तुलसी

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तुलसी
जगत पादप
द्विपद नाम ऑसीमम सैक्टम

तुलसी शब्द का विश्लेषण करने पर ज्ञात होता है कि जिस वनस्पति की किसी से तुलना न की जा सके वह तुलसी है । तुलसी को हिन्दू धर्म में जगत-जननी का पद प्राप्त है । उसे वृन्दा भी कहा गया है । तुलसी के महात्म्यों व कारण शक्ति के सूक्ष्म प्रभावों से पुराणों के अध्याय भरे पड़े हैं । सर्व रोग निवारक तथा जीवन शक्ति संवर्धक इस औषधि को संभवतः प्रत्यक्ष देव माना जाना इसी तथ्य पर आधारित है कि ऐसी सस्ती, सुलभ, सुंदर, उपयोगी वनस्पति मनुष्य समुदाय के लिए कोई और नहीं है ।

वानस्पतिक परिचय -

तुलसी सदा हरित होती है । साधारणतः मार्च से जून तक इसे लगाते हैं । सितम्बर और अक्टूबर में वह फूलता है । सारा पौधा सुगंधित मंजरियों से लद जाता है । जाड़े के दिनों में इसके बीज पकते हैं । यह बारहों माह किसी न किसी रूप में प्राप्त किया जा सकता है । तुलसी की सामान्यतया निम्न प्रजातियाँ पाई जाती हैं ।

1 - ऑसीमम अमेरिकन (काली तुलसी) गम्भीरा या मामरी । 2 - ऑसीमम वेसिलिकम (मरुआ तुलसी) मुन्जरिकी या मुरसा । 3 - ऑसीमम वेसिलिकम मिनिमम । 4 - आसीमम ग्रेटिसिकम (राम तुलसी बन तुलसी) । 5 - ऑसीमम किलिमण्डचेरिकम (कर्पूर तुलसी) । 6 - ऑसीमम सैक्टम तथा 7 - ऑसीमम विरिडी । इनमें ऑसीमम सैक्टम को प्रधान या पवित्र तुलसी माना गया जाता है, इसकी भी दो प्रधान प्रजातियाँ हैं - श्री तुलसी जिसकी पत्तियाँ हरी होती हैं तथा कृष्णा तुलसी जिसकी पत्तियाँ निलाभ - कुछ बैंगनी रंग लिए होती हैं । श्री तुलसी के पत्र तथा शाखाएँ श्वेताभ होते हैं जबकि कृष्ण तुलसी के पत्रादि कृष्ण रंग के होते हैं । गुण, धर्म की दृष्टि से काली तुलसी को ही श्रेष्ठ माना गया है, परन्तु अधिकांश विद्वानों का मत है कि दोनों ही गुणों में समान हैं ।

श्री भाव मिश्र कहते हैं - 'श्यामा शुक्ला कृष्णा च तुलसी गुणैस्तुल्या प्रकीर्तित ।' तुलसी का गुल्म के समान क्षुप 1 से 3 फुट ऊँचा शाखायुक्त रोमश, बैंगनी आभा लिए होता है । पत्र 1 से 2 इंच लम्बे अण्डाकार या आयताकार होते हैं । प्रत्येक पत्र में एक प्रकार की तीव्र सुगंध होती है । पुष्प मंजरी अति कोमल एवं 8 इंच लम्बी और अनेक रंगी छटाओं से मण्डित होती है । इस पर बैंगनी या रक्त-सी आभा लिए बहुत छोटे पुष्प चक्रों में लगते हैं । पुष्पक प्रायः हृदयवत् होते हैं । बीज चपटे पीतवर्ण के छोटे काले चिह्नों से युक्त अण्डाकार होते हैं । पुष्प शीतकाल में आते हैं ।

संग्रह संरक्षण -

पत्र, मूल, बीज उपयोगी अंग हैं । इन्हें सुखाकर मुख बंद पात्रों में सूखे शीतल स्थानों पर रखा जाता है । इन्हें एक वर्ष तक प्रयोग में लाया जा सकता है । सर्वत्र एवं सर्वदा सुलभ होने से पत्रों का प्रयोग ताजी अवस्था में किया जाना ही श्रेष्ठ है । ऐसा शास्त्रीय मत है कि पत्तों को पूर्णिमा, अमावस्या, द्वादशी, सूर्य संक्रांति के दिन, मध्याह्न काल रात्रि दोनों संध्याओं के समय बिना नहाए-धोए न तोड़ा जाए । उपयुक्त समय पर तोड़ा जाना धार्मिक महत्त्व रखता है, जल में रखे जाने पर ताजा पत्र भी तीन रात्रि तक पवित्र रहता है ।

यह पौधा सामान्तया दो-तीन वर्षों तक जवान बना रहता है । इसके बाद इसकी वृद्धावस्था आ जाती है तो पत्ते कम और छोटे आते हैं । सूखी-सूखी डण्ठलें खड़ी दिखाई देती हैं । तब उसे हटाकर नया पौधा लगाने की आवश्यकता प्रतीत होती है ।

