आपस्तम्ब धर्मसूत्र

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आपस्तम्ब धर्मसूत्र / Apstamb Dharmsutra

आपस्तम्बीय कल्प के 30 प्रश्नों में से 28वें तथा 29वें प्रश्नों को आपस्तम्ब धर्मसूत्र नाम से अभिहित किया जाता है। ये दोनों प्रश्न 11–11 पटलों में विभक्त है, जिनमें क्रमशः 32 और 29 कण्डिकायें प्राप्त हैं।

रचियता

यही एक कल्पसूत्र है जिसकी श्रौत, गृह्य, धर्म और शुल्बसूत्र युक्त पूर्ण कल्प–परम्परा उपलब्ध है; पर उन सभी का कर्त्ता एक ही है या नहीं, यह कहना कठिन है। महामहोपाद्याय पाण्डुरंग वामन काणे के मतानुसार गृह्यसूत्र और धर्मसूत्र इन दोनों के प्रणेता एक ही हैं। स्मृतिचन्द्रिका इन दोनों को ही एक ग्रन्थकार की कृति मानती है। ब्यूह्लर तथा फूय्हरर् को भी इस विषय में कोई शंका नहीं है।<balloon title="एस. बी. ई. भाग 2, भूमिका पृ. 13 15" style=color:blue>*</balloon> किन्तु ओल्डेनबर्ग के अनुसार आपस्तम्ब श्रौतसूत्र तथा आपस्तम्ब धर्मसूत्र के रचियता भिन्न–भिन्न व्यक्ति हैं।<balloon title="एस. बी. ई. भाग 30, भूमिका पृ. 32" style=color:blue>*</balloon> बौधायन धर्मसूत्र के कई अंशों का आपस्तम्ब धर्मसूत्र से सादृश्य हैं किन्तु यह कहना कठिन है कि किसने किसकी सामग्री ली है। महामहोपाद्याय काणे आपस्तम्ब धर्मसूत्र को बौधायन से परवर्ती मानते हैं। इस विषय में बनर्जी ने सुदीर्घ आलोचना की है। इससे ज्ञात होता है कि उन्होंने दोनों ग्रंथों की मन्त्र–सम्पत्ति की तुलनात्मक समीक्षा की है।

आपस्तम्ब धर्मसूत्र का सम्बन्ध दक्षिण भारत से प्रतीत होता है, क्योंकि चरण–व्यूहगत 'महार्णव' नामक रचना से उद्धृत पद्यों के अनुसार आपस्तम्ब शाखा नर्मदा के दक्षिण में प्रचलित थी।[1] स्वयं आपस्तम्ब ने धर्मसूत्रगत श्राद्ध के प्रकरण में ब्राह्मणों के हाथ में जल गिराने की प्रथा 'उत्तर के लोगों में' प्रचलित है, ऐसा कहकर दक्षिण भारतीय होने का परिचय दिया है। इस विषय में उल्लेखनीय तथ्य तो यह है कि आपस्तम्ब धर्मसूत्र में तैत्तिरीय आरण्यक के जिन मन्त्रों का निर्देश है, वे आन्ध्रपाठ से ही गृहीत हैं। इसी आधार पर ब्यूह्लर आपस्तम्ब को आन्ध्र–प्रदेशीय मानते हैं।<balloon title="एस. बी. ई. भाग 2, भूमिका" style=color:blue>*</balloon>

टीकाएँ

हरदत्त ने आपस्तम्ब धर्मसूत्र से सम्बन्धित दोनों प्रश्नों को 11–11 पटलों में विभक्त करके उज्जवलावृत्ति नाम्नी टीका का प्रणयन किया है। हरदत्त के अतिरिक्त एक और भाष्यकार का उल्लेख काणे ने किया है, वह है धूर्तस्वामी। शंकर ने भी आपस्तम्ब धर्मसूत्र के अध्यात्मविषयक दो पटलों पर भाष्य लिखा है।<balloon title="हिन्ट्री ऑफ धर्मशास्त्र, पृष्ठ 43 पर" style=color:blue>*</balloon> बम्बई संस्कृत सीरीज में ब्यूह्लर द्वारा हरदत्त की उज्जवला टीका के अंशों सहित तथा कुम्भकोणम् संस्करण में सम्पूर्ण हरदत्तीय टीका तथा ब्यूह्लरकृत भूमिका सहित आंग्ल अनुवाद 'सैक्रेड बुक ऑफ दि ईस्ट' (भाग–2) में प्रकाशित हुआ है।

