़ाया करने को कृतसंकल्प नज़र आई। लेकिन इस कृत्य को बुद्धिजीवियों द्वारा सराहना प्राप्त नहीं हुई।

सहयोगी दल सरकार

विधानसभा चुनावों में तमिलनाडु को छोड़कर अन्य राज्यों में जनता पार्टी और सहयोगी दल सरकार बनाने में सफल रहे। इस दौरान जनता पार्टी ने एक अन्य काम भी किया, वह यह कि संविधान के 44वें संशोधन द्वारा 42वें संशोधन (इसे इंदिरा गांधी ने आपातकाल के दौरान संशोधित किया था) में ऐसा प्रावधान किया, जिससे संविधान को कमज़ोर न करते हुए पुन: आपातकाल न लगाया जा सके। साथ ही साथ जनता पार्टी ने सर्वोच्च न्यायालय का यह अधिकार भी बहाल किया जिसके अनुसार केन्द्र अथवा राज्य सरकार द्वारा बनाए गए क़ानूनों की वैधानिकता के बारे में सर्वोच्च न्यायालय निर्णय कर सकती थी। आपातकाल में सर्वोच्च न्यायालय से केन्द्र तथा राज्यों की क़ानून की समीक्षा करने का अधिकार भी छीन लिया गया था।

जनता पार्टी ने इंदिरा गांधी के ख़िलाफ़ 35 जाँच आयोग गठित किए, जिनमें 'शाह आयोग' सबसे प्रमुख था।

विभिन्न समस्याएँ

जब शासन अक्षम और कमज़ोर होता है तो समस्याएँ थोक के भाव पैदा होती हैं। त्रिपुरा, असम एवं मणिपुर समस्याओं का केन्द्र बन गए। अलीगढ़ और रांची सहित देश के कई अन्य शहरों में साम्प्रदायिक सौहार्द्र बिगड़ने लगा, फिर वहाँ पर दंगे भी हुए। वस्तुत: जनता पार्टी में विभिन्न विचारधाराओं वाले लोग मंत्री थे, जो कि अपने-अपने अनुसार कार्य कर रहे थे, न कि सरकार के अनुसार। जनता पार्टी सरकार में सुशासन प्रदान करने की क्षमता नहीं थी और न ही वे ऐसी संकल्प शक्ति दिखा रहे थे। उस समय जनता पार्टी सरकार में विदेश मंत्री के तौर पर अटल बिहारी वाजपेयी एक स्वच्छ छवि वाले नेता थे।

चौधरी चरण सिंह जो किसान नेता थे और कृषि मंत्रालय के योग्य थे, वह देश का गृह मंत्रालय सम्भाल रहे थे। प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में स्वयं गृह मंत्रालय का पदभार सम्भाला था और वह एक कुशल प्रशासक भी थे। सामाजिक न्याय प्राप्ति की दिशा में जनता पार्टी एक क़दम नहीं चली। ग्रामीण परिवेश की अर्थव्यवस्था सुधारने का भी कोई प्रयास नहीं किया गया।

देश की जनता में विभिन्न मामलों को लेकर अंसतोष बढ़ रहा था। अगड़ों का व्यवहार पिछड़ों के प्रति अत्याचारी होने लगा। बिहार में जुल्म-ओ-सितम की उस वक्त इंतेहा हो गई जब सवर्णों द्वारा पिछड़ों को ज़िंदा जलाने की लोमहर्षक घटना घटी। इस प्रकार हरिजनों को जलाया जाना जनता पार्टी सरकार के लिए घातक सिद्ध होने वाला था। इसके अतिरिक्त जनता पार्टी के शासन काल में निम्नलिखित कारणों से भी असंतोष बढ़ा जो मोरारजी देसाई के पतन का कारण बना-

  • जनता पार्टी में विलय हुई पार्टियों ने उसे अपना घर नहीं माना था। उनके लिए स्वयं की पार्टी का वजूद बना हुआ था। इस कारण निष्ठा भाव की कमी थी। सभी पार्टियाँ सत्ता सुख भोगने में लगी हुई थीं।
  • छात्रों को अपने आन्दोलनों में साथ रखकर ही जनता पार्टी सत्ता तक पहुँची थी। लेकिन कॉलेजों और विश्वविद्यालयों की समस्याओं का कोई समाधान न होने से शिक्षार्थी वर्ग भी इनके ख़िलाफ़ हो गया।
  • 1979 में अर्द्धसैनिक बलों ने विद्रोह कर दिया, जिसे कुचलने में काफ़ी समय लगा। लेकिन इस विद्रोह ने यह साबित कर दिया कि जनता पार्टी की सरकार का कहीं पर भी नियंत्रण नहीं है।
  • देश की पंचवर्षीय योजना को पुराने कलैंडर की भाँति लपेटकर रख दिया गया। इस कारण देश की समग्र विकास दर बुरी तरह से प्रभावित हुई।
  • 'काम के बदले अनाज योजना' आरम्भ की गई, लेकिन इसमें व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण वांछित सफलता प्राप्त नहीं हुई।
  • 1978-79 में कई राज्यों में सूखा पड़ा। जिससे अक़ाल की स्थिति पैदा हो गई। सरकारी खाद्यान्न भण्डार रिक्त हो गए। खाद्यान्नों की क़ीमतों में वृद्धि हुई। केरोसिन तेल भी ग़रीब जनता के लिए दिवास्वप्न हो गया।
  • जनता पार्टी सरकार में शामिल घटक दल अपने स्वार्थ की रोटियाँ सेंक रहे थे। भारतीय जनसंघ पार्टी हिन्दुत्व का कार्ड खेल रही थी। जबकि कांग्रेस-ओ धर्मनिरेपेक्ष का दिखावा कर रही थी।
  • प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई कहने भर को प्रधानमंत्री रह गए। उनका किसी भी मंत्री पर कोई ज़ोर नहीं रह गया था।
  • मुद्रा स्फीति की दर 20 प्रतिशत के पार हो गई। इस कारण 1979 तक अनवरत क़ीमतों में वृद्धि जारी थी।