गुण-कर्म संबंधी विभिन्न मत -

हिन्दू धर्म संस्कृति के चिर पुरातन ग्रंथ वेदों में भी तुलसी के गुणों एवं उसकी उपयोगिता का वर्णन मिलता है । अथर्ववेद (1-24) में वर्णन मिलता है - सरुपकृत त्वयोषधेसा सरुपमिद कृधि, श्यामा सरुप करणी पृथिव्यां अत्यदभुता । इदम् सुप्रसाधय पुना रुपाणि कल्पय॥ अर्थात् - श्यामा तुलसी मानव के स्वरूप को बनाती है, शरीर के ऊपर के सफेद धब्बे अथवा अन्य प्रकार के त्वचा संबंधी रोगों को नश्ट करने वाली अत्युत्तम महौषधि है ।

महर्षि चरक तुलसी के गुणों का वर्णन करते हुए लिखते हैं - हिक्काकासविषश्वास पार्श्वशूलविनाशनः । पित्तकृत् कफवातघ्न्रः सुरसः पूतिगन्धहाः॥ तुलसी हिचकी, खाँसी, विष, श्वांस रोग और पार्श्व शूल को नष्ट करती है । यह पित्त कारक, कफ-वातनाशक तथा शरीर एवं भोज्य पदार्थों की दुर्गन्ध को दूर करती है । सूत्र स्थान में वे लिखते हैं - गौरवे शिरसः शूलेपीनसे ह्यहिफेनके । क्रिमिव्याधवपस्मारे घ्राणनाशे प्रेमहेके॥ (२/५) सिर का भारी होना, पीनस, माथे का दर्द, आधा शीशी, मिरगी, नासिका रोग, कृमि रोग तुलसी से दूर होते हैं । सुश्रुत महर्षि का मत भी इससे अलग नहीं है । वे लिखते हैं - कफानिलविषश्वासकास दौर्गन्धनाशनः । पित्तकृतकफवातघ्नः सुरसः समुदाहृतः॥ (सूत्र-४६)

तुलसी, कफ, वात, विष विकार, श्वांस-खाँसी और दुर्गन्ध नाशक है । पित्त को उत्पन्न करती है तथा कफ और वायु को विशेष रूप से नष्ट करती है । भाव प्रकाश में उद्धरण है - तुलसी पित्तकृद वात कृमिर्दोर्गन्धनाशिनी । पार्श्वशूलारतिस्वास-कास हिक्काविकारजित॥ तुलसी पित्तनाशक, वात-कृमि तथा दुर्गन्ध नाशक है । पसली का दर्द, अरुचि, खाँसी, श्वांस, हिचकी आदि विकारों को जीतने वाली है । आगे वे लिखते हैं - यह हृदय के लिए हितकर, उष्ण तथा अग्निदीपक है एवं कुष्ट-मूत्र विकार, रक्त विकार, पार्श्वशूल को नष्ट करने वाली है । श्वेत तथा कृष्णा तुलसी दोनों ही गुणों में समान हैं ।

निघण्टुकार के अनुसार तुलसी पत्र अथवा पत्र स्वरस उष्ण, कफ निस्सारक, शीतहर, स्वेदजनन, दीपन, कृमिघ्न, दुर्गन्ध नाशक व प्रतिदूषक होता है । इसके बीज मधुर, स्निग्ध, शीतल एवं मूत्रजनन होते हैं ।

लगभग इनसे मिलता-जुलता ही मत धन्वन्तरि निघण्टुकार का भी है । शास्र अभिमत है कि तुलस की जड़ विषम ज्वर को शांत करती है तथा बीज वीर्य को गाढ़ा बनाता है । शान्तिदायक होता है । सूखा पौधा समग्र रूप में चूर्ण रूप में लिए जाने पर यकृतोत्तेजक पाचक रस बढ़ाने का अद्वितीय गुण रखता है । वनौषधि चन्द्रोदय ग्रंथ के अनुसार आँतों के अन्दर तुलसी पत्र स्वरस का प्रभाव कृमिनाशक एवं वात शामक होता है । वमन बंद होता है और पुराना कब्ज दूर होता है । दाद पर इसका रस चुपड़ने से दाद मिटता है । वृणों को इसके स्वरस से मर्जित करने पर उनमें संक्रमण नहीं बढ़ता तथा वे जल्दी भर जाते हैं । इसके गर्भ निरोधक गुणों की चर्चा भी शास्रों में की गयी है । तुलसी पत्र के काढ़े की एक प्याली यदि प्रतिमास रजोदर्शन के बाद तीन दिन तक नियमित रूप से सेवन की जाए तो गर्भस्थापना नहीं होता ।

कुष्ठ का प्रभाव अगर त्वचा के अलावा मांस अस्थियों को भी प्रभावित कर चुका हो तो तुलसी के प्रयोग से उसका भी नाश होता है । एक विद्वान का मत है कि तुलसी में नर व मादा दो जातियाँ होती हैं । नर जाति पुरुष रोगों के लिए तथा मादा जाति स्त्री रोगों में काम में लायी जाती है । यह कहाँ तक सही है व कैसे इन्हें पहचाना जाए, यह शोध का विषय है ।