भाषा एवं शैली

आपस्तम्ब धर्मसूत्र भाषा एवं शैली की दृष्टि से सभी धर्मसूत्रों से विलक्षण है। भाषा की दृष्टि से ब्यूह्लर ने इस सूत्र की भाषा से सम्बन्धित असंगतियों को चार वर्गों में रखा है।

  • प्राचीन वैदिक शब्दरूप जो अन्य वैदिक रचनाओं में समुपलब्ध है तथा जिनकी व्युत्पत्ति सादृश्य के आधार पर हुई।
  • प्राचीन व्याकरण रूप जो पाणिनि के व्याकरण की अपेक्षा शुद्ध है किन्तु अन्यत्र उपलब्ध नहीं होते।
  • ऐसे शब्द रूप जो पाणिनि और वैदिक व्याकरण के नियमों के विरूद्ध हैं।
  • वाक्य–संरचनागत असंगतियाँ।

आपस्तम्ब धर्मसूत्र में कुछ अप्रचलित शब्द प्राप्त होते हैं जैसे किः–

  • अननियोगव्युपतीद,
  • व्युपजाव,
  • ब्रह्महंसस्तुत,
  • पर्यान्त,
  • प्रशास्त,
  • अनात्युत,
  • ब्रह्मोज्झम,
  • श्वाविद,
  • ष्ठेवन,
  • आचार्यदारे।

इन अप्रचलित और अपाणिनीय प्रयोगों के कारण इस सूत्र के विषय में दो धारणायें विद्वानों के मध्य में दृष्टिगोचर होती हैं–

  1. आपस्तम्ब पाणिनि से अपरिचित थे, उनके समकालीन थे अथवा उनके पूर्ववर्ती थे।
  2. आपस्तम्ब धर्मसूत्र के मौलिक पाठ में और असंगतियाँ रही होंगी। महामहोपाद्याय काणे ने भी इससे सहमति व्यक्त की है।<balloon title="हिन्ट्री ऑफ धर्मशास्त्र, पृष्ठ 37" style=color:blue>*</balloon>

शैली की दृष्टि से यही कहा जा सकता है कि इस सूत्र में अधिकांश सूत्र गद्य में हैं किन्तु इसमें प्रायः पद्यों का प्रयोग भी समुपलब्ध है। इसमें प्राप्य सूत्र शिथिल तथा अस्पष्ट हैं तथा इनकी शैली ब्राह्मणों की शैली के समीपतर प्रतीत होती है।

समय

आपस्तम्ब धर्मसूत्र के समय विषय में ब्यूह्लर का कथन है कि इसका समय ईसा से 150–200 वर्ष या इससे भी पूर्व मानना उचित है, किन्तु महामहोपाद्याय काणे ने 700–300 ई. पू. के बीच का समय माना है।<balloon title="हिन्ट्री ऑफ धर्मशास्त्र, भाग 1. पृष्ठ 45" style=color:blue>*</balloon>

विषयवस्तु

आपस्तम्ब धर्मसूत्र के वर्ण्य विषयों का संक्षेपतः वर्णन इस प्रकार है–

प्रश्न–1

धर्म के स्त्रोत, चातुर्वण्य, उपनयन का वर्णानुसार समय–विवेचन, उपयुक्त समय पर उपनयन व्रत न करने पर प्रायश्चित्त, ब्रह्मचारी के संस्कार, 48, 36, 25 तथा 12 वर्षों का ब्रह्मचर्य, दण्ड, अजिन और मेखला आदि तथा भिक्षा के नियम, समिधानयन, ब्रह्मचारी के व्रत, स्नातक के धर्म, अनध्याय, स्वाध्याय की विधि, पञ्चमहायज्ञ, वर्णानुसार कुशलक्षेम पूछने के नियम, यज्ञोपवीत–धारण के अवसर, आचमन का काल तथा विधि, भक्ष्याभक्ष्य–विचार, आपत्काल के अतिरिक्त काल में ब्राह्मण के लिए वणिक–व्यापार का निषेध, पतनकारक तथा अशुचिकर कर्म, ब्रह्मविषयक अध्यात्म–चर्चा, परम पद की प्राप्ति में सहायक सत्य, शम, दम आदि का वर्णन; क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और स्त्री की हत्या का निराकरण, ब्राह्मण, आत्रेयी, ब्राह्मण स्त्री, गुरु तथा क्षत्रिय की हत्या से सम्बन्धित प्रायश्चित्त कृत्य, गुरुतल्पगमन, सूरापान तथा स्वर्णस्तेय के लिए प्रायश्चित्त कृत्य, पशु–पक्षियों की हत्या तथा अभर्त्सनीय की भर्त्सना, शूद्रा गमन, अभक्ष्य–भक्षण के प्रायश्चित्त, द्वादशरात्रि पर्यन्त सम्पन्न किए जाने वाले कृच्छ्र के नियम, पति, गुरु तथा माता के प्रति व्यवहार, परस्त्री–गमन के लिए प्रायश्चित्त, आत्मरक्षार्थ ब्राह्मण के लिए शस्त्रग्रहण वर्जना, अभिशस्त का प्रायश्चित्त, विविध स्नातकों के व्रत।

