"दिल्ली": अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें
पंक्ति 57: पंक्ति 57:
शाहजहाँनाबाद के निर्माण के 10 वर्ष बाद ही शाहजहाँ के पुत्र औरंगज़ेब ने शहर पर कब्ज़ा करके उन्हें आगरा के क़िले में नजरबंदकर दिया और जुलाई 1658 में स्वयं को बादशाह घोषित कर दिया। औरंगज़ेब को विरासत में एक सघन और समृद्ध राजधानी मिली थी। लेकिन धीरे– धीरे इस शहर की अवनति शुरु हो गई, क्योंकि इसका नया शासक इसके संस्थापक के विपरीत एकदम भिन्न स्वभाव वाला था। शाहजहाँ ने कला को बढावा दिया और जिंदगी का लुत्फ उठाया औरंगज़ेब इन दोनों से दूर रहते थे। उन्हे शहर को सुदंर बनाने में न तो दिलचस्पी थी। न ही उन्हें इसका अवसर मिला। वह स्थायी रुप से शाहजहाँनाबाद में रहे ही नहीं। उनके उत्तराधिकारियों को एक विभाजित और निर्बल राज्य शासन करने को मिला। फ़ारस के लुटेरे नादिरशाह के जघन्य आक्रमण ने इस शहर पर अंतिम प्रहार किया।
शाहजहाँनाबाद के निर्माण के 10 वर्ष बाद ही शाहजहाँ के पुत्र औरंगज़ेब ने शहर पर कब्ज़ा करके उन्हें आगरा के क़िले में नजरबंदकर दिया और जुलाई 1658 में स्वयं को बादशाह घोषित कर दिया। औरंगज़ेब को विरासत में एक सघन और समृद्ध राजधानी मिली थी। लेकिन धीरे– धीरे इस शहर की अवनति शुरु हो गई, क्योंकि इसका नया शासक इसके संस्थापक के विपरीत एकदम भिन्न स्वभाव वाला था। शाहजहाँ ने कला को बढावा दिया और जिंदगी का लुत्फ उठाया औरंगज़ेब इन दोनों से दूर रहते थे। उन्हे शहर को सुदंर बनाने में न तो दिलचस्पी थी। न ही उन्हें इसका अवसर मिला। वह स्थायी रुप से शाहजहाँनाबाद में रहे ही नहीं। उनके उत्तराधिकारियों को एक विभाजित और निर्बल राज्य शासन करने को मिला। फ़ारस के लुटेरे नादिरशाह के जघन्य आक्रमण ने इस शहर पर अंतिम प्रहार किया।


1803 में अग्रेज़ शासकों ने जब दिल्ली पर कब्ज़ा किया तब यह वाणिज्य एवं व्यवसाय का प्रमुख केंद्र थी, यद्यपि क़िलाबंद शहर भव्य कितु जीर्ण–शीर्ण गंदी बस्ती में बदल चुका था। चारदीवारी क्षेत्र में लगभग एक लाख तीस हज़ार और उपनगरों में लगभग 20 हज़ार लोग रहते है। सुरक्षा और स्थान की द्दष्टि से ब्रिटिश कमांडरों ने ईस्ट इंडिया कपनी के कार्यालय लाल क़िले के आसपास के क्षेत्र में स्थापित किए जो घनी आबादी वाला नही था।
1803 में अग्रेज़ शासकों ने जब दिल्ली पर कब्ज़ा किया तब यह वाणिज्य एवं व्यवसाय का प्रमुख केंद्र थी, यद्यपि क़िलाबंद शहर भव्य कितु जीर्ण–शीर्ण गंदी बस्ती में बदल चुका था। चारदीवारी क्षेत्र में लगभग एक लाख तीस हज़ार और उपनगरों में लगभग 20 हज़ार लोग रहते है। सुरक्षा और स्थान की द्दष्टि से ब्रिटिश कमांडरों ने ईस्ट इंडिया कपनी के कार्यालय लाल क़िले के आसपास के क्षेत्र में स्थापित किए जो घनी आबादी वाला नही था। उत्तरी भाग में रेज़िडेंसी बनाई गई, जहाँ छावनी, अस्तबल, वनस्पति क्षेत्र, शरत्रागार और बारुद भंडार, सीमा शुल्क कार्यालय एक बैंक दो अस्पताल, कुछ बंग़ले तथा एक गिरजाघर भी बनाए गए। नई सैन्य ज़रुरतों के हिसाब से क़िलेबंद मे कुछ परिर्वतन किए गए।
 