आचार्य प्रियव्रत शर्मा के अनुसार सभी प्रकार के कफ, वात विकारों में तुलसी उपयोगी है । स्थानीय लेप के रूप में व्रणों, शोथ, संधि पीड़ा, मोच आदि में इसका लेप करते हैं । अवसाद एवं लो ब्लड प्रेशर की स्थिति में इसे त्वचा पर मलने से तुरन्त स्नायु संस्थान सक्रिय होता है । शरीर के बाहरी कृमियों में भी इसका लेप करते हैं । उनके अनुसार यह अग्निमंदता, किसी भी प्रकार के उदरशूल तथा आँतों के कृमियों में उपयोगी है । बीज प्रवाहिका में देने पर तुरन्त लाभ करते हैं । यह हृदयोत्तेजक है तथा रक्त विकारों का शोधन करती है । खाँसी, दमा तथा इस कारण मांसपेशियों व रीड़ की हड्डी में जकड़न में इसका स्वरस बहुत उपयोगी है ।

आचार्य शर्मा के अनुसार मूत्रदाह व विसर्जन में कठिनाई तथा ब्लैडर की सूजन व पथरी में बीज चूर्ण तुरन्त लाभ करता है । कुष्ठ की यह सर्वश्रेष्ठ औषधि है । यह विषम ज्वर को मिटाती है । किसी भी प्रकार के ज्वर के चक्र को यह तुरंत तोड़ती है । राजयक्ष्मा में भी इसके प्रयोग सफल रहे हैं । जीवनी शक्ति बढ़ाकर यह जीवाणुओं को पलने नहीं देतीं । यह मलेरिया विरोधी है । क्षुप घर के आस-पास लगाने से मच्छर नहीं समीप आते, इसके स्वरस का लेप करने से वे काटते नहीं तथा मुख द्वारा ग्रहण किए जाने पर उन्हें सक्रिय संघटक नष्ट कर देते हैं । बीज रसायन भी हैं तथा दुर्बलता का नाश करते हैं ।

डॉ. खोरी के अनुसार श्वेत तुलसी उष्ण व पाचक है । यह बालकों के प्रतिश्याय तथा रोगों में प्रयुक्त होती हैं । काली तुलसी कफ निस्सारक एवं ज्वर नाशक है । सूखे पत्तों का चूर्ण पीनस (साइनोसाइटिस) के लिए प्रयुक्त होता है । तुलसी सिद्ध तेल कर्णशूल मिटाता है ।

तुलसी रस में मलेरिया ज्वर के कारण प्रोटोजोआ पेरेसाइट को तथा मच्छरों को नष्ट करने की अद्भुत क्षमता है । पहली बार सन् 1907 में इंग्लैण्ड में इम्पीरियल मेडीकल कान्फ्रेन्स में इस बात का रहस्योद्घाटन किया गया कि काली तुलसी से मलेरिया का उपद्रव बहुत कम हो जाता है । इसके बाद बहुत से अनुसंधान इस क्षेत्र में हुए हैं व बड़े सफल रहे हैं । सभी में पाया गया कि तुलसी पत्रों से स्पर्श की वायु में ऐसे गुण होते हैं कि मच्छर उस पूरे परिसर के आस-पास फटकते भी नहीं ।

वैज्ञानिकों ने तुलसी के अन्दर एक ऐसा उड़नशील तेल पाया है जो हवा में मिलकर ज्वर उत्पन्न करने वाले सब कीटाणुओं को नष्ट कर देता है । सर्दी से चढ़ने वाले ज्वर में विशेषकर ट्रॉपिकल क्षेत्रों के ज्वर में यह पाया गया है कि इसके सेवन से सर्दी छाती में उतरने नहीं पाती तथा छाती में बैठा कफ श्वांस मार्ग से बाहर निकल जाता है । स्वरस में इतनी तीव्र सामर्थ्य है कि इससे कृमि तुरंत मर जाते हैं और दस्त साफ होता है । वमन का तुरन्त शमन होता है ।

डॉ. नादकर्णी के अनुसार तुलसी में कुछ ऐसे गुण हैं, जिनके कारण यह शरीर की विद्युतीय संरचना को सीधे प्रभावित करती है । तुलसी की लकड़ी से बने दानों की माला गले में पहनने से शरीर में विद्युत शक्ति का प्रभाव बढ़ता है तथा जीव कोशों द्वारा उनको धारण करने की सामर्थ्य में वृद्धि होती है । बहुत से रोग इस प्रभाव से आक्रमण करने के पूर्व ही समाप्त हो जाते हैं तथा व्यक्ति की जीवनावधि बढ़ती है । डॉ. नादकर्णी के अनुसार कमजोर व्यक्ति यदि स्वल्प मात्रा में भी तुलसी की जड़ का चूर्ण प्रातः सायं घी के साथ लें तो उनका ओजस् व बल बढ़ता है ।

डॉ. खगेन्द्र नाथ वसु ने भी तुलसी की विद्युतीय सामर्थ्य का लोहा माना है । वे लिखते हैं कि तुलसी का थोड़ा-सा भी शरीर से सम्पर्क संक्रामक व्याधियों को निरस्त कर देता है । तुलसी गुल्म के नीचे की मिट्टी को खाकर और उसे शरीर से लगाकर विश्लेषण तो वैज्ञानिक शोध प्रक्रिया द्वारा ही संभव है । संभतः इसी कारण मंदिर, मस्जिदों तथा गिरिजाघरों के आस-पास तुलसी के पौधे लगाए जाने का प्रावधान रहा हो ।