प्रश्न–2

पारिग्रहण के साथ गृहस्थ धर्म का प्रारम्भ, गृहस्थ के लिए भोजन और उपवास, स्त्री गमन आदि के नियम, विभिन्न वर्णों से सम्बन्धित कर्त्तव्य–अकर्त्तव्य, सिद्ध अन्न की बलि, अतिथि सत्कार, ब्राह्मण गुरु के अभाव में ब्राह्मण का क्षत्रिय या वैश्य गुरु से शिक्षा–ग्रहण, मधुपर्क के नियम, वैश्वदेव बलि, भृत्यों के प्रति उदार व्यवहार, ब्राह्मण आदि के विशिष्ट कर्म, युद्ध के नियम, राजपुरोहित के गुण, अपराध के अनुरूप दण्ड विधान, ब्राह्मण की हत्या एवं दासत्व का निषेध, मार्ग में चलने के नियम, धर्म और अधर्म के परिणाम स्वरूप उत्थान और पतन। धार्मिक कृत्यों में सुक्षम तथा सन्तानवती प्रथम पत्नी के रहते द्वितीय विवाह का निषेध, षड्विध विवाह, सवर्ण पत्नी के पुत्रों का पैतृक सम्पत्ति में अधिकार, पिता का निर्णय, सन्तान के व्यापार का निषेध, पिता के जीवित रहते पैतृक सम्पत्ति का सम–विभाजन, पागलों–नपुंसकों तथा पापियों को सम्पत्ति के अधिकार का निषेध, पुत्राभाव में सम्पत्ति का अधिकारी, ज्येष्ठ पुत्र को अधिक सम्पत्ति प्रदान करने की अवैदिकता। पति–पत्नी के बीच सम्पत्ति–विभाजन का निषेध। सम्बन्धियों तथा सगोत्रियों की मृत्यु पर अशौच–विचार। श्राद्ध में भक्ष्याभक्ष्य का विचार। श्राद्धभोजी ब्राह्मणों के लक्षण आश्रम–व्यवस्था, सन्यासी और वानप्रस्थ के नियम, नृप के कर्त्तव्य। राजधानी, राजप्रासाद तथा सभा की स्थिति, चोरों का प्रवासन, ब्राह्मण को द्रविण तथा भूदान; श्रोत्रिय स्त्रियों, सन्यासियों तथा विद्यार्थियों की कर–मुक्ति। परस्त्रीगमन के लिए विहित प्रायश्चित्त कृत्य, नरहत्या तथा अभिकुत्सन के लिए दण्ड का विधान, आचार–नियमों का उल्लंघन करने पर दण्ड, विवादों का निर्णय, संदिग्ध विवादों में अनुमान या दिव्य परीक्षा का प्रमाण। मिथ्या साक्ष्य का दण्ड, स्त्रियों तथा शूद्रों के ग्रहण करने योग्य धर्म। आपस्तम्ब धर्मसूत्र में एक ऐसा सूत्र है जो मीमांसा के विभिन्न सिद्धान्तों तथा पारिभाषिक शब्दों से ओतप्रोत है– 'यथा–श्रुतिर्हि बलीयस्यानुमानिकादाचारात्<balloon title="आपस्तम्ब धर्मसूत्र 1–1–4–8" style=color:blue>*</balloon> विरोधे त्वनपेक्ष्यं स्यादसति ह्यनुमानम्।'<balloon title="पूर्वमीमांसा 1–3–3" style=color:blue>*</balloon> अङ्गानां तु प्रधानैरव्यपदेश इति न्यायवित्समयः।[2] अथापि नित्यानुवादमविधिमाहुर्न्यायविदः,<balloon title="आपस्तम्ब धर्मसूत्र 2–6–14–23" style=color:blue>*</balloon> अर्थवादो वा विधिशेषत्वात् तस्मान्नित्यानुवादः।<balloon title="पू. मी. 6–7–3" style=color:blue>*</balloon> इससे यह स्पष्ट ही है कि आपस्तम्ब के समय में मीमांसा शास्त्र पूर्ण विकसित था।