क़िलेबंद शहर से अधिक क्षेत्र मे विस्तृत छावनी को 1828 में पश्चिमोत्तर 'रिज' पर स्थानांतरित किया गया। पहाड़ी के एक ऊँचे स्थल पर पारंपरिक एवं गॉथिक शैली में वैकल्पिक रेज़िडेंसी का निर्माण किया गया, जिसके पश्चात और भी विशाल मैटकॉफ़ हाउस बनाया गया उसका स्वामी बाद में रेज़िडेंट के स्थान पर 'एजेंट ऑफ़ डेल्ही' बना। 1840 के दशक मे छावनी क्षेत्र के आसपास आत्मनिर्भर और सांस्कृतिक रुप से पृथक आवासीय उपनगर का विकास हुआ, जिसे नागरिक क्षेत्र कहा गया। विलियम फ़्रेज़र तथा चाल्स मेट कॉफ जैसे दिल्ली के प्रारभिक अंग्रेज शासक यहां  की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत से सम्मोहित थे मुगल राजदरबार को पारपरिक समारोह को मनाने के अनुमति थी तथा बादशाहों के नाम पर सिक्के ढाले जाते थे कितु 1857 के भारतीय गदर के पश्चात सब कुछ यहां तक कि दिल्ली के प्रति ब्रिटिश शासन का रवैया भी बदल गया।  विद्रोह के बाद मुगल बादशाह शाह 11 को रंगून (वर्तमान यागून) निर्वासित कर दिया गया तथा उनके परिवारजनक की हत्या कर दी गई । सेना ने राजमहल पर कब्जा करके इसे किले मे बदल दिया ।  किले के आसपास तथा परकोट के समीप स्थित 457 मीटर क्षेत्र को सैन्य क्षेत्र घोषित कर दिया और इसके बाद वजामा मस्जिद के बीच की तमाम इमारतें गिराकर मैदान बना दी गई काश्मीरी गेट से दरियागंज तक की अधिग्रहित भूमि पर छावनी को पुन: शहर में लाया गया । यह क्षेत्र पूर्व मे चारदीवारी पश्चिम में मैदान (एस्पलेनेड) वनदी के किनारे तक फैला है। किलेबंद शहर के एक तिहाई क्षेत्र मे छावनी बस गई ।  कई यूरोपीय विदेशी शहर से बाहर सिविल लाइंस में चले गए और दरियागंज के निवासी चांदनी चौक आ गए ।
जैसे ही दिल्ली के प्रशासन पर ब्रिटिश ताज का कब्जा हुआ, तीन क्रियाशील ‘इकाइयों’ मूल नगर छावनी तथा आमतौर पर सिविल लाइंस कहलाने वाला नगरीय क्षेत्र के साथ इसके भौतिक स्वरुप ने पारंपरिक औपनिवेशिक नगर का रुप ले लिया । धीरे धीरे दिल्ली का आधुनिकीकरण होने लगा । 1867 मे कलकत्ता से दिल्ली  के लिए पहली नियमित  रेले चली । 1910 तक नगर मे नगरीय निकाय के शासन की स्थापना, जल वितरण और मल – जल निकाय प्रणाली  दूरभाष और टेलीग्राफ लाइनें तथा बिजली की व्यवस्था हो गई ।  चांदनी चौक में विक्टोरिया घटाकर बनाया गया, यहां की नहर पाट  दी गई और इसके ऊपर विद्युत ट्राम मार्ग का निर्माण हुआ । 1877 में भारत पर ब्रिटेन के आधिपत्य को दर्शाने के लिए ब्रिटिश महान  दरबारों की श्रंखला के पहले दरबार का आयोजन हुआ । तीसरा दरबार 1911 में हुआ  जो दिल्ली के लिए एक मोड़  साबित हुआ समारोह के दौरान जॉज वी.ने घोषणा की कि भारत की राजधानी कलकत्ता से पुन: दिल्ली लाई लाएगी इस निर्ण य को राजनीतिक और प्रशासकीय, दोनों आधारों  पर सही ठहराया गया ।  जनवरी 1912 मे राजनीतिक निर्णय के व्यावहारिक कार्यांवन के लिए तीन सदस्यीय समिति गठित की गई  । प्रसिद्ध वास्तुविद सर एड विन लुटियंस इसके सदस्य थे जिन्होंने अंतत इस शहर को नया स्वरुप दिया। इस समिति ने स्थल चयन का कार्य प्रारंभ किया । समिति ने फसील के दक्षिण में स्थित रायसीना पहाड़ी चुनी जो न तो बहुत दूर थी और न ही बहुत पास ।
दिसबर 1912 में समिति ने दिल्ली शहर के लिए लुटियंसकी योजना को मंजूर कर लिया इअस योजना के अनुसार, कलकत्ता के विपरीत वाइसरॉय हाउस, संसद भवन और सचिवालय को एक जगह बनाना था तथा इनका निर्माण इस योजना के केंद्र बिंदु रायसीना पहाड़ी पर नगरकोट  (एक्रोपॉलिस) में किया जाना था। हार्डिग ने घोषणा की कि नई  राजधानी का वास्तुशिल्प पूर्व और पश्चिम शैली का मिलाजुला रुप होगा । वाइसरॉय भवन से मुख्य केंद्रीय मार्ग राजपथ (किंग्सवे) प्रारंभ होता था। जो 3.2 किमी लंबा था और नदी की ओर जाता था।यह मार्ग बीच मे उत्तर – दक्षिण की ओर अपेक्षाकृत कम भव्य मार्ग से दो भागों में विभाजित होता है। जो क्वींसवे कहलाया । मुख्य मार्ग की समाप्ति एक विजय – तोरण,  इंडिया गेट पर होती थी ।  जो प्रथम विश्व युद्धमे शहीद हुए शूरवीरों  की स्मृति का सूचक था । जब यह राजनीतिक स्थित स्पष्ट हो गई कि सत्ता वाइसरॉय से विधान सभा को हस्तांतरित की जानी है, तो लुटियंस के सहयोगी सर हरबर्ट बेकर को संसद भवन की अभिकल्पना तैयार करने के निर्देश दिए गए । बेकर ने गोलाकार भवन का डिजाइन बनाया और इसका स्थान लाल किले के पश्चिमोत्तर मे पुराने शहर की ओर जाने वाले मार्ग पर नियत किया गया ।  एक अन्य गोलाकार भवन वाणिज्यिक केंद्र कनॉट प्लेस मे भी बना जिसकी अभिकल्पना इंग्लैड के बाथ स्थित एक भवन जैसी है। नई राजधानी का शुभारंभ जनवरी 1931 में हुआ । 
नई दिल्ली की सड़क – योजना ज्योमितिय सौंदर्यशास्त्र की धारणा पर आधारित है। समग्र योजना मे राजपथ (किंग्सवे) को मुख्य आधार मानकर बनाई गई षटभुजों की एक श्रंखला और 96 किमी लंबीमुख्य सड़के है। ये षटकोण तीन मार्गो के बीच स्थित थे जो गवर्नर हाउस से निकलकर ऐतिहासिक जामा मस्जिद, इंद्रप्रस्थ और सफदरजग के मकबरे की ओर जाते थे तथा वर्तमान को अतीत से जोडने थे । शहर के आवासीय ढांचेकी योजना का उदेश्य निवास की सुविधा को व्यवस्थित  करना था।  जगह जगह बाग बगीचों  का निर्माण भी किया गया ।
भारत के तत्कालीन वाइसरॉय बेरन चार्ल्स हार्डिग चाहते थे कि पुरानी और नई दिल्ली का सयोजन एक हो उन्होने निर्देश दिए कि दोनों की योजना एक शहर के रुप में हो न कि दो अलग अलग शहरों के रुप में किंतु लुटियंस अपने सकीर्ण शहरी सौदर्यीकरण पर जमे हुए थे ।  उनकी विराट योजना मे पुरानी दिल्ली महज एक महत्त्वहीन ध्वस्त होता शहरी क्षेत्र था और वह चाहते थे कि उसे ज्यों का त्यों छोड़ दिया जाए । यह पूर्वाग्रह पुरानी दिल्ली के लिए घातक सिद्ध हुआ जिसे 1041 और 1951 के बीच आए लगभग एक लाख शरणार्थियों को निवास प्रदान करना था । जहां नई दिल्ली के निवासी 6-8 व्यक्ति प्रति हेक्टेयर के घनत्व से अपने रहन सहन आदर्श बना रहे थे, वहीं  पुरानी दिल्ली 336 से 400 व्यक्ति प्रति हेक्टेयर  के बोझ से दबी जा रही थी ।
नई और पुरानी दिल्ली के बीच यह विसंगति शुरु से ही योजनाकारों के लिए रुकावट साबित हुई । प्रथम  नगर योजना मे दिल्ली को एक गंदी बस्ती के रुप मे चित्रित किया गया  और 1980  के दशक में ही जब दूसरी नगर योजना बनी उसे विरासत क्षेत्र के रुप मे कुछ महत्त्व दिया गया । लुटियंस  की दिल्ली को सदैव परम  पावन क्षेत्र समझा गया और इसकी मूल योजना तथा जनसंख्या में परिर्वतन के सुझावों काजनता  एव योजना दोनों के द्वारा विरोध किया गया । 1970 और 1980 के दशक में  ncडी.डी.ए (दिल्ली विकास प्राधिकरण) ने आवास व्यवसाय पर एकाधिकार कर लिया और वर्तमान शहरी केंद्रके आसपास विशाल भवन संकुल खड़े कर दिये गए । उच्च आय, मध्य आय और निम्न आय वर्ग के समूहों के आधार पर आवास उपलब्ध कराए गए । जोइस आय वर्ग से बाहर थे, वे अनाधिकृत बस्तियों या झोपड़ियों (गंदी बस्तियों) में इफाजा कर रहे है। जो अब जे.जे कॉलोनी जानी जाती है। 567 अनधिकृत बस्तियां राजनीतिक दबाव में वैध घोषित की जा चुकी है। दिल्ली की आवादी के उमड़्ते सैलाब को यमुना के पूर्वी तट पर बसाया गया है। जहां धीरे – धीरे  एक अलग ही दिल्ली आकार ले रही है। कई बड़े बाजार आवासीय भवन और धनाढ्य लोगों की कोठियां शहर की दक्षिण,पश्चिम तथा उत्तरी परिधि में बनाई जा चुकी है।
=वास्तुकला= दिल्ली के वैविध्यपूर्ण इतिहास ने विरासत में इसे समृद्ध वास्तुकला दी है । शहर के सबसे प्राचीन भवन सल्तनत काल के है और अपनी सरचना व अलकरण मे भिन्नता लिए हुए है। प्राकृतिक रुपाकंनों, सर्पाकार बेलों और कुरान के अक्ष्रों के घुमाव में हिंदू राजपूत कारीगरों का प्रभाव स्पष्ट नजर आता है। मध्य एशिया से आए कुछ कारीगर क्वि और वास्तुकला की सेल्जुक शैली की विशेषताएं मेहराब की निचली कोर पर कमल – कलियों की पंक्ति, उत्कीर्ण अलंकरण और बारी बारी से आड़ी और खड़ी ईटों की चिनाई है। खजली शासन काल तक इस्लामी वास्तुकला में प्रयोग तथासुधार का दौर समाप्त होचुका था और इस्लामी वास्तुकला में एक विशेष पद्धति और उपशैली स्थापित हो चुकी थी जिसे पख्तून शैली के नाम से जाना जाता है। इस शैली की अपनी लाक्षणिक विशेषताएं है। जैसे घोड़े के नाल की आकृति वाली मेहराबें जालीदार खिड़कियां अलकृत किनारे बेल बूटों का काम (बारीक विस्तृत रुप रेखाओं में) और प्रेरणादायी, आध्यात्मिक शब्दांकन बाहर की ओर अधिकांशत: लाल पत्थरों का तथा भीतर सफेद संगमरमर का उपयोग  मिलता है।
तुगलकों ने वास्तुकला की परपरा में बदलाव कर अलंकरण का तत्व समाप्त कर दिया इस काल मे स्लेटी पत्थरों वाले सीधे सपाट निर्माण को प्राथ्मिकता दी गई उनकी इमारतों मे एक दूसरे पर आधारित छतों वाली सादी मेहराबों कुरान की आयत से खुदे किनारों और भट्टी मे रंगी टाइलों को प्रभाव शाली ढंग से शामिल किया गया । तुगलकों ने अपने भवनों मे सजावट पर कम, और उनकी आकृति की भव्यता पर अधिक जोर दिया । सैयद और लोदी काल में गुंबदीय ढांचे कीदो जटिल शैलियां प्रचलित हुई । निम्न अष्टभुजाकार आकृति वाली शैली जिसका जमीनी क्षेत्रफल काफी विशाल होता था। और ऊंची वर्गाकार शैली जिसमें भवन का अग्रभाग चारो ओर से गुजरने वाली पट्टी और फलक  श्रंखला रुपी सजावटी तत्त्व से विभाजित होता था, जो इन्हे दो या तीन मंजिल जैसे होने का रुप देती प्रतीत होती थी । लोदी काल में बगीचे वाले मकबरों का निर्माण भी हुआ । इस काल की मस्जिदों में मीनारें नही होती थी।
दिल्ली में हुमायू6 का मकबरा मुगल वास्तुकला का प्रथम महत्त्वपूर्ण नमूना है। ताजमहल का अग्रगामी यह निर्माण भारत का पहला पूर्ण विकसित बगीचे वाला मकबरा भी है। इसने भारतीय वास्तुकला में ऊंची मेहराबों और दोहरे गुबदों की शुरुआत की जो मुगल वास्तुकला के प्रतिनिधि नमूने लाल किले में दिखाई देते है। इसमें निर्मित नक्कारखाने दीवार-ए-आम  और  दीवार-ए-खास,  महल तथा मनोरंजन कक्ष छज्जे हमाम, आंतरिक नहरें और ज्यामितीय सौंदर्यबोध के साथ निर्मित बगीचे तथा एक अलंकृत मस्जिद देखते ही बनते है। जामा मस्जिद मुगलकालीन मस्जिदों की वास्तविक प्रतिनिधि है। यह पहली मस्जिद है, जिनमें मीनारें भी है। अधिकांश भवनों में संगमरमर का इस्तेमाल हुआ है। जिनमें नक्काशी तथा बहुरंगी पत्थरों की सजावट के नायाब नमूने है।
दिल्ली की आंग्ल वास्तुकला औपनिवेशिक तथा मुगलकालीन कला का प्रतीक है। यह वाइसरॉय के आवास संसद भवन और सचिवालय के विशाल भवनों से लेकर आवासीय बंगली और दफ्तरों जैसी ओपयोगी इमारतों तक वैविध्यपूर्ण है। स्वतंत्र भारत में वास्तुकला ने अपनी अलग उपशैली विकसित करने का प्रयास किया है। देशज तथा पश्चिमी शैली के मिश्रित स्वरुप में स्थानीय उपशैलीयों की छटा दिखाई देती है। सर्वोच्च न्यायालय भवन विज्ञान भवन विभिन्न मंत्रालयों के कार्यालय कनॉट प्लेस के आसपास की इमारतें इसके श्रेष्ठ उदाहरण है। हाल ही में दिल्ली में अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के कुछ वास्तुकार हुए  जिन्होने दिल्ली के परिदृश्य में कुछ आकर्षण भवन जोड़े है। जिन्हे उत्तर – आधुनिक कहा जाता है।
=दिल्ली समझौता (1950)= इसे नेगरु- लियाकत समझौता भी कहा जाता है। यह समझौता भारत और पाकिस्तान के बीच दिसबर 1949 में आर्थिक संबंध टूट जाने के बाद पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश)में दोनों के बीच तनाव बढने पर 8अप्रैल 1950 को हुआ था। 1950 के दौरान करीब 10 लाख लोगों ने सीमा पार की थी, पूर्वी जिनमें पूर्वी पाकिस्तान के हिंदू और पश्चिम बंगाल के मुसलमान शामिल थे। अपने सहयोगी मंत्री वल्लभभाई पटेल के विरोध के बावजूद भारत के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली खां के साथ समझौता किया, जिसके अंतर्गत शरणार्थियों को बिना हस्तक्षेप के अपनी संपत्ति बेचने के लिए वापस जाने की व्यवस्था व अपहृत महिलाओं और लूटी गई संपत्ति वापस लौटाया जाना, जबरन धर्म परिवर्तन  का अस्वीकार  और अल्पसंख्यकों के अधिकारों की पक्की सुरक्षा की व्यवस्था की जानी थी । इन्हे लागू करने के लिए अल्पसंख्यक आयोग गठित किए गए  थे और कुछ समय के लिए सचमुच ही आपसी विश्वास लौट आया था ।
 