15 जुलाई, 1979 को मोरारजी देसाई की सरकार अल्पमत में आ गई और उन्हें त्यागपत्र देने को विवश होना पड़ा।

इस प्रकार मोरारजी देसाई की चिरप्रतीक्षित अभिलाषा अवश्य पूर्ण हो गई कि वह देश के प्रधानमंत्री बनें।

समग्र विश्लेषण

  • मोरारजी देसाई को गांधीवादी नीति का परम समर्थक माना जाता है। लेकिन इस नीति में इन्होंने क्षमा भाव को शायद स्वीकार नहीं किया था और ही निजता के अहं का त्याग किया था।
  • मोरारजी जो निर्णय कर लेते थे, उस पर क़ायम रहते थे। ब्रिटिश नौकरी छोड़कर जब वह स्वतंत्रता संग्राम के सिपाही बने तब भी इन्होंने अपनी अंतरात्मा पर ही निर्णय दिया था।
  • मोरारजी के व्यक्तित्व में सादगी, ईमानदारी तथा कर्तव्यनिष्ठा थी। वह सत्य एवं अहिंसा के उपासक भी थे। इसीलिए राजनीति उनके व्यक्तित्व से मेल नहीं खाती थी। राजनीति में समझौते किये जाते हैं और पार्टी की इच्छा का आदर किया जाता है। लेकिन मोराराजी देसाई इस प्रकार के समझौते नहीं कर पाते थे।
  • लाल बहादुर शास्त्री राजनीति में इनसे काफ़ी जूनियर थे, इसीलिए उनका प्रधानमंत्री बनना मोरारजी देसाई पचा नहीं पाए थे, जबकि राजनीति में इस प्रकार की बातें स्वभावत: सहन की जाती हैं।
  • मोरारजी देसाई के प्रधानमंत्रित्व काल में इंदिरा गांधी को जिस प्रकार से प्रताड़ित किया गया था, उसके लिए यह ज़िम्मेदार नहीं थे। इनकी सरकार के विशिष्ट जन ऐसा चाहते थे और यह उन पर आश्रित प्रधानमंत्री थे। अत: इस प्रकार का सारा दोष इन पर नहीं मढ़ा जाना चाहिए।
  • मोरारजी देसाई स्पष्ट वक्ता थे और अन्याय सहन नहीं करते थे। वह अपनी प्रतिक्रिया तत्काल व्यक्त कर देते थे। जैसे-अटल बिहारी वाजपेयी को इन्होंने कह दिया था कि 'घर पर भी रहा करो।'
  • मोरारजी देसाई को भारतीय संस्कृति और उसकी परम्परा पर अटूट विश्वास था। वह अध्यात्मवादी व्यक्ति भी थे।
  • मोरारजी देसाई अपने स्वास्थ्य को लेकर जो उन्हें ठीक लगता था, उसका पालन करते थे। वह भोजन में थोड़ा दूध, मौसली फलों का रस एवं कुछ सूखे मेवे लेते थे। जब वह प्रधानमंत्री तब वह कोई भी अन्न नहीं खाते थे।
  • मोरारजी देसाई 'स्व-मूत्रपान' को स्वास्थ्य की दृष्टि से उत्तम औषधि मानते थे। 'शिवांगु' अर्थात् स्व-मूत्रपान के सम्बन्ध में उन्होंने सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया था और इसके लाभ भी बताए थे।
  • मोरारजी देसाई 'श्रीमदभगवद् गीता' के दर्शन से काफ़ी प्रभावित थे। लेकिन रात्रि नौ बजे अपने शयन कक्ष में अवश्य पहुँच जाते थे। इन्हें रात्रि में जागना गवारा नहीं था, जब तक की कोई भारी विपत्ति न आ जाए। प्रधानमंत्री रहते हुए भी इनकी यही प्रक्रिया जारी रही।
  • मोरारजी देसाई में अनूठा आत्मबल था। इनकी जिद्दी स्वभाव में यह बात भी शामिल थी कि इन्हें शतायु (100 वर्ष की उम्र) अवश्य होना है। लेकिन इनकी मृत्यु 99 वर्ष और कुछ माह गुज़रने के बाद 1995 में ही हो गई।
  • मोरारजी देसाई एकमात्र ऐसे भारतीय प्रधानमंत्री हैं जिन्हें भारत सरकार की ओर से 'भारत रत्न' तथा पाकिस्तान की ओर से 'तहरीक़-ए-पाकिस्तान' का सर्वश्रेष्ठ नागरिक सम्मान प्राप्त हुआ है।

बेशक मोरारजी देसाई एक सफल प्रधानमंत्री नहीं साबित हुए लेकिन इसके लिए तत्कालीन जनता पार्टी की परिस्थितियाँ ही ज़िम्मेदार थीं। तथापि एक सफल व्यक्ति के रूप में भारतीय राजनीति में इनका स्थान अक्षुण्ण रहेगा। इनका जीवन चरित्र आने वाली नस्लों के लिए अनुकरणीय होगा।


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