सामाजिक अवस्था

आपस्तम्ब धर्मसूत्र की सामाजिक अवस्था अत्यन्त सरल तथा पश्चात् कालीन क्लिष्टताओं से रहित थी।<balloon title="आपस्तम्ब धर्मसूत्र 1–17–30" style=color:blue>*</balloon> आपस्तम्ब धर्मसूत्र में सूद लेने पर प्रायश्चित्त कृत्य का विधान किया गया है।<balloon title="आपस्तम्ब धर्मसूत्र 1–9–27–10" style=color:blue>*</balloon> कुसीदक के यहाँ भोजन करने का प्रतिषेध किया गया है।<balloon title="1–6–18–22" style=color:blue>*</balloon> इस सूत्र में पैशाच एवं प्राजापत्य विवाहों को उचित नहीं माना गया है।<balloon title="आपस्तम्ब धर्मसूत्र 2–5–11–17, 20, 2–5–12–1, 2" style=color:blue>*</balloon> झूठी सौगन्ध खाने वाले के निमित्त कठोर दण्ड का विधान किया गया है।<balloon title="आपस्तम्ब धर्मसूत्र 2–29" style=color:blue>*</balloon> इसमें अपराधों के लिए अर्थदण्ड की चर्चा नहीं की गई है, अपितु नरक तथा नारकीय प्रताड़नाओं पर अधिक बल दिया गया है।

वर्ण अवस्था

आपस्तम्ब धर्मसूत्र में धर्म की व्याख्या के अन्तर्गत प्रथम विवेच्य विषय वर्ण ही है। तुच्छ से तुच्छ कृत्यों में वर्ण के आधार पर भिन्नता सर्वत्र स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती है। यज्ञोपवीत का समय, अवस्था, मेखला, वस्त्र, दण्ड तथा भिक्षाचरण की विधि सभी के निमित्त वर्ण का विचार अनिवार्य है। उपनयन का विधान केवल तीन उच्च वर्णों के लिए किया गया है। शूद्र तथा दुष्टकर्म में निहित व्यक्ति के लिए उपनयन (वेदाध्ययन) का कोई विधान नहीं है।<balloon title="आपस्तम्ब धर्मसूत्र 1–1–6" style=color:blue>*</balloon> शूद्र के लिए केवल सेवाकर्म ही विहित है। उच्च वर्ण की सेवा करके ही वह पुण्यफल का भागीदार होता है।

आश्रम अवस्था

जिस प्रकार अच्छी प्रकार जोते हुए खेत में पौधों और वनस्पतियों के बीज अनेक प्रकार के फल उत्पन्न करते हैं, उसी प्रकार गर्भादान आदि संस्कारों से युक्त व्यक्ति भी उत्तम फल का भागीदार होता है।

ब्रह्मचर्य

आपस्तम्ब धर्मसूत्र के अनुसार ब्रह्मचारी के मुख्यतः तीन प्रकार के कृत्य हैं – गुरु को प्रसन्न करने वाले कृत्य, कल्याणकारी कृत्य तथा वेद का स्वाध्याय।<balloon title="आपस्तम्ब धर्मसूत्र 1–5–9" style=color:blue>*</balloon> समिदाधान तथा भिक्षाचरण भी ब्रह्चारी के लिए अत्यावश्यक हैं।

गृहस्थाश्रम

आपस्तम्ब धर्मसूत्र के अनुसार गृहस्थ के लिए अतिथि सत्कार नित्य किया जाने वाला एक प्राजापत्य यज्ञ है।<balloon title="आपस्तम्ब धर्मसूत्र 2–7–1" style=color:blue>*</balloon> बलिकर्म के पश्चात् गृहस्थ को सर्वप्रथम अतिथियों को, उसके पश्चात् बालकों, वृद्धों, रोगियों, सम्बन्धियों तथा गर्भवती स्त्रियों को भोजन कराना चाहिए। इसके अतिरिक्त वैश्वदेव–कर्म, पितृकर्म तथा श्राद्धकर्म भी गृहस्थ के लिए अनिवार्य है।