होम्योपैथिक मत -

भारतीय व यूरोपीय दोनों ही होम्योपैथ सिद्धान्त तुलसी को अमृतोपम मानते हैं । बंगाल के डॉ. विश्वास कहते हैं कि तुलसी अनेकानेक लक्षणों में लाभकारी औषधि है । सिर में दर्द, स्मरण शक्ति में कमी, बच्चों का चिड़चिड़ापन, आँखों की लाली, एलर्जी के कारण छीकें आना, नाक बहना, मुँह में छाले, गले में दर्द, पेशाब में जलन, दमा तथा जीर्ण ज्वर जैसे बहुत प्रकार के लक्षणों में तुलसी को होम्योपैथी में स्थान दिया गया है । इसकी 2, 3, 6, 30 तथा 200 वीं पोटेन्सी में प्रयोग कर इन सभी रोगों में लाभ पाए हैं ।

ब्राजील में तुलसी की आँसीमम कैनन नामक जाति पायी जाती है । डॉ. भरे व बोरिक यह मानते हैं कि यह प्रजनन तथा मूत्रवाही संस्थान रोगों की श्रेष्ठ औषधि है ।

यूनानी मत -

इसके अनुसार तुलसी हृदयोत्तेजक, बलवर्धक तथा यकृत आमाशय बलदायक है । यह हृदय को बल देनेवाली होने के कारण अनेक प्रकार के शोथ-विकारजन्य रोगों में आराम देती है । यह शिरःशूल की श्रेष्ठ औषधि है । पत्ते सूँघने से मूर्छा दूर होती है तथा चबाने से दुर्गन्ध । रस कान में टपकाने से कर्णशूल शान्त होता है ।

रासायनिक संगठन -

तुलसी में अनेकों जैव सक्रिय रसायन पाए गए हैं, जिनमें ट्रैनिन, सैवोनिन, ग्लाइकोसाइड और एल्केलाइड्स प्रमुख हैं । अभी भी पूरी तरह से इनका विश्लेषण नहीं हो पाया है ।

प्रमुख सक्रिय तत्व हैं एक प्रकार का पीला उड़नशील तेल जिसकी मात्रा संगठन स्थान व समय के अनुसार बदलते रहते हैं । 0.1 से 0.3 प्रतिशत तक तेल पाया जाना सामान्य बात है । 'वैल्थ ऑफ इण्डिया' के अनुसार इस तेल में लगभग 71 प्रतिशत यूजीनॉल, बीस प्रतिशत यूजीनॉल मिथाइल ईथर तथा तीन प्रतिशत कार्वाकोल होता है । श्री तुलसी में श्यामा की अपेक्षा कुछ अधिक तेल होता है तथा इस तेल का सापेक्षिक घनत्व भी कुछ अधिक होता है । तेल के अतिरिक्त पत्रों में लगभग 83 मिलीग्राम प्रतिशत विटामिन सी एवं 2.5 मिलीग्राम प्रतिशत कैरीटीन होता है ।

तुलसी बीजों में हरे पीले रंग का तेल लगभग 17.8 प्रतिशत की मात्रा में पाया जाता है । इसके घटक हैं कुछ सीटोस्टेरॉल, अनेकों वसा अम्ल मुख्यतः पामिटिक, स्टीयरिक, ओलिक, लिनोलक और लिनोलिक अम्ल । तेल के अलावा बीजों में श्लेष्मक प्रचुर मात्रा में होता है । इस म्युसिलेज के प्रमुख घटक हैं-पेन्टोस, हेक्जा यूरोनिक अम्ल और राख । राख लगभग 0.2 प्रतिशत होती है ।

आधुनिक मत एवं वैज्ञानिक प्रयोगों के निष्कर्ष -

इण्डियन ड्रग्स पत्रिका (अगस्त 1977) के अनुसार तुलसी में विद्यमान रसायन वस्तुतः उतने ही गुणकारी हैं, जितना वर्णन शास्रों में किया गया है । यह कीटनाशक है, कीट प्रतिकारक तथा प्रचण्ड जीवाणुनाशक है । विशेषकर एनांफिलिस जाति के मच्छरों के विरुद्ध इसका कीटनाशी प्रभाव उल्लेखनीय है । डॉ. पुष्पगंधन एवं सोबती ने अपने खोजपूर्ण लेख में बड़े विस्तार से विश्व में चल रहे प्रयासों की जानकारी दी है ।

'एण्टीवायटिक्स एण्ड कीमोथेरेपी' पत्रिका के अनुसार तुलसी का ईथर निष्कर्ष टी.वी. के जीवाणु माइक्रोवैक्टीरियम ट्यूवर-कुलोसिस का बढ़ना रोक देता है । सभी आधुनिकतम औषधियों की तुलना में यह निष्कर्ष अधिक सान्द्रता में श्रेष्ठ ही बैठता है । श्री रामास्वामी एवं सिरसी द्वारा दिए गए शोध परिणामों (द इण्डियन जनरल ऑफ फार्मेसी मई-1967) के अनुसार तुलसी की टी.वी. नाशक क्षमता विलक्षण है इस जीवाणु के 'ह्यूमन स्ट्रेन की वृद्धि' को भी यह औषधि रोकती है ।

