अधिक मास
पुरुषोत्तम, मल या अधिक मास
भारतीय पंचांग (खगोलीय गणना) के अनुसार प्रत्येक तीसरे वर्ष एक अधिक मास होता है। यह सौर और चंद्र मास को एक समान लाने की गणितीय प्रक्रिया है। शास्त्रों के अनुसार पुरुषोत्तम मास में किए गए जप, तप, दान से अनंत पुण्यों की प्राप्ति होती है। सूर्य की बारह संक्रांति होती हैं और इसी आधार पर हमारे चंद्र पर आधारित 12 माह होते हैं। हर तीन वर्ष के अंतराल पर अधिक मास या मलमास आता है। शास्त्रानुसार-
यस्मिन चांद्रे न संक्रान्ति: सो अधिमासो निगह्यते
तत्र मंगल कार्यानि नैव कुर्यात कदाचन्।
यस्मिन मासे द्वि संक्रान्ति क्षय: मास: स कथ्यते
तस्मिन शुभाणि कार्याणि यत्नत: परिवर्जयेत।।
अधिक मास क्या है?
- जिस माह में सूर्य संक्रांति नहीं होती वह अधिक मास होता है। इसी प्रकार जिस माह में दो सूर्य संक्रांति होती है वह क्षय मास कहलाता है।
- इन दोनों ही मासों में मांगलिक कार्य वर्जित माने जाते है, परंतु धर्म-कर्म के कार्य पुण्य फलदायी होते हैं। सौर वर्ष 365.2422 दिन का होता है जबकि चंद्र वर्ष 354.327 दिन का होता है। इस तरह दोनों के कैलेंडर वर्ष में 10.87 दिन का फ़र्क़ आ जाता है और तीन वर्ष में यह अंतर 1 माह का हो जाता है। इस असमानता को दूर करने के लिए अधिक मास एवं क्षय मास का नियम बनाया गया है।
अधिक मास क्यों व कब
यह एक खगोलशास्त्रीय तथ्य है कि सूर्य 30.44 दिन में एक राशि को पार कर लेता है और यही सूर्य का सौर महीना है। ऐसे बारह महीनों का समय जो 365.25 दिन का है, एक सौर वर्ष कहलाता है। चंद्रमा का महीना 29.53 दिनों का होता है जिससे चंद्र वर्ष में 354.36 दिन ही होते हैं। यह अंतर 32.5 माह के बाद यह एक चंद्र माह के बराबर हो जाता है। इस समय को समायोजित करने के लिए हर तीसरे वर्ष एक अधिक मास होता है। एक अमावस्या से दूसरी अमावस्या के बीच कम से कम एक बार सूर्य की संक्रांति होती है। यह प्राकृतिक नियम है। जब दो अमावस्या के बीच कोई संक्रांति नहीं होती तो वह माह बढ़ा हुआ या अधिक मास होता है। संक्रांति वाला माह शुद्ध माह, संक्रांति रहित माह अधिक माह और दो अमावस्या के बीच दो संक्रांति हो जायें तो क्षय माह होता है। क्षय मास कभी कभी होता है।
गणना का आधार
काल निर्धारण में ‘वर्ष’ की गणना का मुख्य आधार सूर्य के चारों ओर पृथ्वी का भ्रमण है। इससे ऋतुएँ बनती हैं। अत: सौर वर्ष का स्पष्टत: ऋतुओं के साथ सम्बन्ध है। एक वर्ष में प्राय: 365.256363 दिन होते हैं। सौर मान के अनुसार एक सौर संक्रांन्ति से दूसरी सौर संक्रांन्ति तक का समय एक सौर मास होता है किन्तु भारतीय पद्धति के अनुसार 'चन्द्रमा' से 'मास' गणना को निर्धारित किया जाता है, जिसका मान एक अमावस्या से दूसरी अमावस्या तक (अमान्त मान के अनुसार) अथवा एक पूर्णमासी से दूसरी पूर्णमासी तक (पूर्णिमान्त मान के