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[[चित्र:progeria_big.jpg|प्रोजेरिया बीमारी से ग्रसित एक बच्चा|thumb|250px]]
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प्रोजेरिया एक ऐसी बीमारी है जिसमें शिशु अपने जीवनचक्र के दौरान बाल्यकाल, किशोरावस्था और युवावस्था के चरणों को पार कर वृद्धावस्था की तरफ अग्रसर होने की बजाय दो-तीन साल की उम्र में ही बुढ़ापे की तरफ बढ़ने लगता है और इस बीमारी की चपेट में आने वाले बच्चों का जीवन चक्र महज 13 से 21 साल की उम्र तक ही पूरा हो पाता है।
प्रोजेरिया (Progeria) को 'सैपिड एजिंग' या 'हचिनसन गिलफोर्ड प्रोजेरिया सिंड्रोम' या 'हचिंगसन-गिल्फोर्ड सिंड्रोम' भी कहते हैं। प्रोजेरिया नाम ग्रीक भाषा से लिया गया है, 'प्रो' का मतलब होता है पहले और 'जेरास' का मतलब है बुढ़ापा यानी वक्त से पहले बुढ़ापा ( प्री मैच्योरली ओल्ड फेटल ) या कम उम्र के बच्चों में बुढ़ापे के लक्षण दिखना । इसकी कई किस्में होती हैं, लेकिन सबसे कॉमन है हचिनसन गिलफोर्ड प्रोजेरिया सिंड्रोम । 1886 में डॉ. जोनाथन हचिनसन और 1897 में डॉ. हटिंग्स डिलफोर्ड ने इस बीमारी की खोज की थी। इसी कारण इसे हचिनसन-गिलफोर्ड प्रोजेरिया सिंड्रोम के नाम से भी जाना जाता है।
प्रोजेरिया (Progeria) को 'सैपिड एजिंग' या 'हचिनसन गिलफोर्ड प्रोजेरिया सिंड्रोम' या 'हचिंगसन-गिल्फोर्ड सिंड्रोम' भी कहते हैं। प्रोजेरिया नाम ग्रीक भाषा से लिया गया है, 'प्रो' का मतलब होता है पहले और 'जेरास' का मतलब है बुढ़ापा यानी वक्त से पहले बुढ़ापा ( प्री मैच्योरली ओल्ड फेटल ) या कम उम्र के बच्चों में बुढ़ापे के लक्षण दिखना । इसकी कई किस्में होती हैं, लेकिन सबसे कॉमन है हचिनसन गिलफोर्ड प्रोजेरिया सिंड्रोम । 1886 में डॉ. जोनाथन हचिनसन और 1897 में डॉ. हटिंग्स डिलफोर्ड ने इस बीमारी की खोज की थी। इसी कारण इसे हचिनसन-गिलफोर्ड प्रोजेरिया सिंड्रोम के नाम से भी जाना जाता है।