'वेल्थ ऑफ इण्डिया' के अनुसार तुलसी का स्वरस तथा निष्कर्ष कई अन्य जीवाणुओं के विरुद्ध भी सक्रिय पाया गया है । इनमें प्रमुख हैं - स्टेफिलोकोकस आंरियस, साल्मोनेला टाइफोसा और एक्केरेशिया कोलाई । इसकी जीवाणु नाशी क्षमता कार्बोलिक अम्ल से 6 गुना अधिक है । नवीनतम शोधों में तुलसी की जीवाणुनाशी सक्रियता अन्यान्य जीवाणुओं के विरुद्ध भी सिद्ध की गई है । डॉ. कौल एवं डॉ. निगम (जनरल ऑफ रिसर्च इन इण्डियन मेडीसिन योगा एण्ड होम्योपैथी-12/1977) के अनुसार तुलसी का उत्पत तेल कल्वेसिला न्यूमोंनी, प्रोंटिस बलेगरिस केन्डीडां एल्बीकेन्स जैसे घातक रोगाणुओं के विरुद्ध भी सक्रिय पाया गया है ।

डॉ. भाट एवं बोरकर के शोध निष्कर्षों के अनुसार (जे०एस०आई०आर०) तुलसी के बीजों में एण्टोकोएगुलेस संघटक होता है, जो स्टेफिलोकोएगुलेस के रक्त में प्रभाव को निरस्त करता है । इनके अतिरिक्त तुलसी के मधुमेह प्रतिरोधी, गर्भ निरोध तथा ज्वरनाशी प्रभावों पर भी विस्तार से वैज्ञानिक अध्ययन चल रहा है । संभावना है कि शास्रोक्त सभी प्रभावों को अगले दिनों प्रयोगशाला में सिद्ध किया जा सकेगा ।

तुलसी आध्यात्मिक पृष्ठभूमि -

तुलसी को दैवी गुणों से अभिपूरित मानते हुए इसके विषय में अध्यात्म ग्रंथों में काफी कुछ लिखा गया है । इसे संस्कृत में 'हरिप्रिया' कहते हैं । इस औषधि की उत्पत्ति से भगवान् विष्णु का मनः संताप दूर हुआ इसी कारण यह नाम इसे दिया गया है । ऐसा विश्वास है कि तुलसी की जड़ में सभी तीर्थ मध्य में सभी देवि-देवियाँ और ऊपरी शाखाओं में सभी वेद स्थित हैं । इस पौधे की पूजा विशेष कर स्त्रियाँ करती हैं । वैसे वर्ष भर तुलसी के थाँवले का पूजन होता है, परन्तु विशेष रूप से कार्तिक मास में इसे पूजते हैं । ऐसा कहा जाता है, जिनके मृत शरीर का दहन तुलसी की लकड़ी की अग्नि से क्रिया जाता है, वे मोक्ष को प्राप्त होते हैं-उनका पुनर्जन्म नहीं होता ।

पद्म पुराण में लिखा है कि जहाँ तुलसी का एक भी पौधा होता है । वहाँ ब्रह्मा, विष्णु, शंकर भी निवास करते हैं । आगे वर्णन आता है कि तुलसी की सेवा करने से महापातक भी उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं, जैसे सूर्य के उदय होने से अंधकार नष्ट हो जाता है । कहते हैं कि जिस प्रसाद में तुलसी नहीं होता उसे भगवान स्वीकार नहीं करते ।

वनस्पति को प्रत्यक्ष देव मानने और घर-घर में उसे लगाने, पूजा करने के पीछे संभवतः यही कारण है कि यह सर्व दोष निवारक औषधि सर्व सुलभ तथा सर्वोपयोगी है । वातावरण में पवित्रता, प्रदूषण का शमन, घर परिवार में आरोग्य की जड़ें मजबूत करने, श्रद्धा तत्व को जीवित करने जैसे अनेकों लाभ इसके हैं । तुलसी की सूक्ष्म व कारण शक्ति अद्वितीय है । यह आत्मोन्नति का पथ प्रशस्त करती है तथा गुणों की दृष्टि से संजीवनी बूटी है । तुलसी की आराधना करते हुए ग्रंथ लिखते हैं ।

महाप्रसाद जननी सर्व सौभाग्य वर्धिनी । आध्ाव्याधि हरिर्नित्यं तुलेसित्व नमोस्तुते॥ हे तुलसी! आप सम्पूर्ण सौभाग्यों को बढ़ाने वाली हैं, सदा आधि-व्याधि को मिटाती हैं, आपको नमस्कार है । अकाल मृत्यु हरण सर्व व्याधि विनाशनम्॥ तुलसी को अकाल मृत्यु हरण करने वाली और सम्पूर्ण रोगों को दूर करने वाली माना गया है ।