{{लेख प्रगति
{{लेख प्रगति

07:56, 9 नवम्बर 2010 का अवतरण

दिल्ली के विभिन्न द्रश्य

दिल्ली भारत की राजधानी एवं महानगरीय क्षेत्र है। इसमें नई दिल्ली सम्मिलित है जो कि ऐतिहासिक पुरानी दिल्ली के बाद बसी थी। महान ऐतिहासिक महत्त्व वाला यह महानगरीय क्षेत्र महत्त्वपूर्ण व्यापारिक, परिवहन एवं सांस्कृतिक हलचलों से भरा है। दिल्ली देश के उत्तरी मध्य भाग मे गंगा की एक प्रमुख सहायक नदी यमुना के दोनों तरफ बसी है। दिल्ली देश का तीसरा बड़ा शहर है। अनुश्रुति है कि इसका वर्तमान नाम राजा ढीलू के नाम पर पड़ा जिसका आधिपत्य ई.पू पहली शताब्दी मे इस क्षेत्र पर था। बहरहाल बिजोला अभिलेखों (1170ई.) मे उल्लेखित ढिल्ली या ढिल्लिका सबसे पहला लिखित उद्धरण है। महाभारत काल में पाण्डवों द्वारा बसाया गया इन्द्रप्रस्थ नगर, दिल्ली आज हमारे देश का हृदय कहलाता है। यहाँ के ऐतिहासिक स्थल तथा रमणीय स्थल अपने आप में विशेष हैं। पर्यटन विकास के उद्वेश्य से यह आगरा और जयपुर से जुडा है।

भौतिक एव मानव भूगोल

दिल्ली एक जलसंभर पर स्थित है। जो गंगा तथा सिंध नदी प्रणालियों को विभाजित करता है। दिल्ली की सबसे महत्त्वपूर्ण स्थालाकृति विशेषता पर्वत स्कंध (रिज) है, जो राजस्थान प्रांत की प्राचीन अरावली पर्वत श्रेणियों का चरम बिंदु है। अरावली संभवत: दुनिया की सबसे पुरानी पर्वत माला है, लेकिन अब यह पूरी तरह वृक्ष विहीन हो चुकी है। पश्चिमोत्तर पश्चिम तथा दक्षिण मे फैला और तिकोने परकोट की दो भुजाओं जैसा लगने वाला यह स्कंध क्षेत्र 180 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र मे फैला है। कछारी मिट्टी के मैदान को आकृति की विविधता देता है तथा दिल्ली को कुछ उत्कृष्ट जीव व वनस्पतियाँ उपलब्ध कराता है। यमुना नदी त्रिभुजाकार परकोटे का तीसरा किनारा बताती है। इसी त्रिकोण के भीतर दिल्ली के प्रसिद्ध सात शहरो की उत्पत्ति ई.पू. 1000 से 17 वीं शताब्दी के बीच हुई।

जलवायु

दिल्ली की जलवायु उपोष्ण है। जो इसके भीतर प्रदेश होने की भू- स्थिति से प्रभावित है। दिल्ली में गर्मी के महीने मई तथा जून बेहद शुष्क और झुलसाने वाले होते है। दिन का तापमान कभी-कभी 43-45 तक पहुँच जाता है। मानसून जुलाई मे आता है। और तापमान को कम करता है। लेकिन सितंबर के अंत तक मौसम गर्म, उमस भरा और कष्टप्रद रहता है। यहाँ की वार्षिक औसत वर्षा लगभग 660 मिमी है। अक्टूबर से मार्च के बीच का मौसम काफ़ी सुहावना रहता है। हालांकि दिसंबर तथा जनवरी के महीने खूब ठंडे व कोहरे से भरे होते है। और कभी-कभी वर्षा भी हो जाती है। शीतकाल में प्रतिदिन का औसत न्यूनतम तापमान 7 डिग्री से. के आसपास रहता है, लेकिन कुछ रातें अधिक सर्द होती है।

वनस्पति

दिल्ली की परिवर्तनशील जलवायु के कारण तीन वानस्पतिक काल होते है। वर्षा की कमी तथा भूमिगत जलस्तर के नीचे से प्राकृतिक वनस्पति का प्रर्याप्त विकाश नही हो पाता। फूलों के करीब 1,000 प्रजातियाँ, जिनमे से अधिकाशं स्वदेशी मूल के है। यह यहाँ के वातावरण के अनुरुप ढल चुकी हैं, और दिल्ली शहर तथा आसपास के वातावरण मे फलफूल रहे हैं। पहाड़ियों एव नदी के तटवर्ती भूभाग की वनस्पतियाँ स्पष्टत: भिन्न है। स्कंध क्षेत्र में पाई जाने वाली पर्वतीय वनस्पतियों मे बबूल, जंगली खजूर तथा सघन झाड़ियाँ हैं। जिनमें कुछ फूलदार प्रजातियाँ भी शामिल हैं। यहाँ घास, बेले तथा लिपटने वाली अल्पायु लताएँ भी होती हैं, जो केवल बरसात के मौसम मे पनपती हैं। दूसरी ओर नदी के तट के रेतीले एव क्षारीय भूभाग में विशेषकर मानसून व ठंड के महीने में वनस्पतियाँ समृद्ध एवं भिन्न हैं।