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प्रोजेरिया एक जन्मजात बीमारी और इसमें खास ध्यान देने वाली बात यह है कि जैसे बुढ़ापे में ट्यूमर होता है, इसमें वह नहीं होता है। ज्यादातर बदलाव त्वचा, धमनी और माँसपेशियों में ही रहते हैं। इससे पीड़ित बच्चा आम बच्चों के मुकाबले तीन गुना तेजी से बुढ़ापे की ओर बढ़ता है। जन्म के वक्त वह बिल्कुल नॉर्मल होता है, लेकिन डेढ़-दो साल की उम्र में इसके लक्षण नजर आने लगते हैं। दो साल की उम्र पूरी करने के बाद प्रोजेरिया पीड़ित के शरीर से वसा का क्षय होने लगता है। अंगों का विकास कम हो जाता है। जो धीरे-धीरे पूरी तरह खत्म ( ग्रोथ फेलियर ) हो जाती है। शरीर ढीला पड़ जाता है और नसें उभरकर त्वचा पर साफ दिखाई देती हैं। बच्चे की स्किन का रंग पीला पड़ जाता है और वह काफी पतली हो जाती है, जिस पर असमय झुरिर्यां दिखने लगती हैं। चेहरे पर झुर्रियां पड़नी शुरू हो जाती हैं । झुर्रियां इस कदर बढ़ती हैं कि रोगी का चेहरा चिड़ियों जैसा दिखने लगता है। शरीर में मोटे तौर पर हड्डियां और स्किन ही बाकी रह जाती है। सिर शरीर से अनुपात में काफी बड़ा हो जाता है और बाल उड़ जाते हैं। वह वृद्ध और काल्पनिक एलियन (दूसरे ग्रह के प्राणी) जैसा दिखने लगता है। मुंह के अंदर कई गुना ज्यादा दांत आ जाते हैं व आंखों के आसपास गड्ढे हो जाते हैं। लैंगिक विकास नहीं होना, जोड़ों में दर्द, जोडों में कड़ापन रहना और हिप डिस्लोकेशन हो जाते हैं। इतना ही नहीं जिस हृदय रोग को 35 वर्ष के बाद की व्याधि माना जाता है उसके दौरे भी शुरू हो जाते हैं। अक्सर हृदयाघात ( स्ट्रोक्स ) की ही वजह से प्रोजेरिया पीड़ित की मौत होती है।  
प्रोजेरिया एक जन्मजात बीमारी और इसमें खास ध्यान देने वाली बात यह है कि जैसे बुढ़ापे में ट्यूमर होता है, इसमें वह नहीं होता है। ज्यादातर बदलाव त्वचा, धमनी और माँसपेशियों में ही रहते हैं। इससे पीड़ित बच्चा आम बच्चों के मुकाबले तीन गुना तेजी से बुढ़ापे की ओर बढ़ता है। जन्म के वक्त वह बिल्कुल नॉर्मल होता है, लेकिन डेढ़-दो साल की उम्र में इसके लक्षण नजर आने लगते हैं। दो साल की उम्र पूरी करने के बाद प्रोजेरिया पीड़ित के शरीर से वसा का क्षय होने लगता है। अंगों का विकास कम हो जाता है। जो धीरे-धीरे पूरी तरह खत्म ( ग्रोथ फेलियर ) हो जाती है। शरीर ढीला पड़ जाता है और नसें उभरकर त्वचा पर साफ दिखाई देती हैं। बच्चे की स्किन का रंग पीला पड़ जाता है और वह काफी पतली हो जाती है, जिस पर असमय झुरिर्यां दिखने लगती हैं। चेहरे पर झुर्रियां पड़नी शुरू हो जाती हैं । झुर्रियां इस कदर बढ़ती हैं कि रोगी का चेहरा चिड़ियों जैसा दिखने लगता है। शरीर में मोटे तौर पर हड्डियां और स्किन ही बाकी रह जाती है। सिर शरीर से अनुपात में काफी बड़ा हो जाता है और बाल उड़ जाते हैं। वह वृद्ध और काल्पनिक एलियन (दूसरे ग्रह के प्राणी) जैसा दिखने लगता है। मुंह के अंदर कई गुना ज्यादा दांत आ जाते हैं व आंखों के आसपास गड्ढे हो जाते हैं। लैंगिक विकास नहीं होना, जोड़ों में दर्द, जोडों में कड़ापन रहना और हिप डिस्लोकेशन हो जाते हैं। इतना ही नहीं जिस हृदय रोग को 35 वर्ष के बाद की व्याधि माना जाता है उसके दौरे भी शुरू हो जाते हैं। अक्सर हृदयाघात ( स्ट्रोक्स ) की ही वजह से प्रोजेरिया पीड़ित की मौत होती है।  


दुनिया भर के वैज्ञानिक और बाल रोग विशेषज्ञ अत्यंत दुर्लभ बीमारी प्रोजेरिया का तोड़ ढूँढ़ने में लगे हैं, लेकिन दुर्भाग्य से उन्हें अब तक सफलता नहीं मिल पाई है। और अभी तक इसका कोई इलाज नहीं आया है। इस बारे में अभी तक प्रयोग के आधार पर जो भी कोशिश हो रही हैं उनका मकसद इनमें कोलेस्ट्रोल को कम करना है ताकि उनके जीवन को लंबा किया जा सके। यदि प्रोजेरिया की जड़ पकड़ में आ गई तो न सिर्फ बीमारी का इलाज ढूंढ़ने में मदद मिलेगी, बल्कि इससे मनुष्य के बूढ़े होने की प्रक्रिया के भी कई राज खुलेंगे। भारत में इस बीमारी पर काफी समय से शोध चल रहा है।
दुनिया भर के वैज्ञानिक और बाल रोग विशेषज्ञ अत्यंत दुर्लभ बीमारी प्रोजेरिया का तोड़ ढूँढ़ने में लगे हैं, लेकिन दुर्भाग्य से उन्हें अब तक सफलता नहीं मिल पाई है। और अभी तक इसका कोई इलाज नहीं आया है। इस बारे में अभी तक प्रयोग के आधार पर जो भी कोशिश हो रही हैं उनका मकसद इनमें कोलेस्ट्रोल को कम करना है ताकि उनके जीवन को लंबा किया जा सके। प्रोजेरिया में वे सभी लक्षण दिखते हैं जो आपको बुढापे की तरफ ले जाते हैं। यदि प्रोजेरिया की जड़ पकड़ में आ गई तो न सिर्फ बीमारी का इलाज ढूंढ़ने में मदद मिलेगी, बल्कि इससे मनुष्य के बूढ़े होने की प्रक्रिया के भी कई राज खुलेंगे। भारत में इस बीमारी पर काफी समय से शोध चल रहा है।