रोपनात् पालनान् सेकान् दर्शनात्स्पर्शनान्नृणाम् । तुलसी दह्यते पाप वाढुमतः काय सञ्चितम्॥ तुलसी को लगाने से, पालने से, सींचने से, दर्शन करने से, स्पर्श करने से, मनुष्यों के मन, वचन और काया से संचित पाप जल जाते हैं । वायु पुराण में तुलसी पत्र तोड़ने की कुछ नियम मर्यादाएँ बताते हुए लिखा है - अस्नात्वा तुलसीं छित्वा यः पूजा कुरुते नरः । सोऽपराधी भवेत् सत्यं तत् सर्वनिष्फलं भवेत्॥ अर्थात् - बिना स्नान किए तुलसी को तोड़कर जो मनुष्य पूजा करता है, वह अपराधी है । उसकी की हुई पूजा निष्फल जाती है, इसमें कोई संशय नहीं ।

व्यावहारिक प्रयोग -

जड़, पत्र, बीज व पंचांग प्रयुक्त करते हैं ।

मात्रा - स्वरस- 10 से 20 ग्राम । बीज चूर्ण- 1 से 2 ग्राम । क्वाथ-1 से 2 औंस ।

(1) खाँसी अथवा गला बैठने पर तुलसी की जड़ सुपारी की तरह चूसी जाती है । काली तुलसी का स्वरस लगभग डेढ़ चम्मच काली मिर्च के साथ देने से खाँसी का वेग एकदम शान्त होता है । फेफड़ों में खरखराहट की आवाज आने व खाँसी होने पर तुलसी की सूखी पत्तियाँ 4 ग्राम मिश्री के साथ देते हैं । हिचकी एवं श्वांस रोगों में तुलसी पत्र स्वरस 10 ग्राम शहद के साथ (5 ग्राम) देते हैं । श्वांस रोगों में तुलसी के पत्ते काले नमक के साथ सुपारी की तरह मुँह में रखने से आराम मिलता है । जुकाम में तुलसी का पंचांग व अदरक समान भाग लेकर क्वाथ बनाते हैं । इसे दिन में तीन बार लेते हैं ।

(2) ज्वर यदि विषम प्रकार का हो तो तुलसी पत्र का क्वाथ 3-3 घंटे पश्चात सेवन करने का विधान है । अथवा 3 ग्राम स्वरस मधु के साथ 3-3 घंटे में लें । हल्के ज्वर में कब्ज भी साथ हो तो काली तुलसी का स्वरस (10 ग्राम) एवं गौ घृत (10 ग्राम) दोनों को एक कटोरी में गुनगुना करके इस पूरी मात्रा को दिन में 2 या 3 बार लेने से कब्ज भी मिटता है, ज्वर भी । तुलसी की जड़ का काढ़ा भी आधे औंस की मात्रा में दो बार लेने से ज्वर में लाभ पहुँचाता है । एक सामान्य नियम सभी प्रकार के ज्वरों के लिए यह है कि बीस तुलसी दल एवं दस काली मिर्च मिलाकर क्वाथ पिलाने से तुरन्त ज्वर उतर जाता है । मोतीझरा (टायफाइड) में 10 तुलसी पत्र 1 माशा जावित्री के साथ पानी में पीसकर शहद के साथ दिन में चार बार देते हैं ।

(3) वमन की स्थिति में तुलसी पत्र स्वरस मधु के साथ प्रातःकाल व जब आवश्यकता हो पिलाते हैं । पाचन शक्ति बढ़ाने के लिए, अपच रोगों के लिए तथा बालकों के यकृत प्लीहा संबंधी रोगों के लिए तुलसी के पत्रों का फाण्ट पिलाते हैं । छोटी इलायची, अदरक का रस व तुलसी के पत्र का स्वरस मिलाकर देने पर उल्टी की स्थिति को शान्त करते हैं । दस्त लगने पर तुलसी पत्र भुने जीरे के साथ मिलाकर (10 तुलसीदल+1 माशा जीरा) शहद के साथ दिन में तीन बार चाटने से लाभ मिलता है । अपच में मंजरी को काले नमक के साथ देते हैं । बवासीर रोग में तुलसी पत्र स्वरस मुँह से लेने पर तथा स्थानीय लेप रूप में तुरन्त लाभ करता है ।

बालकों के संक्रामक अतिसार रोगों में तुलसी के बीज पीसकर गौदुग्ध में मिलाकर पीने से लाभ होता है । प्रवाहिका में मूत्र स्वरस 10 ग्राम प्रातः लेने पर रोग आगे नहीं बढ़ता । कृमि रोगों में तुलसी के पत्रों का फाण्ट सेवन करने से कृमिजन्य सभी उपद्रव शान्त हो जाते हैं । उदर शूल में तुलसी दलों को मिश्री के साथ देते हैं तथा संग्रहणी में बीज चूर्ण 3 ग्राम सुबह-शाम मिश्री के साथ । अर्श में इसी चूर्ण को दही के साथ भी दिया जाता है ।