प्राणी जीवन

दिल्ली में प्राणी जीवन खासा विपुल, विविध तथा देशज है तथा प्राणी विज्ञान की दृष्टि से सिस–गंगा की श्रेणी में आता है। मांसाहारी जीव प्रमुख रुप से देशी स्तनपायी हैं। लकड़बग्घे, भेड़िऐ, लोमड़ी, सियार तथा तेंदुए, जो पहले निचले जंगलों मे विचरण करते थे, अब दर्रों तथा शहर की सीमांत पहाड़ी चोटियों पर पाए जाते हैं। हिरन तथा वराह खुरदार प्राणियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये अब अपनी प्राकृतिक पर्यावास में कम ही मिलते हैं। साही खरगोश, चूहे व गिलहरियां शहर के कृतंकजीव हैं तथा चमगादड़ कांटाचूहा और छछूंदर दिल्ली के कीट भक्षी प्राणी हैं। जो अक्सर मंदिरों तथा ऐतिहासिक खंडहरों के आसपास पाए जाते हैं। दिल्ली का पक्षी जीवन भी समृद्ध एवं विविध है। घरेलू कबूतर, गौरैया, चीलें, कौवे, तोते जंगली बटेर, तीतर, पूरे साल पाए जाते हैं। दिल्ली के आसपास की झीलें शीतकाल में कई प्रवासी पक्षियों को आकर्षित करती है। यमुना नदी में मछलियों की 65 प्रजातियाँ पायी जाती हैं।

प्रशासन एवं नियोजन

प्रशासनिक व्यवस्था

दिल्ली ने प्रशासनिक व्यवस्था मे कई फेरबदल देखे हैं। 2 अगस्त, 1858 को ब्रिटिश संसद ने भारत सरकार अधिनियम पारित किया, जिसने भारत की अंग्रेज़ी सत्ता को ईस्ट इंडिया कंपनी से ब्रिटिश राज में स्थानांतरित कर दिया। 1876 में महारानी विक्टोरिया के शासनाधिकार में 'भारत की सम्राज्ञी' पदवी शामिल हो गई। 1947 तक दिल्ली मुख्य आयुक्त की अध्यक्षता में ब्रिटिश प्रांत रही। आज़ादी के बाद 1952 में यह केन्द्रशासित राज्य बनी लेकिन 1956 में इसका दर्जा बदल गया तथा यह केंद्र सरकार के अधीन केन्द्रशासित प्रदेश हो गई। 1958 में शहरी तथा ग्रामीण क्षेत्रों के लिए एक एकीकृत नियम की स्थापना की गई। दिल्ली की प्रशासनिक व्यवस्था में अधिनियम 1966 के तहत फिर परिवर्तन किया गया तथा तीन स्तरीय प्रणाली लागू की गई, जो एक उपराज्यपाल और एक कार्यकारी परिषद, एक निर्वाचित महानगरीय परिषद तथा नगर को मिलाकर बनाई गई है। संविधान के 69 वें संशोधन द्वारा इसे 1991 में विशिष्ट राज्य का दर्जा एवं निर्वाचित विधान सभा दी गई। राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत उप–राज्यपाल दिल्ली का प्रमुख होता है और प्रशासन मुख्यमंत्री चलाता है, जो निर्वाचित दल द्वारा नियुक्त किया जाता है।

स्तरों का समूह

दिल्ली राज्य प्रशासनिक एवं नियोजन क्षेत्रों के कई स्तरों का समूह है। इसका दायरा 1,485 वर्ग किलोमीटर है, जिसमें शहरी संकेंद्रण तथा 209 गाँव आते हैं। जो दिल्ली महरौली तहसीलों में बटे हैं। वृहद स्तर पर यह राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एन.सी.आर.) का ही भाग है। जो नगर एव ग्रामीण संगठन (टी.सी.पी.ओ.) द्वारा 1971 में एक नियोजन क्षेत्र के रुप मे अलग किया गया, ताकि दिल्ली के इर्द –गिर्द भावी विकाश को दिशा दी जा सके। एन. सी. आर के अंतर्गत दिल्ली राज्य तथा हरियाणा, उत्तर प्रदेश व राजस्थान के सीमावर्ती ज़िले या तहसीलें आती हैं। यह क्षेत्र दिल्ली महानगर के आसपास लगभग 100 किलोमीटर अर्द्धव्यास में फैला है। तथा इसमे 30,242,वर्ग किलोमीटर क्षेत्र आता है। क्षेत्र के भावी संतुलित विकास के लिए एक समंवित मास्टर प्लान तैयार करने हेतु 1985 में एन.सी.आर.बोर्ड का गठन किया गया। दिल्ली महानगर क्षेत्र उपवृहद स्तर पर है। जिनमें दिल्ली तथा निकटवर्ती राज्यों के सटे हुए शहरी भाग आते हैं। जो 3,182 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले हैं। लघु स्तर पर दिल्ली का शहरी समूह आता है, जिसका क्षेत्रफल 446 वर्ग किलोमीटर है। इसमें तीन नगरीय क्षेत्र आते हैं: नई दिल्ली नगर पालिका समिति (एन.डी.एम.सी.), नगर निगम दिल्ली (शहर), एम.सी.डी. (यू) तथा दिल्ली छावनी के साथ-साथ सेंसस द्वारा वर्गीकृत 23 उपनगर।

महानगरीय अधिशासन

दिल्ली का महानगरीय अधिशासन मुख्य रुप से नई दिल्ली नगर पालिका, दिल्ली नगर निगम तथा छावनी परिषद के अधीन है। दिल्ली नगर निगम निर्वाचित निकाय है। नई दिल्ली नगरपालिका (एन.डी.एम.सी.) के सदस्य शासन द्वारा मनोनीत होते हैं। नगर निगम के दायरे में अनिवार्य नागरिक एवं उचित कल्याणकारी कार्य आते हैं। गंदी बस्तियों को हटाना एवं सुधार इसके मुख्य कार्य हैं यह अपना काम क्षेत्रीय समितियों के माध्यम से करती है। जो स्थानीय पार्षदों तथा एक या अधिक पौर–मुख्य से गठित होती है, नई दिल्ली नगर पालिका का गठन 1933 में हुआ यह केवल नई दिल्ली (इसे यह स्वरुप वास्तुविद् एडविन लूटियंस ने दिया था) तथा इससे लगे हुए क्षेत्रो के प्रति उत्तरदायी हैं। छावनी क्षेत्र के स्थानीय कार्य रक्षा मंत्रालय के प्रशासन में आते हैं।

योजना

महानगरीय दिल्ली की योजना की ज़िम्मेदारी दिल्ली विकाश प्राधिकरण (डी.डी.ए.) के अधीन है, जिसका गठन 1957 के एक संसदीय अधिनियम के तहत हुआ। शहर के प्रथम 20 वर्षों की नगर योजना (मास्टर प्लान) टी.सी.पी.ओ. द्वारा तैयार की गई तथा इसे दिल्ली की बेतरतीब वृद्धि को नियंत्रित करने तथा आम लोगों की क्रय–क्षमता योग्य एवं उपयुक्त आवास उपलब्ध कराने के उद्देश्य से स्वीकृत आधारों पर डी.डी.ए. द्वारा 1962 में लागू किया गया। शासन द्वारा 24 हजार हेक्टेयर क्षेत्र का अधिकरण करके शहरी विकाश के लिए डी.डी.ए. को सौंपा गया। इस तरह डी. डी.ए साम्यवादी विश्व से बाहर राष्ट्रीयकृत भूमि का सबसे बड़ा विकासक बन गया। विलंबित दूसरी नगर योजना 1986 में प्रभाव में आई तथा यह उद्योगीकरण को धीमा करने, विकेंद्रीकरण, अनेक स्थानोंको जोड़ते लोक परिवहन के प्रावधान तथा कम ऊँचाई वाली किंतु घनी आवासीय व्यवस्था पर केंद्रित थी।

जनजीवन

अन्य राजधानियों की तरह दिल्ली महानगर की गतिविधियाँ भी अत्यंत सक्रिय हैं। 19 वीं सदी के अंत मुग़ल शासन काल का वैभव समाप्त हो चुका था, दिल्ली की आबादी मुश्किल से पाँच लाख थी, लेकिन धीरे-धीरे यह किसी दानव की तरह बढ़ती गई। वर्ष 2001 में दिल्ली की शहरी आबादी 1 करोड़ 28 लाख के लगभग पहुँच चुकी है और दिल्ली राज्य की कुल आबादी 1 करोड़ 37 लाख के लगभग पहुँच गई है। जनसांख्यिकीय विश्लेषण के अनुसार 90 प्रतिशत आबादी शहरी है। इनमें भी 85 प्रतिशत लोग तीन स्थायी नगरो मे बसते हैं।

2001 की जनगणना के अनुसार, दिल्ली की आबादी में लिंग अनुपात (प्रति1,000 पुरुषों पर महिलाएं) शहरी क्षेत्र मे 821 है, जिसमें 1991 के 827 के मुक़ाबले कमी आई है। यह इस बात का सूचक है कि पुरुषों का शहरों की तरफ पलायन अधिक है। दिल्ली में साक्षरता का प्रतिशत 81.82 है, जो राष्ट्रीय औसत से कहीं अधिक है। अगर हम दिल्ली के जनसांख्यिकी इतिहास पर नजर डालें, तो 1947 का कालखंड एक संक्रांति काल की तरह हमारे सामने खड़ा दिखाई देता है। इस काल मे हजारों शरणार्थी पाकिस्तान से दिल्ली आए। इनकी वजह से न केवल यहाँ का जनसांख्यिकी ढांचा बदला, बल्कि दिल्ली के सामाजिक– सांस्कृतिक और आर्थिक स्वरुप में भी परिर्वतन आया। तब से शहर प्रवासियों की वजह से फैलता गया। हाल के दशकों मे यहाँ जन्म-दर गिरी है, लेकिन प्रवासियों की आबादी का एक–तिहाई से अधिक हिस्सा प्रवासियों का है।

