"सत्य (पौराणिक चरित्र)": अवतरणों में अंतर

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*एक बार ब्राह्मण के मित्र तथा सहवासी मृग ने उससे कहा, "मंत्र तथा अंग से हीन यज्ञ दुष्कर्म होता है। तुम मुझे अपने होता को सौंप दो और स्वर्ग जाओ।"  
*एक बार ब्राह्मण के मित्र तथा सहवासी मृग ने उससे कहा, "मंत्र तथा अंग से हीन यज्ञ दुष्कर्म होता है। तुम मुझे अपने होता को सौंप दो और स्वर्ग जाओ।"  
*तदन्तर सावित्री ने प्रकट होकर ब्राह्मण से मृग की बलि देने के लिए कहा। ब्राह्मण तैयार नहीं हुआ।  
*तदन्तर सावित्री ने प्रकट होकर ब्राह्मण से मृग की बलि देने के लिए कहा। ब्राह्मण तैयार नहीं हुआ।  
*देवी सावित्री यज्ञाग्नि में प्रकट होकर रसातल में चली गईं।  
*[[सावित्री देवी]] यज्ञाग्नि में प्रकट होकर रसातल में चली गईं।  
*हरिण ने ब्राह्मण को दिव्य दृष्टि प्रदान करके आकाश मे दिव्य अप्सराओं आदि से युक्त लोक दिखाकर बताया कि मृग की आहुति देकर वह उस लोक को प्राप्त करेगा।  
*हरिण ने ब्राह्मण को दिव्य दृष्टि प्रदान करके आकाश मे दिव्य अप्सराओं आदि से युक्त लोक दिखाकर बताया कि मृग की आहुति देकर वह उस लोक को प्राप्त करेगा।  
*ब्राह्मण मृग की बलि देने के लिए तैयार हो गया। अत: उसके समस्त पुण्य नष्ट हो गये।  
*ब्राह्मण मृग की बलि देने के लिए तैयार हो गया। अत: उसके समस्त पुण्य नष्ट हो गये।  

06:16, 24 नवम्बर 2010 का अवतरण

  • सत्य नामक ब्राह्मण अनेक यज्ञों तथा तपों से व्यस्त रहता था।
  • उसकी पत्नी (पुष्कर धारिणी) उसके हिंसक यज्ञों से सहमत नहीं थी, तथापि उसके शाप के भय से यज्ञ पत्नी का स्थान ग्रहण करती थी।
  • उसके पुरोहित का नाम पर्णाद था, जो कि शुक्राचार्य का वंशज था।
  • एक बार ब्राह्मण के मित्र तथा सहवासी मृग ने उससे कहा, "मंत्र तथा अंग से हीन यज्ञ दुष्कर्म होता है। तुम मुझे अपने होता को सौंप दो और स्वर्ग जाओ।"
  • तदन्तर सावित्री ने प्रकट होकर ब्राह्मण से मृग की बलि देने के लिए कहा। ब्राह्मण तैयार नहीं हुआ।
  • सावित्री देवी यज्ञाग्नि में प्रकट होकर रसातल में चली गईं।
  • हरिण ने ब्राह्मण को दिव्य दृष्टि प्रदान करके आकाश मे दिव्य अप्सराओं आदि से युक्त लोक दिखाकर बताया कि मृग की आहुति देकर वह उस लोक को प्राप्त करेगा।
  • ब्राह्मण मृग की बलि देने के लिए तैयार हो गया। अत: उसके समस्त पुण्य नष्ट हो गये।
  • मृग वास्तव में धर्म थे। धर्म अपने रूप में प्रकट हुए और ब्राह्मण का यज्ञ सम्पन्न करवाकर उसे अहिंसा का उपदेश दे पुष्करधारिणी को इच्छित मार्ग पर ले आये।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत, शांतिपर्व, अध्याय 272