(4) कुष्ठ रोग में तुलसी पत्र स्वरस प्रतिदिन प्रातः पीने से लाभ होता है । दाद, छाज व खाज में तुलसी पंचांग नींबू के रस में मिलाकर लेप करते हैं । उठते हुए फोड़ों में तुलसी के बीज एक माशा तथा दो गुलाब के फूल एक साथ पीसकर ठण्डाई बनाकर पीते हैं । पित्ती निकलने पर मंजरी व पुनर्नवा की पत्ती समान भाग लेकर क्वाथ बनाकर पिएँ । चेहरे के मुँहासों में तुलसी पत्र एवं संतरे का रस मिलाकर रात्रि को चेहरा धोकर अच्छी तरह से लेप करते हैं । व्रणों को शीघ्र भरने तथा संक्रमण ग्रस्त जख्मों को धोने के लिए तुलसी के पत्तों का क्वाथ बनाकर उसका ठण्डा लेप करते हैं । रक्त विकारों में तुलसी व गिलोय का तीन-तीन माशे की मात्रा में क्वाथ बनाकर दो बार मिश्री के साथ लेते हैं ।

(5) आधा शीशी के दर्द में तुलसी की छाया में सुखाई मंजरी (2 ग्राम) शहद के साथ दी जाती है । मेधावर्धन हेतु तुलसी के पाँच पत्ते जल के साथ प्रतिदिन प्रातः निगलना चाहिए । असाध्य शिरोशूल में तुलसी पत्र रस कपूर मिलाकर सिर पर लेप करते हैं, तुरन्त आराम मिलता है । संधिशोध में अथवा गठिया के दर्द में तुलसी का पंचांगचूर्ण चार माशे गोदुग्ध के साथ प्रातः सायं लेते हैं । सियाटिका रोग में तुलसी पत्र क्वाथ से रोग ग्रस्त वात नाड़ी का स्वेदन करते हैं ।

(6) मूत्रकृच्छ (डिसयूरिया-पेशाब में जलन, कठिनाई) में तुलसी बीज 6 ग्राम रात्रि 150 ग्राम जल में भिगोकर इस जल का प्रातः प्रयोग करते हैं । तुलसी स्वरस को मिश्री के साथ सुबह-शाम लेने से भी जलन में आराम मिलता है । धातु दौर्बल्य में तुलसी के बीज एक माशा, गाय के दूध के साथ प्रातः एवं रात्रि को देते हैं । ऐसा अनुभव है कि नपुसंकता में तुलसी बीज चूर्ण अथवा मूल सम भाग में पुराने गुड़ के साथ मिलाने पर तथा नित्य डेढ़ से तीन ग्राम की मात्रा में गाय के दूध के साथ 5-6 सप्ताह तक लेने से लाभ होता है । प्रदर रोग में अशोक पत्र के स्वरस के साथ मासिक धर्म की पीड़ा में बार-बार देने से लाभ होता है ।

(7) विविध-विभिन्न प्रकार अर्बुदों में (कैंसर) तुलसी के प्रयोग किए गए हैं । 25 या इससे अधिक ताजे पत्ते पीसकर नित्य पिलाने पर उनकी वृद्धि की गति रुकती है । इस कथन की सत्यता की परीक्षा हेतु शोध अनिवार्य है ।

तुलसी के प्रत्येक हिस्से को सर्प विष में उपयोगी पाया गया है । सर्पदंश से पीड़ित व्यक्ति को यदि समय पर तुलसी का सेवन कराया जाए तो उसकी जान बच सकती है । जिस स्थान पर काटा हो उस पर तुलसी की जड़ को मक्खन या घी में घिसकर उस पर लेप कर देना चाहिए जैसे-जैसे जहर खिंचता चला जाता है इस लेप का रंग सफेद से काला हो जाता है । काली परत को हटाकर फिर ताजा लेप कर देना चाहिए ।

बिच्छूदंश में तुलसी स्वरस सिर की तरफ से पैर की तरफ मलने से तथा तुलसी पत्र को चौगुने जल में घोंटकर पाँच-पाँच मिनट में पिलाने से पीड़ा शान्त होती है । तुलसी पत्रों को पीसकर चेहरे पर उबटन करने से चेहरे की आभा बढ़ती है । मुख रोगों व छालों में तुलसी क्वाथ से कुल्ला करें एवं दँतशूल में तुलसी की जड़ का क्वाथ बनाकर उसका कुल्ला करें ।

तुलसी एक प्रकार से सारे शरीर का शोधन करने वाली जीवन शक्ति संवर्धक औषधि है । वातावरण का भी शोधन करती है तथा पर्यावरण संतुलन बनाती है । औषधि के विषय में जितना लिखा जाए कम है ।


  • एक छोटा पौधा जिसे वैष्णव धर्मावलंबी अत्यंत पवित्र मानते और पूजा में इसकी पत्तियों का उपयोग करते हैं।
  • आंगन में इसका पौधा लगाया जाता है।
  • प्रात:काल इसमें जल चढ़ाते और सायं काल इसके नीचे दिया जलाते हैं।
  • तुलसी के संबंध में पुराणों में एक कथा मिलती है।
  • तुलसी का एक नाम वृन्दा है।
  • वह अपने पतिव्रत धर्म के कारण विष्णु के लिए भी वंदनीय थी।
  • इसी वृन्दा के नाम पर श्रीकृष्ण की लीलाभूमि का नाम वृन्दावन पड़ा।
  • कार्तिक सुदी एकादशी के दिन 'तुलसी विवाह' मनाया जाता है।
  • कार्तिक मास में कई घरों में तुलसी की पूजा की जाती है।