शहर के मुख्य धार्मिक समूहों में (1991 की जनगणना के अनुसार) हिंदू (लगभग 83 प्रतिशत), सिक्ख (लगभग नौ प्रतिशत) हैं। जनसंख्या के शेष चार प्रतिशत का निर्माण जैन, सिक्खईसाई, बौद्ध और अन्य लोग करते हैं। अधिकांश लोग हिंदी या उसका परिवर्तित रुप हिंदुस्तानी बोलते हैं। पंजाबी भाषा पंजाबियों द्वारा बोली जाती है। तथा उर्दू मुसलमानों द्वारा बोली जाती है। विभिन्न प्रांतों से आए आप्रवासी अपनी-अपनी भाषा बोलते हैं, लेकिन कामचलाऊ हिंदी सीखने की कोशिश करते हैं। शिक्षित वर्ग द्वारा अंग्रेज़ी समझी व बोली जाती है।

अर्थव्यवस्था

किसी भी ऐतिहासिक राजधानी की तरह दिल्ली भी वैविध्यपूर्ण केंद्र है, जिसमे प्रशासन, सेवाएं और निर्माण अच्छी तरह मिले–जुले हैं। दिल्ली कला एव हस्तकौशल की प्रचुर विविधता का केंद्र रहा है। मुग़ल काल में दिल्ली रत्न और आभूषण, धातु पच्चीकारी, कसीदाकारी, सोने की पच्चीकारी, रेशम और जरी का काम, मीनाकारी और शिल्प, मूर्तिकला और चित्रकला के लिए विख्यात थी। एक महत्त्वपूर्ण व्यावसायिक केंद्र के रुप मे भी इसकी पहचान थी दिल्ली का वर्तमान प्रशासकीय महत्व उस समय से है, जब भारत का शासन ईस्ट इंडिया कंपनी से लेकर महारानी विक्टोरिया को सौंप दिया गया और ब्रिटिश साम्राज्य की राजधानी, वाणिज्यिक और सेवा केन्द के रुप में विकसित हो गई। यहाँ की लगभग तीन–चौथाई आबादी व्यापार लोक प्रशासन, सामुदायिक, सामाजिक और निजी सेवाओं में संलग्न है। 20 वीं सदी के प्रारंभ में यहाँ आधुनिक उद्योगों का प्रवेश हुआ। यहाँ के बड़े उद्योगों मे कपास की ओटाई, कताई और बुनाई; आटा एव मैदा की मिलें पैकिंग; गन्ने व तेल का प्रसंस्करण प्रमुख थे। लघु उद्योगों में मुद्रण, जूता निर्माण, कसीदाकारी, बेकरी, शराब निर्माण लोहा तथा पीतल का काम होता है। 1980 के दशक से औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि शुरु हुई। 1981 में 50 हजार पंजीकृत औद्योगिक इकाइयों की संख्या बढकर 1990 में 81 हजार हो गई। इस कालखंड में औद्योगिक निवेश, उत्पादन और रोजगार मे भी लगभग दुगुनी वृद्धि हुई। 1990 के दशक मे इस शहर के आर्थिक स्वरुप मे महत्त्वपूर्ण स्थान बन गया और पुरानी दिल्ली ने उत्तर भारत के थोक वाणिज्यिक केंद्र के रुप में अपनी पहचान को और अधिक सुद्ढ़ बना लिया ।

इतिहास

पुरातात्विक परिदृश्य

दिल्ली का पुरातात्विक परिदृश्य अत्यंत दिलचस्प है व सहस्राब्दियों पुराने स्मारक कदम-कदम पर खड़े नजर आते हैं। नए या पुराने क़िलेबंद स्थान पर निर्मित 13 शहरों ने दिल्ली–अरावली त्रिकोण के लगभग 180 वर्ग किलोमीटर के एक सीमित क्षेत्र में अपनी मौज़ूदगी के निशान छोड़े हैं। दिल्ली के बारे मे यह किंवदंती प्रचलित है कि जिसने भी यहाँ नया शहर बनाया, उसे इसे खोना पड़ा। सबसे पुराना नगर इंद्रप्रस्थ, करीब 1400 ई.पू निर्मित किया गया था और वेद व्यास रचित महाकाव्य महाभारत में इसका वर्णन पांडवो की राजधानी के रुप में मिलता है। इस त्रिकोण मे निर्मित दिल्ली का दूसरा शहर है अनंगपुर या आनंदपुर, जिसकी स्थापना लगभग 1020 ई. मे तोमर राजपूत नरेश अनंग पाल ने राजनिवास के रुप मे की थी। यह शहर अर्द्धवृत्ताकार निर्मित तालाब सूरजकुंड के आसपास बसा था। अनंग पाल ने बाद मे इसे 10 किलोमीटर पश्चिम की ओर लालकोट पर स्थापित एक दुर्ग मे स्थानांतरित किया।

शासन

संभवत: एक चौहान राजपूत विशाल देव द्वारा 1153 मे इसे जीतने के पूर्व लाल कोट पर लगभग एक शताब्दी तक तोमर राजाओं का आधिपत्य रहा। विशाल देव के पौत्र पृथ्वीराज तृतीय या राय पिथोरा ने 1164 ई. मे लाल कोट के चारों ओर विशाल परकोट बनाकर इसका विस्तार किया। यह दिल्ली का तीसरा शहर कहलाता है। और क़िला राय पिथोरा के नाम से जाना गया। कई इतिहासकार इसे दिल्ली के सात शहरों में प्रथम मानते हैं। 1192 की लड़ाई मे मुस्लिम आक्रमणकारी मुहम्मद ग़ोरी ने पृथ्वीराज की हत्या कर दी। ग़ोरी यहाँ से दौलत लूटकर चले गए और अपने गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक को यहाँ का उपशासक नियुक्त कर गए। 1206 मे ग़ोरी की मृत्यु के बाद कुतुबुद्दीन ऐबक ने स्वंय को भारत का सुल्तान घोषित कर दिया और लालकोट को अपने साम्राज्य की राजधानी बनाया। अगली तीन शताब्दियों तक यहाँ छोटे अंतंरालों के साथ सुल्तान वंश का शासन रहा। कुतुबुद्दीन ऐबक ने लाल कोट को एक और महत्त्वपूर्ण स्मारक कुतुब मीनार दिया। यह विजय का स्मारक था और संभवत: एक मस्जिद की मीनार थी लेकिन कुतुबुमीनार के वर्तमान स्वरुप का निर्माण फ़िरोज शाह ने पूरा करवाया, जिसमें उन्होंने संगमरमर के अलंकरण के काम के साथ–साथ दो और मंजिलें बनवाई जिसमे उसकी ऊँचाई 74 मीटर हो गई। एक तरफ से यह भारत मे सुल्तान वंश के गौरवपूर्ण व विजयी आगमन का प्रतीक थी।

ख़लजी शासन (1290-1321) के दौरान दिल्ली पर मंगोल लुटेरों ने आक्रमण कर इसके असुरक्षित उपनगरों को ध्वस्त कर दिया। 1303 में अलाउद्दीन ने इसके चारों ओर 1.7 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में एक नया वृत्ताकार क़िलाबंद शहर बनवाया ताकि मंगोल पुन आक्रमण कर उपनगरों व बगीचों को ध्वस्त न कर सकें।

कुतुब-लाल कोट संकुल के विपरीत जो शहर देहली-ए-कुहना (पुरानी दिल्ली) कहलाता था, प्रारंभ मे लश्कर या लश्करगाह (सैनिक छावनी) के नाम से जाना गया। लाल कोट के साथ जुड़ी इस चारदीवारी से घिरी नगरी को बाद मे सिरी नाम दिया गया तथा इसे ख़लजी राजधानी (दारुल ख़िलाफ़ा) के रुप में जाना गया। इसकी परिधि की दीवार लगभग 1.5 किलोमीटर लंबी थी और उसमे कई मीनार व दरवाजे बने हुए थे। सिरी की गणना आमतौर पर दिल्ली के दूसरे शहर के रुप मे होती है, किंतु यह मुस्लिम विजेताओं द्वारा भारत में स्थापित पहला पूर्णत: नया शहर था।