अनुसार) होता है। सावन के दिनों में चन्द्रमान की अवधि लगभग 29.5306 दिन होती है। अत: बारह चन्द्र मास वाले चन्द्रवर्ष में प्राय: 354.3672 दिन होते हैं। इस प्रकार चन्द्र वर्ष निरयण सौर वर्ष से लगभग 11 दिन कम होता है किन्तु वर्ष की गणना सौर वर्ष से ही की जाती है। भारतीय आचार्यों ने खगोलीय वैज्ञानिक विधि से चन्द्र एवं सौर मानकों में सामंजस्य करने के लिए 'अधिमास' या 'मलमास' जोड़ने की विधि का विकास किया, जिससे हमारे व्रत, पर्वोत्सव आदि का सम्बंध ऋतुओं और चन्द्र तिथियों से ही बना रहा। इस पद्धति का प्रचलन वैदिक काल से ही प्राप्त होता है। वहां बारह मासों के साथ तेरहवें मास की कल्पना स्पष्टतया प्राप्त होती है[1]। उस समय में भी सौर और मास चन्द्र मास थे। वर्ष गणना का सहज साधन ऋतुओं का एक परिभ्रमणकाल और मास गणना का सहज साधन चन्द्रमा के दो बार पूर्ण होने की अवधि है। यही चन्द्र सौर प्रणाली विकसित रूप में हमारे यहाँ के परम्परागत पंचांगों में मिलती है।
ऋतुओं के एक चक्र काल अर्थात एक वर्ष में चार बिन्दु खगोलीय दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण हैं जो क्रमश: सायन मेष, कर्क, तुला और मकर सौर संक्रांति हैं। इनमें से मेष एवं तुला संक्रमण को अर्थात 21 मार्च और 22 सितंबर को दिन और रात्रि बराबर होते हैं जबकि कर्क संक्रमण ( 21 जून) को सबसे बड़ा दिन और सबसे छोटी रात और मकर संक्रमण ( 22 दिसम्बर) को सबसे छोटा दिन और सबसे बड़ी रात होती है। इन कालों में जैविक प्रक्रिया में अत्यधिक सक्रियता एवं परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं। अत: इन बिन्दुओं के आसन्न काल में शक्ति, ऊर्जा, मनस्विता इत्यादि की प्राप्ति हेतु शक्तिपूजन उपयुक्त प्रतीत होता हैं।
बसन्त ऋतु को वेदों में संवत्सर का मुख कहा गया है[2]। इसलिए बसन्त ऋतु में वर्षारम्भ होना चाहिए। हमारे व्रत, पर्वोत्सव का निर्धारण चन्द्रमान के अनुसार ही होता है, बसन्त ऋतु और मेष संक्रमण का सम्बन्ध चन्द्रमासों में ‘चैत्र’ मास है। 'चैत्र' मास से ही चन्द्रमासों की गणना की जाती है अत: 'चैत्र मास' से ही वर्षारम्भ माना जाता है। वैदिक काल में भी वर्षारम्भ चैत्र मास अथवा वेदोक्त मधुमास में मनाये जाने का प्रमाण मिलता है। चन्द्रमास का मुख्यमान अमान्त है इसीलिए 'शुक्ल प्रतिपदा' से ही वर्ष की प्रवृत्ति मानी गई है। इस प्रकार 'चैत्र शुक्ल प्रतिपदा' को चन्द्र सौर पद्धति के अनुसार कालगणना के अनुसार 'वर्षारम्भ' स्वीकृत किया गया है। भारतीय ज्योतिष सिद्धान्त में चन्द्र सौर पद्धति के कारण ‘चैत्र शुक्ल प्रतिपदा’ ही वर्षारम्भ के रूप में मानी जाती है। कलियुग सप्तर्षि-विक्रम-शक-गुप्त प्रभृति भारतीय संवत्सरों की चन्द्र-सौर गणना का प्रारम्भ बिन्दु भी उक्त काल ही है। इन संवत्सरों में विक्रम एवं शक काल का ही अधिक चलन है। विक्रम संवत् ‘मालव’ एवं कृत्’ नाम से भी कई स्थलों पर उल्लिखित है। बंगाल को छोड़कर सम्पूर्ण उत्तर भारत में इसका प्रचलन है। 'विक्रम संवत्' लोकप्रियता के कारण ‘संवत्’ नाम से भी प्रचलित है। ज्योतिष सिद्धान्त में खगोलीय गणना के लिए प्राय: शक काल का ही प्रयोग किया जाता है।