विवाह

आपस्तम्ब धर्मसूत्र में विवाह के षड्भेदों (ब्राह्म, आर्ष, दैव, गान्धर्व, आसुर और राक्षस) में से ब्राह्म, आर्ष तथा दैव विवाह को श्रेष्ठ माना गया है तथा राक्षस, आसुर तथा गन्धर्व विवाह को निन्दित कहा गया है। इसके अतिरिक्त गोत्र के विषय में उल्लिखित है कि अपने ही गोत्र के पुरुष के साथ पुत्री का विवाह नहीं करना चाहिए।[3] इस सूत्र में एकपत्नीत्व को प्रधानता दी गई है।[4]

सन्यास

आपस्तम्ब धर्मसूत्र में इस सूत्र के अनुसार सन्यासी को अग्नि, गृह तथा सभी प्रकार के सुखों का परित्याग करके अल्पभाषण करना चाहिए। इसके अतिरिक्त उसे उतना ही भिक्षाचरण करना चाहिए जिससे उसका जीवन निर्वाह सम्भव हो। सन्यासी को दूसरों के द्वारा परित्यक्त वस्त्रों का ही प्रयोग करना चाहिए।

वानप्रस्थ

आपस्तम्ब धर्मसूत्र में सन्यासी के लिए विहित नियमों का ही वानप्रस्थ में प्रवेश करने वाले व्यक्ति को निर्वाह करना चाहिए। सन्यासी भिक्षाचरण के द्वारा जीवन निर्वाह करता है लेकिन वानप्रस्थ को स्वयं गिरे हुए फल–पत्तों का भक्षण करते हुए जीवन निर्वाह करना चाहिए।

दण्ड विधान

आपस्तम्ब धर्मसूत्र में व्यभिचारी पुरुष की प्रजननेन्द्रिय को कटवा देने का विधान किया गया है।<balloon title="आपस्तम्ब धर्मसूत्र 2–16–19" style=color:blue>*</balloon> नरहत्या करने वाले व्यक्ति को अन्धा कर देना चाहिए।<balloon title="आपस्तम्ब धर्मसूत्र 2–27–17" style=color:blue>*</balloon> स्वर्ण चोरी करने वाले व्यक्ति को स्वयं अपना अपराध स्वीकार कर राजा से मृत्युदण्ड की प्रार्थना करनी चाहिए।

उत्तराधिकार

आपस्तम्ब धर्मसूत्र में इस सूत्र के अनुसार पिता को जीवित रहते ही अपने पुत्रों में अपनी सम्पत्ति का विभाजन कर देना चाहिए। नपुंसक, पागल और पातकी पुत्रों को किसी भी प्रकार का अंश नहीं देना चाहिए। पुत्र न होने पर दाय का भाग सपिण्ड को दिया जाना चाहिए। पुत्रहीन व्यक्ति की स्त्री सम्पत्ति की अधिकारणी नहीं होती है।

नैतिक दृष्टिकोण

गुरु की हत्या, गुरुपत्नी–गमन, सुवर्ण की चोरी और सुरापान आदि के लिए इस सूत्र में अत्यन्त भयावह प्रायश्चित्त कृत्यों का विधान किया गया है। प्रचलित आकार की अपेक्षा श्रुति को ही इसमें प्रामाणिक माना गया है।[5] आपस्तम्ब धर्मसूत्र गत प्रथम प्रश्न के आठवें पटल को 'अध्यात्म पटल' के नाम से अभिहित किया गया है। इसमें अभिव्यक्त विचार उपनिषदों से प्रभावित हैं। इसके अन्तर्गत योग पर विशेष बल दिया गया है। शंकर ने आपस्तम्ब धर्मसूत्र के अध्यात्म–विषयक दो पटलों पर भाष्य लिखा है।<balloon title="हिन्ट्री ऑफ धर्मशास्त्र – काणेकृत पृष्ठ 43" style=color:blue>*</balloon>

टीका-टिप्पणी

  1. 'नर्मदा दक्षिणे भागे आपस्तम्ब्याश्वलायनी। राणायणी पिप्पला च यज्ञकन्याविभागिनः।। माध्यन्दिनी शंखायनी कौथुमी शौनकी तथा।' चरणव्यूह–महार्णव
  2. आपस्तम्ब धर्मसूत्र 2–4 8–13 तथा पू. मी. 1–3–11, 14।
  3. आपस्तम्ब धर्मसूत्र – सगोत्राय दुहितरं न प्रयच्छेत् 2–11–15।
  4. आपस्तम्ब धर्मसूत्र – धर्म प्रजासम्पन्ने दारे नाऽन्यां कुर्वीत 2–11–12।
  5. श्रुतिर्हि बलीयस्यानुमानिकादाचारात् – आपस्तम्ब धर्मसूत्र 1–4–8।