इस प्रकार 14 वीं शताब्दी की दिल्ली में कुतुबु-लाल कोट संकुल स्थित देहली-ए-कुहना या पुरानी दिल्ली; ग़यासपुर– किलोखड़ी स्थित शहर-ए-नउ या नया शहर और सिरी स्थित दारुल ख़िलाफ़ा या राजधानी सम्मिलित थे। 1321 मे दिल्ली तुग़लक़ों के हाथों में चली गई, क्योंकि ख़लजी वंश के अंतिम शासक की मृत्यु बिना पुरुष उत्तराधिकारी के हो गई थी। 11 तुग़लक़ शासकों ने दिल्ली पर शासन की किया लेकिन वास्तुशिल्प में केवल तीन ने रुचि दिखाई उनमे से प्रत्येक ने दिल्ली त्रिकोण में स्थित वर्तमान शहरी समूह में एक नए शहर का राजधानी के रुप मे निर्माण किया। यह शहर सुल्तानों की सैन्य प्रकृति और सुरक्षा के प्रति तुग़लक़ों की दीवानगी को दर्शाते हैं। पहले एक दुर्ग तथा बाद मे एक शहर के रुप मे विकसित इन राजधानियों मे पहला गयासुद्दीन तुग़लक़ द्वारा निर्मित किलाबंद नगर – दुर्ग तुग़लक़ाबाद (1321-25) था।

मुहम्मद बिन तुग़लक़ (शासनकाल 1325-51) ने एक ऐसी राजधानी की कल्पना की थी, जो साम्राज्य की इनकी योजना को प्रतिबिंबित करे। यह योजना विस्तार की अपेक्षा उसे सुदृढ़ बनाने के लिए थी। सीमा पर आक्रमण अभी रुके नहीं थे, इसलिए उन्होने कुतुबु दिल्ली, सिरी तथा तुग़लक़ाबाद के चारों ओर एक रक्षा दीवार बनाई और जहाँपनाह नामक एक नये शहर का निर्माण करवाया। अपने निर्माण के शीघ्र बाद ही यह शहर अव्यवस्था का शिकार हो गया। अचानक मुहम्मद तुग़लक़ ने दक्कन में हाल ही में विजित क्षेत्र पर निगरानी रखने के लिए अपनी राजधानी देवगिरी ले जाने का निश्चय किया, जिसका नाम उन्होंने दौलताबाद रखा। 1338 में जहाँपनाह की आबादी को नई राजधानी के लिए कूच करने के आदेश मिले। उजाड़ दिल्ली छोटे–छोटे टुकड़ो में बंट गई और इसके खंडहर नए शहर फ़िरोज़ाबाद के लिए ईटों के भंडार साबित हुए। जो तीसरा और अंतिम तुग़लक़ कालीन शहर था। 1354 में यमुना के किनारे स्थापित यह शहर, सिरी से लगभग 8 किलोमीटर पूर्वोत्तर मे स्थित था। यह शहर यानी पाँचवीं दिल्ली फ़िरोज़ शाह, (1351-88) द्वारा बसाई गई और उन्हीं के नाम से जानी गई।

कहा जाता है कि 14 वीं सदी की दिल्ली मे तुग़लक़ाबाद सैन्य प्रतिष्ठान था, निजामुदीन फ़क़ीरों का इलाक़ा था और उपनगर हौज़ख़ास विद्वानों की बस्ती थी। मंगोल विजय के बाद समरकंद और मध्य एशिया के विश्वविद्यालयों से शिक्षित शरणार्थी दिल्ली मे आ बसे। उच्च शिक्षा के लिए हौज़ख़ास के मदरसे की ख्याति पूरी सल्तनत में फैली हुई थी।

तुग़लक़ों के परवर्ती सैयद (1414-1444) और लोदी (1451-1526) शासकों ने स्वयं को फ़िरोज़ाबाद तक सीमित रखा। उनके शासन काल के दौरान लगातार उपद्रव चलते रहे और उन्हे नए शहर बसाने का समय नही मिला। 1526 में भारत के पहले मुग़ल शासक बाबर का प्रवेश हुआ और उन्होंने आगरा को अपनी राजधानी बनाया। 1530 में उनके बेटे हुमायूं गद्दी पर बैठे और उन्होंने 10 संघर्षमय वर्षो तक दिल्ली पर राज किया। 1553 में उन्होंने अपने शासन की स्थापना के उपलक्ष्य में नए शहर दीनपनाह का निर्माण किया इसके लिए बड़ी सावधानी से यमुना के किनारे एक स्थान चुना गया। अब इस शहर का नामोनिशान नहीं है। क्योंकि शेरशाह सूरी ने इसे पूरी तरह ध्वस्त कर दिया था।

अगले दो मुग़ल शासकों अकबर और जहाँगीर ने आगरा को राजधानी बनाकर भारत पर शासन करना पसंद किया लेकिन दिल्ली के महत्त्व को समझकर वे बीच–बीच मे दिल्ली आते रहे। 1636 में शाहजहाँ ने अभियंताओं, वास्तुविदों तथा ज्योतिषियों को आगरा व लाहौर के बीच अच्छे जलवायु वाले स्थान के चयन का निर्देश दिया। यमुना के पश्चिमी किनारे पर पुराने क़िले के उत्तर में सुल्तानों की हजरत दिल्ली का चयन किया गया। शाहजहाँ ने यहाँ उर्दू –ए-मौला नामक एक क़िले को केंद्र में रखकर नई राजधानी का निर्माण शुरु करवाया। लाल क़िले के नाम से विख्यात यह क़िला आठ वर्षो में पूर्ण हुआ और 19 अप्रैल 1648 को शाहजहाँ ने अपनी इस नई राजधानी शाहजहाँनाबाद के क़िले में नदी के सामने वाले द्वार से प्रवेश किया।

लाहौर गेट क़िले का भव्य प्रवेशद्वार है। यहाँ से शहर की प्रमुख सड़क शुरु होकर फ़तेहपुरी मस्जिद तक जाती है। 36 मीटर चौड़ी यह सड़क शहर की मुख्य धुरी थी रात को बीच के जलाशय पर पड़ती चंद्रमा की रुपहरी रोशनी ने इस स्थान को चांदनी चौक नाम दिया। यह सड़क दिल्ली का सामारोह स्थल थी। शाहजहां और औरंगजेब यहाँ अपना शाही जुलूस निकालते थे, नादिरशाह और अहमद शाह अब्दाली विद्रोही घुड़सवार के रुप में निकले थे और मराठा व रोहिल्लाओं ने विजय उल्लास मनाया था। ब्रिटिश शासनकाल में जब दिल्ली को ब्रिटिश भारत की राजधानी बनाया गया, तो लॉर्ड हार्डिंग का जुलूस भी इसी मार्ग से निकला था। जामा मस्जिद का निर्माण 1644 में प्रारंभ हुआ और नगर प्राचीर का निर्माण 1651 से 1658 के बीच हुआ ये शहर में बनने वाले अगले महत्त्वपूर्ण स्मारक थे। अर्द्धचंद्राकार आकृति की यह दीवार 8 मीटर ऊँची, 3.5 मीटर चौड़ी व 6 किलोमीटर लंबी थी और यह लगभग 6.4 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र को घेरे हुए थी। इस में सात विशाल दरवाजे थे (कश्मीरी, मोरी, काबुनी, लाहौरी, अजमेरी, तुर्कमानी और अकबराबादी) नदी की ओर की दीवार में भी तीन दरवाजे (राजघाट, किलाघाट और निगमबोधघाट) थे। शहर के प्रमुखमार्ग इन द्वारों तक जाते थे। छोटी पहाड़ी पर स्थित शाहजहाँनाबाद की जामा मस्जिद जो बादशाही मस्जिद के नाम से भी जानी जाती थी। भारत की सबसे बड़ी मस्जिद थी। 1662 में दिल्ली में हुए एक भीषण अग्निकांड में 60 हजार और 1716 में भारी वर्षा के कारण मकान ध्वस्त होने से 23 हजार लोग मारे गए थे।

शाहजहाँनाबाद के निर्माण के 10 वर्ष बाद ही शाहजहाँ के पुत्र औरंगज़ेब ने शहर पर कब्ज़ा करके उन्हें आगरा के क़िले में नजरबंदकर दिया और जुलाई 1658 में स्वयं को बादशाह घोषित कर दिया। औरंगज़ेब को विरासत में एक सघन और समृद्ध राजधानी मिली थी। लेकिन धीरे– धीरे इस शहर की अवनति शुरु हो गई, क्योंकि इसका नया शासक इसके संस्थापक के विपरीत एकदम भिन्न स्वभाव वाला था। शाहजहाँ ने कला को बढावा दिया और जिंदगी का लुत्फ उठाया औरंगज़ेब इन दोनों से दूर रहते थे। उन्हे शहर को सुदंर बनाने में न तो दिलचस्पी थी। न ही उन्हें इसका अवसर मिला। वह स्थायी रुप से शाहजहाँनाबाद में रहे ही नहीं। उनके उत्तराधिकारियों को एक विभाजित और निर्बल राज्य शासन करने को मिला। फ़ारस के लुटेरे नादिरशाह के जघन्य आक्रमण ने इस शहर पर अंतिम प्रहार किया।