==बाहरी कड़ियाँ==
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19:33, 15 नवम्बर 2010 का अवतरण

परिचय

प्रोजेरिया बीमारी से ग्रसित एक बच्चा

प्रोजेरिया एक ऐसी बीमारी है जिसमें शिशु अपने जीवनचक्र के दौरान बाल्यकाल, किशोरावस्था और युवावस्था के चरणों को पार कर वृद्धावस्था की तरफ अग्रसर होने की बजाय दो-तीन साल की उम्र में ही बुढ़ापे की तरफ बढ़ने लगता है और इस बीमारी की चपेट में आने वाले बच्चों का जीवन चक्र महज 13 से 21 साल की उम्र तक ही पूरा हो पाता है।

प्रोजेरिया (Progeria) को 'सैपिड एजिंग' या 'हचिनसन गिलफोर्ड प्रोजेरिया सिंड्रोम' या 'हचिंगसन-गिल्फोर्ड सिंड्रोम' भी कहते हैं। प्रोजेरिया नाम ग्रीक भाषा से लिया गया है, 'प्रो' का मतलब होता है पहले और 'जेरास' का मतलब है बुढ़ापा यानी वक्त से पहले बुढ़ापा ( प्री मैच्योरली ओल्ड फेटल ) या कम उम्र के बच्चों में बुढ़ापे के लक्षण दिखना । इसकी कई किस्में होती हैं, लेकिन सबसे कॉमन है हचिनसन गिलफोर्ड प्रोजेरिया सिंड्रोम । 1886 में डॉ. जोनाथन हचिनसन और 1897 में डॉ. हटिंग्स डिलफोर्ड ने इस बीमारी की खोज की थी। इसी कारण इसे हचिनसन-गिलफोर्ड प्रोजेरिया सिंड्रोम के नाम से भी जाना जाता है।

प्रोजेरिया बहुत ही दुर्लभ और एक आनुवांशिक बीमारी है। प्रोजेरिन नाम के एक प्रोटीन से प्रोजेरिया की बीमारी होती है। यह बीमारी जीन्स और कोशिकाओं में उत्परिवर्तन की स्थिति के चलते होती है। इस रोग का कारण कतिपय लोग हार्मोस की गड़बड़ी मानते हैं लेकिन नवीनतम शोध में इसके लिए लैमिन-ए (एलएमएनए) जींस को जिम्मेदार ठहराया गया है। इस बीमारी से ग्रसित 90 फीसदी बच्चों में इसका कारण लैमिन-ए (एलएमएनए) नामक जीन में म्यूटेशन (आकस्मिक बदलाव) को माना गया है। यह गड़बड़ी अचानक ही हो जाती है। यह प्रोटीन लेमिन-ए जो कोशिका के केंद्रक को होल्ड करता है। यदि जीन में उत्परिवर्तन होने से लेमिन-ए प्रोटीन अस्थिर हो जाए तो कोशिका के केंद्रक का आकार बिगड़ जाता है। इस वजह से कोशिकाओं का आकार भी गड़बड़ा जाता है, और रोगी के जींस में सक्रियता समाप्त हो जाती है। नतीजा प्रोटीन का स्थायित्व प्रभावित हो जाता है। यही वजह है कि रोगी का शारीरिक विकास नहीं हो पाता और बच्चे उम्र के हिसाब से पांच-छह गुना बड़े दिखाई देने लगते हैं।

यह बीमारी अचानक ही हो जाती है और 100 में से एक मामले में ही यह बीमारी अगली पीढ़ी तक जाती है। ये एक विरली बीमारी रोग है और इसीलिए करीब 80 लाख में से एक व्यक्ति में पाई जाती है। आज तक चिकित्सा जगत में प्रोजेरिया के करीब 100 मामले सामने आए हैं। फिलहाल पूरी दुनिया में प्रोजेरिया के 53 ज्ञात मामले हैं। ये सभी विदेशी हैं, इनमें से एक भी हिंदुस्तान में नहीं है। लेकिन भारत के मध्य प्रदेश में भी एक बच्चे को इस बीमारी से पीड़ित बताया जाता है।