परम्परागत श्रुति है कि राजा शालिवाहन ने सन 78 ई. में शकों को परास्त कर विजय स्मृति के रूप में शक काल को प्रारम्भ किया था, कुछ विद्वान शकों के द्वारा ही शक संवत का प्रारम्भ मानते हैं।
अधिक मास में क्या करें
इस माह में व्रत, दान, पूजा, हवन, ध्यान करने से पाप कर्म समाप्त हो जाते हैं और किए गए पुण्यों का फल कई गुणा प्राप्त होता है। देवी भागवत पुराण के अनुसार मलमास में किए गये सभी शुभ कर्मो का अनंत गुना फल प्राप्त होता है। इस माह में भागवत कथा श्रवण की भी विशेष महत्ता है। पुरुषोत्तम मास में तीर्थ स्थलों पर स्नान का भी महत्व है।
पुरुषोत्तम मास कैसे हुआ
हमारे पंचांग में तिथि, वार, नक्षत्र एवं योग के अतिरिक्त सभी मास के कोई न कोई देवता या स्वामी हैं, परंतु मलमास या अधिक मास का कोई स्वामी नहीं होता, अत: इस माह में सभी प्रकार के मांगलिक कार्य, शुभ एवं पितृ कार्य वर्जित माने गए हैं।
पुराण में
अधिक मास स्वामी के ना होने पर विष्णुलोक पहुंचे और भगवान श्रीहरि से अनुरोध किया कि सभी माह अपने स्वामियों के आधिपत्य में हैं और उनसे प्राप्त अधिकारों के कारण वे स्वतंत्र एवं निर्भय रहते हैं। एक मैं ही भाग्यहीन हूँ जिसका कोई स्वामी नहीं है, अत: हे प्रभु मुझे इस पीड़ा से मुक्ति दिलाइए। अधिक मास की प्रार्थना को सुनकर श्री हरि ने कहा 'हे मलमास मेरे अंदर जितने भी सद्गुण हैं वह मैं तुम्हें प्रदान कर रहा हूं और मेरा विख्यात नाम 'पुरुषोत्तम' मैं तुम्हें दे रहा हूं और तुम्हारा मैं ही स्वामी हूं।' तभी से मलमास का नाम पुरुषोत्तम मास हो गया और भगवान श्री हरि की कृपा से ही इस मास में भगवान का कीर्तन, भजन, दान-पुण्य करने वाले मृत्यु के पश्चात श्री हरि धाम को प्राप्त होते हैं।
पूजन विधि
पवित्र स्थान पर अक्षत से अष्ट दल बनाकर जल का कलश स्थापित करना चाहिए। भगवान राधा-कृष्ण की प्रतिमा रखकर पोडरा विधि से पूजन करें और कथा श्रवण की जाए। संध्या समय दीपदान करना चाहिए। माह के अंत में धातु के पात्र में 30 की संख्या में मिष्ठान्न रखकर दान किया जाए।
पुरुषोत्तम मास में भक्त भाँति-भाँति का दान करके पुण्य फल प्राप्त करते हैं। मंदिरों में कथा-पुराण के आयोजन किए जाते हैं। दिवंगतों की शांति और कल्याण के लिए पूरे माह जल सेवा करने का संकल्प लिया जाता है। मिट्टी के कलश में जल भर कर दान किया जाता है। ख़रबूज़ा, आम, तरबूज़ सहित अन्य मौसमी फलों का दान करना चाहिए। माह में स्नान कर विधिपूर्वक पूजन-अर्चन कथा श्रवण करना चाहिए।