धर्मध्वज की पत्नी का नाम माधवी तथा पुत्री का नाम तुलसी था। वह अतीव सुन्दरी थी। जन्म लेते ही वह नारीवत होकर बदरीनाथ में तपस्या करने लगी। ब्रह्मा ने दर्शन देकर उसे वर मांगने के लिए कहा। उसने ब्रह्मा को बताया कि वह पूर्वजन्म में श्रीकृष्ण की सखी थी। राधा ने उसे कृष्ण के साथ रतिकर्म में मग्न देखकर मृत्यृलोक जाने का शाप दिया था। कृष्ण की प्रेरणा से ही उसने ब्रह्मा की तपस्या की थी, अत: ब्रह्मा से उसने पुन: श्रीकृष्ण को पतिरूप में प्राप्त करने का वर मांगा। ब्रह्मा ने कहा -- तुम भी जातिस्मरा हो तथा सुदामा भी अभी जातिस्मर हुआ है, उसको पति के रूप में ग्रहण करो। नारायण के शाप अंश से तुम वृक्ष रूप ग्रहण करके वृंदावन में तुलसी अथवा वृंदावनी के नाम से विख्यात होगी। तुम्हारे बिना श्रीकृष्ण की कोई भी पूजा नहीं हो पायेगी। राधा को भी तुम प्रिय हो जाओगी। ब्रह्मा ने उसे षोडशाक्षर राधा मंत्र दिया।

महायोगी शंखचूड़ नामक राक्षस ने महर्षि जैवीषव्य से कृष्णमंत्र पाकर बदरीनाथ में प्रवेश किया। अनुपम सौंदर्यवती तुलसी से मिलने पर उसने बताया कि वह ब्रह्मा की आज्ञा से उससे विवाह करने के निमित्त वहाँ पहुँचा था। तुलसी ने उससे विवाह कर लिया। वे लोग दानवों के अधिपति के रूप में निवास करने लगे। जब शंखचूर्ण का उपद्रव बहुत बढ़ गया तो एक दिन हरि ने अपना शूल देकर शिव से कहा कि वे शंखचूड़ को मार डालें। शिव ने उस पर आक्रमण किया। सबने विचारा कि जब तक उसकी पत्नी पतिव्रता है तथा उसके पास नारायण का दिया हुआ कवच है, उसे मारना असम्भव है। अत: नारायण ने बूढ़े ब्राह्मण के रूप में जाकर उससे कवच की भिक्षा मांगी। शंखचूड़ का कवच पहनकर स्वयं उसका सा रूप बनाकर वे उसके घर के सम्मुख दुंदुभी बजाकर अपनी देवताओं पर विजय की घोषणा किया। प्रसन्नता के आवेग में तुलसी ने उनके साथ समागम किया। तदनन्तर विष्णु को पहचानकर पतिव्रत धर्म नष्ट करने के कारण उसने शाप दिया -- तुम पत्थर हो जाओ। तुमने देवताओं को प्रसन्न करने के लिए अपने भक्त के हनन के निमित्त उसकी पत्नी से छल किया है। शिव ने प्रकट होकर उसके क्रोध का शमन किया और कहा -- तुम्हारा यह शरीर गंडक नामक नदी तथा केश तुलसी नामक पवित्र वृक्ष होकर विष्णु के अंश से बने समुद्र के साथ बिहार करोगी। तुम्हारे शाप से विष्णु गंडकी नदी के किनारे पत्थर के होंगे और तुम तुलसी के रूप में उन पर चढ़ाई जाओगी। शंखचूड़ पूर्वजन्म में सुदामा था, तुम उसे भूलकर तथा इस शरीर को त्यागकर अब तुम लक्ष्मीवत विष्णु के साथ विहार करो। शंखचूड़ की पत्नी होने के कारण नदी के रूप में तुम्हें सदैव शंख का साथ मिलेगा। तुलसी समस्त लोकों में पवित्रतम वृक्ष के रूप में रहोगी। शिव अंतर्धान हो गये और वह शरीर का परित्याग करके बैकुंठ चली गई। कहते हैं, तभी से विष्णु के शालिग्राम रूप की तुलसी की पत्तियों से पूजा होने लगी।

श्रीकृष्ण ने कार्तिक की पूर्णिमा को तुलसी का पूजन करके गोलोक में रमा के साथ विहार किया, अत: वही तुलसी का जन्मदिन माना जाता है। प्रारम्भ में लक्ष्मी तथा गंगा ने तो उसे स्वीकार कर लिया था, किन्तु सरस्वती बहुत क्रुद्ध हुई। तुलसी वहाँ से अंतर्धान होकर वृंदावन में चली गई। नारायण पुन: उसे ढूँढकर लाये तथा सरस्वती से उसकी मित्रता करवा दी। सबके लिए आनंदायिनी होने के कारण वह नंदिनी भी कहलाती है।

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