पीडि़त बच्चों के उम्र के शारीरिक लक्षण 5-6 गुना तेजी से दिखाई देते हैं। यानी 2 साल के बच्चे के शारीरिक लक्षण 10-12 साल के बच्चे जैसे होते हैं। हालांकि उनका मानसिक विकास किसी सामान्य बच्चे जैसा होता है । इस बीमारी से ग्रसित अधिकतर बच्चे 13 साल की उम्र तक ही दम तोड़ देते हैं, उम्र के शारीरिक लक्षणों के कारण इस उम्र तक आते-आते उनकी मौत हो जाती है, जबकि कुछ बच्चे 20-21 साल तक जीते हैं। प्रोजेरिया पीड़ितों की अधिकतम उम्र 8 से 24 साल मानी गई है। 13 वर्ष की उम्र में ऎसे बच्चे 70-80 वर्ष तक के नजर आते हैं। लड़के और लड़कियों दोनों में इस बीमारी का रिस्क समान रूप से है।

प्रोजेरिया एक जन्मजात बीमारी और इसमें खास ध्यान देने वाली बात यह है कि जैसे बुढ़ापे में ट्यूमर होता है, इसमें वह नहीं होता है। ज्यादातर बदलाव त्वचा, धमनी और माँसपेशियों में ही रहते हैं। इससे पीड़ित बच्चा आम बच्चों के मुकाबले तीन गुना तेजी से बुढ़ापे की ओर बढ़ता है। जन्म के वक्त वह बिल्कुल नॉर्मल होता है, लेकिन डेढ़-दो साल की उम्र में इसके लक्षण नजर आने लगते हैं। दो साल की उम्र पूरी करने के बाद प्रोजेरिया पीड़ित के शरीर से वसा का क्षय होने लगता है। अंगों का विकास कम हो जाता है। जो धीरे-धीरे पूरी तरह खत्म ( ग्रोथ फेलियर ) हो जाती है। शरीर ढीला पड़ जाता है और नसें उभरकर त्वचा पर साफ दिखाई देती हैं। बच्चे की स्किन का रंग पीला पड़ जाता है और वह काफी पतली हो जाती है, जिस पर असमय झुरिर्यां दिखने लगती हैं। चेहरे पर झुर्रियां पड़नी शुरू हो जाती हैं । झुर्रियां इस कदर बढ़ती हैं कि रोगी का चेहरा चिड़ियों जैसा दिखने लगता है। शरीर में मोटे तौर पर हड्डियां और स्किन ही बाकी रह जाती है। सिर शरीर से अनुपात में काफी बड़ा हो जाता है और बाल उड़ जाते हैं। वह वृद्ध और काल्पनिक एलियन (दूसरे ग्रह के प्राणी) जैसा दिखने लगता है। मुंह के अंदर कई गुना ज्यादा दांत आ जाते हैं व आंखों के आसपास गड्ढे हो जाते हैं। लैंगिक विकास नहीं होना, जोड़ों में दर्द, जोडों में कड़ापन रहना और हिप डिस्लोकेशन हो जाते हैं। इतना ही नहीं जिस हृदय रोग को 35 वर्ष के बाद की व्याधि माना जाता है उसके दौरे भी शुरू हो जाते हैं। अक्सर हृदयाघात ( स्ट्रोक्स ) की ही वजह से प्रोजेरिया पीड़ित की मौत होती है।

दुनिया भर के वैज्ञानिक और बाल रोग विशेषज्ञ अत्यंत दुर्लभ बीमारी प्रोजेरिया का तोड़ ढूँढ़ने में लगे हैं, लेकिन दुर्भाग्य से उन्हें अब तक सफलता नहीं मिल पाई है। और अभी तक इसका कोई इलाज नहीं आया है। इस बारे में अभी तक प्रयोग के आधार पर जो भी कोशिश हो रही हैं उनका मकसद इनमें कोलेस्ट्रोल को कम करना है ताकि उनके जीवन को लंबा किया जा सके। प्रोजेरिया में वे सभी लक्षण दिखते हैं जो आपको बुढापे की तरफ ले जाते हैं। यदि प्रोजेरिया की जड़ पकड़ में आ गई तो न सिर्फ बीमारी का इलाज ढूंढ़ने में मदद मिलेगी, बल्कि इससे मनुष्य के बूढ़े होने की प्रक्रिया के भी कई राज खुलेंगे। भारत में इस बीमारी पर काफी समय से शोध चल रहा है।

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