1803 में अग्रेज़ शासकों ने जब दिल्ली पर कब्ज़ा किया तब यह वाणिज्य एवं व्यवसाय का प्रमुख केंद्र थी, यद्यपि क़िलाबंद शहर भव्य कितु जीर्ण–शीर्ण गंदी बस्ती में बदल चुका था। चारदीवारी क्षेत्र में लगभग एक लाख तीस हज़ार और उपनगरों में लगभग 20 हज़ार लोग रहते है। सुरक्षा और स्थान की द्दष्टि से ब्रिटिश कमांडरों ने ईस्ट इंडिया कपनी के कार्यालय लाल क़िले के आसपास के क्षेत्र में स्थापित किए जो घनी आबादी वाला नही था। उत्तरी भाग में रेज़िडेंसी बनाई गई, जहाँ छावनी, अस्तबल, वनस्पति क्षेत्र, शरत्रागार और बारुद भंडार, सीमा शुल्क कार्यालय एक बैंक दो अस्पताल, कुछ बंग़ले तथा एक गिरजाघर भी बनाए गए। नई सैन्य ज़रुरतों के हिसाब से क़िलेबंद मे कुछ परिर्वतन किए गए।

क़िलेबंद शहर से अधिक क्षेत्र मे विस्तृत छावनी को 1828 में पश्चिमोत्तर 'रिज' पर स्थानांतरित किया गया। पहाड़ी के एक ऊँचे स्थल पर पारंपरिक एवं गॉथिक शैली में वैकल्पिक रेज़िडेंसी का निर्माण किया गया, जिसके पश्चात और भी विशाल मैटकॉफ़ हाउस बनाया गया उसका स्वामी बाद में रेज़िडेंट के स्थान पर 'एजेंट ऑफ़ डेल्ही' बना। 1840 के दशक मे छावनी क्षेत्र के आसपास आत्मनिर्भर और सांस्कृतिक रुप से पृथक आवासीय उपनगर का विकास हुआ, जिसे नागरिक क्षेत्र कहा गया। विलियम फ़्रेज़र तथा चाल्स मेट कॉफ जैसे दिल्ली के प्रारभिक अंग्रेज शासक यहां की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत से सम्मोहित थे मुगल राजदरबार को पारपरिक समारोह को मनाने के अनुमति थी तथा बादशाहों के नाम पर सिक्के ढाले जाते थे कितु 1857 के भारतीय गदर के पश्चात सब कुछ यहां तक कि दिल्ली के प्रति ब्रिटिश शासन का रवैया भी बदल गया। विद्रोह के बाद मुगल बादशाह शाह 11 को रंगून (वर्तमान यागून) निर्वासित कर दिया गया तथा उनके परिवारजनक की हत्या कर दी गई । सेना ने राजमहल पर कब्जा करके इसे किले मे बदल दिया । किले के आसपास तथा परकोट के समीप स्थित 457 मीटर क्षेत्र को सैन्य क्षेत्र घोषित कर दिया और इसके बाद वजामा मस्जिद के बीच की तमाम इमारतें गिराकर मैदान बना दी गई काश्मीरी गेट से दरियागंज तक की अधिग्रहित भूमि पर छावनी को पुन: शहर में लाया गया । यह क्षेत्र पूर्व मे चारदीवारी पश्चिम में मैदान (एस्पलेनेड) वनदी के किनारे तक फैला है। किलेबंद शहर के एक तिहाई क्षेत्र मे छावनी बस गई । कई यूरोपीय विदेशी शहर से बाहर सिविल लाइंस में चले गए और दरियागंज के निवासी चांदनी चौक आ गए । जैसे ही दिल्ली के प्रशासन पर ब्रिटिश ताज का कब्जा हुआ, तीन क्रियाशील ‘इकाइयों’ मूल नगर छावनी तथा आमतौर पर सिविल लाइंस कहलाने वाला नगरीय क्षेत्र के साथ इसके भौतिक स्वरुप ने पारंपरिक औपनिवेशिक नगर का रुप ले लिया । धीरे धीरे दिल्ली का आधुनिकीकरण होने लगा । 1867 मे कलकत्ता से दिल्ली के लिए पहली नियमित रेले चली । 1910 तक नगर मे नगरीय निकाय के शासन की स्थापना, जल वितरण और मल – जल निकाय प्रणाली दूरभाष और टेलीग्राफ लाइनें तथा बिजली की व्यवस्था हो गई । चांदनी चौक में विक्टोरिया घटाकर बनाया गया, यहां की नहर पाट दी गई और इसके ऊपर विद्युत ट्राम मार्ग का निर्माण हुआ । 1877 में भारत पर ब्रिटेन के आधिपत्य को दर्शाने के लिए ब्रिटिश महान दरबारों की श्रंखला के पहले दरबार का आयोजन हुआ । तीसरा दरबार 1911 में हुआ जो दिल्ली के लिए एक मोड़ साबित हुआ समारोह के दौरान जॉज वी.ने घोषणा की कि भारत की राजधानी कलकत्ता से पुन: दिल्ली लाई लाएगी इस निर्ण य को राजनीतिक और प्रशासकीय, दोनों आधारों पर सही ठहराया गया । जनवरी 1912 मे राजनीतिक निर्णय के व्यावहारिक कार्यांवन के लिए तीन सदस्यीय समिति गठित की गई । प्रसिद्ध वास्तुविद सर एड विन लुटियंस इसके सदस्य थे जिन्होंने अंतत इस शहर को नया स्वरुप दिया। इस समिति ने स्थल चयन का कार्य प्रारंभ किया । समिति ने फसील के दक्षिण में स्थित रायसीना पहाड़ी चुनी जो न तो बहुत दूर थी और न ही बहुत पास ।

दिसबर 1912 में समिति ने दिल्ली शहर के लिए लुटियंसकी योजना को मंजूर कर लिया इअस योजना के अनुसार, कलकत्ता के विपरीत वाइसरॉय हाउस, संसद भवन और सचिवालय को एक जगह बनाना था तथा इनका निर्माण इस योजना के केंद्र बिंदु रायसीना पहाड़ी पर नगरकोट  (एक्रोपॉलिस) में किया जाना था। हार्डिग ने घोषणा की कि नई  राजधानी का वास्तुशिल्प पूर्व और पश्चिम शैली का मिलाजुला रुप होगा । वाइसरॉय भवन से मुख्य केंद्रीय मार्ग राजपथ (किंग्सवे) प्रारंभ होता था। जो 3.2 किमी लंबा था और नदी की ओर जाता था।यह मार्ग बीच मे उत्तर – दक्षिण की ओर अपेक्षाकृत कम भव्य मार्ग से दो भागों में विभाजित होता है। जो क्वींसवे कहलाया । मुख्य मार्ग की समाप्ति एक विजय – तोरण,  इंडिया गेट पर होती थी ।  जो प्रथम विश्व युद्धमे शहीद हुए शूरवीरों  की स्मृति का सूचक था । जब यह राजनीतिक स्थित स्पष्ट हो गई कि सत्ता वाइसरॉय से विधान सभा को हस्तांतरित की जानी है, तो लुटियंस के सहयोगी सर हरबर्ट बेकर को संसद भवन की अभिकल्पना तैयार करने के निर्देश दिए गए । बेकर ने गोलाकार भवन का डिजाइन बनाया और इसका स्थान लाल किले के पश्चिमोत्तर मे पुराने शहर की ओर जाने वाले मार्ग पर नियत किया गया ।  एक अन्य गोलाकार भवन वाणिज्यिक केंद्र कनॉट प्लेस मे भी बना जिसकी अभिकल्पना इंग्लैड के बाथ स्थित एक भवन जैसी है। नई राजधानी का शुभारंभ जनवरी 1931 में हुआ ।  

नई दिल्ली की सड़क – योजना ज्योमितिय सौंदर्यशास्त्र की धारणा पर आधारित है। समग्र योजना मे राजपथ (किंग्सवे) को मुख्य आधार मानकर बनाई गई षटभुजों की एक श्रंखला और 96 किमी लंबीमुख्य सड़के है। ये षटकोण तीन मार्गो के बीच स्थित थे जो गवर्नर हाउस से निकलकर ऐतिहासिक जामा मस्जिद, इंद्रप्रस्थ और सफदरजग के मकबरे की ओर जाते थे तथा वर्तमान को अतीत से जोडने थे । शहर के आवासीय ढांचेकी योजना का उदेश्य निवास की सुविधा को व्यवस्थित करना था। जगह जगह बाग बगीचों का निर्माण भी किया गया । भारत के तत्कालीन वाइसरॉय बेरन चार्ल्स हार्डिग चाहते थे कि पुरानी और नई दिल्ली का सयोजन एक हो उन्होने निर्देश दिए कि दोनों की योजना एक शहर के रुप में हो न कि दो अलग अलग शहरों के रुप में किंतु लुटियंस अपने सकीर्ण शहरी सौदर्यीकरण पर जमे हुए थे । उनकी विराट योजना मे पुरानी दिल्ली महज एक महत्त्वहीन ध्वस्त होता शहरी क्षेत्र था और वह चाहते थे कि उसे ज्यों का त्यों छोड़ दिया जाए । यह पूर्वाग्रह पुरानी दिल्ली के लिए घातक सिद्ध हुआ जिसे 1041 और 1951 के बीच आए लगभग एक लाख शरणार्थियों को निवास प्रदान करना था । जहां नई दिल्ली के निवासी 6-8 व्यक्ति प्रति हेक्टेयर के घनत्व से अपने रहन सहन आदर्श बना रहे थे, वहीं पुरानी दिल्ली 336 से 400 व्यक्ति प्रति हेक्टेयर के बोझ से दबी जा रही थी । नई और पुरानी दिल्ली के बीच यह विसंगति शुरु से ही योजनाकारों के लिए रुकावट साबित हुई । प्रथम नगर योजना मे दिल्ली को एक गंदी बस्ती के रुप मे चित्रित किया गया और 1980 के दशक में ही जब दूसरी नगर योजना बनी उसे विरासत क्षेत्र के रुप मे कुछ महत्त्व दिया गया । लुटियंस की दिल्ली को सदैव परम पावन क्षेत्र समझा गया और इसकी मूल योजना तथा जनसंख्या में परिर्वतन के सुझावों काजनता एव योजना दोनों के द्वारा विरोध किया गया । 1970 और 1980 के दशक में ncडी.डी.ए (दिल्ली विकास प्राधिकरण) ने आवास व्यवसाय पर एकाधिकार कर लिया और वर्तमान शहरी केंद्रके आसपास विशाल भवन संकुल खड़े कर दिये गए । उच्च आय, मध्य आय और निम्न आय वर्ग के समूहों के आधार पर आवास उपलब्ध कराए गए । जोइस आय वर्ग से बाहर थे, वे अनाधिकृत बस्तियों या झोपड़ियों (गंदी बस्तियों) में इफाजा कर रहे है। जो अब जे.जे कॉलोनी जानी जाती है। 567 अनधिकृत बस्तियां राजनीतिक दबाव में वैध घोषित की जा चुकी है। दिल्ली की आवादी के उमड़्ते सैलाब को यमुना के पूर्वी तट पर बसाया गया है। जहां धीरे – धीरे एक अलग ही दिल्ली आकार ले रही है। कई बड़े बाजार आवासीय भवन और धनाढ्य लोगों की कोठियां शहर की दक्षिण,पश्चिम तथा उत्तरी परिधि में बनाई जा चुकी है। =वास्तुकला= दिल्ली के वैविध्यपूर्ण इतिहास ने विरासत में इसे समृद्ध वास्तुकला दी है । शहर के सबसे प्राचीन भवन सल्तनत काल के है और अपनी सरचना व अलकरण मे भिन्नता लिए हुए है। प्राकृतिक रुपाकंनों, सर्पाकार बेलों और कुरान के अक्ष्रों के घुमाव में हिंदू राजपूत कारीगरों का प्रभाव स्पष्ट नजर आता है। मध्य एशिया से आए कुछ कारीगर क्वि और वास्तुकला की सेल्जुक शैली की विशेषताएं मेहराब की निचली कोर पर कमल – कलियों की पंक्ति, उत्कीर्ण अलंकरण और बारी बारी से आड़ी और खड़ी ईटों की चिनाई है। खजली शासन काल तक इस्लामी वास्तुकला में प्रयोग तथासुधार का दौर समाप्त होचुका था और इस्लामी वास्तुकला में एक विशेष पद्धति और उपशैली स्थापित हो चुकी थी जिसे पख्तून शैली के नाम से जाना जाता है। इस शैली की अपनी लाक्षणिक विशेषताएं है। जैसे घोड़े के नाल की आकृति वाली मेहराबें जालीदार खिड़कियां अलकृत किनारे बेल बूटों का काम (बारीक विस्तृत रुप रेखाओं में) और प्रेरणादायी, आध्यात्मिक शब्दांकन बाहर की ओर अधिकांशत: लाल पत्थरों का तथा भीतर सफेद संगमरमर का उपयोग मिलता है। तुगलकों ने वास्तुकला की परपरा में बदलाव कर अलंकरण का तत्व समाप्त कर दिया इस काल मे स्लेटी पत्थरों वाले सीधे सपाट निर्माण को प्राथ्मिकता दी गई उनकी इमारतों मे एक दूसरे पर आधारित छतों वाली सादी मेहराबों कुरान की आयत से खुदे किनारों और भट्टी मे रंगी टाइलों को प्रभाव शाली ढंग से शामिल किया गया । तुगलकों ने अपने भवनों मे सजावट पर कम, और उनकी आकृति की भव्यता पर अधिक जोर दिया । सैयद और लोदी काल में गुंबदीय ढांचे कीदो जटिल शैलियां प्रचलित हुई । निम्न अष्टभुजाकार आकृति वाली शैली जिसका जमीनी क्षेत्रफल काफी विशाल होता था। और ऊंची वर्गाकार शैली जिसमें भवन का अग्रभाग चारो ओर से गुजरने वाली पट्टी और फलक श्रंखला रुपी सजावटी तत्त्व से विभाजित होता था, जो इन्हे दो या तीन मंजिल जैसे होने का रुप देती प्रतीत होती थी । लोदी काल में बगीचे वाले मकबरों का निर्माण भी हुआ । इस काल की मस्जिदों में मीनारें नही होती थी। दिल्ली में हुमायू6 का मकबरा मुगल वास्तुकला का प्रथम महत्त्वपूर्ण नमूना है। ताजमहल का अग्रगामी यह निर्माण भारत का पहला पूर्ण विकसित बगीचे वाला मकबरा भी है। इसने भारतीय वास्तुकला में ऊंची मेहराबों और दोहरे गुबदों की शुरुआत की जो मुगल वास्तुकला के प्रतिनिधि नमूने लाल किले में दिखाई देते है। इसमें निर्मित नक्कारखाने दीवार-ए-आम और दीवार-ए-खास, महल तथा मनोरंजन कक्ष छज्जे हमाम, आंतरिक नहरें और ज्यामितीय सौंदर्यबोध के साथ निर्मित बगीचे तथा एक अलंकृत मस्जिद देखते ही बनते है। जामा मस्जिद मुगलकालीन मस्जिदों की वास्तविक प्रतिनिधि है। यह पहली मस्जिद है, जिनमें मीनारें भी है। अधिकांश भवनों में संगमरमर का इस्तेमाल हुआ है। जिनमें नक्काशी तथा बहुरंगी पत्थरों की सजावट के नायाब नमूने है। दिल्ली की आंग्ल वास्तुकला औपनिवेशिक तथा मुगलकालीन कला का प्रतीक है। यह वाइसरॉय के आवास संसद भवन और सचिवालय के विशाल भवनों से लेकर आवासीय बंगली और दफ्तरों जैसी ओपयोगी इमारतों तक वैविध्यपूर्ण है। स्वतंत्र भारत में वास्तुकला ने अपनी अलग उपशैली विकसित करने का प्रयास किया है। देशज तथा पश्चिमी शैली के मिश्रित स्वरुप में स्थानीय उपशैलीयों की छटा दिखाई देती है। सर्वोच्च न्यायालय भवन विज्ञान भवन विभिन्न मंत्रालयों के कार्यालय कनॉट प्लेस के आसपास की इमारतें इसके श्रेष्ठ उदाहरण है। हाल ही में दिल्ली में अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के कुछ वास्तुकार हुए जिन्होने दिल्ली के परिदृश्य में कुछ आकर्षण भवन जोड़े है। जिन्हे उत्तर – आधुनिक कहा जाता है। =दिल्ली समझौता (1950)= इसे नेगरु- लियाकत समझौता भी कहा जाता है। यह समझौता भारत और पाकिस्तान के बीच दिसबर 1949 में आर्थिक संबंध टूट जाने के बाद पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश)में दोनों के बीच तनाव बढने पर 8अप्रैल 1950 को हुआ था। 1950 के दौरान करीब 10 लाख लोगों ने सीमा पार की थी, पूर्वी जिनमें पूर्वी पाकिस्तान के हिंदू और पश्चिम बंगाल के मुसलमान शामिल थे। अपने सहयोगी मंत्री वल्लभभाई पटेल के विरोध के बावजूद भारत के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली खां के साथ समझौता किया, जिसके अंतर्गत शरणार्थियों को बिना हस्तक्षेप के अपनी संपत्ति बेचने के लिए वापस जाने की व्यवस्था व अपहृत महिलाओं और लूटी गई संपत्ति वापस लौटाया जाना, जबरन धर्म परिवर्तन का अस्वीकार और अल्पसंख्यकों के अधिकारों की पक्की सुरक्षा की व्यवस्था की जानी थी । इन्हे लागू करने के लिए अल्पसंख्यक आयोग गठित किए गए थे और कुछ समय के लिए सचमुच ही आपसी विश्वास लौट आया था ।


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

वीथिका

बाहरी कड़ियाँ

अधिकारिक वेबसाइट

संबंधित लेख